हिन्दू धर्म में परिक्रमा का बड़ा महत्त्व है। परिक्रमा से अभिप्राय है कि सामान्य स्थान या किसी व्यक्ति के चारों ओर उसकी दाहिनी तरफ से घूमना। इसको 'प्रदक्षिणा करना' भी कहते हैं, यह षोडशोपचार पूजा का एक अंग भी है। दुनिया के सभी धर्मों में परिक्रमा का प्रचलन हिन्दू धर्म की देन है। काबा में भी परिक्रमा की जाती है तो बोधगया में भी। भगवान गणेश और कार्तिकेय ने भी अपने पिता की परिक्रमा की थी। यह प्रचलन वहीं से शुरू हुआ है।
प्रमुख परिक्रमाएं:-
1.देवमंदिर और मूर्ति परिक्रमा:-
देव मंदिर में जगन्नाथ पुरी परिक्रमा, रामेश्वरम, तिरुवन्नमल, तिरुवनन्तपुरम में नियमित परिक्रमा होती रहती है।
2.देवमूर्ति की परिक्रमा:-
शिव, दुर्गा, गणेश, विष्णु, हनुमान, कार्तिकेय आदि देवमूर्तियों की परिक्रमा का विधान है।
3.नदी परिक्रमा:-
नर्मदा, गंगा, सरयु, क्षिप्रा, गोदावरी, कावेरी आदि नदियों की परिक्रमा होती है।
4.पर्वत परिक्रमा:-
गोवर्धन परिक्रमा, गिरनार, कामदगिरि, तिरुमलै आदि पर्वतों की परिक्रमा होती है।
4.वृक्ष परिक्रमा:-
पीपल और बरगद आदि दूध वाले वृक्ष की भी परिक्रमा किया जाता है।
5.तीर्थ परिक्रमा:-
चौरासी कोस नैमिष,ब्रज,अयोध्या परिक्रमा, चौदह कोसी और पांच कोसी अयोध्या, उज्जैन , चित्रकूट, प्रयाग पंचकोशी यात्रा, राजिम आदि तीर्थों के परिक्रमा का विधान है।
6.चार धाम यात्रा परिक्रमा:-
छोटा चार धाम परिक्रमा उत्तराखंड का या बड़ा चार धाम यात्रा पूरे भारत की यात्रा होती है।
7. भरत खण्ड की परिक्रमा:-
इसमें संपूर्ण भारत की परिक्रमा होता है। परिवाज्रक संत और साधु ये यात्राएं करते हैं। इस यात्रा के पहले क्रम में सिंधु की यात्रा, दूसरे में गंगा की यात्रा, तीसरे में ब्रह्मपुत्र की यात्रा, चौथे में नर्मदा, पांचवें में महानदी, छठे में गोदावरी, सातवें में कावेरी, आठवें में कृष्णा और अंत में कन्याकुमारी में इस यात्रा का अंत होता है। प्रत्येक साधु समाज में इस यात्रा का अलग अलग विधि-विधान और नियम है।
8. विवाह परिक्रमा:-
मनु स्मृति में विवाह के समक्ष वधू को अग्नि के चारों ओर तीन बार प्रदक्षिणा करने का विधान बतलाया गया है जबकि दोनों मिलकर 7 बार प्रदक्षिणा करते हैं तो सप्तपदी विवाह संपन्न माना जाता है।
किस देव की कितनी बार परिक्रमा:-
1.भगवान शिव की आधी परिक्रमा की जाती है।
2.माता दुर्गा की एक परिक्रमा की जाती है।
3.हनुमानजी और गणेशजी की तीन परिक्रमा की जाती है।
4.भगवान विष्णु की चार परिक्रमा की जाती है।
5.सूर्यदेव की चार परिक्रमा की जाती है।
6.पीपल वृक्ष की 108 परिक्रमाएं करना चाहिए।
7. जिन देवताओं की प्रदक्षिणा का विधान नही प्राप्त होता है, उनकी तीन प्रदक्षिणा की जा सकती है।
विविध परिक्रमाएं
सोमवती अमावास्या की परिक्रमा :-
सोमवती अमावास्या को महिलाएं पीपल वृक्ष की 108 परिक्रमाएं करती हैं। इसी प्रकार देवी दुर्गा की परिक्रमा की जाती है।
