Saturday, April 9, 2022

निर्गुण - सगुण सर्वधर्म समभाव की विचारधारा के प्रवर्तक रामानंद (6) डा. राधे श्याम द्विवेदी

प्रारंभिक जीवन
रामानंद का जन्म 1299 में इलाहाबाद में एक कान्यकुब्ज परिवार में हुआ था उनकी प्रारंभिक शिक्षा दीक्षा काशी में हुई थी। यही पर उन्होने स्वामी राघवानंदन से श्री संप्रदाय की दीक्षा ली थी उन्होंने दक्षिण और उत्तर भारत के अनेक स्थानों की यात्रा की थी और भक्ति को मोक्ष का एकमात्र साधन स्वीकार किया था। राघवानंदन के आराध्य देव राम थे उन्होंने कृष्ण और राधा के स्थान पर राम और सीता की भक्ति का आरंभ किया । स्वामी रामानंद को मध्यकालीन भक्ति आंदोलन का महान संत माना जाता है । स्वामी रामानंद ने राम भक्ति की धारा को समाज के निचले स्तर तक पहुंचाया।  उत्तर भारत में भक्ति का प्रचार करने का श्रेय स्वामी रामानंद को जाता है। ईश्वर को प्राप्त करने के लिए उन्होंने पूरी भक्ति और अनुराग का दर्शन दिया। रामानंद कबीर के गुरू थे । रामानंद जी का कहना था , "सभी मनुष्य ईश्वर की संतान हैं ना कोई ऊंचा है न नीचे मनुष्य मनुष्य में कोई भेद नहीं है सबसे प्रेम करो सब के अधिकार समान है।"
रामानंद प्रारंभ से ही क्रांतिकारी थे। इन्होंने रामानुजाचार्य की भक्ति परंपरा को उत्तर भारत में लोकप्रिय बनाया और रामावत संप्रदाय का गठन कर राम तंत्र का प्रचार किया । संत रामानंद के गुरु का नाम राघवानंद था। जिसका रामानुजाचार्य की भक्ति परंपरा में चौथा स्थान है। इनके माता-पिता धार्मिक विचारों और संस्कारों के थे। इसीलिए रामानंद के विचारों पर भी माता-पिता के संस्कारों का प्रभाव पड़ा बचपन से ही रामानंद पूजा पाठ में रुचि लेने लगे थे। रामानंद प्रखर बुद्धि के बालक थे । अतः धर्म शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए इन्हें काशी भेजा गया वही पर दक्षिण भारत से आए गुरु राघवानंद से इनकी भेंट हुई थी। रामानंद वैष्णव संप्रदाय में विश्वास रखते थे उस समय वैष्णव संप्रदाय में अनेक रूढ़ियां थी जैसे कि लोगों में जातिपात का भेद था ,पूजा उपासना में कर्मकांडों का जोर था ,रामानंद को यह सब अच्छा नहीं लगता था।
देशाटन
रामानंद अपने गुरु से शिक्षा प्राप्त करके देश की यात्रा पर निकल गए और समाज में फैली जाति धर्म संप्रदाय आदि की विषमता को जानने और उन्हें समाज से दूर करने के लिए मन में दृढ संकल्प लिया। देश के भ्रमण के बाद जब रामानंद आश्रम में वापस गए तो उनके गुरु राघवानंद ने उन्हें आश्रम में नहीं आने दिया । उन्हें यह कह कर मना कर दिया कि तुमने दूसरी जाति के लोगों के साथ भोजन किया। तुमने जाति का ध्यान नहीं रखा। इसलिए तुम हमारे आश्रम में नहीं रह सकते । अपने गुरु के यह वचन सुनकर रामानंद को बहुत दुख और काफी गहरा आघात पहुंचा। उसी समय उन्होंने अपने गुरु का आश्रम त्याग दिया। रामानंद संस्कृत के पंडित थे और संस्कृत में उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की लेकिन उन्होंने अपने उपदेश और विचारों को जन भाषा हिंदी में प्रचारित किया क्योंकि उनका मानना था कि हिंदी ही एकमात्र ऐसी भाषा है जिसके माध्यम से संपूर्ण भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है।