Saturday, May 27, 2017

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की एतिहासिक पृष्ठभूमि डा. राधेश्याम द्विवेदी


ईस्ट इण्डिया कम्पनी के समय के प्रारम्भिक प्रयास : (भा. पु. स. परिचायिका  सिरीज -1)  
प्रस्तावना:- ब्रिटिशकाल में अनेक कला प्रेमी अधिकारियों ने भारत में बिखरी हुई पुरा सम्पदा को व्यवस्थित करने , संजोने तथा पुनरुद्धार करने का अति महत्वपूर्ण कार्य किया है। उन्हें भारत की होने वाली अपूर्णनीय क्षति देखी ना गई। कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति सर विलियम जोन्स 1783 में भारत आये थे। वह बहुत संस्कारवान तथा कलाप्रेमी थे। अपने भारत आगमन के एक वर्ष के भीतर 15 जनवरी 1784 को उन्होंने कलकत्ता में एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना की थी। तभी से सरकार जनता के बीच नव जागरण का संचार तथा पुरातत्व विज्ञान का बीजारोपण हुआ था। विरासतों के रक्षा के उपाय अपनाये जाने लगे। जनता में जागरुकता और चेतना का संचार हुआ। इससे ना केवल भारत अपितु बृहत्तर भारत की  पुरावस्तुओं, कला, विज्ञान तथा साहित्य को एकरुपता तथा क्रमबद्धता देने में सुगमता हो गई। 1788 . में एशियाटिक रिसर्चेज नामक पत्रिका का प्रकाशन शुरु हुआ। जिसमें विद्वान अपनी अपनी खोजों और अनुसंधानों को प्रकाशित कराना आरम्भ किये। पत्रिका में नई तकनीकि तथा किये जा रहे अत्याधुनिक प्रयासों परिणामों को प्रकाशन में लाया जाने लगा। एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना से प्रेरित होकर 1804 में बम्बई में तथा 1819 में मद्रास में साहित्यिक सभाओं एवं 1818 में कलकत्ता में पुरातत्व संग्रहालयों की स्थापना की गई। तत्पश्चात भारत के अन्य भागों में इसी प्रकार के प्रयोग किये जाने लगे।
एशियाटिक सोसाइटी का कार्यक्षेत्र अत्यन्त व्यापक था। इसके सदस्यों का रुझान प्राचीन साहित्य की तरफ विशेष रुप से था। यूनानी, लैटिन तथा संस्कृत भाषाओं के पारस्परिक सम्बन्धों एवं तुलनात्मक अध्ययनों की शुरुवात भी हो गई थी। प्राचीन भारतीय पुरालिपियों तथा अभिलेखों का पाठन तथा वाचन शुरु हो गया था। अभी तक भाषा संस्कृति तथा इतिहास के व्यक्तिगत प्रयास ही यत्र तत्र दिखाई पड़ रहे थे। 1800 . में भारत के परिस्थितियों में कुछ परिवर्तन हुआ। इस समय लार्ड मार्किटज बेलेजली भारत का वायसराय था। उसने फ्रांसिस बुकनेन को मैसूर तथा बंगाल के स्मारकों के सर्वेक्षण करने के लिए नियुक्त किया। आठ वर्षों तक उन्होने मैसूर बंगाल तथा उत्तर प्रदेश के स्मारकों का सर्वेक्षण किया तथा एतिहासिक स्मारकों के मानचित्रों एवं रेखचित्रों को तैयार करवाने की आवश्यकता प्रतीत हुई। इस संस्तुति के बावजूद कोई समय नियमबद्ध कार्य शुरु ना हो सका। समय समय पर राज्य सरकारें ताजमहल, अकबर का मकबरा तथा कुतुब मीनार आदि स्मारकों के बहुत ही जरुरी मरम्मत कार्य करवाते रहे। फ्रांसिस बुकनेन ने 37 खण्डों में अपना सर्वेक्षण कार्य प्रस्तुत किया था। इनमें कुछ ही प्रकाशित हो सके थे।
1833 में कलकत्ता सरकारी टकसाल के मुख्याध्यक्ष जेम्स प्रिसेप एशियाटिक सोसायटी के मंत्री बनें। उन्होंने ब्राह्मी ,खरोष्टी लिपियों तथा अशोक के अभिलेखों को भी पढ़ा। उन्होंने विलियम जोन्स के सहयोग से कलकत्ता में एशियाटिक रिसर्चेज नामक पत्रिका का प्रकाशन शुरु किया। जिसमें अनेक विद्वान पुरावेत्ता जुड़ते हुए अपनी अपनी खोजों और अनुसंधानों को प्रकाशित कराना आरम्भ किये। देश में पुरातत्व संरक्षण के प्रति एक नवीन चेतना बिकसित हुई। 40 वर्ष की आयु में 22 अप्रैल 1840 में जोन्स के निधन से पुरातत्व जगत की अपूर्णनीय क्षति हुई। कुछ व्यक्तिगत प्रयासों द्वारा पुरातात्विक वैभव का मंथन होता रहा। 1844 में रायल एशिटिक सोसायटी के आग्रह पर ग्रेट ब्रिटेन के कोर्ट आफ डायरेक्टरों ने भारत सरकार को लिखा कि एक एसे योग्य अधिकारी की नियुक्ति करें जो अजन्ता आदि गुफाओं का जीर्णोद्धार तथा उनमें बने चित्रों की प्रतिकृतियां बनाकर उसे सुरक्षित कर सके। इसके लिए भारत सरकार ने कुछ पैसे की स्वीकृति भी प्रदान की। विहार एवं बनारस में उत्खनन हेतु मार्खम किट्टो तथा कालिंजर एवं सांची के रेखाचित्र के लिए मेजर मेजी की नियुक्ति भी हुई 1847 में लार्ड हर्डिंग भारत का वायसराय था। उसने रायल एशियाटिक सोसायटी के डायरेक्टर्स के कोर्ट में उक्त प्रतिवेदन में महत्वपूर्ण कलाकृतियों के परीक्षण एवं अभिलेखन हेतु उदारता पूर्वक स्वीकृति प्रदान की। कुछ रेखाचित्रों एवं शोधपत्रों के प्रकाशनों तक सीमित रहते हुए यह अभियान 2 या 3 वर्षों तक ही दिखाई दिया। 1857 के भारत के प्रथम स्वतंत्रता  आन्दोलन में पुरातत्व कार्य पूर्णरुपेण अवरुद्ध सा हो गया था।
                                                                                                                        (क्रमशः)

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