Wednesday, March 2, 2022

ग्यारह रुद्रों के उत्पत्ति की कहानी

ग्यारह रुद्रों के उत्पत्ति की कहानी
डा. राधे श्याम द्विवेदी
ब्रह्मा जी ने जो सृष्टि बनाई! उसमें पहले पाप या अधर्म वाला हिस्सा बना दिया और इतना अधर्म देख कर फिर परेशान हो गए और रोने लगे सभी जीव जंतु एक दूसरे को मारने लगे ! एक जीव को दूसरे जीव खा रहा था अपनी बनाई सृष्टि की दुर्गति देख ब्रह्मा जी को बहुत बुरा लगा, वह रोने लगे! उन्हें देखकर भगवान विष्णु भी रोने लगे और अपने आराध्य को रोता देख भगवान शिव भी रोने लगे! इससे भगवान शिव की आंखों से 11 आंसू गिरे जिन्हें माता जगत जननी दुर्गा ने अपने हाथों में ग्यारह रुद्र या एकादश रुद्र संक्षिप्त जानकारी दी है। 
रुद्र’ का अर्थ:-
भगवान शिव का एक नाम ‘रुद्र’ है । दु:ख का नाश करने तथा संहार के समय क्रूर रूप धारण करके शत्रु को रुलाने से शिव को ‘रुद्र’ कहते हैं । भगवान रुद्र वेदों में शिव के अनेक नामों में रुद्र नाम ही विशेष है । उन्हें ‘रुद्र: पररमेश्वर:, जगत्स्रष्टा रुद्र:’ आदि कहकर परमात्मा माना गया है ।यजुर्वेद का रुद्राध्याय भगवान रुद्र को समर्पित है । उपनिषद् रुद्र को विश्वश्व का अधिपति तथा महेश्वर बताते हैं— 'इन ब्रह्माण्ड में स्थित भुवनों पर ब्रह्मारूप से शासन करता हुआ और उत्पन्न होने वाले प्रत्येक शरीर के मध्य में चेतनरूप से विराजमान तथा प्रलय के समय क्रोध में भरकर संहार करता हुआ एक रुद्र ही आपनी शक्ति उमा के साथ स्थित है, इससे पृथक् दूसरा कुछ भी नहीं ।’ (श्वेताश्वतरोपनिषद् ४।१८)
शिवपुराण का आधे से अधिक भाग रुद्रसंहिता, शतरुद्रसंहिता और कोटिरुद्रसंहिता आदि नामों से भगवान रुद्र की ही महिमा का गान करता है । रुद्रसंहिता (सृ. ख. २।४०) में कहा गया है—‘इस लोक में शिव की जैसी इच्छा होती है, वैसा ही होता है । समस्त विश्व उन्हीं की इच्छा केअधीन है और उन्हीं की वाणी रूपी तन्त्री से बंधा हुआ है ।’
ग्यारह रुद्र या एकादश रुद्र:-
भगवान रुद्र तो एक ही हैं किन्तु जगत के कल्याण के लिए वे अनेक नाम व रूपों में अवतरित होते हैं । मुख्य रूप से ग्यारह रुद्र हैं । इन्हें एकादश रुद्र’ भी कहते हैं ।
 शिवपुराण (शतरुद्रसंहिता १८।२७) में कहा गया है—
एकादशैते रुद्रास्तु सुरभीतनया: स्मृता: ।
देवकार्यार्थमुत्पन्नाश्शिवरूपास्सुखास्पदम्‌ ।।
अर्थात्‌—ये एकादश रुद्र सुरभी के पुत्र कहलाते हैं । ये सुख के
निवासस्थान हैं तथा देवताओं के कार्य की सिद्धि के लिए शिवरूप से उत्पन्न हुए हैं ।
भगवान शिव ने ग्यारह रुद्ररूप में अवतार क्यों लिया ?
