Saturday, October 25, 2025

बरसाने की श्री लाड़ली जी महाराज मन्दिर का चमत्कारिक इतिहास ✍️आचार्य डॉ राधेश्याम द्विवेदी


मन्दिर श्री लाड़ली जी महाराज बरसाना, उत्तर प्रदेश के मथुरा शहर से 43 किमी. दूर भानुगढ़ ब्रह्मांचल पहाड़ी पर स्थित है। यह मंदिर न केवल एक आध्यात्मिक शरणस्थली है, बल्कि भगवान श्री कृष्ण और उनकी अल्हादिनी शक्ति श्री राधा रानी  के बीच शाश्वत प्रेम का भी प्रमाण है। इस मंदिर को बरसाना की लाडली मंदिर और श्री जी मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। यह श्री राधा रानी  के भक्तों का सबसे प्रिय मंदिर है, जो इस स्थान पर आकर खुद को बहुत धन्य महसूस करते हैं। 

प्राचीन नाम श्री वृषभानुपुर :- 

श्रीवृषभानु जी की राजधानी होने के कारण बरसाने का प्राचीन नाम श्री वृषभानुपुर था। वाराहपुराण एवं प‌द्मपुराण में ऐसी कथा आती है कि ब्रहमाजी ने तपस्या के बल पर श्रीकृष्ण से लीला- दर्शन का वरदान प्राप्त किया था। फल स्वरूप लीला दर्शनार्थ वे ब्रहमांचल के रूप में यहां स्थापित इस पर्वत को वृहत्सानु पर्वत के नाम से हुए। ब्रहमाजी के चार्तुमुखी स्वरूप के समान यहां वृहत्सानु की चार चोटियां हैं- भानुगढ़, दानगढ़, विलासगढ़ तया मानगढ़।

श्रीकृष्ण आनंद का विग्रह : राधा प्रेम की मूर्ति:- 

जिस प्रकार श्रीकृष्ण आनंद का विग्रह हैं, उसी प्रकार राधा प्रेम की मूर्ति हैं। अत: जहां श्रीकृष्ण हैं, वहीं राधा हैं और जहां राधा हैं, वहीं श्रीकृष्ण हैं। कृष्ण के बिना राधा या राधा के बिना कृष्ण की कल्पना के संभव नहीं हैं। इसी से राधा ‘महाशक्ति’ कहलाती हैं। कृष्ण इनकी आराधना करते हैं, इसलिए ये राधा हैं और ये सदा कृष्ण की आराधना करती हैं, इसीलिए राधिका कहलाती हैं। ब्रज की गोपियां और द्वारका की रानियां इन्हीं श्री राधा की अंशरूपा हैं। ये राधा और ये आनंद सागर श्रीकृष्ण एक होते हुए भी क्रीडा के लिए दो हो गए हैं। राधिका कृष्ण की प्राण हैं। इन राधा रानी की अवहेलना करके जो कृष्ण की भक्ति करना चाहता है, वह उन्हें कभी पा नहीं सकता।’

निष्काम प्रेम और समर्पण:- 

राधा का प्रेम निष्काम और नि:स्वार्थ है। वह श्रीकृष्ण को समर्पित हैं, राधा श्रीकृष्ण से कोई कामना की पूर्ति नहीं चाहतीं। वह सदैव श्रीकृष्ण के आनंद के लिए उद्यत रहती हैं। इसी प्रकार जब मनुष्य सर्वस्व समर्पण की भावना के साथ कृष्ण प्रेम में लीन होता है, तभी वह राधाभाव ग्रहण कर पाता है। कृष्ण प्रेम का शिखर राधा भाव है। तभी तो श्रीकृष्ण को पाने के लिए हर कोई राधारानी का आश्रय लेता है।

