Wednesday, March 16, 2022

जगद्गुरु पंडित श्रीराम बल्लभाशरण जी महाराज का परिचय

जगद् गुरु पंडित श्री राम बल्लभा शरण जी महाराज का परिचय
डा. राधे श्याम द्विवेदी
      वेदांती जी का स्थान श्री सनातन रामानंदीय संप्रदायों का मन्दिर है। यह श्रीराम ,सीता, हनुमान और ब्रह्मादि सहित कुल ४१ वें गुरुवों की परम्परा वाला पवित्र स्थान है। इस संप्रदाय के 38वें आचार्य जगद् गुरु पंडित श्रीराम बल्लभा शरण जी महाराज रहे। इनका बचपन का नाम धनुषधारी था। जो मूलतः मध्य प्रदेश के पन्ना जिले के रहेड गाँव के रहने वाले थे । इनके पितामह (बाबा )का नाम श्री गदाधर त्रिपाठी, पिता का नाम श्री राम लाल और माता का नाम श्री मती रमा देवी था। धनुषधारी के मातापिता को ब्रह्म बेला में एक दिव्य साधु ने दर्शन देकर गोपनीयता से एक सिद्ध मंत्र को जपने का आदेश दिया जिससे उन्हें श्री राम जी का दर्शन लाभ हुआ। जिससेे उन्होंने भगवद् भक्त पुत्र की याचना किया था। 
              प्रभु राम की कृपा से आषाढ कृष्ण त्रयोदसी १९१५ विक्रमी ( तदनुसार सन् 1858 ई.) के अभिजीत मुहूर्त मे माता रमा देवी को श्री राम के गुणों से युक्त धनुषधारी (गुरुदेव भगवान श्री राम बल्लभा शरण जी महाराज ) नामक पुत्र रत्न का अवतरण हुआ। पूर्ववर्ती दिव्य साधु के स्वप्न आदेश से उनके माता पिता को रहेड गाँव को छोड़ पौड़ी गाँव मे रहने का निर्देश मिला। जहाँ माता पिता ने अपने बच्चों पुत्र पुत्री सहित संवत् १९२२ विक्रमी (तदनुसार सन् 1865 ई.) में पौड़ी गाँव में आकर बस गए। जहाँ बालक धनुषधारी कीर्तन, भजन अध्ययन और रामलीला आदि में बढ़ चढ़ कर भाग लेते थे। वे वहाँ स्थित सीताराम मन्दिर के हनुमान जी की सेवा सुश्रुषा करने लगे। बाद में संवत १९२३ विक्रमी (तदनुसार सन् 1866 ई.) से वह मन्दिर ही गुरुदेव भगवान का निवास और पूजा स्थान बन गया। वहाँ पर आकर पूर्ववर्ती दिव्य संत ने धनुषधारी को प्रज्ञावर्धन स्त्रोत समझा कर चले गए जिससे उस गुरुदेव जी के जीवन में अलौकिक प्रभाव पड़ा। संवत १९३२ विक्रमी (तदनुसार सन् 1875 ई.)में पिता श्री रामलाल जी गोलोक वासी हो गये।      
              धनुषधारी जी को रामानंदीय संत राम बचन दास जी का सानिध्य , प्रेरणा और दीक्षा से काशी में शिक्षा का अवसर मिला। संवत १९३५ विक्रमी (तदनुसार सन् 1878 ई.) में इन्ही गुरु से वे विरक्ति की शिक्षा दीक्षा लिये। वे अपनी अनेक अलौकिक सिद्धियों और प्रयोगों को धनुषधारी यानी गुरुदेव राम बल्लभ शरण को प्रदान किया। उन्हें हनुमान पताका का सफल प्रयोग और मार्गदर्शन कराया। जहाँ संवत १९३७ विक्रमी (तदनुसार सन् 1880ई.) तक वे अपने गुरु की सेवा मे निरंतर तत्पर रहे। 
