Monday, May 22, 2017

अखंड सौभाग्य एंव पर्यावरण की रक्षा के लिए वटवृक्ष की पूजा डा. राधेश्याम द्विवेदी

 वट या बरगद बहुवर्षीय विशाल वृक्ष है। यह एक स्थलीय द्विबीजपत्री एंव सपुष्पक वृक्ष है। इसका तना सीधा एंव कठोर होता है। इसकी शाखाओं से जड़े निकलकर हवा में लटकती हैं तथा बढ़ते हुए जमीन के अंदर घुस जाती हैं एंव स्तंभ बन जाती हैं। इन जड़ों को बरोह या प्राप जड़ कहते हैं। इसका फल छोटा गोलाकार एंव लाल रंग का होता है। इसके अन्दर बीज पाया जाता है। इसका बीज बहुत छोटा होता है किन्तु इसका पेड़ बहुत विशाल होता है। इसकी पत्ती चौड़ी, एंव लगभग अण्डाकार होती है। इसकी पत्ती, शाखाओं एंव कलिकाओं को तोड़ने से दूध जैसा रस निकलता है जिसे लेटेक्स कहा जाता है। वृक्षों की पूजा हमारे देश की समृद्ध परंपरा और जीवनशैली का अंग रहा है. वैसे तो हर पेड़-पौधे को उपयोगी जानकर उसकी रक्षा करने की परंपरा है. लेकिन वटवृक्ष या बरगद की पूजा का खास महत्व बताया गया है.
बरगद का धार्मिक महत्व:- बरगद के पेड़ को वट का वृक्ष कहा जाता है। हिंदू धर्म में वट वृक्ष की बहुत महत्ता है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश की त्रिमूर्ति की तरह ही वट,पीपल नीम को माना जाता है, अतःएव बरगद को ब्रह्मा समान माना जाता है।यह पेड़ लंबे समय तक अक्षय रहता है, इसलिए इसे 'अक्षयवट' भी कहते हैं. अखंड सौभाग्य और आरोग्य के लिए भी वटवृक्ष की पूजा की जाती है. शास्त्रों में वट वृक्ष को पीपल के समान ही महत्त्व दिया गया है। पुराणों में यह स्पष्ट लिखा गया है कि वटवृक्ष की जड़ो में ब्रह्मा जी ,तने में विष्णु जी और डालियों एवं पत्तो में शिव का वास है। इसके नीचे बैठकर पूजन ,व्रत कथा कहने और सुनने से मनोकामना पूरी होती है। ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या तिथि के दिन वटवृक्ष की पूजा का विधान है। शास्त्रों में कहा गया है की इस दिन वट वृक्ष की पूजा से सौभाग्य एवं स्थायी धन और सुख -शांति की प्राप्ति होती है।अनेक व्रत त्यौहारों में वटवृक्ष की पूजा की जाती है। अक्षयवट के पत्ते पर ही प्रलय के अंत में भगवान श्रीकृष्ण ने मार्कण्डेय को दर्शन दिए थे. देवी सावित्री भी वटवृक्ष में निवास करती हैं. प्रयाग में गंगा के तट पर स्थि अक्षयवट को तुलसीदासजी ने 'तीर्थराज का छत्र' कहा है. बरगद को वटवृक्ष भी कहा जाता है. सनातन धर्म में वट-सावत्री नाम का एक त्योहार पूरी तरह वट को ही समर्पित है. वटवृक्ष के नीचे सावित्री ने अपने पति को पुन: जीवित किया था. तब से यह व्रतवट सावित्रीके नाम से जाना जाता है.
सौभाग्य सुख-शांति की प्राप्ति:-  ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या तिथि के दिन वटवृक्ष की पूजा का विधान है. शास्त्रों में कहा गया है कि इस दिन वटवृक्ष की पूजा से सौभाग्य स्थायी धन और सुख-शांति की प्राप्ति होती है. संयोग की बात है कि इसी दिन शनि महाराज का जन्म हुआ. सावित्री ने यमराज से अपने पति सत्यवान के प्राण की रक्षा की. भगवान शिव जैसे योगी भी वटवृक्ष के नीचे ही समाधि लगाकर तप साधना करते थे-
तहं पुनि संभु समुझिपन आसन। बैठे वटतर, करि कमलासन।।
(भावार्थ- अर्थात कई सगुण साधकों, ऋषियों यहां तक कि देवताओं ने भी वटवृक्ष में भगवान विष्णु की उपस्थिति के दर्शन किए हैं।) -रामचरित मानस