विविध लीलाएं:- 

मन्दिर में श्री मानबिहारी लाल के दर्शन हैं। मोरकुटी पर श्री श्यामसुन्दर ने मोर बनकर नृत्य करते हुए अपनी श्यामा जू को रिझाया था। गहवर वन की सघन निकुंजें श्री राधा-माधव की सरस केलि की सहज नियोजिका है। इसके निचले भाग में रासमण्डल है, राधा सरोवर है, शंख का चिन्ह दर्शन है और महाप्रभु बल्लभ जी की बैठक है। वहां पर श्री गोपाल जी के दर्शन हैं। यह सम्पूर्ण ब्रजभूमि स्वयं श्रृंगाराख्य भवरूपा है। तत्स्वरूपा होने के साथ उस परमभाव की भांति उन्मादना उत्पन्न करने में भी पूरी तरह समर्थ है। तभी तो स्वयं रसराज यहां इस राधिका- केलि- महल की किंकरियों के समान महाभावस्था नन्दिनी की कृपा की अभिलाषा लिए सदा रहते हैं।

राजपूताना शैली का मन्दिर:- 

मन्दिर श्री लाड़ली जी महाराज (राधा रानी मंदिर) की स्थापत्य कला राजपूताना शैली पर आधारित है और यह लाल बलुआ पत्थर से निर्मित है, जो मुगल वास्तुकला से प्रभावित लगता है। मंदिर का निर्माण मुख्य रूप से लाल और सफेद पत्थरों से हुआ है, जो राधा और कृष्ण के प्रेम का प्रतीक माने जाते हैं। इस मंदिर की मुख्य विशेषताएं इसमें मौजूद जटिल नक्काशी, मेहराब, गुंबद और उत्कृष्ट चित्र हैं। पहाड़ी पर बने इस भव्य मंदिर तक पहुँचने के लिए 200 से अधिक सीढ़ियाँ हैं।  

वृषभानु महाराज का महल:- 

सीढ़ियों के नीचे वृषभानु महाराज का महल है, जहाँ राधा, कीर्ति और श्रीदामा की मूर्तियाँ हैं। इसके अलावा पास में ब्रह्मा मंदिर और अष्टसखी मंदिर भी हैं। 

राधा रानी का प्राकट्य :- 

भाद्रपद माह में शुक्ल पक्ष की अष्टमी को यहाँ विशेष महोत्सव मनाया जाता  है क्योंकि इसी दिन श्री राधा रानी का प्राकट्य  हुआ था और इसी दिन राधाष्टमी का त्यौहार मनाया जाता है। मुख्यतः लठमार होली एवं राधाष्टमी यहाँ के सबसे बड़े त्यौहार हैं ।

     बरसाना में ब्रह्मांचल पर्वत पर स्थित श्री लाडिली जी मंदिर और नंदगांव में नंदीश्वर पर्वत पर स्थित नन्द बाबा मंदिर दोनों की एक साझी परंपरा है जिसका निर्वहन साढ़े पांच सौ वर्ष से किया जा रहा है। 

होली में समाज गायन की परंपरा :- 

बसंत पंचमी से लेकर धुलेंडी तक यहाँ होली का उल्लास रहता है इसीलिए कहा जाता है कि ब्रज में फाल्गुन चालीस दिन का होता है। बसंत पंचमी के दिन से दोनों मंदिरों में आधिकारिक रूप से होली की शुरुआत होती है। होली के डांडे रोप दिए जाते हैं और समाज गायन का क्रम शुरू हो जाता है। इसी दिन से मंदिरों में गुलाल उड़ने लगता है, पखावज बजने लगती है और ढप पर थाप पड़ने लगती है। बसंत पंचमी के दिन आदि रसिक कवि जयदेव के पद ‘ललित लवंग लता परिसीलन, कोमल मलय शरीरे’ से समाज गायन शुरू होता है। इसी क्रम में हरि जीवन का पद ‘श्री पंचमि परम् मंगल दिन, मदन महोत्सव आज बसंत बनाय चलीं ब्रज सुन्दरि, लै लै पूजा कौ थार’ का गायन होता है। 