अपनी उदार विचारधारा के कारण रामानन्द ने स्वतन्त्र सम्प्रदाय स्थापित किया। उनका केन्द्र मठ काशी के पंच गंगाघाट पर था। उन्होंने भारत के प्रमुख तीर्थों की यात्राएँ की थीं और अपने मत का प्रचार किया था। साम्प्रदायिक मत के अनुसार एक मूल ‘श्री सम्प्रदाय’ की आगे चलकर दो शाखाएँ हुई एक में लक्ष्मी नारायण की उपासना की गयी, दूसरी में सीताराम की। कालान्तर में पहली शाखा ने दूसरी को दबा लिया। रामानन्द ने दूसरी शाखा को पुर्न जीवित किया।
रामानन्द के प्रमुख शिष्य-
अनन्तानन्द कबीर सुखानन्द सुर सुरानन्द पद्मावती नरहर्यानन्द पीपा भावानन्द रैदास धना सेन और सुरसुरी आदि थे।
रामानंद संप्रदाय का विस्तार
जब समाज में चारों और आपसी कटुता और वैमनस्य का भाव भरा हुआ था। उस समय में स्वामी रामानंद ने नारा दिया “”जात पात पूछे ना कोई हरि को भजे सो हरि का होई”” उन्होंने भक्ति का मार्ग सबके लिए खोल दिया। काशी के पंचगंगा घाट पर अवस्थित श्रीमठ दुनिया भर में फैले रामानंद जी का मूल गुरु स्थान है। यह वही श्रीमठ है जहां पर रामानंद जी ने शिक्षा ग्रहणकी थी। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो काशी का श्रीमठ सगुण और निर्गुण राम भक्ति परंपरा और रामानंद संप्रदाय का मूल आचार्य पीठ है। इस संप्रदाय का नाम श्री संप्रदाय और वैरागी संप्रदाय भी है इस संप्रदाय में आचार पर अधिक बल नहीं दिया जाता है। कर्मकांड का महत्व यहां बहुत कम है इस संप्रदाय के अनुयाई अवधुत और तपसी भी कहलाते हैं। रामानंद के धार्मिक आंदोलन में जाति पाती का भेद भाव नहीं था उनके शिष्य में हिंदुओं की विभिन्न जातियों के लोगों के साथ साथ मुसलमान भी थे भारत में रामानंदी साधुओं की संख्या सर्वाधिक है।
भक्ति मार्ग का प्रचार
स्वामी रामानंद ने भक्ति मार्ग का प्रचार करने के लिए देशभर की यात्राएं की थी स्वामी रामानंद पूरी और दक्षिण भारत के कई धर्म स्थानों पर और रामभक्ति का प्रचार किया। सबसे पहले उन्हें स्वामी रामानुज का अनुयाई माना जाता था लेकिन श्री संप्रदाय का आचार्य होने के बावजूद उन्होंने अपनी उपासना पद्धति में राम और सीता को वरीयता दी थी। उन्हें ही अपना उपास्य बनाया रामभक्ति की पावन धारा को हिमालय की पावन ऊंचाइयों से उतारकर स्वामी रामानंद ने गरीबों और वंचितो की झोपड़ी तक पहुंचाया। वह भक्ति मार्ग के ऐसे सोपान थे जिन्होंने वैष्णव भक्ति साधना को नया आयाम दिया। रामानंद की पवित्र चरण पादुकाएं आज भी श्रीमठ काशी में रखी गई है जो करोड़ों रामानंद इनकी आस्था का केंद्र है। रामानंद स्वामी जी ने भक्ति के प्रचार में संस्कृत की जगह लोक भाषा को प्राथमिकता दी थी।