(डा. मुनिलाल उपाध्याय ‘सरस’
कृत बस्ती के छन्दकार
श्रृखला भाग 5 )
पारिवारिक परिचय:-बस्ती जिले का मिश्रौलिया गांव
में हर दयाल मिश्र का एक अच्छा खाता पीता घराना था। वह एक जमीदार थे। वे अपनी पालकी
के साथ बस्ती राजा के यहाँ भी आया जाया करते थे। उन पर राजा साहब की कृपा दृष्टि बनी
रहती थी। उनके पुत्र का नाम उदित नारायण मिश्र था। द्विजेश जी बचपन उनके दादा हर दयाल
मिश्र के साथ ही बीता है। उदित नारायण मिश्र की मृत्यु के बाद उनके दो बेटों में से
बड़े बलराम प्रसाद मिश्र, जो द्विजेश नाम से ब्रज भाषा में और जैश नाम से उर्दू में
कविता करने के कारण प्रसिद्ध हुए । उस समय साहित्यकारों की एक चैकड़ी भी होती थी जिसमें
वागीश शुक्ला के पूर्वज परिवार, प्रेमशंकर मिश्र, रामनारायण पांडेय पागल, और ठाकुर
चैधरी शामिल थे । किसी न किसी के घर-प्राय यह चैकड़ी शाम को चार घंटे बैठती थी। द्विजेश
जी के बड़े पुत्र उमाशंकर मिश्र के एकमात्र पुत्र का नाम था गंगेश्वर मिश्र है। द्विजेश
जी से कवि का उत्तराधिकार तो प्रेम शंकर मिश्र जी ने प्राप्त किया था किंतु द्विजेश
जी की संगीत-साधना का दाय गंगेश्वर जी ने सँभाला था और वे बस्ती के अच्छे सितार-वादक
थे जिससे कुछ ने शिक्षा भी प्राप्त की थी।
जीवन परिचय:- पंडित बलराम प्रसाद मिश्र द्विजेश हिन्दी साहित्य के रीतिकाल
के अंतिम प्रतिनिधि कवि थे। वह काव्य धारा की सारी शक्तियों को उत्कर्ष पर पहुंचाते
हुए बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक साहित्य सृजन करते रहे। उनके शरीर छोड़ने तक हिन्दी
साहित्य में तीसरा सप्तक आ चुका था। उन्होंने अपनी काव्य रचना में देव और पद्माकर का
ही रंग बनाए रखा। अपनी हिन्दी की रचनाओं के अलावा द्विजेश ने उर्दू और फारसी में शेरो-शायरी
और गजलें भी लिखीं। प्रतिष्ठित सरयूपारीण जमींदार परिवार में द्विजेश का जन्म माघ कृष्ण
11, संवत 1929 विक्रमी तदनुसार 25 जनवरी 1886 ई. को बस्ती उत्तर प्रदेश के निकट मिश्रौलिया
नामक ग्राम में हुआ था। बस्ती राज परिवार से इनका निकट का नाता था। संस्कृत, संगीत
और साहित्य की खुशबू मानो इनके रग-रग में बसी थी। औपचारिक स्कूली शिक्षा का चलन उन
दिनों बहुत कम होने के बावजूद तत्कालीन प्रथा के अनुसार उन्होंने हिन्दी, संस्कृत,
उर्दू, फारसी तथा सामान्य गणित की शिक्षा ग्रहण की थी। नगर पालिका बस्ती रोडवेज चैराहे
से पुरानी बस्ती जाने वाले मार्ग को उनके नाम पर द्विजेश मार्ग का नामकरण भी किया है।
पाण्डेय स्कूल के समाने द्विजेश भवन भी उनके शुभचिन्तकों ने बनवा रखा है। यहां कभी
कभार साहित्यिक कार्यक्रम भी होते रहे हैं।
प्रमुख कृतियां:-
द्विजेश दर्शन:- काव्य रचना संग्रह द्विजेश
दर्शन उनका एक मात्र संग्रह रहा है। किशोरावस्था से ही द्विजेश ने काव्य रचना शुरू
कर दी। ब्रजभाषा कविता की मुख्य धारा में थी। रचनाओं में वह एक सिद्धहस्त कवि के रूप
में दिखाई देते हैं। वे रचनाएं लिखते गए लेकिन उनके संयोजन और प्रकाशन की ओर द्विजेश
का ध्यान कभी नहीं रहा। वह प्रकाशन के प्रति वहुत लापरवाह रहे। उनके पुत्र प्रेम शंकर
मिश्र ने प्रयास करके ब्रजभाषा में रचित कविताओं का संग्रह द्विजेश दर्शन का कुछ अंश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सौजन्य से प्रकाशित कराया
है। जो कुछ द्विजेश दर्शन में छप सका वह रचनाओं का मात्र एक चैथाई हिस्सा ही है। शेरो-शायरी
से जुड़ा संग्रह हस्ती आज तक नहीं छप सका है। कुछ छन्द नमूना कि लिए प्रस्तुत है-
हाजिर
हैं रावरे हजूर मजबूर ह्वै के,मुक्ति-जुक्ति आपनी सु याही मन मौंजैंगे।। चरन-सरोजैं जगदीस के
धरेंगे सीस,ऐसो ईस पाय आपदा मैं कहा ओजैंगे?