चमत्कारी इतिहास:- 

बरसाना स्थित लाड़ली जी मंदिर का इतिहास चमत्कारी कहानियों से भरा पड़ा है, जो स्थानीय लोगों की पीढ़ियों से चली आ रही हैं। मुगल आक्रमणकारियों के भागने की कहानियों से लेकर दैवीय हस्तक्षेप तक, यह मंदिर हमेशा मज़बूती से खड़ा रहा है। एक विशेष रूप से प्रसिद्ध कहानी एक चोर की है जो मंदिर को लूटने आया था, लेकिन अंधा होकर लौट गया।

       ब्रह्मांचल पर्वत पर स्थित श्री राधा रानी के पवित्र महल को लूटने के कई प्रयास हुए हैं, लेकिन आक्रमण कारी और चोर, दोनों ही हमेशा खाली हाथ ही रहे हैं।एक चोर लूटपाट के इरादे से मंदिर में घुसा। आते ही उसने चौकीदार को लाठियों से पीटना शुरू कर दिया। हमले केबावजूद, चौकीदार ने अपनी उंगली से मंदिर के दरवाजे बंद कर दिए और कुंडी लगा दी। चोर ने उस पर लगातार हमला किया, उसे लाठियों से मारा और यहाँ तक कि गोलियाँ भी चलाईं, लेकिन चौकीदार को कोई नुकसान नहीं पहुँचा।आखिरकार, चोर की आँखों की रोशनी चली गई और वह कुछ भी देख नहीं पा रहा था। इसी बीच, मंदिर में मौजूद अन्य लोगों नेआपात कालीन घंटी बजा दी, जिससे चोर भाग गया।

      लगभग 200 साल पुरानी एक और घटना है - डाकुओं ने मंदिर में चोरी करने की कोशिश की थी। हालाँकि, लाड़ली सरकार (राधा रानी) ने उनकी योजना को विफल कर दिया। रात के लगभग 11 बजे, डाकू मंदिर के शिखर पर चढ़ गए, और सोने का शिखर चुराने की कोशिश करने लगे। मंदिर के रखवालों को कुछ गड़बड़ होने का आभास हुआ। लेकिन इससे पहले कि वे कुछ कर पाते, चोर अंधे हो गए।


विशाखा सखी विजय लाडली रूप में 

इस लिंक को खोलकर विजुवल की मदद से आप इस कहानी को और अच्छी तरह से समझ सकते हैं - 

https://youtube.com/shorts/h2pGSLxP0qo?si=y7P2mKnhDgfWCdU1


मुस्लिम आक्रमणकरियों से राधा जी की मूर्ति को बचाया गया 

राधा की दूसरी सखी का नाम विशाखा था. विशाखा बहुत सुंदर और इनकी कान्ति सौदामिनी की तरह थी. राधा को कर्पूर-चन्दन से निर्मित वस्तुएं प्रस्तुत करती थीं. ये सुदंर वस्त्र बनाने में निणुण थीं. मुस्लिम आक्रमण के दौरान,जब श्री राधा रानी के पवित्र विग्रह को गुप्त रूप से बरसाना से दूर श्योपुर ले जाया गया था, और वहाँ आठ महीनों तक उनकी पूजा की गई थी।वर्ष 1773 ई. का था। उत्तरी भारत मुगल शासन के साये में था। देश भर के मंदिरों पर अक्सर आक्रमण, लूटपाट और अपवित्रता का दौर चलता रहता था, क्योंकि मुगल शासक सनातन धर्म की आध्यात्मिक नींव को कमजोर करने की कोशिश कर रहे थे। उस वर्ष, मुगल सेना बरसाना की ओर बढ़ी, जिसका उद्देश्य बरसाना के लाड़ली जी मंदिर पर कब्ज़ा करना था।उस समय, बरसाना, भरतपुर राज्य के संरक्षण में था, जिस पर वीर राजा सूरजमल के वंशजों का शासन था। उनके पौत्र नरेश मुरारजी इस पवित्र नगरी की रक्षा के लिए तैनात सेना का नेतृत्व कर रहे थे। जल्द ही, बरसाना के पास मुगल और भरतपुर सेनाओं के बीच भीषण युद्ध हुआ।