5 तरह के वटवृक्ष :- हिन्दू धर्मानुसार 5 वटवृक्षों का महत्व अधिक है। अक्षयवट, पंचवट, वंशीवट, गयावट और सिद्धवट के बारे में कहा जाता है कि इनकी प्राचीनता के बारे में कोई नहीं जानता। संसार में उक्त 5 वटों को पवित्र वट की श्रेणी में रखा गया है। प्रयाग में अक्षयवट, नासिक में पंचवट, वृंदावन में वंशीवट, गया में गयावट और उज्जैन में पवित्र सिद्धवट है।
1.अक्षयवट :- अक्षयवट पुराणों में वर्णन आता है कि कल्पांत या प्रलय में जब समस्त पृथ्वी जल में डूब जाती है उस समय भी वट का एक वृक्ष बच जाता है। अक्षयवट कहलाने वाले इस वृक्ष के एक पत्ते पर ईश्वर बालरूप में विद्यमान रहकर सृष्टि के अनादि रहस्य का अवलोकन करते हैं। अक्षय वट के संदर्भ कालिदास के रघुवंश तथा चीनी यात्री ह्वेन त्सांग के यात्रा विवरणों में मिलते हैं। अक्षय वट प्रयाग में त्रिवेणी के तट पर आज भी अवस्थित कहा जाता है।हिन्दुओं के अलावा जैन और बौद्ध भी इसे पवित्र मानते हैं। कहा जाता है बुद्ध ने कैलाश पर्वत के निकट प्रयाग के अक्षय वट का एक बीज बोया था। जैनों का मानना है कि उनके तीर्थंकर ऋषभदेव ने अक्षय वट के नीचे तपस्या की थी। प्रयाग में इस स्थान को ऋषभदेव तपस्थली (या तपोवन) के नाम से जाना जाता है।वाराणसी और गया में भी ऐसे वट वृक्ष हैं जिन्हें अक्षय वट मान कर पूजा जाता है। कुरुक्षेत्र के निकट ज्योतिसर नामक स्थान पर भी एक वटवृक्ष है जिसके बारे में ऐसा माना जाता है कि यह भगवान कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए गीता के उपदेश का साक्षी है।
 2. पंचवट:-  पुराण में वर्णित पंचवटी पौराणिक ग्रन्थ 'स्कन्द पुराण' के हेमाद्रीय व्रत खण्ड के अनुसार पंचवटी का वर्णन निम्रानुसार है'पीपल,बेल, वट, धातृ (आंवला) अशोक ये पांचों वृक्ष पंचवटी कहे गये हैं। इनकी स्थापना पांच दिशाओं में करना चाहिए। अश्वत्थ (पीपल) पूर्व दिशा में, उत्तर दिशा में, वट (बरगद) पश्चिम दिशा में, धातृ (आंवला) दक्षिण दिशा में तपस्या के लिए स्थापना करनी चाहिए। पांच वर्षों के पश्चात् चार हाथ की सुन्दर सुमनोहर वेदी की स्थापना बीच में कराना चाहिए। यह अनन्त फलों को देने वाली तपस्या का फल प्रदान करने वाली है।
3. वंशीवट:- 'वंशीवट' ब्रजमण्डल के द्वादश वनों में से एक भाण्डीरवन में स्थित है। यह श्रीकृष्ण की रासलीला का स्थल है। श्रीकृष्ण गोचारण के समय इसी वृक्ष के नीचे राधा और उनकी सखियों के साथ रास रचाते थे। वंशीवट ब्रजमण्डल में भांडीरवन के भांडीरवट से थोड़ी ही दूरी पर अवस्थित है। यह वंशीवट वृन्दावन वाले वंशीवट से पृथक है। श्रीकृष्ण जब यहाँ गोचारण कराते, तब वे इसी वट वृक्ष के ऊपर चढ़कर अपनी वंशी से गायों का नाम पुकार कर उन्हें एकत्र करते और उन सबको एकसाथ लेकर अपने गोष्ठ में लौटते। कभी-कभी श्रीकृष्ण सुहावनी रात्रि काल में यहीं से प्रियतमा गोपियों के नाम 'राधिके ! ललिते ! विशाखे' ! पुकारते। इन सखियों के आने पर इस वंशीवट के नीचे रासलीलाएँ सम्पन्न होती थीं। वंशीवट स्थान वही है जो भगवान श्रीकृष्ण ने द्वापर युग में अपनी माता यशोदा माता से कहा था। इसी स्थान पर रास बिहारी ने तरह-तरह की लीलाएं कीं। तहसील मांट मुख्यालय से एक किमी दूर यमुना किनारे यह स्थान है यहां पर कन्हैया नित्य गाय चराने जाते थे। बेणुवादन, दावानल का पान, प्रलम्बासुर का वध तथा नित्य रासलीला करने का साक्षी रहा इस वट का नाम वंशीवट इसलिये पड़ा कि इसकी शाखाओं पर बैठकर श्री कृष्ण वंशी बजाते थे और गोपियों को रिझाते थे। वंशीवट नामक इस वटवृक्ष से आज भी कान लगाकर सुनें तो ढोल मृदंग, राधे-राधे की आवाज सुनायी देती है।इसकी छांव में बैठकर भजन करने से मनोकामना पूरी होती है इसी स्थान पर सैकड़ों साधु तपस्या में लीन रहते हैं।
4. गयावट :-  गया में गयावट जिसे बौद्धवट भी कहा जाता है  गया से 17 किलोमीटर की दूरी पर बोधगया स्थित है जो बौद्ध तीर्थ स्थल है और यहीं बोधि वृक्ष के नीचे भगवान बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी।
 5. सिद्धवट :- उज्जैन में पवित्र सिद्धवट स्कंद पुराण अनुसार पार्वती माता द्वारा लगाए गए इस वट की शिव के रूप में पूजा होती है। पार्वती के पुत्र कार्तिक स्वामी को यहीं पर सेनापति नियुक्त किया गया था। यहीं उन्होंने तारकासुर का वध किया था।  उज्जैन के पास भैरवगढ़ के पूर्व में विमल जल-वाहिनी शिप्रा के मनोहर तट पर 'सिद्धवट' का स्थान है। यहाँ पर नागबलि, नारायण बलि-विधान का विशेष महत्व है। संपत्ति, संतित और सद्गति की सिद्धि के कार्य होते हैं। यहाँ पर कालसर्प शांति का विशेष महत्व है, इसीलिए कालसर्प दोष की भी पूजा होती है। वर्तमान में इस सिद्धवट को कर्मकांड, मोक्षकर्म, पिंडदान, कालसर्प दोष पूजा एवं अंत्येष्टि के लिए प्रमुख स्थान माना जाता है। कहते हैं, मुगल बादशाहों ने धार्मिक महत्व जानकर वट वृक्ष के मूल पर कुठार चलाया था, वृक्ष नष्ट कर उस पर लोहे के बहुत मोटे पतरे-तवे जड़ा दिए थे। कहते हैं कि उस पर भी अंकुर फूट निकले, आज भी वृक्ष हरा-भरा है। मंदिर में फर्श लगी हुई है।