पवित्र धर्मस्थान की परिक्रमा:-
अयोध्या में सरयु, ब्रज में गोवर्धन, चित्रकूट में कामदगिरि, दक्षिण भारत में तिरुवन्नमल, तिरुवनन्तपुरम आदि पुण्य स्थलों की परिक्रमा होती है। इसमें अयोध्या में पंचकोसी, ब्रज में गोवर्धन पूजा की सप्तकोसी, ब्रह्ममंडल की चौरासी कोस, नर्मदाजी की अमरकंटक से समुद्र तक छ:मासी और समस्त भारत खण्ड की वर्षों में पूरी होने वाली इस प्रकार की विविध परिक्रमाओं के बारे में पुराणों में विस्तार से वर्णन मिलता है।
छोटी-बड़ी मंडलियां बना परिक्रमा :-
धर्म परायण व्यक्ति छोटी-बड़ी मंडलियां बनाकर तीर्थ यात्रा पर निकलते थे। यात्रा के मार्ग और पड़ाव निश्चित थे। मार्ग में जो गांव, बस्तियां, झोंपड़े नगले पुरबे आदि मिलते थे, उनमें रुकते, ठहरते, किसी उपयुक्त स्थान पर रात्रि विश्राम करते थे। जहां रुकना वहां धर्म चर्चा करना, लोगों को कथा सुनाना, यह क्रम प्रातः से सायंकाल तक चलता रहता है। रात्रि पड़ाव में भी कथा कीर्तन, सत्संग का क्रम बनता है। अक्सर यह यात्राएं नवंबर माह के मध्य में प्रारंभ होती है।
परिक्रमा मार्ग और दिशा :-
'प्रगतं दक्षिणमिति प्रदक्षिणं’ के अनुसार अपने दक्षिण भाग की ओर गति करना प्रदक्षिणा कहलाता है। प्रदक्षिणा में व्यक्ति का दाहिना अंग देवता की ओर होता है। इसे परिक्रमा के नाम से प्राय: जाना जाता है। ‘शब्दकल्पद्रुम’ में कहा गया है कि देवता को उद्देश्य करके दक्षिणावर्त भ्रमण करना ही प्रदक्षिणा है।
सूर्यदेव की दैनिक चाल के कारण भी परिक्रमा :-
प्रदक्षिणा का प्राथमिक कारण सूर्यदेव की दैनिक चाल से संबंधित है। जिस तरह से सूर्य प्रात: पूर्व में निकलता है, दक्षिण के मार्ग से चलकर पश्चिम में अस्त हो जाता है, उसी प्रकार वैदिक विचारकों के अनुसार अपने धार्मिक कृत्यों को बाधा विध्नविहीन भाव से सम्पादनार्थ प्रदक्षिणा करने का विधान किया गया है । शतपथ ब्राह्मण में प्रदक्षिणा मंत्र स्वरूप कहा भी गया है, सूर्य के समान यह हमारा पवित्र कार्य पूर्ण हो।
दार्शनिक महत्व :-
इसका एक दार्शनिक महत्व यह भी है कि संपूर्ण ब्रह्मांड का प्रत्येक ग्रह-नक्षत्र किसी न किसी तारे की परिक्रमा कर रहा है। यह परिक्रमा ही जीवन का सत्य है। व्यक्ति का संपूर्ण जीवन ही एक चक्र है। इस चक्र को समझने के लिए ही परिक्रमा जैसे प्रतीक को निर्मित किया गया है । भगवान में ही सारी सृष्टि समाई है, उनसे ही सब उत्पन्न हुए हैं, हम उनकी परिक्रमा लगाकर यह मान सकते हैं कि हमने सारी सृष्टि की परिक्रमा कर ली है।
नर्मदा परिक्रमा :-
सभी प्रमुख और पवित्र नदियों की परिक्रमा के बारे में पुराणों में उल्लेख मिलता है। गंगा, गोदावरी, महानदी, गोमती, कावेरी, सिंधु, ब्रह्मपुत्र आदि परिक्रमा का वर्णन मिलता है। हम यहां नर्मदा परिक्रमा की जानकारी दे रहे हैं। यह एक धार्मिक यात्रा है, जो पैदल ही पूरी करना होती है। लेकिन जिसने भी नर्मदा या गंगा में से किसी एक की परिक्रमा पूरी कर ली उसने अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा काम कर लिया। उसने मरने से पहले वह सब कुछ जान लिया, जो वह यात्रा नहीं करके जिंदगी में कभी नहीं जान पाता। नर्मदा की परिक्रमा का ही ज्यादा महत्व रहा है।