एक बार इन्द्र आदि देवता दैत्यों से पराजित हो गए और भयभीत होकर अपनी अमरावतीपुरी को छोड़कर अपने पिता महर्षि कश्यप के आश्रम में आ गए । सभी देवताओं ने कश्यपजी को अपना कष्ट सुनाया । शिवभक्त महर्षि कश्यप देवताओं को कष्ट दूर करने का आश्वासन देकर काशीपुरी आ गए और वहां शिवलिंग की स्थापना करके तप करने लगे ।
बहुत समय बीत जाने पर परम दयालु भगवान शिव प्रकट हो गए और उनसे वर मांगने के लिए कहा । कश्यपजी ने कहा—‘दैत्यों ने देवताओं और यक्षों को पराजित कर दिया है, इसलिए आप मेरे पुत्र रूप में प्रकट होकर देवताओं के कष्टों को दूर कीजिए ।’भगवान शंकर ‘तथास्तु’ कहकर अन्तर्ध्यान हो गए । आश्रम वापस आकर उन्होंने देवताओं को भगवान शंकर के अवतार लेने की बात सुनाई, तो सभी देवता प्रसन्न हो गए ।कश्यप-पत्नी सुरभी के गर्भ से लिया भगवान शिव ने ग्यारह रुद्रों के रूप में अवतार भगवान शिव ने अपना वचन सत्य करने के लिए कश्यप ऋषि की पत्नी सुरभी के गर्भ से ग्यारह रुद्रों के रूप में अवतार लिया । उस समय देवताओं ने बड़ा उत्सव किया । भगवान के इन रुद्रावतारों से सारा जगत शिवमय हो गया । ये एकादश रुद्र बहुत ही बली और पराक्रमी थे । इन्होंने युद्ध में दैत्यों को हराकर इन्द्र को पुन: स्वर्ग का राज्य दिला दिया । सभी देवता निर्भय होकर अपना-अपना राजकार्य संभालने लगे ।
आज भी भगवान शिव के स्वरूप ये सभी एकादश रुद्र देवताओं की रक्षा के लिए स्वर्ग में विराजमान हैं और ईशानपुरी में निवास करते हैं। उनके अनुचर करोड़ों रुद्र कहे गये हैं, जो तीनों लोकों में चारों ओर स्थित हैं ।
एकादश रुद्र के नाम:-
विभिन्न पुराणों व ग्रन्थों में एकादश रुद्रों के नाम में अंतर मिलता है । जैसे—शिवपुराण में इनके नाम इस क्रम से हैं—
1 कपाली,
2 पिंगल,
3 भीम,
4 विरुपाक्ष,
5 विलोहित,
6 शास्ता,
7 अजपाद,
8 अहिर्बुध्न्य,
9 शम्भु,
10 चण्ड, और
11 भव ।
शैवागम के अनुसार एकादश रुद्रों के नाम इस क्रम से हैं—
1 शम्भु,
2 पिनाकी,
3 गिरीश,
4 स्थाणु,
5 भर्ग,
6 सदाशिव,
7 शिव,
8 हर,
9 शर्व,
10 कपाली, और
11 भव ।
श्रीमद्भागवत (३।१२।१२) में एकादश रुद्रों के नाम इस प्रकार हैं
1 मन्यु,
2 मनु,
3 महिनस,
4 महान्‌,
5 शिव,
6 ऋतध्वज,
7 उग्ररेता,
8 भव,
9 काल,
10 वामदेव, और
11 धृतव्रत ।
ग्यारह रुद्रों की कथा पढ़ने का माहात्म्य
इस प्रसंग को एकाग्रचित्त होकर पढ़ने का शिवपुराण में महान फल बताया गया है । यह—धन व यश देने वाला,मनुष्य की आयु की वृद्धि करने वाला,सभी मनोकामनाओं की पूर्ति करने वाला,पापों का नाशक, व समस्त सुख-भोग प्रदान कर अंत में मुक्ति देने वाला है। आध्यात्मिक रुद्र उपनिषदों में एकादश प्राणों (दस इन्द्रियां और मन) को ‘एकादश रुद्र’ कहा गया है । परन्तु ये ‘आध्यात्मिक रुद्र’ हैं । ये शरीर रूपी मशीन को चलाते रहते हैं । ये ठीक-ठीक चलें तो मनुष्य का सब शिव (कल्याण) है अन्यथा एक की भी गति बिगड़ी तो शरीर बेकार हो जाता है । जो इन एकादश प्राणों को संयमित