पर्यावरण की रक्षा में उपयोगी :- वायुमंडल से कार्बन डाइऑक्साइड ग्रहण करने और ऑक्सीजन छोड़ने की भी इसकी क्षमता बेजोड़ है. यह हर तरह से लोगों को जीवन देता है. ऐसे में बरगद की पूजा का खास महत्व स्वाभाविक ही है. भारत में पीपल, ऑंवला, तुलसी, केला, वट-वृक्ष आदि की पूजा प्रचलित है। भारतीय संस्कृति में वनस्पतियों में देवताओं का वास माना गया है इसलिए पर्व-त्योहारों में उन्हें विशेष स्थान दिया जाता है। यह उल्लेखनीय है कि पर्यावरण-संरक्षण में कुछ वनस्पतियों का विशेष योगदान है। जैसे-पीपल को भगवान कृष्ण का अवतार माना जाता है इसके अलावा पीपल में पर्यावरण-शुध्दि की अद्भुत क्षमता है। इसकी पत्तियाँ हाथी-भेड़, ऊंट-बकरी आदि के चरने के काम आती हैं तथा इसकी छाल और दूधा औषधि के रूप में उपयोगी हैं। सम्भवत: भारत में वनस्पतियों को पूजने की परम्परा के पीछे यही उद्देश्य रहा होगा कि हमारी प्रकृति और पर्यावरण सुरक्षित रहें। आज जबकि पर्यावरण तीव्र गति से प्रदूषित हो चला है, हरियाली नष्ट होती जा रही है, धारती का तापमान बढ़ता जा रहा है, हमें अपनी समृध्द सांस्कृतिक परम्पराओं को स्मरण करने की ही नहीं अपितु पुनर्जीवित करने की नितान्त आवश्यकता है। धार्मिक पर्व-त्योहारों के बहाने से ही सही, पूजनीय वनस्पतियों सहित जीवनोपयोगी अन्य पेड़-पौधो के संरक्षण का भी उपाय करना आवश्यक है। 



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