गोवर्धन परिक्रमा :-
गोवर्धन पर्वत को गिरिराज पर्वत भी कहा जाता है। पांच हजार साल पहले यह गोवर्धन पर्वत 30 हजार मीटर ऊंचा हुआ करता था और अब शायद 30 मीटर ही रह गया है। पुलस्त्य ऋषि के शाप के कारण यह पर्वत एक मुट्ठी रोज कम होता जा रहा है। इसी पर्वत को भगवान कृष्ण ने अपनी छोटी अंगुली पर उठा लिया था। श्रीगोवर्धन पर्वत मथुरा से 22 किमी की दूरी पर स्थित है। पौराणिक मान्यता अनुसार श्री गिरिराज जी को पुलस्त्य ऋषि द्रौणाचल पर्वत से ब्रज में लाए थे। दूसरी मान्यता यह भी है कि जब रामसेतुबंध का कार्य चल रहा था तो हनुमानजी इस पर्वत को उत्तराखंड से ला रहे थे, लेकिन तभी देववाणी हुई की सेतुबंध का कार्य पूर्ण हो गया है, तो यह सुनकर हनुमानजी इस पर्वत को ब्रज में स्थापित कर दक्षिण की ओर पुन: लौट गए। इस पर्वत की परिक्रमा के लिए समूचे विश्व से कृष्णभक्त, वैष्णवजन और वल्लभ संप्रदाय के लोग आते हैं। यह पूरी परिक्रमा 7 कोस अर्थात लगभग 21 किलोमीटर है।
चौरासी कोस परिक्रमा :-
ब्रज परिक्रमा को ही चौरासी कोस की परिक्रमा कहते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि इस परिक्रमा के करने वालों को एक-एक कदम पर अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है। साथ ही जो व्यक्ति इस परिक्रमा को लगाता है, उस व्यक्ति को निश्चित ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। ब्रज चौरासी कोस की परिक्रमा लगभग 268 किलोमीटर अर्थात् 168 मील की होती है। इसकी समयावधि 20 से 45 दिन की है। परिक्रमा के दौरान तीर्थयात्री भजन गाते, संकीर्तन करते और ब्रज के प्रमुख मंदिरों व दर्शनीय स्थलों के दर्शन करते हुए समूचे ब्रज की बडी ही श्रद्धा के साथ परिक्रमा करते हैं।
प्रयाग पंचकोशी :-
एक पंचकोशी यात्रा प्रयाग में होती है और दूसरी उज्जैन में। तीर्थों का मुकुटमणि है प्रयाग। इस तीर्थ में सभी देवता ऋषि-मुनि और सिद्ध निवास करते हैं। प्रयाग मण्डल पांच योजन, बीस कोस तक फैला हुआ है। गंगा-यमुना और संगम के छह तट हैं। इन्हीं को आधार बनाकर प्रयाग की तीन वेदियों को अति पवित्र माना गया है, ये हैं अंतर्वेदी, मध्यवेदी और बहिर्वेदी। इन तीनों वेदियों में अनेक तीर्थ, उपतीर्थ, कुण्ड और आश्रम हैं। प्रयाग आने वाले तीर्थयात्रियों को त्रिवेणी संगम में स्नान करने के बाद तीर्थराज की पंचक्रोशी परिक्रमा करनी चाहिए। इस परिक्रमा के अनेक लाभ हैं। तीर्थराज के साथ ही सभी देवताओं, ऋषियों, सिद्धों और नागों के दर्शन का पुण्य फल इस परिक्रमा से मिलता है। तीर्थ क्षेत्र में स्थित सभी देवताओं, आश्रमों, मंदिरों, मठों, जलकुण्डों के दर्शन करने से ही तीर्थयात्रा का पूरा फल मिलता है।