पुजारियों का साहस

जैसे-जैसे युद्ध के नगाड़ों की ध्वनि तेज़ होती गई और विजय की कोई निश्चितता न होने के कारण, मंदिर के पुजारियों के सामने एक गंभीर निर्णय आया। वे जानते थे कि श्री राधा रानी के विग्रह की सुरक्षा सर्वोपरि है। गहरी आस्था और दृढ़ निश्चय के साथ, उन्होंने सावधानीपूर्वक देवी को बरसाना से हटाकर युद्धभूमि से दूर एक किलेबंद नगर श्योपुर पहुँचाया। वहाँ, श्योपुर किले की दीवारों के भीतर, एक कुंड के पास एक मंदिर में, देवी की स्थापना की गई। अगले आठ महीनों तक, श्योपुर में भी श्री राधा रानी के सभी दैनिक अनुष्ठान, भोग और उत्सव, बरसाना की तरह ही संपन्न होते रहे। भक्तगण निरन्तर एकत्रित होते रहे और भक्ति की ज्योति, आक्रांताओं की पहुँच से दूर, प्रज्वलित रही।

आक्रमण के दौरान बरसाना

इस बीच, मुगल सेना बरसाना में घुस आई। हफ़्तों तक मंदिरों और गाँवों को लूटा गया, लेकिन जब वे लाड़ली जी मंदिर पहुँचे, तो उन्हें राधा रानी की मूर्ति नहीं मिली। इसके बजाय, श्रद्धालु पुजारियों ने पहले से ही एक वैकल्पिक मूर्ति-श्री राधा रानी की सखी (सखी) का विग्रह- स्थापित कर दिया था। पूजा-अर्चना बिना किसी रुकावट के जारी रही, जिससे मंदिर की पवित्रता कभी भंग न हो।भक्ति और ज्ञान के इस कार्य ने श्री राधा रानी की सेवा की अटूट श्रृंखला को अक्षुण्ण बनाए रखा। आक्रमण के अंधकारमय दिनों में राधा रानी के स्थान पर खड़ी हुई, प्रतिस्थापन देवी को "विजय लाडली" के रूप में पूजनीय माना गया - विजयी लाडली, जो भय पर विश्वास की विजय का प्रतीक है।

जब युद्ध समाप्त हुए और शांति लौटी, तो श्री राधा रानी के मूल विग्रह को श्योपुर से बरसाना वापस लाया गया। फिर भी, उन आठ महीनों की स्मृति स्थानीय परंपराओं में भक्ति, साहस और धर्म-रक्षा के एक ज्वलंत उदाहरण के रूप में अंकित है।

यह गोस्वामियों की अटूट भक्ति ही है कि राजनीतिक उथल-पुथल के दौर में भी उन्होंने श्री राधा रानी की पूजा को कभी नहीं रोका। अपने बलिदान से उन्होंने एक ऐसी परंपरा की रक्षा की जो आज भी लाखों भक्तों को प्रेरित करती है।

    इस प्रकार उनकी सखी (विग्रह) की एक वैकल्पिक मूर्ति को 'विजय लाडली' के नाम से बरसाने के मंदिर में पूजा के लिए स्थापित किया गया था। जब मुगल सेना बरसाना के लाड़ली जी मंदिर पहुँची, तो उन्हें राधा जी की मूल मूर्ति नहीं मिली। इसके बजाय, पुजारियों ने राधा जी की सखी (सखी) की एक प्रतिस्थापन मूर्ति को वहाँ स्थापित कर दिया था। इस प्रतिस्थापन देवी को 'विजय लाडली' के रूप में पूजा गया, जो भक्तों के विश्वास की जीत का प्रतीक था।युद्ध समाप्त होने के बाद, राधा जी की मूल मूर्ति को श्योपुर से वापस बरसाना लाया गया था। यह घटना स्थानीय परंपराओं में भक्ति, साहस और धर्म-रक्षा की एक मिसाल के रूप में दर्ज है।


लेखक परिचय:-

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।

(वॉट्सप नं.+919412300183)









No comments:

Post a Comment