इक्ष्वाकु वंश
के मर्यादा पुरुषोत्तम राम को आशीर्वाद देने वाले, कौरव नरेश धृतराष्ट को पाण्डवों
से संधि करने की सलाह देने वाले और सूत-पुत्र कर्ण को ब्रह्मशास्त्र की दीक्षा देने
वाले परशुराम ही थे। परशुराम क्षत्रियों के शत्रु नहीं शुभचिंतक थे। परशुराम केवल आतातायी
क्षत्रियों के प्रबल विरोधी थे। अंहकारी
व उन्मत्त क्षत्रिय राजाओं को, युद्ध में मार गिराते हुए अंत में लोहित क्षेत्र, अरुणाचल
में पहुंचकर ब्रहम्पुत्र नदी में अपना फरसा धोया था। बाद में यहां पांच कुण्ड बनवाए
गए जिन्हें समंतपंचका रुधिर कुण्ड कहा गया है। ये कुण्ड आज भी अस्तित्व में हैं। इन्हीं
कुण्डों में भृगृकुलभूषण परशुराम ने युद्ध में हताहत हुए भृगु व सूर्यवंशीयों का तर्पण
किया।
परशुराम ने शुद्र
माने जाने वाले दरिद्र नारायणों को शिक्षित व दीक्षित कर उन्हें ब्राहम्ण बनाया। यज्ञोपवीत
संस्कार से जोड़ा और उस समय जो दुराचारी व आचरणहीन ब्राहम्ण थे, उन्हें शूद्र घोषित
कर उनका सामाजिक बहिष्कार भी किया। परशुराम ने समाज सुधार व कृषि के कार्य हाथ में
लिए। केरल, कोंकण मलबार और कच्छ क्षेत्र में समुद्र में डूबी ऐसी भूमि को बाहर निकाला
जो खेती योग्य थी। इस समय कश्यप ऋषि और इन्द्र समुद्री पानी को बाहर निकालने की तकनीक
में निपुण थे। अगस्त्य को समुद्र का पानी पी जाने वाले ऋषि और इन्द्र का जल-देवता इसीलिए
माना जाता है। परशुराम ने इसी क्षेत्र में परशु का उपयोग रचनात्मक काम के लिए किया।
शूद्र माने जाने वाले लोगों को उन्होंने वन काटने में लगाया और उपजाउ भूमि तैयार करके
धान की पैदावार शुरु कराईं। इन्हीं शूद्रों को परशुराम ने शिक्षित व दीक्षित करके ब्राहम्ण
बनाया। इन्हें जनेउ धारण कराए। अक्षय तृतीया के दिन एक साथ हजारों युवक-युवतियों को
परिणय सूत्र में बांधा। परशुराम द्वारा अक्षयतृतीया के दिन सामूहिक विवाह किए जाने
के कारण ही इस दिन को परिणय बंधन का बिना किसी मुहूर्त्त के शुभ मुहूर्त्त माना जाता
है। दक्षिण का यही वह क्षेत्र हैं जहां परशुराम के सबसे ज्यादा मंदिर मिलते हैं और
उनके अनुयायी उन्हें भगवान के रुप में पूजते हैं।
हिंदू धर्म ग्रंथों
में कुछ महापुरुषों का वर्णन है जिन्हें आज भी अमर माना जाता है। इन्हें अष्टचिरंजीवी
भी कहा जाता है। इनमें से एक भगवान विष्णु के आवेशावतार परशुराम भी हैं-
अश्वत्थामा बलिव्र्यासो
हनूमांश्च विभीषण।
कृप: परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविन।।
सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टमम्।
जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधिविवर्जित।।
कृप: परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविन।।
सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टमम्।
जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधिविवर्जित।।
इस श्लोक के अनुसार अश्वत्थामा, राजा बलि, महर्षि वेदव्यास, हनुमान,
विभीषण, कृपाचार्य, भगवान परशुराम तथा ऋषि मार्कण्डेय अमर हैं। ऐसी मान्यता है कि भगवान
परशुराम वर्तमान समय में भी कहीं तपस्या में लीन हैं। कठिन तप से प्रसन्न
हो भगवान विष्णु ने उन्हें कल्प के अंत तक तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया। श्रीमद्भागवत महापुराण के
अनुसार के अनुसार –
अश्वत्थामा बलिव्र्यासो हनुमांश्च विभीषण
कृप: परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविनरू।।
कृप: परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविनरू।।
पौराणिक
परंपरा में जिन सात व्यक्तियों को अजर अमर माना गया है, उनमें परशुराम एक हैं। कहते
हैं कि राम के शौर्य, पराक्रम और धर्मनिष्ठा को देख कर वे हिमालय चले गए थे। उन्होंने
बुद्धिजीवियों और धर्मपुरुषों की रक्षा के लिए उठाया परशु त्याग दिया। तप, स्वाध्याय
शिक्षण और लोकसेवा छोड़कर आपद्धर्म के रूप में शस्त्र उठाने का प्रायश्चित करने के लिए
हिमालय क्षेत्र में समय व्यतीत किया। क्योंकि परशुराम चिरजीवी हैं, इसलिए माना जाता
है कि आज भी सशरीर वे हिमालय के किन्हीं अगम्य क्षेत्रों में निवास करते हैं। परशुराम
का कार्य क्षेत्र गोमांतक (गोवा) कहा जाता है। राम से साक्षात्कार होने और उन्हें अवतार
के रूप में पहचानने के बाद वे हिमालय चले गए। ऋषि धर्म के विपरीत शस्त्र उठाने का प्रायश्चित
करने के लिए कहते हैं कि परशुराम ने हिमालय की घाटी में फूलों की घाटी बसाई।
भगवान परशुराम के चरित को दर्शानेवाली एक वीडियो देखा जा सकता है।
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