Saturday, March 19, 2022

पर्यावरण के नैतिक संरक्षण के उपाय डा. राधे श्याम द्विवेदी

           गोस्वामी तुलसीदास   जी  के समय   पर्यावरण   प्रदूषण   कोई   समस्या   नहीं   थी।   पृथ्वी   का  अधिकांश   भू - भाग   पर   वन - क्षेत्र   होता   था। उस समय के ‘ पर्यावरण ’  की   संकल्पना   अत्यन्त  ही   वृहद   है।   हमारी   संस्कृति   में   पर्यावरण   का   सम्बन्ध   धर्माचरण   से   है ,  अतः   पर्यावरणीय   चेतना   व   कार्यों   के   प्रति   अरूचि ,  उदासीनता   अथवा   इनके   प्रति   बने   नियमों   का   उल्लंघन   ‘ अधर्म ’  की   श्रेणी   में   आता   है।   वैदिक   ग्रन्थों   में   ‘ मा   हिंस्यात्   सर्वभूतानि ’  अर्थात्   किसी   भी   जीव   की   हत्या   करना   निषिध   था।   ‘ अहिंसा ’  पर्यावरण   संतुलन   एवं   संरक्षण   के   प्रति   एक   दृष्टिकोण   ही   है।   प्रकृति   में   उपस्थित   वृक्षों ,  पर्वतों ,  नदियों   आदि   से   बने   प्राकृतिक   पर्यावरण   के   अतिरिक्त   सामाजिक   पर्यावरण   की   निर्मिति   भी   की   गई।   जिसमें   विभिन्न   नैतिक   एवं   सांस्कृतिक   मूल्यों   के   माध्यम   से   ‘ राज्य ’  तथा   ‘ समाज ’  का   विकास   सम्भव   होता   है।   इस   ‘ मूल्यबोध ’  को   बनाए   रखना   समाज   के   साथ   ‘ राज्य ’  का   भी   कर्तव्य  होता   है।   संस्कृत   साहित्य   में   वैदिक   युग   से   ही   नीति   परक   उपदेशों   की   परम्परा   चली   आ   रही   है ,  जिनमें   शुक्र   नीति ,  चाणक्य   नीति ,  विदुर   नीति ,  हितोपदेश   आदि   अत्यन्त   प्रसिद्ध   हैं।   ‘ नीति ’  का   प्रयोग   मनुष्य   में   ‘ नैतिकता ’  के   विकास   के   लिए   किया   जाता   है   और   इससे   ‘ नैतिक   पर्यावरण ’  भी   बनता   है।   समाज   में   रहने   वाले   प्रत्येक   व्यक्ति ,  वर्ग ,  जाति ;  राष्ट्र   को   एक - दूसरे   के   प्रति   कैसा   व्यवहार   करना   चाहिए ;  इसके   लिए   बनाए   गए   नियमों   से   ही   नैतिक   पर्यावरण   का   संरक्षण   किया   जाता   है।   भारत   में   संस्कार ,  पुरूषार्थ ,  कर्मकाण्ड   आदि   का   निर्माण   भी   सांस्कृतिक   पर्यावरण   के   संरक्षण   के   लिए   ही   हुआ   है।   पर्यावरण   संरक्षण   में   रामचरितमानस   की   भूमिका   को   हम   विभिन्न   रूपों   में   देखते   हैं।
नैतिक   संरक्षण की प्रमुखता:-
नैतिकता   वह   गुण   है   जिससे   मनुष्य   में   समस्त   क्रिया - कलाप   व   व्यक्तित्व   प्रभावित   होता   है।   यह   कत्र्तव्य   की   आंतरिक   भावना   होती   है ,  जो   विवेक   के   बल   पर   संचालित   होती   है।   यही   विवेक   उचित - अनुचित   का   निर्णय   करने   में   सहायक   होता   है।   जीवन   में   नैतिक   मूल्यों   को   आवश्यक   माना   जाता   है।   नैतिक   मूल्य   के   कारण   ही   मानव   पशुत्व   आचरण   से   इतर   ‘ मानवीय   प्राणी ’  ( मानवीय   आचरण   युक्त )  कहलाता   है।  
