अवस्थिति :-
उत्तर प्रदेश के संत कबीर नगर जिले के जिला मुख्यालय से 8 किमी. दक्षिण घनघटा मुखलिस पुर मार्ग पर हैसर बाजार ब्लाक के अन्तर्गत भगवान शिव को समर्पित तामा नामक गांव पंचायत स्थित है। पुराने लोगों का यह भी कहना है कि यहां पहले थारू जाति के लोग रहा करते थे। इस स्थान का नाम ताम्रगढ़ और बाद में तामा पड़ा। जो अब तामेश्वरनाथ धाम नाम से प्रचलित है। मानचित्र में यह पौराणिक मदिर 260 24‘ उत्तरी अक्षांश तथा 830 7‘ पूर्वी देशान्तर पर दर्शाया गया है। पहले यह स्थान कोशल, कपिलवस्तु, अवध , गोरखपुर सरकार के अधीन रहा था। बाद में बस्ती और अब संत कबीर नगर का यह हिस्सा है। रामग्राम जिसे इसी जिले के वर्तमान रामपुर देवरिया के रूप में माना जाता रहा है, की दूरी 11 मील या 17 किमी. है। गोरखपुर से यहां की दूरी लगभग 44 किमी. है।
द्वापर युग में पुरातन शिवलिंग की स्थापना :-
जनश्रुति के अनुसार यह स्थल महाभारत काल में महाराजा विराट के राज्य का जंगली इलाका रहा। यहां पांडवों का वनवास क्षेत्र रहा है और अज्ञातवास के दौरान कुंती ने पांडवों के साथ यहां कुछ दिनों तक निवास किया था।जहां शिव की आराधना के लिए कुंती ने शिवलिंग की स्थापना की थी। यह वही शिवलिंग है। मंदिर से थोड़ी दूर रामपुर में स्थित एक पोखरे का निर्माण भी पांडवों ने कराया था। लोगों का ऐसा मानना है कि इस पोखरे का निर्माण द्वापर युग में होने के वजह से इसका नाम द्वापरा रहा होगा। यह भी कहा जाता है कि भगवान शिव जी स्वयं प्रकट होकर एक चरवाहे को दर्शन दिये थे। उसने गांव में जाकर और लोगों को यह वृतान्त बताया था।
बौद्ध स्थल:-
विजयेन्द्र कुमार मथुरा ने ऐतिहासिक स्थानावली में पृष्ठ 393 लिखा है, "तामेश्वरनाथ , खलीलाबाद स्टेशन से 6 मील दक्षिण की ओर संत कबीर नगर में कुडवा नाला है जो संभवतः बौद्ध साहित्य में प्रसिद्ध अनोमा नदी है। कुडवा से एक मील दक्षिणपूर्व की [पृ.394]: ओर एक मील लंबा प्राचीन भवन है जहां तामेश्वरनाथ का वर्तमान मंदिर है। कहा जाता है कि यही वह स्थान है जहां अनोमा को पार करने के बाद सिद्धार्थ ने अपने राजसी अवशेषों को निकाला था और राजसी केशों को काट कर फेंक दिया था। यहां से उन्होंने अपने सारथी छंदक को विदा कर दिया था।(देखें बुद्धचरित 6,57-65 )
'निष्कास्य तं चोत्पलपत्रनीलं चिच्छेद् चित्रं मुकुटं शेषम्, विकीर्यमानांशुकमन्तरिक्षे चित्रं चाण सरसीव हंसम्,
'चंदं तथा सश्रुमुखं विसृज्य'।
युवानच्वांग के इस स्थान पर तीर्थ यात्राओं के स्मारक के रूप में अशोक ने तीन स्तूपों की स्थापना की थी, जहां पर तामेश्वर के मंदिर के निकट हैं। यह स्थान 29 वर्षीय भगवान बुद्ध के गृहत्याग से सम्बन्धित मौनेइया (वर्तमान महेनिया गांव) स्थल का भी पहचान कराता है। यहां पर उन्होंने अपना राजसी वस़्त्र त्यागकर अपने सारथि को उपदेश देकर वापस लौटाया था। भगवान बुद्ध के यहां मुण्डन संस्कार कराने के नाते यह स्थान मुंडन के लिए प्रसिद्ध है। महाशिव रात्रि पर यहां भारी संख्या में लोग यहां अपने बच्चों का मुंडन कराने के लिए उपस्थित होते है। इस मंदिर को भी कुछ विद्वान बौद्ध स्तूप व मठ के रूप में भी मानते हैं।