खातिरजमा हो खूब खातिर करेंगे हम,राबरे जी खातिर अखातिरी न जोजैंगे।।
आप रोज रोजैं चहो और दीन खोजैं, पै-'द्विजेश' दीनबंधु अब दूसरो न खोजैंगे।।
खातिरजमा हो खूब खातिर करेंगे हम,राबरे जी खातिर अखातिरी न जोजैंगे।।
आप रोज रोजैं चहो और दीन खोजैं, पै-'द्विजेश' दीनबंधु अब दूसरो न खोजैंगे।।
ए हो नाथ। हौं तो कछु रोज तें सुनी है ऐसी,दान असनान के कितेक फल पाए हैं।।
सोई जिस जानि मानि रावरे दया को ढ़ग,दान-पात्र सो तेहिं 'द्विजेश' ठहराए हैं।।
कुस है कुकर्म, अघ अच्छत विपत्ति वारि,दान द्रव्य दीरघ दिनाई दरसाए हैं।।
लागो प्रन पर्व को सुनी है कृपा सिंधु बीच,कृपा सिंधु यातें हौं अन्हान आजु आए हैं।।
साहित्यकारों द्वारा प्रशंसाः- डा.संपूर्णानंद, डा.वागीश शुक्ल, डा.अरुणेश नीरन, श्रीनारायण चतुर्वेदी सहित तमाम लोगों ने अपने संस्मरणों में द्विजेश द्वारा रचित ब्रजभाषा काव्य को शब्द चमत्कार, ऊंची उड़ानों वाले अलंकार और अक्षर मैत्री का अद्भुत संयोजन करने वाला काव्य साहित्य बताया है। भक्ति भाव की प्रधानता वाले काव्य में उन्होंने अनूठी कल्पनाओं के साथ एक खास तरह के रंगारंग संयोजन को पिरोया है। द्विजेश दर्शन की भूमिका में श्रीनारायण चतुर्वेदी ने लिखा है कि इनके लेखन की बात ही कुछ और है। अपने व्यक्तिगत काव्य प्रेम के कारण अपने आसपास के बहुसंख्य लोगों को साहित्य से जोड़ने का काम द्विजेश ने किया है। डा.रसाल ने द्विजेश के बारे में कहा था कि, शब्द उनके दास थे। जबकि डा.संपूर्णानंद ने लिखा कि, ब्रजभाषा के बुझते दीपक के इन पतंगों के प्रयत्न मेरे मन में आदर का भाव उत्पन्न करते हैं। विश्वास है कि द्विजेश की काव्य रचनाओं में पाठक को तृप्ति का एहसास होता है। चेहरे मोहरे से किसी मुगल बादशाह की झलक देने वाले द्विजेश वेशभूषा और खानपान की शैली के नाते भी मशहूर थे। वह भारत की सभ्यता यात्रा में एक पड़ाव के प्रतिनिधि थे।
प्रेम शंकर मिश्र का
अभिमत व संस्मरण:- पं. बलराम प्रसाद मिश्र द्विजेश के लिए उन दिनों देश
के जाने माने दिग्गज कवि कलावंत महीनों मेरे यहाँ ठहरते। सुबह-शाम अखंड काव्य और संगीत
गोष्ठियाँ हुआ करती थीं। महाकवि जगन्नाथदास रत्नाकर पं. अयोध्या सिंह उपाध्यय हरिऔध,
पं. रमा शंकर शुक्ल रसाल के अतिरिक्त रीवां के महाकवि ब्रजेश, पं. बालदत्त, यज्ञराज,
विचित्र मित्र ऐसे आचार्य कवि, अजीम खाँ, झंडे खाँ ऐसे उस्ताद यनायत खाँ ऐसे सितारवादक,
उनके पुत्र उस्ताद अजीम खाँ साहब ऐसे संगीतज्ञों की सन्निधि मुझे बचपन से प्राप्त हुई