आचार्यपाद ने स्वतंत्र रूप से श्री संप्रदायका प्रवर्तन किया था। इन्होने बिखरते और नीचे गिरते हुए समाज को मजबूत बनाने की भावना से भक्ति मार्गमें जातिवादी के भेद को व्यर्थबताया और कहा कि भगवान की शरण गति का मार्ग सबके लिए समान रूप से खुला है।रामानंद संप्रदाय का मूल उद्देश्य समाज में फैली हुई कुरीतियां जाति-पाति के भेदभाव ऊंच नीच छुआछूत आदि को जड़ से खत्म करना,जातिवाद ,छुआछूत के संबंध में रामानंद के विचार और भक्ति का मार्ग बनाना आदि। रामानंद के मन में समाज में फैली ऊंच-नीच छुआछूत जाति पाती की भावनाओं को दूर करने का दृढ़ संकल्प था। उनका विचार था कि यदि समाज में इस तरह की भावनाएं रही तो सामाजिक विकास नहीं हो सकता। उन्होंने एक नए मार्ग और नए दर्शन की शुरुआत की जिसे भक्ति मार्ग की संज्ञा दी गई। उन्होंने इस मार्ग को अधिक उदार और समता मूलक* बनाया और भक्ति के द्वार धनी-निर्धन, नारी-पुरुष, ब्राह्मण सबके लिए खोल दिए। धीरे धीरे भक्ति मार्ग का प्रचार-प्रसार इतना बढ़ गया कि ग्रियर्सन ने इस सम्प्रदाय को बौद्ध धर्म के आंदोलन से बढ़कर बताया। ब्राह्मणों की प्रभुता को अस्वीकार करते हुए उन्होंने सभी जातियोंके लिए भक्ति का द्वार खोल दिया और भक्ति आंदोलन को एक नया आध्यात्मिक मार्ग दिखाया। उन्होंने तत्कालीन समाज में व्याप्त कुरीतियों जैसे छुआछूत ऊंच नीच और जात-पात का विरोध किया था।जाति प्रथा का विरोध करते हुए उन्होंने सभी जाति के लोगों को अपना शिष्य बनाया।
रामानंद के बारह शिष्य थे -अनंत ,सुखानंद, सुरसुरा नंद, नरहरयानंद,भावानंद,  धन्ना ,पीपा, सेना ,रैदास ,कबीर पद्मावती, सुरसरि आदि, जिसमें – कुछ निम्न जाति के लोग भी थे  जिसमें धन्ना (जाट), सेना (दास /नाई),  रैदास (चर्मकार), कबीर (जुलाहा ), पीपा (राजपूत)। रामानंद जी के बारह शिष्य द्वादश महाभागवत के नाम से जाने जाते थे। इसमें कबीर, रैदास, सेनदास  तथा पीपा के उपदेश आदि ग्रंथ में संकलित हैं।
रामानंद जी के शिष्य कबीर दास और रैदास आगे चलकर काफी प्रसिद्ध हुए और ख्याति अर्जित की।कबीर और रविदास ने निर्गुण राम की उपासना की थी। इस तरह अगर कहा जाए तो स्वामी रामानंद ऐसे महान संत थे जिनकी छाया में सगुण और निर्गुण दोनों तरह के संत उपासक रहते थे । इसके अतिरिक्त कुछ लोगों को रामानंद ने व्यक्तिगत रुप से दीक्षा नहीं दी थी बल्कि उनकी मृत्यु बाद वें उनके विचारों से आकर्षित होकर उनके शिष्य बन गए थे-जिसमें – भावानंद, सुखानंद  ,सुरानंद, परमानंद ,महानंद और श्री आनंद प्रमुख थे।
रामानंद नें स्त्रियों की दयनीय स्थिति को ऊपर उठाने का प्रयास किया।वे प्रथम भक्ती सुधारक थे जिन्होंने ईश्वर की आराधना का द्वार महिलाओं के लिए भी खोल दिया तथा महिलाओं को अपने शिष्यों के रूप में स्वीकार किया।उनकी दो महिला शिष्या- 1)पद्मावती ,2)सुरसरी  थी।
रचनाएँ
रामानन्द द्वारा लिखी गयी कही जाने वाली इस समय निम्नलिखित रचनाएँ मिलती हैं-
श्रीवैष्णव मताव्ज भास्कर”, श्रीरामार्चन पद्धति”,गीताभाष्य”,
