Wednesday, March 6, 2024

चित्रकूट का प्राचीन और दिव्य भरत कूप (भरतजी का संवाद भी ना डिगा पाया कर्मपथ की डगर,स्मृतियों को सजो रखा है चित्रकूट का ये भरत कूप) आचार्य डॉ. राधे श्याम द्विवेदी

          

            तुलसीदास द्वारा रचित " रामचरितमानस" के अयोध्या कांड में श्री राम वनवास चले जाते के समय का वर्णन किया गया है ! जब भरत वशिष्ठ मुनि और कुछ स्नेह जानों के साथ राम को वापस लाने के लिए वन जाते हैं तब भरत, वशिष्ठ मुनि सभी श्रेष्ठजन राम के सामने बैठ एक सभा करते हैं। अपनी पारी आने पर भरत जी कहते हैं- "मैं  अपने स्वामी राम का स्वभाव जानता हूं, उन्होंने तो अपराधी पर भी कभी क्रोध नहीं किया, और मुझ पर तो उनकी विशेष कृपा और प्यार है। मैंने खेल में भी कभी उन्हें गुस्सा होते नहीं देखा । भरत जी के ये बचन भारतीय वांग्मय में दुर्लभ ही हैं --

पुलकि सरीर सभाँ भए ठाढ़े। नीरज नयन नेह जल बाढ़े।
कहब मोर मुनिनाथ निबाहा। एहि तें अधिक कहौं मैं काहा

भावार्थ:-शरीर से पुलकित होकर वे सभा में खड़े हो गए। कमल के समान नेत्रों में प्रेमाश्रुओं की बाढ़ आ गई। (वे बोले-) मेरा कहना तो मुनिनाथ ने ही निबाह दिया (जो कुछ मैं कह सकता था वह उन्होंने ही कह दिया)। इससे अधिक मैं क्या कहूँ।

मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ। अपराधिहु पर कोह न काऊ।
मो पर कृपा सनेहु बिसेषी। खेलत खुनिस न कबहूँ देखी॥

भावार्थ:-अपने स्वामी का स्वभाव मैं जानता हूँ। वे अपराधी पर भी कभी क्रोध नहीं करते। मुझ पर तो उनकी विशेष कृपा और स्नेह है। मैंने खेल में भी कभी उनकी रीस (अप्रसन्नता) नहीं देखी।

 सिसुपन तें परिहरेउँ न संगू। कबहुँ न कीन्ह मोर मन भंगू।
मैं प्रभु कृपा रीति जियँ जोही। हारेहूँ खेल जितावहिं मोही।

भावार्थ:-बचपन में ही मैंने उनका साथ नहीं छोड़ा और उन्होंने भी मेरे मन को कभी नहीं तोड़ा (मेरे मन के प्रतिकूल कोई काम नहीं किया)। मैंने प्रभु की कृपा की रीति को हृदय में भलीभाँति देखा है (अनुभव किया है)। मेरे हारने पर भी खेल में प्रभु मुझे जिता देते रहे हैं।
                         दोहा 
महूँ सनेह सकोच बस सनमुख कही न बैन।
दरसन तृपित न आजु लगि प्रेम पिआसे नैन।।

भावार्थ:-मैंने भी प्रेम और संकोचवश कभी सामने मुँह नहीं खोला। प्रेम के प्यासे मेरे नेत्र आज तक प्रभु के दर्शन से तृप्त नहीं हुए।

बिधि न सकेऊ सहि मोर दुलारा। नीच बीचु जननी मिस पारा।
यहउ कहत मोहि आजु न सोभा। अपनीं समुझि साधु सुचि कोभा।।

भावार्थ:-परन्तु विधाता मेरा दुलार न सह सका। उसने नीच माता के बहाने (मेरे और स्वामी के बीच) अंतर डाल दिया। यह भी कहना आज मुझे शोभा नहीं देता, क्योंकि अपनी समझ से कौन साधु और पवित्र हुआ है? (जिसको दूसरे साधु और पवित्र मानें, वही साधु है)।

मातु मंदि मैं साधु सुचाली। उर अस आनत कोटि कुचाली।
फरइ कि कोदव बालि सुसाली। मुकता प्रसव कि संबुक काली।।

भावार्थ:-माता नीच है और मैं सदाचारी और साधु हूँ, ऐसा हृदय में लाना ही करोड़ों दुराचारों के समान है। क्या कोदों की बाली उत्तम धान फल सकती है? क्या काली घोंघी मोती उत्पन्न कर सकती है?