मनुष्यों   द्वारा   अपनाए   जाने   वाले   नैतिक   मूल्य   समाज   के   विकास   के   साथ   बदलते   हैं ,  अतः   एक   ही   समाज   में   विभिन्न   युगों   में   नैतिक   मूल्य   बदल   जाते   हैं।   इस   प्रकार   नीति   मनुष्य   के   जीवन   के   वास्तविक   लक्ष्य   को   प्राप्त   करने   में   सहायता   करती   है।  नैतिकता   हमें   धर्म ,  अनुशासन ,  आचरण ,  कानून   आदि   से   जोड़ती   है।   चाणक्य   भी   नीति   शास्त्र   में   लिखते   हैं   कि -  ‘ सुखस्य   मूलं   धर्मः। ’  सुख   का   मूल   आधार   धर्म   है।   वास्तव   में   देखा   जाए   तो   धर्म   एवं   कानून   का   निर्माण   ही   नैतिक   मूल्यों   के   संरक्षण   हेतु   किया   गया   है।   ‘ मानस ’  के   श्रीराम   तो   नैतिकतामय   जीवन   के   आदर्श   प्रतीक   स्वयं   हैं।
भारतीय   साहित्य   परम्परा   व   जीवन   में   नैतिक   मूल्य   की   आवश्यकता   एवं   महत्त्व   को   केन्द्र   में   रखा   गया   है।   नैतिकता   से   मनुष्य   के   साथ - साथ   राष्ट्र   का   उत्थान   भी   होता   हैं।   जो   समाज   नैतिकता   से   विमुख   हो   जाता   है ,  उसकी   अवनति   तय   है।   ‘ मानस ’  में   ‘ रावण ’  की   गति   द्वारा   इसे   समझा   जा   सकता   है।   इस   उपखण्ड   में   हम   नैतिक   संरक्षण   के   अन्तर्गत   न्याय ,  त्रिवर्ग ,  धर्म ,  प्रजा   की   रक्षा   हेतु   राजा   के   कर्तव्य ,  उपकार ,  दान ,  दया ,  क्षमा   आदि   पर   चर्चा   करेंगे।  हिन्दू   धर्म   में   नैतिकता   के   अन्तर्गत   दान ,  उपकार ,   दया ,  क्षमा ,  तय   आदि   का   विशेष   महत्त्व   है।   इन   कार्यों   को   धार्मिकता   से   जोड़   दिया   गया   ताकि   समाज   ईश्वरोपदेश   मानकर   इन   कर्तव्यों   को   पूरा   करे।   यह   जिम्मेदारी   समाज   की   ही   नहीं   अपितु   राज्य   व   शासक   की   भी   होती   थी।  ‘ मानस ’  में   तुलसीदास   जी   ने   नैतिक   पर्यावरण   की   पराकाष्ठा   चित्रित   की   है   तथा   इन   दान ,  क्षमा ,  दया   आदि   कार्यों   द्वारा   उसका   संरक्षण   करने   की   महत्ता   को   भी   प्रदर्शित   किया   है।  न्याय -  प्राचीन   समय   में   भी   भारतीय   राज   व्यवस्था   में   मनुष्य   तथा   समाज   को   व्यवस्थित   और   नियंत्रित   रखने   के   लिए   अनेक   प्रथाओं ,  परम्पराओं   तथा   विधानों   को   सृजित   किया   था।   अतः   इसके   विरूद्ध   कार्य   करने   वाले   के   लिए   दण्डविधान   भी   था।   श्रीमद्भागवद्गीता   में   श्रीकृष्ण   अर्जुन   को   उपदेश   देते   हुए   कहते   हैं   कि - 
‘ तस्माच्छास्त्रं   प्रमाण   ते   कार्याकार्यव्यस्थितौ।
ज्ञात्वा   शास्त्रविधानोक्तं   कर्म   कर्तुमिहार्हसि।। ’
            अर्थात्   हे   अर्जुन।   कर्तव्य आकर्तव्य   के   निर्णय   करने   में   तुम्हारे   लिए   शास्त्र   ही   प्रमाण   हैं ,  शास्त्रों   के   कहे   गये   कर्म   को   तुम्हें   इस   संसार   में   करना   चाहिए।   अतः   यदि   शास्त्र - विरुद्ध   कार्य   अथवा   अनैतिक   कार्य   का   ‘ न्याय ’  द्वारा   ही   विनाश   किया   जायेगा   तथा   जिससे   पुनः   धर्म   की   स्थापना   होगी।   इस   दृष्टि   से   धर्मशास्त्रों   का   निर्माण   न्याय ,  दण्ड ,  विधि   के   नियमों   पर   ही   किया   गया   है।   ‘ मानस ’  में   बालि - वध   के   प्रसंग   में   देखें   तो   श्रीराम   द्वारा   बालि   को   छिपकर   मारे   जाने   पर   बालि   प्रश्न   करता   है   कि -