आहार-विहार और योगाभ्यास द्वारा वश में रखता है, वही सुख पाता है । ये निकलने पर प्राणियों को रुलाते हैं, इसलिए ‘रुद्र’ कहे जाते हैं। अत: दस इन्द्रियां और मन ही एकादश रुद्र हैं। भगवान रुद्र के अश्रुबिन्दुओं से उत्पन्न रुद्राक्ष सभी देवताओं को अत्यन्त प्रिय हैं । श्ररावण में आशीष देते हैं शिव के यह 11 रुद्र रूप, हर कष्ट को करते है दूर भगवान शिव सृष्टि के संहारक हैं। उनके संहारक स्वरूप को रुद्र कहा गया है। रुद्र के ग्यारह रूप या एकादश रुद्र की कथा वेदों- पुराणों में वर्णित है।श्रावण मास में यह 11 रुद्र रूप भी वरदान की मुद्रा में होते हैं।
शैवागम के अनुसार 11 रूद्र स्वरूप इस प्रकार है --
शम्भु ब्रह्मविष्णुमहेशानदेवदानवराक्षसाः ।
यस्मात्‌ प्रजज्ञिरे देवास्तं शम्भुं प्रणमाम्यहम्‌ ॥
'जिन भगवान शम्भु से ब्रह्मा, विष्णु, महेश, देव, दानव, राक्षस आदि उत्पन्न हुए तथा जिनसे सभी देवों की उत्पत्ति भी हुई, ऐसे प्रभु को मैं प्रणाम करता हूँ।'भगवान रुद्र ही इस सृष्टि के सृजन, पालन और संहारकर्ता हैं। शम्भु,शिव, ईश्वर और महेश्वर आदि कई नाम उन्हीं के हैं। श्रुतिका कथन है कि एक ही रुद्र हैं जो सभी लोकों को अपनी शक्ति से संचालित करते हैं। अतएव वे ही ईश्वर हैं, वे ही सबके भीतर अंतरयामीरूप से स्थित है। आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक रूप से उनके ग्यारह नाम श्रुति, पुराण आदि में प्राप्त होते हैं। शतपथब्राह्मण के चतुर्दशकांड (बृहदारण्यकोपनिषद् में) पुरुष के दस प्राण और ग्यारहवाँ आत्मा एकादश आध्यात्मिक रुद्र बताए गए हैं। अंतरिक्षस्थ वायुप्राण ही हमारे शरीर में प्राणरूप होकर प्रविष्ट है और वही शरीर के दस स्थानों में कार्य करता है। इसलिए उसे रुद्रप्राण कहते हैं। ग्यारहवाँ आत्मा भी रुद्र प्राणात्मा के रूप में जाना जाता है।
पिनाकी
क्षमारथसमारूढ़ं ब्रह्मसूत्रसमन्वितम्‌ ।
चतुर्वेदैश्च सहितं पिनाकिनमहं भजे ॥
'क्षमारूपी रथ पर विराजित, ब्रह्मसूत्र से समन्वित, चारों वेदों को धारण करने वाले भगवान पिनाकी का मैं ध्यान करता हूँ।'
शैवागम में दूसरे रुद्र का नाम पिनाकी है। श्री ब्रह्माजी नारदजी से कहते हैं- 'जब हमने एवं भगवान विष्णु ने शब्दमय शरीरधारी भगवान रुद्र को प्रणाम किया, तब हम लोगों को ॐकारजनित मंत्र का साक्षात्कार हुआ। तत्पशत्‌ 'ॐतत्त्वमसि' यह महावाक्य दृष्टिगोचर हुआ। फिर संपूर्ण धर्म और अर्थ के साधक गायत्री मंत्र का दर्शन हुआ। उसके बाद मुझ ब्रह्मा के भी अधिपति करुणानिधि भगवान पिनाकी सहसा प्रकट हुए। चारों वेद पिनाकी रुद्र के ही स्वरूप हैं। भगवान पिनाकी रुद्र को देखकर भगवान्‌ विष्णु ने पुनः उनकी प्रिय वचनों द्वारा स्तुति की। भगवान पिनाकी ने प्रसन्न होकर सर्वप्रथम भगवान विष्णु को श्वासरूप से वेदों का उपदेश किया। उसके बाद उन्होंने श्रीहरि को अपना गुह्यज्ञान प्रदान किया। फिर उन परमात्मा पिनाकी ने कृपा करके मुझे भी वह ज्ञान दिया। वेद का ज्ञान प्राप्त करके और कृतार्थ होकर हम दोनों ने पिनाकी रुद्र को पुनः नमस्कार किया।'