छोटा चारधाम परिक्रमा :-
यह परिक्रमा उत्तराखंड में आयोजित होती है। इस छोटा चार धाम यात्रा कहा जाता है। यह बहुत ही कठिन होती है। इसमें गंगोत्री, यमुनोत्री, बद्रीनाथ, छोटा काशी, केदारनाथ आदि की यात्रा की जाती है।
राजिम परिक्रमा :-
रायपुर से 45 किलोमीटर की दूरी पर राजिम स्थित है। राजिम को पद्मावतीपुरी, पंचकोशी, छोटा काशी आदि नामों से भी जाना जाता है। राजिम छत्तीसगढ़ का एक त्रिवेणी संगम है। धार्मिक दृष्टी से राजिम को छत्तीसगढ़ का प्रयाग कहा जाता है।यहां महानदी, पैरी तथा सौंढुल नदियों का पवित्र संगम स्थल है, यह संगम स्थल प्राचीन कुलेश्वर मंदिर के निकट है। यहां श्राद्ध, पिंडदान, तर्पण, पर्व स्नान आदि किया जाता है। कहते हैं कि महानदी तीर्थ मार्ग की परिक्रमा करना बहुत ही पुण्यदायक है।
तिरुमलै और जगन्नाथ परिक्रमा :-
तिरुपति बालाजी और जगन्नाथ पुरी देवस्थान की परिक्रमा करने के महत्व का भी उल्लेख मिलता है। तिरुपति बालाजी मंदिर और पर्वत आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले में स्थित है, जबकि जगन्नाथपुरी उड़ीसा के समुद्र तट पर स्थित है। यह चार धामों में से एक है। यह दोनों ही यात्रा भगवान विष्णु की यात्रा के अंतर्गत आती है जिसे चौबीस विष्णुतीर्थ यात्रा कहते हैं। इसमें रामेश्वरम एवं द्वारिका परिक्रमा भी शामिल है और बद्रीनाथ परिक्रमा भी।
क्षिप्रा परिक्रमा : -
तीर्थ नगरी उज्जैन से क्षिप्रा नदी की परिक्रमा शुरु होती है। दत्त अखाड़ा घाट से कई साधु-संतों के साथ आम जनता इस यात्रा को शुरु करते हैं। यह यात्रा लगभग 545 किमी की है। हर दिन करीब 20 किमी की यात्रा होती है। पदयात्रा के दौरान शिप्रा और तीर्थ स्थलों के दर्शन होते हैं। यात्रा का समापन उज्जैन स्थित क्षिप्रा नदी के रामघाट पर पहुंचकर होता है। उज्जैन में चौरासी महादेव की परिक्रमा का भी विधान है।
पंचकोशी यात्रा :-
वैशाख मास का महत्व कार्तिक और माघ माह के समान है। इस मास में जल दान, कुंभ दान का विशेष महत्व है। वैशाख मास स्नान का महत्व अवंति खंड में है। जो लोग पूरे वैशाख स्नान का लाभ नहीं ले पाते हैं, वे अंतिम पांच दिनों में पूरे मास का पुण्य अर्जित कर सकते हैं। वैशाख मास एक पर्व के समान है, इसके महत्व के चलते उज्जैन में सिंहस्थ भी इसी मास में आयोजित होता है। पंचकोशी यात्रा में सभी ज्ञात-अज्ञात देवताओं की प्रदक्षिणा का पुण्य इस पवित्र मास में मिलता है।
नैमिषारण्य के 84 कोसीय परिक्रमा:-