सपनेहूँ दोसक लेसु न काहू। मोर अभाग उदधि अवगाहू।
बिनु समुझें निज अघ परिपाकू। जारिउँ जायँ जननि कहि काकू।।

भावार्थ:-स्वप्न में भी किसी को दोष का लेश भी नहीं है। मेरा अभाग्य ही अथाह समुद्र है। मैंने अपने पापों का परिणाम समझे बिना ही माता को कटु वचन कहकर व्यर्थ ही जलाया।

हृदयँ हेरि हारेउँ सब ओरा। एकहि भाँति भलेहिं भल मोरा।
गुर गोसाइँ साहिब सिय रामू। लागत मोहि नीक परिनामू॥

भावार्थ:-मैं अपने हृदय में सब ओर खोज कर हार गया (मेरी भलाई का कोई साधन नहीं सूझता)। एक ही प्रकार भले ही (निश्चय ही) मेरा भला है। वह यह है कि गुरु महाराज सर्वसमर्थ हैं और श्री सीता-रामजी मेरे स्वामी हैं। इसी से परिणाम मुझे अच्छा जान पड़ता है।
                            दोहा 
साधु सभाँ गुर प्रभु निकट कहउँ सुथल सतिभाउ।
प्रेम प्रपंचु कि झूठ फुर जानहिं मुनि रघुराउ॥

भावार्थ:-साधुओं की सभा में गुरुजी और स्वामी के समीप इस पवित्र तीर्थ स्थान में मैं सत्य भाव से कहता हूँ। यह प्रेम है या प्रपंच (छल-कपट)? झूठ है या सच? इसे (सर्वज्ञ) मुनि वशिष्ठजी और (अन्तर्यामी) श्री रघुनाथजी जानते हैं॥

भूपति मरन प्रेम पनु राखी। जननी कुमति जगतु सबु साखी।
देखि न जाहिं बिकल महतारीं। जरहिं दुसह जर पुर नर नारीं।।

भावार्थ:-प्रेम के प्रण को निबाहकर महाराज (पिताजी) का मरना और माता की कुबुद्धि, दोनों का सारा संसार साक्षी है। माताएँ व्याकुल हैं, वे देखी नहीं जातीं। अवधपुरी के नर-नारी दुःसह ताप से जल रहे हैं।

महीं सकल अनरथ कर मूला। सो सुनि समुझि सहिउँ सब सूला।
सुनि बन गवनु कीन्ह रघुनाथा। करि मुनि बेष लखन सिय साथा।।
बिनु पानहिन्ह पयादेहि पाएँ। संकरु साखि रहेउँ एहि घाएँ।
बहुरि निहारि निषाद सनेहू। कुलिस कठिन उर भयउ न बेहू।।

भावार्थ:-मैं ही इन सारे अनर्थों का मूल हूँ, यह सुन और समझकर मैंने सब दुःख सहा है। श्री रघुनाथजी लक्ष्मण और सीताजी के साथ मुनियों का सा वेष धारणकर बिना जूते पहने पाँव-प्यादे (पैदल) ही वन को चले गए, यह सुनकर, शंकरजी साक्षी हैं, इस घाव से भी मैं जीता रह गया (यह सुनते ही मेरे प्राण नहीं निकल गए)! फिर निषादराज का प्रेम देखकर भी इस वज्र से भी कठोर हृदय में छेद नहीं हुआ (यह फटा नहीं)।

अब सबु आँखिन्ह देखेउँ आई। जिअत जीव जड़ सबइ सहाई।
जिन्हहि निरखि मग साँपिनि बीछी। तजहिं बिषम बिषु तामस तीछी।।

भावार्थ:-अब यहाँ आकर सब आँखों देख लिया। यह जड़ जीव जीता रह कर सभी सहावेगा। जिनको देखकर रास्ते की साँपिनी और बीछी भी अपने भयानक विष और तीव्र क्रोध को त्याग देती है।
                        दोहा 
तेइ रघुनंदनु लखनु सिय अनहित लागे जाहि।
तासु तनय तजि दुसह दुख दैउ सहावइ काहि॥

भावार्थ:-वे ही श्री रघुनंदन, लक्ष्मण और सीता जिसको शत्रु जान पड़े, उस कैकेयी के पुत्र मुझको छोड़कर दैव दुःसह दुःख और किसे सहावेगा?

सुनि अति बिकल भरत बर बानी। आरति प्रीति बिनय नय सानी।
सोक मगन सब सभाँ खभारू। मनहुँ कमल बन परेउ तुसारू।।

भावार्थ:-अत्यन्त व्याकुल तथा दुःख, प्रेम, विनय और नीति में सनी हुई भरतजी की श्रेष्ठ वाणी सुनकर सब लोग शोक में मग्न हो गए, सारी सभा में विषाद छा गया। मानो कमल के वन पर पाला पड़ गया हो।