है। आज के आफताबे गजल उस्ताद मेंहदी हसन और सितार नवाज उस्ताद शाहिद परवेज ऐसे आज के
विश्व विश्रुत कलाकारों का बचपना अपने पिताओं के साथ मेरे साथ गिल्ली गोली खेलते बीता
है। इस तरह साहित्य और संगीत मेरी घुट्टी में रहा। विरासत में मुझे काव्यरचना और मेरे
अग्रज और उनके पुत्र को सितार वादन मिला। सन 1959 में पिता का तिरोभाव हुआ। पर कविता,
साहित्य और संगीत का रक्त में रचा-बसा संस्कार पिताजी के एक प्रशंसक अपने समय के प्रसिद्ध
उपन्यासकार, कहानीकार पं. गंगाप्रसाद मिश्र तत्कालीन राजकीय हाईस्कूल बस्ती के प्रधानाचार्य
ने द्विजेश-परिषद साहित्यिक संस्कृतिक संस्था के स्थापना के माध्यम से पुन जगाया। कवि,
कलाकार, संगीतज्ञों का एक नए प्रकार का जमघट फिर इर्द-गिर्द जमने लगा। सन 1960 में
एक नया सिलसिला शुरू हुआ। जीवन की यह नई घुटन-टूटन जब असहनीय लगती तो कुछ बड़बड़ाहटें
उभरने लगीं और उन्हें सहेजने सवारने की दुर्निवार स्थितियाँ इस रूप में आकर लेने लगीं।
यह भी बीत में टूट फूट गया होता यदि उसी बीच द्विजेश-परिषद के माध्यम से तब का एक सामंती
नवयुवक बस्ती जिले का ही निवासी श्री माहेश्वर तिवारी शलभ जो भारत प्रसिद्ध नवगीतकार माहेश्वर तिवारी के नाम
से जाना पहचाना जाता है, मुझसे न टकराया होता।
डा. मुनिलाल उपाध्याय ‘सरस’ :- अन्यान्य
कारणों से बस्ती जनपद के स्वनामधन्य साहित्यकार डा. मुनिलाल उपाध्याय ‘सरस’ ने बस्ती
के छन्दकारों का साहित्यिक योगदान भाग 1 में पृष्ठ 91 से 111 तक द्विजेश जी का परिचय
काव्य तथा शैली का वैज्ञानिक विवरण प्रस्तुत किया है। उन्होने बन्दना, भक्ति दर्शन,
गंगा गरिमा वर्णन, श्रृंगार खण्ड, नखशिख वर्णन, विविध प्रकरण तथा द्विजेशजी के रहन
सहन को बड़े मार्मिक ढ़ंग से प्रस्तुत किया है। अपने विवरण के अन्त में डा. सरस जी ने
लिखा है- ‘द्विजेशजी ब्रज भाषा श्रृंखला के अन्तिम सशक्त कवि थे। केशव व पद्माकर की
परम्परा जिसे रंगपाल जी ने बस्ती के मंच पर स्थापित किया था द्विजेशजी ने अपने पाण्डित्य
से गौरव दिया।....श्रृंगार के साथ साथ मानव जीवन के व्यवहारिक पक्ष पर लेखनी चलाकर
द्विजेश जी ने यदि कविता की भाव भूमि को मानवीय
चेतना दिया तो राष्ट्रीयता का मंत्र फूक करके परतंत्र देश वासियों को स्वतंत्रता का
संदेश भी दिया। द्विजेश जी की काव्यधारा वह मन्दाकिनी है जहां सन्त समागम का संगम और
त्रिवेणी के पावनत्व का उद्गम है। 85 वर्षों तक द्विजेश जी ने बस्ती की धरती को निहारा
और अन्ततः मनीषी साहित्य सूर्य अस्ताचल पहुच साहित्य से विराम लिया।‘
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