“ धर्म   हेतु   अवतरेहु   गोसाईं। 
  मारेहु   मोहि   ब्याध   की   नाई।।
मैं   बैरी   सुग्रीव   पिआरा।  
 अवगुन   कवन   नाथ   मोहि   मारा।। ”
“ अनुज   बधू   भगिनी   सुत   नारी।  
 सुनु   सठ   कन्या   सम   ए   चारी।
इन्हहि   कुदृष्टि   बिलोकई   जोई।   
ताहि   बधें   कछु   पाप   न   होई।। ”
           अर्थात्   हे   मूर्ख।   सुनो   जो   छोटे   भाई   की   स्त्री ,  बहिन ,  पुत्र   की   स्त्री   और   कन्या - ये   चारों   समान   हैं।   इनको   जो   बुरी   दृष्टि   से   देखता   है ,  उसे   मारने   में   कुछ   भी   पाप   नहीं   होता   है।  बालि   ने   अपने   अनुज   सुग्रीव   की   पत्नी   को   छीन   लिया   था , अतः   बालि   को   छिपकर   मारने   में   भी   कोई   अपराध   नहीं   था ,  अपितु   यह   सुग्रीव   व   उनकी   पत्नी   के   साथ   किया   गया   ‘ न्याय ’  था।   बालि   ने   नीति - नियमों ,  परम्पराओं   के   विरूद्ध   कार्य   किया ,  अधर्म   किया।   इसलिए   वह   ‘ दण्ड ’  का   भागी   भी   बना।  साहित्यकार रामशरण   शर्मा   लिखते   हैं   कि   ” राज्य   की   अखण्डता   और   एकता   बनाए   रखने   के   लिए   प्लेटो   राज्यधर्म   का   विधान   करता   है ,  जिसका   मतलब   यह   हुआ   कि   कुछ   धार्मिक   विश्वासों   और   प्रथाओं   को   सभी   वर्गों   के   लोगों   द्वारा   आधारित   करवाना   चाहिए।   इनका   उल्लंघन   करने   वालों   के   लिए   कारावास   या   मृत्युदंड   तक   का   भी   विधान   किया   गया   है। ”  जिससे   ‘ न्याय - व्यवस्था ’  बनी   रहें   तथा   समाज   नीति   का   निरन्तर   पालन   करता   करें।   राम   ‘ रावण ’  का   वध   कर   न्याय ,  नीति ,  धर्म   की   ही   स्थापना   करते   हैं।   गोस्वामीजी   रावण   वध   के   बाद   इन्द्र   द्वारा   राम   की   स्तुति   करते   हुए   कहते   हैं   कि - 
‘ परद्रोह   रत   अति   दुष्ट।   पायो   सो   फलु   पापिष्ट।।
अब   सुनहु   दीन   दयाल।   राजीव   नयन   बिसाल।। ’
        अर्थात्   वह   दूसरों   से   द्रोह   करने   में   तत्पर   और   अत्यन्त   दुष्ट   था।   उस   पापी   ने   वैसा   ही   फल   पाया।   स्पष्ट   है   कि   यद्यपि   वर्तमान   समय   में   विध   व   कानूनी   प्रक्रियायें   अत्यन्त   जटिल   हो   गई   हैं   फिर   इन   प्रक्रियाओं   में   धन   व   समय   अत्यधिक   लगता   है   जिससे   न्यायार्थी   को   कई   बार   अपने   सम्पूर्ण   जीवन   में   भी   न्याय   नहीं   मिल   पाता।  
           भारत   में   आए   अनेक   विदेशी   शासन   प्रणाली   से   ही   हमारी   न्याय - व्यवस्था   भी   प्रभावित   हुई   है।   आज   स्थिति   विकट   है।   ‘ मानस ’  व   भारतीय   धर्मग्रन्थों   के   माध्यम   से   समझा   जा   सकता   है   कि   राज्यव्यवस्था   और   न्यायव्यवस्था   के   साथ   ही   समाज   व   व्यक्ति   में   व्याप्त   नैतिक   आचरण   से   ही   एक   सभ्य ,  संस्कारी ,  शिक्षित   व   अपराध   मुक्त   सामाजिक - सांस्कृतिक - नैतिक   पर्यावरण   निर्मित   हो   सकता   है।  

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