तमेसर डीह और तालाब:-
यहां पहले जंगल और तालाब ही हुआ करता था। इसके अलावा यहां और कुछ भी नहीं था। यहां एक बड़ा टीला उत्तर से दक्षिण लगभग डेढ़ मील लम्बा तथा पूर्व से पश्चिम आधा मील चैड़ा हुआ करता था। इसे तमेसर डीह कहा जाता है। यहां मौर्य सम्राट अशोक द्वारा बनवाया गया स्तूप का होना भी बताया जाता है। कार्लाइल इसे शंक्वाकार नक्कासी वाले ईंटों से निर्मित देखा था। इसके अवशेष आस पास के क्षेत्र में देखे गये थे।
तामेश्वरनाथ मंदिर की महंत परम्परा:-
यहां स्वत: शिव लिंग प्रगट होने का प्रमाण मिलता है। इस ऐतिहासिक शिवलिंग को दूसरे स्थान पर ले जाने का भी प्रयास हुआ लेकिन संभव नही हो सका। खलीलाबाद बसने के बाद भी खुदाई की गई किन्तु सफलता नहीं मिली। कालांतर में डेढ सौ वर्ष पूर्वयह ताम्रगढ़ बांसी नरेश राज्य में आ गया। बांसी के राजा राजा रतन सेन सिंह ने यहां पर आने वाले श्रद्धालुओं की भारी तादाद को देखते हुए मंदिर का निर्माण कराया। इस शिव लिंग पर जलाभिषेक ,रूद्धाभिषेक, शिव आराधना के लिए दूर-दराज के भक्त आते और मनवांछित फल प्राप्त करते रहते हैं।
प्राचीन काल से ही यहा पूजन अर्चन की प्रथा चली आ रही है। उन्होंने मंदिर की पूजा अर्चना के लिए गोरखपुर जनपद के हरनही के समीप जैसरनाथ गांव से गुसाई परिवार बुलाकर उन्हें जिम्मदारी सौंप दी। तबसे उन्हीं के वंशज यहां के पूजा पाठ का जिम्मा संभाल रहे हैं। उनके पूर्वजों में एक बुजुर्ग ने तामेश्वरनाथ मंदिर के सामने जीवित समाधि ले ली थी, वे सिद्ध व्यक्ति थे। उनकी समाधि पर आज भी शिवार्चन के बाद गुड़भंगा चढ़ाया जाता है।
गर्भगृह का निर्माण :-
मंदिर के गर्भगृह का निर्माण आज से करीब 350 वर्ष पूर्व बांसी के तत्कालीन राजा ने कराया था। उस समय भारती परिवार के पूर्वज सन्यासी टेकधर भारती के जिम्मे मंदिर का देखरेख सौंपा गया था। गोस्वामी बुझावन भारती बाबा भी यहां पूजन किया करते थे। गर्भगृह निर्माण के बाद जैसे-जैसे श्रद्धालु यहं आते गए मंदिर निर्माण का कार्य चलता रहा।
यह मंदिर आठ फुट ऊंचे चबूतरे पर बना हुआ है। इससे प्राचीन मंदिर परिसर में छोटे-बड़े नौ और सटे ही पांच अन्य मन्दिर है। इनमें एक मंदिर मुख्य मंदिर के ठीक सामने है जो देवताओं का नहीं अपितु देव स्वरूप उस मानव का है जिसने जीते जी यहां पर समाधि ले ली थी। समाधि लिए मानव के बारे में लोगों का कहना है कि वह समय समय पर उपस्थित होकर विघ्र बाधा व कठिनाईयों का निराकरण करते है, इन्हीं के वंशज यहां के गोस्वामी भारती गण है, जो बाबा तामेश्वरनाथ मंदिर की देखभाल करते है।
