द्विवेदी ब्राह्मण का इतिहास ( भाग 2)
आचार्य राधेश्याम द्विवेदी
(टिप्पणीः- इस श्रंखला को
उपलब्घ प्रमाणों के आधार पर
तैयार किया गया है। इसे और प्रमाणिक बनाने
के लिए सुविज्ञ पाठकों व विद्वानों के
विचार व सुझाव सादर
आमंत्रित है।)
गोत्र
का सामान्य अर्थः- गोत्र का सामान्य अर्थ
है कि कोई व्यक्ति
किस ऋषिकुल में से उतर कर
इस धरा पर अवतरित हुआ
है। उसका जन्म किस ऋषिकुल से संबन्धित है।
किसी व्यक्ति की वंश परंपरा
जहां से प्रारम्भ होती
है, उस वंश का
गोत्र भी वहीं से
प्रचलित होता रहा है। सभी जन किसी न
किसी ब्राह्मण ऋषि की ही संतान
होते है। इस प्रकार से
जो जिस ऋषि से प्रारम्भ हुआ
या सम्बद्ध रहा वह उस ऋषि
का वंशज कहा जाने लगा। गोत्रों की उत्पत्ति सर्व
प्रथम ब्राह्मणो मे ही हुई
थी क्योकि यह वर्ग ही
ज्ञान से इसे स्मरण
रखने में समर्थ था। धीरे धीरे जब ब्राह्मण वर्ग
का विस्तार हुआ तब अपनी विशिष्ट
पहचान बनाने के लिए उत्तरवर्तियों
ने अपने आदि पुरुषों के नाम पर
अपने अपने गोत्र का विस्तार मानने
लगे। इन गोत्रों के
मूल ऋषि - अंगिरा, भृगु, अत्रि, कश्यप, वशिष्ठ, अगस्त्य, तथा कुशिक थे। इनके वंशज अंगिरस, भार्गव,आत्रेय, काश्यप, वशिष्ठ अगस्त्य, तथा कौशिक कहे जाने लगे। इन गोत्रों के
अनुसार प्रत्येक इकाई को “गण”नाम दिया गया। यह माना गया
की एक गण का
व्यक्ति अपने गण में विवाह
न कर अन्य गण
में करेगा। कालांतर में ब्राह्मणो की संख्या बढ़ते
जाने पर अन्यानेक शाखाये
बनाई गई। इस तरह इन
सप्त ऋषियों के पश्चात उनकी
संतानों के विद्वान ऋषियों
के नामो से अन्य गोत्रों
का नामकरण करने लगे। वेदों का अध्ययन करने
पर सात ऋषियों या ऋषि कुल
के नामों का पता चलता
है।जो ब्राह्मण के वंशज हुए
और उन्हें के गोत्र से
ब्राह्मणों का विकास हुआ।
वे नाम क्रमशः इस प्रकार है-
1.वशिष्ठ, 2.विश्वामित्र, 3.कण्व, 4.भारद्वाज, 5.अत्रि, 6.वामदेव और 7.शौनक।
गोत्र शब्द
का
शाव्दिक
अर्थः-
गोत्र शब्द का शाव्दिक अर्थ
गो और त्र शव्द
से बना है। गो का मतलब
पृथ्वी भी है और
‘त्र’ का अर्थ रक्षा
करने वाला भी है। यहाँ
गोत्र का अर्थ पृथ्वी
की रक्षा करने वाले ऋषि से है। भगवान्
ने भी ब्राह्मणों को
सभी से श्रेष्ठ इसलिए
कहा क्योंकि ब्राह्मण शास्त्र के साथ शस्त्र
भी उठा कर पृथ्वी की
रक्षा कर सकते हैं।
इसलिए ब्राह्मण सदैव पूजनीय रहा है।गो शब्द इंद्रियों का वाचक भी
है। ऋषि मुनि अपनी इंद्रियों को वश में
कर अन्य प्रजाजनो का मार्ग दर्शन
करते थे, इसलिए वे गोत्र कारक
कहलाए। ऋषियों के गुरुकुल में
जो शिष्य शिक्षा प्राप्त कर जहा कहीं
भी जाते थे वे अपने
गुरु या आश्रम प्रमुख
ऋषि का नाम बतलाते
थे। जो बाद में
उनके वंशधरो में स्वयं को उनके वही