उत्तर प्रदेश के सीतापुर में प्रत्येक वर्ष के फाल्गुन मास की प्रतिपदा से शुरू होने वाले विश्व विख्यात 84 कोसीय परिक्रमा मेले का आगाज होता है. इस परिक्रमा मेले की शुरूआत सतयुग से हुई. तभी से नैमिषारण्य क्षेत्र में होने वाले 84 कोसीय परिक्रमा मेले में साधु संत और श्रद्धालु भाग लेते चले आ रहे हैं. विश्व विख्यात नैमिषारण्य क्षेत्र में होने वाले 84 कोसीय परिक्रमा का आरम्भ सतयुग में महर्षि दधिचि के द्वारा किया गया. जिसका अनुसरण हर युग में होता रहा है. त्रेतायुग में भगवान श्रीराम ने अपने कुटुंबजनों के साथ इस क्षेत्र की परिक्रमा की. वहीं द्वापर युग में श्रीकृष्ण के अलावा पाण्डवों द्वारा नैमिषारण्य क्षेत्र की परिक्रमा की गई.फाल्गुन मास की प्रतिपदा से 84 कोसीय परिक्रमा मेले का होता है आगाज यह क्षेत्र विश्व का केन्द्र बिन्दु है. यहीं से सृष्टि की रचना का भी आरभ हुआ. यहीं पर आदि गंगा गोमती नदी के तट पर मनु और सतरूपा द्वारा हजारों वर्षों तक कठोर तप किया गया. इस 84 कोस की भूमि पर 33 कोटि देवी देवताओं ने वास किया. यहीं पर 88 हजार ऋषियों ने अपने-अपने आश्रम बनाकर तपस्या की।
अक्षय आंवला नवमी को विशेष मुहूर्त
कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को अक्षय नवमी के नाम से जाना जाता है. साथ ही इसे आंवला नवमी भी कहा जाता है. मान्यता है कि इस दिन आंवले के पेड़ की पूजा और दान करने पर अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है. मां लक्ष्मी की कृपा से साधक को आर्थिक लाभ मिलता है. इस उत्सव को ब्रज में भी बड़े ही हर्ष के साथ सभी मंदिरों में मनाया जाता है और इस दिन ब्रज में तीन वन की परिक्रमा भी लगाई जाती है. जिसमें मथुरा, वृंदावन और गरुणगोविंद की 21 कोस की परिक्रमा का अधिक महत्व है. माना जाता है कि तीन वन की परिक्रमा से सभी तीर्थों का पुण्य मिलता है. साथ ही इस दिन आंवला, सिंघाड़े के फल, खील-खिलौने, और भोजन दान का विशेष महत्व माना जाता है और कहते है कि जो भी इस दिन यह चीजे दान करता है उसे क्षय से मुक्ति मिलती है और उसके घर में कभी अन्न की कमी नहीं होती. इसके साथ ही पूरी परिक्रमा नंगे पाव ही लगाई जाती है।
झालीधाम आश्रम मेला और परिक्रमा
झालीधाम आश्रम में अक्षय नवमी पर परिक्रमा व मेला आयोजन को लेकर रविवार को तैयारी बैठक हुई। इसमें लोगों को साफ-सफाई, पेयजल, प्रकाश के साथ ही सुरक्षा व्यवस्था की अलग अलग जिम्मेदारियां सौंपी गई। कई वर्षों से शांति मनोरम तपोवन झाली धाम आश्रम में अक्षय नवमी पर परिक्रमा व भव्य मेले का आयोजन होता है। बताया जाता है कि झालीधाम के संस्थापक स्वामी राममिलन दास ने आठ साल की अवस्था में वैराग्य जीवन ग्रहण किया था। वह यहीं पर 14 वर्ष तक समाधि में लीन रहे। स्वामी राममिलन दास 1977 में ब्रह्मलीन हो गये तभी से उनके शिष्यों द्वारा उनकी तपोभूमि की परिक्रमा की जाती है। परिक्रमा के पूर्व से आश्रम परिसर में कथा, कीर्तन की शुरूआत हो जाती है। यहां एक दिन पहले से ही आसपास जिलों से महिला-पुरुष श्रद्धालुओं का आगमन शुरू हो जाता है। इस परिक्रमा में बलरामपुर, बहराइच व श्रावस्ती जिले के अतिरिक्त आसपास के हजारों महिला पुरुष श्रद्धालु शामिल होंगे।
राम नगरी में श्रद्धालुओं का सैलाब:-