एक चबूतरे पर शिवजी को प्रतिष्ठित किया गया था। मंदिर की मूर्तियां खुले कुर्सियों से घेरा गया था। बादमें यहां बांसी के राजा ने भव्य मंदिर का निर्माण कराया था। उन्होने यहां एक विशाल कुंवा, तथा पत्थर की सीढियों वाला तालाब भी खोज निकलवाया था जिसे तमेसर ताल कहा जाता है। इस ताल को भी बुद्ध भगवान के समय से ही अवस्थित होना बताया जाता है। बांसी के राजा ने यहां श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए आम का बाग भी लगवाया था। यह तालाब आम के अलावा जामुन, बेर, महुआ, पीपल आदि वृक्षों से भी घिरा है। यहां उत्तर पश्चिम किनारे पर एक नहर या नाला भी बहता है जो तालाव के विल्कुल पास से गुजरते हुए आगे चलकर कुदवा नदी में मिल जाता है। इसका नाम अंधेरों के स्वामी के रूप में तमेश्वर नाथ के नाम से जाना जाने लगा। यहां टीला, स्तूप, विहार, विशाल तालाब, प्राचीन कुंवा की एक श्रृंखला भी देखी गयी है। यहां हफ्तों तक मेला चलता है।
लोगों का मानना है मंदिर निर्माण से पूर्व शिव लिंग ऊपर उठ गया था और ऐसा शिव लिंग किसी भी स्थान पर नहीं मिलता। मंदिर के ठीक पूरब ईटों से बना एक विशाल पोखरा है। यहीं से जल लेकर लोग जलाभिषेक करते है।
मन्दिर की खोज:-
ताम्रवर्ण के शिवलिंग तामेश्वरनाथ के बारे में किवदंती है कि साढ़े तीन सौ साल पहले खलीलाबाद से 8 किमी दक्षिण तेनुआ ओझा निवासिनी एक वृद्धा ब्राह्मणी को मायके पैदल जाते समय, खेत में कुछ उभरे तामई वर्ण के शिवलिंग का पहले साक्षात्कार हुआ। इसकी जानकारी जब अन्य लोगों को हुई तो उत्सुकता वश उसे खोद कर निकालना चाहा पर उसकी जड़ नहीं पा सके। इस अचानक निकले शिवलिंग की चर्चा औरंगजेब के सिपहसालार खलीलुर्रहमान (नवाब) तक पहुंची तो उसने मज़दूर लगवाकर उसे खेत से निकाल कर अन्यत्र ले जाने का प्रयास किया। पूरे दिन खुदाई करने के बाद भी रात में फिर मंदिर जस का तस हो जाता था। यह क्रम महीनों चलता रहा जिससे क्षुब्ध होकर नवाब ने मूर्ति ही निकालनी चाही तो शिव लिंग के पास भारी संख्या में बिच्छू, सर्प व मधुमक्खियां निकलने लगी और कई लोगों की जाने गयीं। घबराकर उसने काम बंद करवा दिया। मजबूर होकर नवाब को फैसला वापस लेना पड़ा। अंत में हिंदू मान्यता का समादर करते हुए वहीं मंदिर बनाकर छत लगाना पड़ा। तब से इस स्थान का महात्म्य बढ़ गया। बाद में ज्यो ज्यो लोगों की मनौतियां पूरी होती गई आस्था बढ़ती गई।
ब्रिटिश सरकार के जमाने में खोज:-
इस शिव जी के मंदिर को चरवाहों द्वारा प्रथम बार खोजा गया था। जब सन् 1801 में गोरखपुर जिले से बस्ती तहसील में इसे लिया गया था, तब जंगलों को काटकर यहां की साफ सफाई की गयी थी। यह प्राचीन धरोहर जो बीच के समय में लुप्त हो गया था, उसी समय प्रकाश में आया है। 1865 में बस्ती जिला बनने पर यह खलीलाबाद तहसील में तथा वर्तमान समय में संत कबीर नगर जिले के क्षेत्र में समाहित हो गया है।
