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के जिन साहित्यकारों ने बस्ती को एक खास पहचान दिलाई, लोगों में साहित्यिक चेतना पैदा
की, आज अपने ही गांव - क्षेत्र में बेगाने हो कर रह गए हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल,
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, डा.लक्ष्मी नारायण लाल, डा. मुनिलाल उपाध्याय ’सरस’ और
पं.बलराम प्रसाद ‘द्विजेश’ समेत अनेक प्रख्यात साहित्यकारों व कवियों को बस्ती की धरती
ने जन्म दिया लेकिन दुख इस बात का है कि यहीं के लोगों ने उन्हें भुला दिया। न साहित्य
प्रेमियों को इन्हें याद करने की फुर्सत है और न ही शासन - प्रशासन को। कहीं कोने में
किसी की मूर्ति लगी है तो कोई रेलवे स्टेशन पर फोटो में टंग कर अपने को बस्ती वासी
होने की याद दिला रहा है।
बस्ती शहर से 25 किमी दूर रामजानकी मार्ग पर
समालोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल की जन्म स्थली अगौना स्थित है। हिंदी साहित्य का इतिहास
समेत कई कालजयी रचनाएं देने वाले आचार्य शुक्ल के गांव में कहने को उनके नाम से एक
पुस्तकालय स्थापित है, लेकिन सच यह कि यहां की कुर्सियां टूट चुकी हैं, किताबें बक्सों
में बंद हैं। पुस्तकालय की टूटी दीवारें उपेक्षा की कहानी खुद कह रही हैं। आचार्य शुक्ल
के पौत्र रामेंद्र त्रिपाठी (आइएएस) के प्रयास से यहां धर्मशाला और पुस्तकालय की स्थापना
हुई। उनके जाने के बाद से यहां की दशा देखने वाला कोई नहीं है। गांव में न कोई साहित्य
प्रेमी पहुंचता है और न ही शासन - प्रशासन की तरफ से कोई आयोजन होता है। हिंदी साहित्य
को जन - जन तक पहुंचाने वाले आचार्य अपने ही क्षेत्र में गुम हो कर रह गए हैं।
अनेक
कालजयी कविता की रचना करने वाले सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का जन्म जनपद के पिपराशिव गुलाम
गांव में हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा के बाद बीएचयू और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाई
की। लौट कर कुछ दिनों तक बस्ती में अध्यापन कार्य किया। साहित्य में मुकाम न मिला तो
दिल्ली चले गए। आकाशवाणी में सहायक प्रोड्यूसर बने, फिर दिनमान और पराग के संपादक के
पद पर कार्य किया। खूंटियों पर टंगे लोग जैसी रचना पर साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित
हुए सक्सेना के लिए हिंदी दिवस ही नहीं, 15 सितंबर भी महत्वपूर्ण है। इसी दिन उन्होंने
बस्ती की धरती पर जन्म लिया था। बस्ती शहर के मालवीय रोड पर उनके भाई श्रद्धेश्वर दयाल
सक्सेना के पुत्र संजीव व संजय का परिवार रहता है। इनके पास सक्सेना की स्मृति के रूप
में एक पारिवारिक तस्वीर बची है। परिवार ने पराग पत्रिका के कुछ अंक सजो रखे हैं जिनका
संपादन सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने किया था। संजीव बताते हैं कि मरने के बाद कुछ वर्षो
तक जन्मतिथि और पुण्यतिथि पर उन्हें याद करने का क्रम चला, पर अब वह भी बंद हो चुका
है।
बहादुरपुर
ब्लाक के एक और लाल डा. लक्ष्मीनारायण लाल ने जलालपुर गांव में जन्म लिया। यहीं पले-बढ़े,
शिक्षा ग्रहण की और हिंदी साहित्यकारों में उपन्यासकार और नाटककार के रूप में ख्याति
पाई। गांव में इनका पैतृक मकान ध्वस्त हो चुका है। इनके भाई कमला लाल का परिवार गांव
में रहता है। इनके नजदीकी रिश्तेदार बिंदेश्वरी लाल बताते हैं कि गांव में डाक्टर साहब
की याद में पुस्तकालय स्थापना की योजना बनी। तत्कालीन मंडलायुक्त विनोद शंकर चौबे ने