गोत्र कहने की परम्परा पड़
गई।
गोत्र का
इतिहासः-भविष्य पुराण में ब्राम्हण के गोत्रों का
उल्लेख मिलता है। प्राचीन काल में महर्षि कश्यप के पुत्र कण्व
की आर्यावनी नाम की देवकन्या पत्नी
हुई। इन्द्रकी आज्ञासे दोनों कुरुक्षेत्रवासिनी सरस्वती नदी के तट पर
गये और कण्व चतुर्वेदमय
सूक्तों में सरस्वती देवी की स्तुति करने
लगे। एक वर्ष बीत
जाने पर वह देवी
प्रसन्न हो वहां आयीं
और आर्यों की समृद्धि के
लिये उन्हे वरदान दिया। वर के प्रभाव
से कण्व के आर्य बुद्धि
वाले दस पुत्र हुए
-जिनके नाम उपाध्याय, दीक्षित, पाठक, शुक्ला, मिश्रा, अग्निहोत्री, द्विवेदी, त्रिवेदी, पाण्डेय और चतुर्वेदी है।
इन लोगो का जैसा नाम
था वैसा ही गुण भी
था। इन लोगो ने
नतमस्तक हो सरस्वती देवी
को प्रसन्न किया। बारह वर्ष की अवस्था वाले
उन लोगो को भक्तवत्सला शारदादेवी
ने अपनी कन्याए प्रदान की। वे क्रमशः उपाध्यायी,
दीक्षिता, पाठकी, शुक्लिका, मिश्राणी, अग्निहोत्रिधी, द्विवेदिनी, त्रिवेदिनी पाण्ड्यायनी और चतुर्वेदिनी कहलायीं।
फिर उन कन्याओ के
भी अपने-अपने पति से सोलह-सोलह
पुत्र हुए हैं वे सब गोत्रकार
हुए जिनका नाम है- कश्यप, भरद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्रि वसिष्ठ, वत्स, गौतम, पराशर, गर्ग, अत्रि, भृगडत्र अंगिरा, श्रृंगी, कात्यायन और याज्ञवल्क्य हुए।
इन नामो से सोलह-सोलह
पुत्र जाने जाते हैं
जातिवादी व्यवस्था
की
शुरुवातः-जातिवादी सामाजिक व्यवस्था की खासियत यह
रही कि इसमें हर
समूह को एक खास
पहचान मिली। हिन्दुओं में किसी समूह के प्रवर्तक अथवा
प्रमुख व्यक्ति के नाम पर
गोत्र का नाम चलता
है। सामान्य रूप से गोत्र का
मतलब कुल अथवा वंश परंपरा से है। गोत्र
को बहिर्विवाही समूह माना जाता है। अर्थात ऐसा समूह जिससे दूसरे परिवार का रक्त संबंध
न हो अर्थात एक
गोत्र के लोग आपस
में विवाह नहीं कर सकते पर
दूसरे गोत्र में विवाह कर सकते। जाति
एक अन्तर्विवाही समूह है यानी एक
जाति के लोग समूह
से बाहर विवाह संबंध नहीं कर सकते।मानव जीवन
में जाति की तरह गोत्रों
का बहुत महत्त्व है ,यह हमारे पूर्वजों
का याद दिलाता है साथ ही
हमारे संस्कार एवं कर्तव्यों को भी याद
दिलाता रहता है। इससे व्यक्ति के वंशावली की
पहचान होती है एवं हर
व्यक्ति अपने को गौरवान्वित महसूस
करता है । हिन्दू
धर्म की सभी जातियों
में गोत्र पाए जाते हंै। ये किसी न
किसी गाँव, पेड़, जानवर, नदियों, व्यक्ति के नाम, ऋषियों
के नाम, फूलों या कुलदेवी के
नाम पर बनाए गए
है। इनकी उत्पत्ति कैसे हुई इस सम्बंध में
धार्मिक ग्रन्थों का आश्रय लेना
पड़ता है।
(क्रमशः अगले अंक में……….)
No comments:
Post a Comment