उपनिषद-भाष्य”, आनन्दभाष्य, ”सिद्धान्तपटल”, रामरक्षास्तोत्र”, योग चिन्तामणि”, रामाराधनम्”, वेदान्त-विचार’,’रामानन्दादेश”, ज्ञान-तिलक”,ग्यान-लीला”,आत्मबोध राम मन्त्र जोग ग्रन्थ”,
कुछ फुटकर हिन्दी पद”और अध्यात्म रामायण’। समस्त ग्रंथों में श्री वैष्णवमताब्ज भाष्कर और श्री रामार्चन पद्धति को ही रामानंद कृत कहा जा सकता है। पंडित रामटहल दास ने इनका संपादन कर इन्हें प्रकाशित कराया था इन ग्रंथों की हस्त लिखित प्रतियां उपलब्ध नहीं है। श्री वैष्णवमताब्ज भाष्कर में स्वामी जी ने सुरसुरा नंद द्वारा किए गए नो प्रश्न तत्व क्या है श्री वैष्णव का जाप मंत्र क्या है ,वैष्णव के इष्ट का स्वरूप ,मुक्ति के सरल साधन ,श्रेष्ठ धर्म वैष्णव के भेद, उनके निवास स्थान ,वैष्णव का कार्य आदि के उत्तर दिए हैं। श्री रामार्चन पद्धति राम की सांग ता षोडशो पचार पूजाका विवरण दिया गया है। रामटहल दास द्वारा संपादित दोनों ग्रंथ संवत 1984 सन (1927 ईस्वी)में सरयु वन(अयोध्या )के वासुदेव दास द्वारा प्रकाशित किए गए थे। श्रीभगवादाचार्य ने संवत 2002 (सन 1945 ई.) में श्री रामानंद साहित्य मंदिर,अट्टा(अलवर) में श्री वैष्णवमताब्ज भाष्कर को प्रकाशित किया था। शेष ग्रंथों में गीता भाष्य और उपनिषद भाष्यकी न तो कोई प्रकाशित प्रति मिलती है और ना हस्तलिखित प्रति प्राप्त है ।सामान्य व्यक्ति के लिये महापुरुषों का जीवन आदर्श महापुरुषों का जीवन सामान्य व्यक्ति के लिये आदर्शहोता है। महापुरुष स्थूल शरीर के प्रति इतने उदासीन होते हैं। कि उन्हें उसका परिचय देने की आवश्यकता ही नहीं जान पड़ती। भारतीय संस्कृति में शरीर के परिचय का कोई मूल्य नहीं है।श्री रामानन्दाचार्य जी का परिचय व्यापक जनों को केवल इतना ही प्राप्त है कि उन तेजोमय, वीतराग, निष्पक्ष महापुरुष ने काशी के पंचगंगा घाट स्थित श्रीमठको अपने निवास से पवित्र किया। आचार्य का काशी-जैसी विद्वानों एवं महात्माओं की निवास भूमि में कितना महत्त्वथा, यह इसी से सिद्ध है कि महात्मा कबीरदास जी ने उनके चरण धोखे से हृदय पर लेकर उनके मुख से निकले ‘राम’- नाम को गुरु-मन्त्रमान लिया।
आचार्य ने शिव एवं विष्णु के उपासकोंमें चले आते अज्ञान मूलक द्वेष भाव को दूर किया। अपने तप: प्रभाव से यवन-शासकों के अत्याचार को शान्त किया और श्री अवध चक्रवर्ती दशरथ नन्दन राघवेन्द्र की भक्ति के प्रवाह से प्राणियों के अन्त: कलुष का निराकरण किया। द्वादश महाभागवत आचार्य के मुख्य शिष्य माने गये हैं। इनके अतिरिक्त कबीर, पीपा, रैदास आदि परम ‘विरागी’ महापुरुष आचार्य के शिष्य हो गये हैं। आचार्य ने जिस रामानन्दीय सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया, उसने हिन्दू-समुदाय की आपत्ति के समय रक्षा की। भगवान का द्वार बिना किसी भेदभाव के, बिना जाति-योग्यता आदि का विचार किये सबकेलिये खुला है, उन्होंने उदघोष किया था-“”सर्वे प्रपत्तेधिकारिणो मत्ताः,”” सब उन मर्यादा पुरुषोत्तम को पुकारने के समान अधिकारी हैं- इस परम सत्य को आचार्य ने व्यावहारिक रूप में स्थापित किया है।