           चित्रकूट स्थित दिव्य भरतकूप :-

        अपने पिता किया आज्ञा से बनवास को भी कर्म का पुण्य
अवसर मानकर राम और भरत जी ने त्याग प्रेम और सेवा का जो पथ चुना है वह भारतीय संस्कृति के अलावा अन्यत्र दुर्लभ है। भरत जी के भावुक संवाद ने श्री रामजी के कर्म पथ की डगर को ना डिगा पाया है। इन्हीं प्यारी भावपूर्ण स्मृतियों को सजो रखा है चित्रकूट का ये परम पवित्र अनादि तीर्थ स्थल भरत कूप। यह भरतकूप नामक गांव से लगभग 2 किलोमीटर दूर विंध्य-पर्वत श्रंखला के द्रोणाचल नामक पर्वत की तलहटी में स्थित है। भरतकूप मंदिर में एक कूप है जिसका धार्मिक महत्व गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में वर्णित किया है। जब प्रभु श्रीराम चौदह साल का वनवास काटने के लिए चित्रकूट आए थे। उस समय भरत जी को माता कैकेयी के क्रिया कलाप पर काफी दुख हुआ था। वे अयोध्या की जनता के साथ राम को मनाने चित्रकूट आए थे।
     श्री रामचरितमानस के अनुसार भरत जी जब अपने प्रभु श्री राम जी को मनाने और राज्याभिषेक करने के लिए श्री अवध धाम से श्री चित्रकूट धाम पधारे तब वह अपने साथ समस्त तीर्थों का जल अपने प्रभु भगवान श्री राम जी के अभिषेक के लिए लाए थे किंतु जब प्रभु श्री राम जी ने उनके अयोध्या लौटने की प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया और स्वयं उन्हें 14 वर्ष तक अपने प्रतिनिधि के रूप में अयोध्या साम्राज्य का राज्य-भार संभालने के लिए राजी कर लिया। तब उस जल को आगामी 14 वर्षों तक संभाल कर रखने की आवश्यकता हुई। उस समय महर्षि अत्रि जी ने श्री भरत लाल जी को वह संपूर्ण तीर्थों का जल इसी कूप में स्थापित करने के लिए निर्देश दिया। इस तीर्थ के संदर्भ में श्री रामचरितमानस के अयोध्या कांड के एक दोहे में विशेष संकेत रूप से कहा गया है- 

        अत्रि कहेउ तब भरत सन सैल समीप सुकूप। 
         राखिअ तीरथ तोय तहँ पावन अमिय अनूप।।

        इस पर भरत जी काफी निराश हुए और जो जल व सामग्री प्रभु के राज्याभिषेक को लाए थे उसको इसी कूप में छोड़ दिया था और भगवान राम की खड़ाऊ लेकर लौट गए थे। इस पवित्र तीर्थ के जल में सभी तीर्थों का पवित्र जल सन्निहित है।तभी से यह कूप भरत जी के नाम पर भरतकूप कहलाया।
                           भरत मंदिर
अन्य संरचनाएं:-
          यह तीर्थ एक विशाल वटवृक्ष एवं एक मंडप के द्वारा आच्छादित है। यहां पर बना भरतकूप मंदिर भी अत्यंत भव्य है। इस मंदिर में भगवान राम, सीता, लक्ष्मण, भरत मांडवी व शत्रुघन की मूर्तियां विराजमान है। सभी प्रतिमाएं धातु की है। वास्तुशिल्प के आधार पर मंदिर काफी प्राचीन है। माना जाता है कि बुंदेल शासकों के समय में मंदिर का निर्माण हुआ था। मंदिर में भगवान श्री राम दरबार के साथ श्री भरत लाल एवं राज महिषी देवी मांडवी की प्रतिमाएं भी विशेष रूप से प्रतिष्ठित हैं। पास ही में एक हनुमान मंदिर भी इस स्थल को शोभा बढ़ता है। अभी कुछ समय पूर्व ही प्राचीन मंदिर का जीर्णोध्दार उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा प्रारम्भ किया गया है जो अभी भी चल रहा है। दर्शकों को कुछ असुविधा भी होती है।
                               वट वृक्ष 
तीर्थो के पुण्य के साथ होते है असाध्य रोग दूर :-
वैष्णव धर्मावलंबियों की मानना है कि इस कूप में स्नान से समस्त तीर्थो का पुण्य तो मिलता ही है। साथ की शरीर के असाध्य चर्मादि रोग भी दूर होते है। भगवान राम के चरणों के प्रताप से जीव मृत्यु के पश्चात स्वर्गगामी होता है और मोक्ष को प्राप्त करता है-
भरतकूप अब कहिहहिं लोगा, 
अतिपावन तीरथ जल योगा।
प्रेम सनेम निमज्जत प्राणी,
 होईहहिं विमल कर्म मन वाणी।।

मकर संक्रांति के समय होता है स्नान :-
भरतकूप में मकर संक्रांति को पांच दिन मेला लगता है। यहां पर बुंदेलखंड के कोने-कोने से लाखों श्रद्धालु प्रतिदिन आते है और इस कूप में स्नान कर पुण्य लाभ प्राप्त करते है। वैसे प्रत्येक अमावस्या में भी यहां पर श्रद्धालु स्नान करने के बाद चित्रकूट जाते है और फिर मंदाकिनी में स्नान कर कामदगिरि की परिक्रमा लगाते है।

मेला में रहती है चाक-चौबंद व्यवस्था :-
मकर संक्रांति मेला में यहां पर सुरक्षा और प्रशासनिक पुख्ता इंतजाम किए जाते है। मजिस्ट्रेट की तैनाती के साथ उच्चाधिकारियों की मेला पर निगाह रहती है। यहां लगने वाले मेला में एनएच से लेकर भरतकूप मंदिर तक दोनों ओर दुकाने सजती है। जिसमें पांच दिन काफी चहल-पहल देखी जाती है।

                 आचार्य डॉ राधे श्याम द्विवेदी 
लेखक परिचय:- 
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल ,आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं। ) 


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