गिरीश
कैलासशिखरप्रोद्यन्मणिमण्डपमध्यमगः ।
गिरिशो गिरिजाप्राणवल्लभोऽस्तु सदामुदे ॥
'कैलास के उच्चतम शिखर पर मणिमण्डप के मध्य में स्थिल पार्वती के प्राणवल्लभ भगवान गिरीश सदा हमें आनंद प्रदान करें।'भगवान शिव के निवास का वर्णन तीन स्थानों पर मिलता है। प्रथम भद्रवट-स्थान जो कैलास के पूर्व की ओर लौहित्यगिरि के ऊपर है। दूसरा स्थान कैलास पर्वत पर और तीसरा मूँजवान पर्वत पर है। वैसे तो भगवान शंकर वैराग्य और संयम की प्रतिमूर्ति हैं, किंतु उनकी संपूर्ण लीलाएँ कैलास पर संपन्न होने के कारण कैलास पर्वत उन्हें विशेष प्रिय है।
कैलास पर्वत नर भगवान रुद्र अपने तीसरे स्वरूप गिरीश के नाम से प्रसिद्ध हैं। शैवागम में तीसरे रुद्र का नाम गिरीश बताया गया है। कैलास पर्वत पर भगवान रुद्र के निवास के दो कारण हैं। पहला कारण अपने भक्त तथा मित्र कुबेर को उनके अलकापुरी के सन्निकट रहने का दिया गया वरदान है और दूसरा कारण रुद्र की प्राणवल्लभा उमा का गिरिराज हिमवान के यहां अवतार है।
स्थाणु
वामांगकृतसंवेशगिरिकन्यासुखावहम्‌ ।
स्थाणुं नमामि शिरसा सर्वदेवनमस्कृतम्‌ ॥
'अपने वामांग में पार्वती को सन्निविष्ट करके उन्हें सुख प्रदान करने वाले तथा संपूर्ण देवमंडल के प्राणम्य भगवान स्थाणु रुद्र को मैं सिर से नमन करता हूँ।शैवागम में भगवान रुद्र के चौथे स्वरूप को स्थाणु बताया गया है। वे समाधिमग्न, आत्माराम तथा पूर्ण निष्काम हैं। फिर भी लोक- कल्याणार्थ देवताओं की प्रार्थना पर वे गिरिराज हिमवान की कन्या तथा अपनी आदिशक्ति पार्वती को अपने वामांग में पत्नी रूप में स्थान देकर अपनी अद्भुत लीला से भक्तों को सुख प्रदान करते हैं।
भर्ग चंद्रावतंसो जटिलस्रिणेत्रोभस्मपांडरः ।
हृदयस्थः सदाभूयाद् भर्गो भयविनाशनः ॥
'चंद्रभूषण, जटाधारी, त्रिनेंत्र, भस्मोज्ज्वल, भयनाशक भर्ग सदा हमारे हृदय में निवास करें।पाँचवें रुद्र भगवान भर्ग को भयविनाशक कहा गया है। दुःख पीड़ित संसार को शीघ्रातिशीघ्र दुःख और भय से मुक्त करने वाले केवल महादेव भगवान भर्ग रुद्र ही हैं। भर्ग रुद्र (तेज) ज्ञानस्वरूप होने के कारण मुक्ति प्रदान करके भक्तों को भव (संसार)- सागर के भय से भी त्राण देते हैं।
भव
योगीन्द्रनुतपादाब्जं द्वंद्वातीतं जनाश्रयम्‌ ।
वेदान्तकृतसंचारं भवं तं शरणं भजे ॥
'योगीन्द्र जिनके चरण-कमलों की वंदना करते हैं, जो द्वंद्वों से अतीत तथा भक्तों के आश्रय हैं और जिनसे वेदांत का प्रादुर्भाव हुआ है, मैं उन भव की शरण-ग्रहण करता हूँ।' भगवान रुद्र के ग्यारहवें स्वरूप का नाम भव है। इसी रूप में वे संपूर्ण सृष्टि में व्याप्त हैं तथा जगद्गुरु के रूप में वेदांत और योग का उपदेश देकर आत्मकल्याण का मार्ग प्रशस्त करते हैं। भगवान रुद्र का यह ग्यारहवाँ स्वरूप जगद्गुरु के रूप में वंदनीय है। भव-रुद्र की कृपा के बिना विद्या, योग, ज्ञान, भक्ति आदि के वास्तविक रहस्य