तामेश्वरनाथ मंदिर में पूजा पाठ :-
तामेश्वरनाथ मंदिर में आने वाले श्रद्धालुओं का यही कहना है कि यहां मनौती करने वालों की सारी मनोकामनाएं यहां दर्शन और जलाभिषेक करने से पूर्ण हो जाती हैं। तामेश्वर नाथ मे वैसे तो हर सोमवार को लोग आकर जलाभिषेक करते है और मेला जैसा दृश्य रहता है। लेकिन वर्ष में तीन बार यहां विशाल मेला लगता है जिसमें ज़िले ही नहीं पूरे पूर्वांचल के लोग जुटकर जलाभिषेक करते है।तामेश्वरनाथ धाम में शिवरात्रि पर्व पर मेले हर साल दस दिनों तक चलता है।
इस स्थान पर अनेक संतों और महात्माओं ने अनुष्ठान एवं सत्संग के आयोजन किए है। पर इस क्षेत्र के लोग जो देश विदेश में कार्यरत हैं, वे भी घर आने पर भगवान शिव का अभिषेक एवं पूजा पाठ कराते हैं। लोगों के अनुसार यहां अंगे्रजों के जमाने में अचानक काशी से एक फक्कड़ बाबा पहुंचे। उनका मन यहां रम गया। उनके पास जो भी अपना दु:ख दर्द लेकर पहुंचता था तो वे कहते बाबा को जल चढ़ाओ, बाबा से मांगो, पर स्वयं से मांगने पर गाली देते थे। शिवरात्रि पर सुदूर प्रांतों से भी लोग यहां दर्शन पूजा के लिए आते हैं। स्वामी करपात्रीजी, जगद्गुरु शंकराचार्य अभिनव विद्यार्थी जी महाराज, महर्षि देवरहवा बाबा आदि महापुरुषों ने इस मंदिर पर आकर पूजा अर्चना की है।
श्रावण मास के शुभारम्भ से पूर्व ही मेले जैसा दृश्य रहता है। श्रावण मास में जलाभिषेक के लिए दूर-दराज से श्रद्धालु उमड़े रहते है। कावंरियों व शिव भक्तों के जमावड़े से धाम गुलज़ार रहती है। सोमवार को यह दृश्य देखते ही बनता जब जयकारे से पूरा वातावरण गुंजायमान होता रहता है। तेरस पर्व के अवसर पर भारी तादाद में श्रद्धालु लोग दूर -दराज से यहां पहुंचते है।
तामेश्वरनाथ मंदिर पर मेला :-
यहां प्रायः हर सोमवार को श्रद्धालुओं की भीड़ लगती है। महा शिवरात्रि के दिन तो दूर दूर के तथा बस्ती व गोरखपुर मण्डल के बड़ी संख्या मे श्रद्धालु पूजन,अर्चन तथा दर्शन के लिए आते हैं। अधिमास महीने में पूरे मास यहां विशेष पूुजन तथा अर्चन होता हैं। यहां आने वाले की मनोकामना प्रायः पूरी होती देखी गयी है और हर कोई एक से अधिक बार यहां अवश्य आने का प्रयास करता है। यहां शिवरात्रि का मेला हफ्तो से अधिक चलता है। श्रद्धालु भंडारा , कथा, गरीब दुखियों के लिए दान पुण्य का लाभ अर्जित करते हैं।
सरयू नदी से जल लेकर करते हैं जलाभिषेक:-
शिवभक्त सावन और शिवरात्री के महीने में यहां भक्तों की भीड़ उमड़ पड़ती है। श्रद्धालु 40 किमी दूर सरयू नदी से जल लेते हैं और ब्रह्ममुहूर्त में शिवलिंग पर जलाभिषेक करते हैं। भोलेनाथ के दर्शन मात्र से भक्तों की मुराद पूरी हो जाती है। लोग यहां पर घंटे चढ़ाते हैं और रामायण पाठ भी कराते हैं। ऐसा कहा जाता है कि अकाल या सूखा पड़ने पर लोग यहां शिवलिंग पर दूध चढ़ाते हैं। इसके बाद बाबा की कृपा से भक्तों के कष्ट दूर हो जाते हैं।