पुस्तकालय की आधार शिला रखी और शिलापट्ट का अनावरण किया। पुस्तकालय का शिलापट्ट आज
भी भवन की प्रतीक्षा कर रहा है।
ब्रज भाषा के अंतिम कवि
बलराम मिश्र द्विजेश के नाम पर बस्ती शहर में एक सड़क है। इनके प्रपौत्र अम्बिकेश्वर
दत्त मिश्र और साहित्यकार सरस्वती शुक्ल कहते हैं कविवर जगन्नाथ दास रत्नाकर के समकालीन
रहे घनाक्षरी और सवैया छंदों के रचनाकार द्विजेश जी 25 जनवरी 1876 को जन्मे। उस समय
की देशी रियासतों के चहेते रहे द्विजेश जी ने हिंदी साहित्य की काफी सेवा की। शहर में
उनके नाम पर ऐसा कुछ भी नहीं है जो आम जन को उनकी रचनाधर्मिता का बोध कराता हो। बस
कुछ निकटजन ही उन्हें जन्मतिथि और पुण्य पर याद करते हैं।
डा.मुनिलाल
उपाध्याय ‘सरस’ जी का जन्म 10.04.1942 ई. में सीतारामपुर में श्री केदारनाथ उपाध्याय
के परिवार में हुआ था। डा. सरस 1 जुलाई 1963 से किसान इन्टर कालेज मरहा,कटया बस्ती
में सहायक अध्यापक के रूप में पहली नियुक्ति पाये थे, जहां वह जून 1965 तक अध्यापन
किये थे। डा. सरस जुलाई 1965 से नगर बाजार विद्यालय के संस्थापक प्रधानाध्यापक
हुए। 1965 से 2006 तक जनता उच्चतर माध्यमिक विद्यालय नगर बाजार बस्ती आजीवन प्रधानाचार्य
पद के उत्तरदायित्व का निर्वहन भी किये। अध्यापन के साथ ही साथ सरस जी ने हिन्दी, संस्कृत,
मध्यकालीन इतिहास, प्राचीन इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व विषय से एम. ए. करने के बाद
हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग का साहित्यरत्न, तथा सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय
वाराणसी का साहित्याचार्य उपाधि भी प्राप्त किये थे। वे अच्छे विद्वान कवि तथा शिक्षा
जगत के एक महान हस्ती थे। उन्हें राष्ट्रपति द्वारा दिनांक 5.9.2002 को वर्ष 2001 का
शिक्षक सम्मान भी मिल चुका है। उनकी लगभग 4 दर्जन
पुस्तकें प्रकाशित. 'बाल त्रिशूल' विधा का प्रवर्तन किया. बाल पत्रिका 'बालसेतु' (मासिक
हिंदी बालपत्र);का संपादन-प्रकाशन किया. वे बाल साहित्यकारों के लिए भी एक सेतु
जैसे थे .अपने खर्चे पर बस्ती में बाल साहित्यकार सम्मलेन किया करते थे.बहुत मिलनसार
और सह्रदय इंसान थे. बालसाहित्य- विवेकानंद,
साहित्य परिक्रमा; बाल बताशा विवेकानंद बालखंडकाव्य, नेहा-सनेहा, जलेबी, झँइयक
झम, चरण पादुका; आकाशवाणी तथा दूरदर्शन से दर्जनों प्रसारण। पुरस्कार-सम्मान-बाल
कल्याण संस्था कानपुर,नागरी बालसाहित्य संस्थान बलिया। वह जून 2006 तक अपने पद पर रहकर लगभग 42 साल तक शिक्षा जगत जे जुड़े रहे।
अगौना कलवारी में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल स्मारक व्याख्यानमाला, कविसम्मेलन तथा कन्याओं
के विद्यालय को खुलवाने में उनकी महती भूमिका रही है। सेवामुक्त होने के बाद वह अयोध्या
के नयेघाट स्थित परिक्रमा मार्ग पर केदार आश्रम बनवाकर रहने लगे। उनका जीवन एक बानप्रस्थी
जैसा हो गया था और वह निरन्तर भगवत् नाम व चर्चा से जुड़े रहे। 70 वर्षीया डा. सरस की
मृत्यु 30 मार्च 2012 को लखनऊ के बलरामपुर जिला चिकित्सालय में हुई थी। उनकी मृत्यु
से शिक्षा तथा साहित्य जगत में एक बहुत ही अपूर्णनीय क्षति हुई थी। लक्ष्मी
और सरस्वती की अतिकृपा होने तथा अपने जीवन की ऊंची से ऊंची बुलन्दियों को छूने के बावजूद
आज जनपद में उनके स्मरण
में ना तो कोई कार्यक्रम हो रहे हैं और ना ही उनके अपने
व जिन पर उन्होने उपकृत्य किया है, ही कुछ कर पा रहे है।
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