से परिचित होना असंभव है। वे अपने क्रिया- कलाप, संयम-नियम आदि द्वारा जीवन्मुक्त योगियों के परम आदर्श हैं। लिंगपुराण के सातवेंअध्याय और शिवपुराण के पूर्व भाग के बाईसवें अध्याय में भगवान भव रुद्र के योगाचार्यस्वरूप और उनके शिष्य-प्रशिष्यों का विशेष वर्णन है। प्रत्येक युग में भगवान भव रुद्र योगाचार्य के रूप में अवतीर्ण होकर अपने शिष्यों को योगमार्ग का उपदेश प्रदान करते हैं। इन्होंने सर्वप्रथम अपने चार बड़े शिष्यों को योगशास्त्र का उपदेश दिया। उनके नाम रुरु, दधीचि, अगस्त्य और उपमन्यु हैं। ये सभी पशुपति- उपासना और पशुपतिसंहिता के प्रवर्तक हुए। इस प्रकार भगवान भव -रुद्र ही योगशास्त्र के आदि गुरु हैं।
सदाशिव
ब्रह्मा भूत्वासृजंल्लोकं विष्णुर्भूत्वाथ पालयन्‌ ।
रुद्रो भूत्वाहरन्नंते गतिर्मेऽस्तु सदाशिवः ॥
'जो ब्रह्मा होकर समस्त लोकों की सृष्टि करते हैं, विष्णु होकर सबका पालन करते हैं और अंत में रुद्र रूप से सबका संहार करते हैं, वे सदाशिव मेरी परमगति हों।'शैवागम में रुद्र के छठे स्वरूप को सदाशिव कहा गया है। शिव पुराण के अनुसार सर्वप्रथम निराकार परब्रह्म रुद्र ने अपनी लीला शक्ति से अपने लिए मूर्ति की कल्पना की। वह मूर्ति संपूर्ण ऐश्वर्य-गुणों से संपन्न, सबकी एकमात्र वंदनीया, शुभ-स्वरूपा, सर्वरूपा तथा संपूर्ण संस्कृतियों का केंद्र थी। उस मूर्ति की कल्पना करके वह अद्वितीय ब्रह्म अंतर्हित हो गया।इस प्रकार जो मूर्तिरहित परब्रह्म रुद्र हैं, उन्हीं के चिन्मय आकार सदाशिव हैं। प्राचीन और अर्वाचीन विद्वान उन्हीं को ईश्वर भी कहते हैं। एकाकी विहार करने वाले उन सदाशिव ने अपने विग्रह से स्वयं ही एक स्वरूपभूता शक्ति की सृष्टि की। वह शक्ति अम्बिका कही जाती है। उसी को त्रिदेव-जननी, नित्या और मूल कारण भी कहते हैं।सदाशिव द्वारा प्रकट की गई उस शक्ति की आठ भुजाएँ हैं। वह अकेली ही सहस्र चंद्रमाओं की कांति धारण करती हैं। वही सबकी योनि है। एकाकिनी होने पर भी वह अपनी माया से अनेक रूप धारण करती है।
शिव गायत्री प्रतिपाद्यायाप्योंकारकृतसद्मने ।
कल्याणगुणधाम्नेऽस्तु शिवाय विहितानतिः ॥
'गायत्री जिनका प्रतिपादन करती है, ओंकार ही जिनका भवन है, ऐसे समस्त कल्याण और गुणों के धाम शिव को मेरा प्रणाम है।' शैवागम में रुद्र के सातवें स्वरूप को शिव कहा गया है। शिव शब्द नित्य विज्ञानानन्दघन परमात्मा का वाचक है। इसीलिए शैवागम भगवान शिव को गायत्री द्वारा प्रतिपाद्य एवं एकाक्षर ओंकार का वाच्यार्थ मानता है। शिव शब्द की उत्पत्ति 'वश कान्तौ' धातु से हुई है, जिसका तात्पर्य यह है कि जिसको सब चाहते हैं, उसका नाम शिव है। सब चाहते हैं अखंड आनंद को। अतएव शिव शब्द का तात्पर्य अखंड आनंद हुआ। जहाँ आनंद है, वहीं शांति है और परम आनंद को ही परम कल्याण कहते हैं। अतः शिव शब्द का अर्थ परम कल्याण समझना चाहिए। इसलिए शिव को कल्याण गुण-निलय कहा जाता है।
हर आशीविषाहार कृते देवौघप्रणतांघ्रये ।