दार्शनिक मत
रामानंद ब्रह्मा आडंबरों का विरोध करते हुए ईश्वर के प्रति सच्ची भक्ति तथा मानव प्रेम पर बल दिए  उन्होंने एक गीत में कहा है कि मैं ब्रह्मा की पूजा अर्चना के लिए चंदन तथा गंधद्रव्य लेकर जाने को था। किंतु गुरु ने बताया कि ब्रह्मा तो तुम्हारे हृदय में है जहां भी मैं जाता हूं पाषाण और जल की पूजा देखता हूं ,किंतु परम शक्ति है जिसने सब जगह इसे फैला रखा है लोग व्यर्थ में ही इसे वेदों में देखने का प्रयत्न करते हैं। मेरे सच्चे गुरु ने मेरी असफलताओं और भ्रांतियों को समाप्त कर दिया यह उनकी अनुकंपा हुई कि रामानंद अपने स्वामी ब्रह्मा मे खो गया  यह गुरु की कृपा है कि जिससे कर्म के लाखो बंधन को जाते हैं।
रामानंद प्रथम भक्ति संत थे जिन्होंने हिंदी भाषा को अपने मत के प्रचार का माध्यम बनाकर भक्ति आंदोलन को एक जनाधार दिया उनका मानना था “जाती पाती पूछे न कोई हरि को भजे सो हरि का होई”।
रामानंद दक्षिण भारत और उत्तर भारत के भक्ति आंदोलन के मध्य सेतु का काम किए तथा भक्ति आंदोलन को दक्षिण भारत से उत्तर भारत की ओर ले आए। रामानंद के विचारों उपदेशों ने दो धार्मिक मतों को जन्म दिया एक रूढीवादी और दूसरा प्रगतिवादी वर्ग।
रुढ़ीवादी वर्ग का नेतृत्व तुलसीदास ने किया तथा सुधारवादी/प्रगतिवादी वर्ग का नेतृत्व कबीरदासने किया था। रूढ़िवादी विचारधारा के लोगों ने प्राचीन परंपराओं और विचारों में विश्वास करके अपने सिद्धांतों और संस्कारों में परिवर्तन नहीं किया। दूसरा प्रगति वादी विचारधारा वाले लोगों ने स्वतंत्र रूप से ऐसे सिद्धांत अपनाए जो हिंदू मुसलमान सभी को मान्य थे। इस परिवर्तन से समाज में नीची समझे जाने वाली जातियों और स्त्रियों को सम्मान, अधिकार मिलने लगा। रामानंद सिद्ध संत थे उनकी वाणी में जादू था भक्ति में सरोबार रामानंद ने ईश्वर भक्ति को सभी दुखों का निदान और सुख में जीवन यापन का सबसे अच्छा मार्ग बताया है। रामानंद का महत्व अनेक दृष्टियों से है वह रामभक्ति को सांप्रदायिक रूप देने वाले सर्व प्रथम आचार्य थे। उन्हीं की प्रेरणा से मध्य युग और उसके अनंतर प्रचुर राम भक्ति साहित्य की रचना हुई। कबीर और तुलसीदास दोनों का श्रेय रामानंदको ही है रामानंद ने ही समाज में जात पात ऊंच नीच के भेदभाव को मिटाने का सफल प्रयास किया ।
रामानंद की ही उदार भावना से हिंदू और मुसलमानों को भी समीप लाने की भूमिका तैयार की गई। भारतीय धर्म दर्शन साहित्य और संस्कृति के विकास में भागवत धर्म और वैष्णव भक्ति से संबंधित वैज्ञानिक क्रांतिकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है
रामानंद स्वामी को उत्तर भारत में आधुनिक भक्ति मार्ग का प्रचार करने वाला और वैष्णव साधना के मूल प्रवर्तक के रूप में स्वीकार किया जाता है।
रामानंद का निधन