           कई उतार चढ़ाव और चमत्कार के उपरांत श्री महाराज जी कार्तिक शुक्ल नवमी (अक्षय नवमी) को अयोध्या धाम को पधारे। छोटी छावनी उनका शुरुवाती पड़ाव रहा। वे यहाँ जलभरिया का समान्य सेवा कर समान्य साधु सा जीवन विताते थे। एक बार कुएं मे गिरने से जब उनको कोई चोट ना लगने की बात फैली तो महंथ सहित सभी साधु समाज ने उनसे क्षमा मांगी। एक बार ध्यान ना लगने से वे सरयू नदी में अपनी लीला संवरण की योजना बनाई तो माता सीता द्वारा उनके ज्ञान चक्षु खोल वापस साधना करने का आदेश मिला था। हनुमान जी से भी उनका साक्षात्कार हुआ था। छोटी छावनी मे रहते हुए वे बाल्मीकि और तुलसी रामायण के प्रख्यात कथा वाचक हो गये थे। बड़ी छावनी के भजनानंदी संत श्री विद्या दास की प्रेरणा और आशीर्वाद से उनके ही आश्रम में संवत १९४० विक्रमी (तदनुसार सन् 1883 ई.) में गुरुदेव राम बल्लभ शरण जी ने अपना पहला बाल्मीकि रामायण की कथा सुनाया था। जब वहाँ भीड़ इतनी होने लगा कि वह स्थान छोटा पड़ने लगा तो छोटी छावनी के सामने खुले प्रांगण में कथा होने लगी। यहाँ पुराण ,भागवत ,गीता और रामायण की नियमित कथा होने लगी। पहले टीन का छाजन और बाद मे इसी स्थान पर विशाल बाल्मीकि रामायण भवन का निर्माण छोटी छावनी की तरफ से हुआ था। जहाँ शिलावों पर रामायण उत्कीर्ण किया गया है। संतो ने महाराज जी की विद्वता देख उन्हे पंडित जी की उपाधि से विभूषित किया। गुरुदेव विद्यादास ने महाराज जी की भक्ति देख उन्हें मंत्र राज उपदेश करने का आदेश दिया। अब संवत १९५१ विक्रमी (तदनुसार सन् 1894 ई.) से महाराज जी ने मंत्रोपदेश दे जीवों को भव पार करने लगे। अभी तक महाराज जी का आसन छोटी छावनी था जहाँ बाल्मीकि रामायण भवन स्थल पर उनकी कथा होती रहती थी। 
      श्री महाराज जी के गुरु विद्या दास के साधक शिष्य और गुरु भाई कल्याण दास जी को श्री हनुमान जी के दर्शन और आदेश से कोई भक्त कुछ मुद्रा प्रदान किया था। जिससे छोटी छावनी के पास आठ बीघा जमींन पंडित राम बल्लभ शरण जी के नाम खरीद कर कल्यानदास ने दो कमरे बनवा कर जमीन के कागजात श्री महाराज जी को सौप दिये। जहाँ संवत १९५३ विक्रमी (तदनुसार सन् 1896 ई.) में महाराज जी दो संत श्री रामानुज दास तथा श्री शीतल दास के साथ वर्तमान वेदांती जी का स्थान, श्री राम वल्लभाकुंज में रहने लगे। 
            प्रथम गुरु राम वल्लभा शरण जी महाराज (जन्म आषाढ कृष्ण त्रयोदासि संवत १९१५ विक्रमी (तदनुसार सन् 1858 ई.) , लीला संवरण तिथि कार्तिक मास शुक्ल पक्ष दशमी संवत १९९८ विक्रमी (तदनुसार सन् 1941 ई.) यही से अपनी साधना से जीवों का कल्याण करते रहे। महाराज जी की भौतिक लीला 83 वर्षो तक अनवरत जारी रही है।

 


       


 





 

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