पिनाकांकितहस्ताय हरायास्तु नमस्कृतः ॥
'जो भुजंग-भूषण धारण करते हैं, देवता जिनके चरणों में विनित होते हैं , उन पिनाकपाणि हर को मेरा नमस्कार है।'
भगवान रुद्र के आठवें स्वरूप का नाम हर है। भगवान हर को
सर्पभूषण कहा गया है। इसका अभिप्राय यह है कि मंगल और
अमंगल सब कुछ ईश्वर-शरीर में है। दूसरा अभिप्राय यह है कि
संहारकारक रुद्र में संहार-सामग्री रहनी ही चाहिए। समय पर सृष्टि का सृजन और समय पर उसका संहार दोनों भगवान रुद्र के ही आकार् हैं। सर्प से बढ़कर संहारकारक तमोगुणी कोई हो नहीं सकता क्योंकि अपने बच्चों को भी खा जाने की वृत्ति सर्प जाति में ही देखी जाती है। इसीलिए भगवान हर अपने गले में सर्पों की माला धारण करते हैं। काल को अपने भूषण रूप में धारण करने के बाद भी भगवान हर कालातीत हैं। भगवान हर अपनी शरण में आने वाले भक्तों कोआधिभौतिक, आधिदैविक, आध्यात्मिक तीनों प्रकार के तापों से मुक्त कर देते हैं। इसलिए भगवान रुद्र का हर नाम और भी सार्थक है। उनका पिनाक अपने भक्तों को अभय करने के लिए सदैव तत्पर रहता है।
शर्व तिसृणां च पुरां हन्ता कृतांतमदभंजनः ।
खड्गपाणिस्तीक्ष्णदंष्ट्रः शर्वाख्योऽस्तु मुदे मम ॥
'त्रिपुरहंता, यमराज के मद का भंजन करने वाले, खंगपाणि एवं
तीक्ष्णदंष्ट्र शर्व हमारे लिए आनंददायक हों।'
भगवान रुद्र के नौवें स्वरूप का नाम शर्व है। सर्वदेवमय रथ पर सवार होकर त्रिपुर का संहार करने के कारण भी इन्हें शर्व रुद्र कहा जाता है। शर्व का एक तात्पर्य सर्वव्यापी, सर्वात्मा और त्रिलोकी का अधिपति भी होता है।
कपाली
दक्षाध्वरध्वंसकरः कोपयुक्तमुखाम्बुजः ।
शूलपाणिः सुखायास्तु कपाली मे ह्यहर्निशम्‌ ॥
'दक्ष-यज्ञ का विध्वंस करने वाले तथा क्रोधित मुख-कमल वाले
शूलपाण कपाली हमें रात-दिन सुख प्रदान करें।'शैवागम के अनुसार दसवें रुद्र का नाम कपाली है। पद्मपुराण(सृष्टिखंड-17) के अनुसार एक बार भगवान कपाली ब्रह्मा के यज्ञ में कपाल धारण करके गए, जिसके कारण उन्हें यज्ञ के प्रवेश द्वार पर ही रोक दिया गया। उसके बाद भगवान कपाली रुद्र ने अपने अनंत प्रभाव का दर्शन कराया। फिर सब लोगों ने उनसे क्षमा माँगी और यज्ञ में उन्हें ब्रह्मा के उत्तर में बहुमान का स्थान प्रदान किया।कथा यह भी है कि इन्होंने एक बार ब्रह्मा को दंड देने के लिए उनका पाँचवाँ मस्तक काट लिया था। कपाल धारण करने के कारण ही दसवें रुद्र को कपाली कहा जाता है। इसी रूप में भगवान रुद्र ने क्रोधित होकर दक्ष-यज्ञ को विध्वंस किया था। महाकाल कहते हैं। भगवान शिव सृष्टि के संहारक हैं। उनके संहारक स्वरूप को रुद्र कहा गया है। रुद्र के ग्यारह रूप या एकादश रुद्र की कथा वेदों-पुराणों में वर्णित है। इनकी विभूति समस्त देवताओं में समाहित है। यहाँ हमने शिव भक्तों की सुविधा के लिए रुद्र के ग्यारह रूपों का संक्षिप्त वर्णन किया है। साथ ही भगवान शिव के अन्य स्वरूपों का भी यहाँ उल्लेख किया है।

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