लगभग 112 वर्ष की आयु में संत 1411 में रामानंद का निधन हो गया संत रामानंद राम के अनन्य भक्त और भक्ति आंदोलन के जनक के रूप में सदैव स्मरण किए जाते रहेंगे। वैष्णव संप्रदाय की चतु:संप्रदाय में रामानंद संप्रदाय भी प्रमुख है। रामानंद संप्रदाय का प्रधान केंद्र काशी को माना गया है। रामानंद संप्रदाय की स्थापना 13वीं शताब्दी में श्री रामानंदाचार्य महाराज ने देशभर में अपने शिष्यों द्वारा भक्ति का प्रचार-प्रसार तथा संप्रदाय को सुंदर रूप देने के लिए किया था। रामानंदाचार्य संप्रदाय में गुरु परंपरा में नाम आनंदपरक रहे हैं। जैसे श्रीरामानंदाचार्य महाराज के गुरु राघवानंद और उनके गुरु हर्यानंद, श्रियानंद, अनंतानंद जैसे महापुरुषों का वर्णन है। पहले आनंदपरक नाम चलता था बाद में दीनता युक्त भक्तों ने अपने नाम को दास पदवी से विभूषित किया। जैसे तुलसीदास, अग्रदास जैसे महापुरुष भी हुए।
उनके द्वारा स्थापित रामानंद संप्रदाय या रामावत संप्रदाय आज वैष्णव का सबसे बड़ा धार्मिक जमात है।वैष्णवों के 52 द्वारे में से 36 द्वारे केवल रामानंदियों के हैं। इस संप्रदाय के संत बैरागी भी कहे जाते हैं इनके अपने अखाड़े होते हैं। रामानंद संप्रदाय की शाखाएं और उपशाखाएं देशभर में फैली हुई है लेकिन अयोध्या ,चित्रकूट, नासिक ,हरिद्वार में इस संप्रदाय सैकडो हो मठ मंदिर स्थापित है।                     रामानंद संप्रदाय के 36 द्वारे।                                     1- अग्रावत-श्री अग्रदेवाचार्य।

2-अनंतानंदी-श्रीअनंताचार्य।

3-अनुभवानंदी-श्री अनुभवानंदाचार्य। 

4-अलखानंदी-श्री अलख रामाचार्य।

5-कर्मचंदी-श्री कर्मचंद्राचार्य।
6-कालूजी-श्री कालू रामाचार्य।
7-कीलावत-श्री कील देवाचार्य।
8-कुबावत-श्री केवल रामाचार्य।
9-खोजीजी-श्री राघवेंद्राचार्य।
10-छठीनारायणी-श्री हठीनारायणाचार्य।
11-जंगीजी-श्री अर्जुन देवाचार्य।
12-टीलावत-श्री साकेत निवासाचार्य।
13-तनतुलसी-श्री तनतुलसीदासाचार्य।
14-दिवाकर-श्री दिवाकाराचार्य।
15-देवमुरारी-श्रीमुरारी देवाचार्य।
16-धूंध्यानंदी-श्री दामोदराचार्य।
17-नरहयनिदी-श्री नरहयर्यानंदाचार्य।
18-लाहारामी-श्री लाहा रामाचार्य।
19-पीपावत-श्री पीपाचार्य।
20-पूर्ण बैराठी-श्री परमानंदाचार्य।
21-नाभाजी-श्री नारायणाचार्य।
22-भगवन्ननारायणी-श्री भगवानाचार्य।
23-भंडगी-श्री भृंगी देवाचार्य।
24-भावानंदी-श्री भावानंदाचार्य।
25-मलूकिया-श्री मलूकदासाचार्य।
26-योगानंदी-श्री योगानंदाचार्य।
27-रामकबीर-श्रीराम कबीराचार्य।
28-राघव चेतनी-श्री राघवचेतनाचार्य।
29-रामथंभणा-श्रीरामस्तंभनाचार्य।
30-रामरमाणी-श्री रामरमायणी देवाचार्य।
31-रामरावली-श्री विजय रामाचार्य।
32-रामरंगी-श्री रामरंगी देवाचार्य।
33-लालतुरंगी-श्री लाल तुरंगी देवाचार्य।
34-सुखानंदी-श्री सुखानंदाचार्य।
35-सुरसुरानंदी-श्री सुरसुरानंदाचार्य।
36-हनुमानी-श्री हनुमदाचार्य।

No comments:

Post a Comment