सरोवर में स्नान के बाद बाबा के दर्शन :-
परिसर में छोटे-बड़े नौ और सटे ही पांच अन्य मन्दिर है।
आज परिसर में मुख्य शिव मंदिर सहित करीब सोलह छोटे बड़े शिवालय और हनुमान मंदिर भी हैं । साथ ही परिसर के पास विशाल सरोवर भी है। इसमें स्नान करने के बाद ही भक्त बाबा के दर्शन करने जाते हैं। सावन, शिवरात्रि और नागपंचमी के मौके पर यहां काफी तादाद में शिवभक्त आते हैं। भारत के अलावा नेपाल और दूरदराज से भी लोग यहां आकर बाबा के दर्शन कर आर्शीवाद लेते हैं।''
देशी विदेशी श्रद्धालुओं का जमावड़ा:-
यहां स्थानीय श्रद्धालुओं के साथ ही साथ प्राचीन राजागण, चीनी तीर्थया़त्री, स्वदेशी राजागण, अंग्रेज अधिकारीगण, तथा देश विदेश के श्रद्धालु जनों द्वारा निरन्तर आगमन, स्नान तथा पूजन किया जाता रहा है। गोरखपुर सरकार के अधीन उनौला गांव के गोस्वामियों को यह गांव ग्रांट में मिला हुआ था, जो ही इसे व्यवस्थित करते चले आ रहे हैं। ब्रिटिस काल से इस गांव का राजस्व मांफ किया गया है। इस माफी का प्रायः नवीनीकरण होता रहता है।
मेले मे शादी के रिश्ते पक्के होते थे :-
आज से करीब चालिस वर्ष पूर्व तामेश्वरनाथ धाम में आयोजित महाशिवरात्रि मेले में शादी के रिश्ते भी पक्के होते थे। महाशिवरात्रि मेले में दूर दराज से आए लोग यहीं पर अपने बेटे और बेटियों के लिए रिश्ते भी पक्के करते थे। मेला परिसर में अलग अलग बिरादरी की जमात इकट्ठा होती थी। जहां रिश्तेदारों के जरिए रिश्ते पक्के होते थे।
पुरातात्विक प्रमाण :-
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के श्रीकान्त भट्ट को 1969 में यहां सर्वेक्षण के दौरान ताम्र मुद्रायें, लाल पात्र के ठीकरे प्राप्त हुए थे। डा. ए. के. नारायण एव डा. पी सी. पंत ने 1962-63 में मंदिर की अवस्थिति की पुष्टि कीे है। 1993-94 में इस स्थान का सर्वेक्षण उत्तर प्रदेश राज्य पुरातत्व संगठन के निदेशक डा. राकेश तिवारी ने किया था, जिन्होंने यहां लाल पात्र परम्पराओं के विस्तार की पुष्टि की है।
समूह के अन्य गांव:-
बताया जाता है कि तामा गांव के उत्तर दो बड़े तालाब थे जिसे वर्तमान में लठियहवां व झझवा नाम से पुकारा जाता है। पूरब दिशा में भी इसी तरह का तालाब-पोखरे व भीटा स्थित है। इसके सटे ही कोटिया है। इस नाम से प्रतीत होता है कि यहां पर कोई कोटि या दुर्ग रहा है। इस समूह के अन्य गांव जुक्का, कुसपौल, भीटा, चान्दभारी , देवरिया गजपुर, कुण्डौल, मानेसर, पठाना एवं सिरसारा आदि हैं। प्रायः इन सभी स्थानों पर स्तूप विहार वा अन्य पुरातन अवशेष के मिलने का अनुमान एवं प्रमाण देखा गया है।
आचार्य डॉ राधे श्याम द्विवेदी
लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल ,आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।)
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