रामनगरी में इसी मुहूर्त में रामनगरी की 14 कोसी परिक्रमा शुरू होती है। आस्था के आवेग से आप्लावित श्रद्धालुओं का समूह अक्षय नवमी का मुहूर्त लगने के पूर्व ही 14 कोसी परिक्रमा मार्ग पर उमड़ पड़ा है । 14 कोस यानी 40 किलोमीटर से अधिक की दूरी नाप कर आस्था अर्पित करने वालों के समूह में युवा और लंबा सफर कर सकने वाले स्वस्थ युवा तो थे ही बच्चे महिलाएं और बुजुर्ग भी परिक्रमा करने वालों में समान रूप से शामिल होते हैं। इनमें अधिकांश मौन के साथ आराध्य की नगरी की परिक्रमा करते हैं तो कुछ जय श्रीराम का उद्घोष करते हुए आगे बढ़ते हैं ।
छपिया की सात कोसी परिक्रमा :-
स्वामीनारायण छपिया पवित्र शहर अयोध्या के पास स्थित एक अत्यंत पूजनीय स्थान है और स्वामीनारायण संप्रदाय के सबसे प्रमुख मंदिरों में से एक है। अयोध्या को उत्तर प्रदेश का हृदय और आत्मा माना जाता है, और इसी क्षेत्र में भगवान स्वामीनारायण ने दो शताब्दियों पहले गुजरात में स्वामीनारायण संप्रदाय की स्थापना की थी। अक्षय नवमी के दिन भगवान घनश्याम ने सात मुख वाले अश्व पर बैठकर यहां की 108 बार परिक्रमा की थी। इसके बाद से ही यहां पर सात कोसी परिक्रमा की परंपरा चली आ रही है। मंदिर परिसर के नारायन सरोवर से प्रारंभ होकर परिक्रमा मार्ग में पहला गांव सड़वाल, बाद में तीनवा, दाननगर, असवारा, भोई गांव, गौ घाट, लोहा गंजरी, पातीजिया, नागपुर, नेवाडे और छपिया आदि प्रमुख गांव आते हैं। परिक्रमा भगवान की जन्मस्थली पर आकर खत्म होती है।
चित्रकूट कामद गिरि की परिक्रमा :-
कामदगिरि , चित्रकूट तीर्थ स्थल का सबसे प्रमुख तथा सबसे प्राचीन है । ऐसी मान्यता है कि कामदगिरि पर्वत की परिक्रमा करने से लोगों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। यहां हर साल लाखों श्रद्धालु अपनी मनोकामनाएं लेकर आते हैं तथा नंगे पैर परिक्रमा लगाते हैं । कामदगिरि के मुख्य देव भगवान कामता नाथ हैं। इसके दर्शन और परिक्रमा मात्र से दर्शनार्थी -श्रद्धालु के सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं। इसीलिये इसे कामदगिरि कहते हैं। इस गिरिराज का यों तो महत्व अनादिकाल से चला आ रहा है लेकिन भगवान राम द्वारा वनवास अवधि में लघु भ्राता लक्ष्मण और जनक नंदिनी सीता के साथ यहां प्रवास करने पर इसकी महत्ता और बढ़ गयी। चित्रकूट का सबसे महत्वपूर्ण स्थान कामदगिरि है। रामघाट से स्नान करने के बाद अधिकतर लोग कामदगिरि के मुख्य दरवाजे पर आते हैं और यहीं से परिक्रमा प्रारम्भ करते हैं। यात्रा रामघाट से प्रारम्भ होती है। रामघाट वह घाट है जहां प्रभु राम नित्य स्नान करते थे। मन्दाकिनी और पयस्विनी के संगम स्थल रामघाट पर ही श्री राम ने अपने पिता दशरथ का पिंडदान किया था। यह वही प्रसिद्ध घाट है जिसके बारे कहा गया है -
चित्रकूट के घाट पर भई सन्तन की भीड़।
तुलसीदास चन्दनघिसें तिलक देतरघुवीर।।
दक्षिण भारत में तिरुवन्नमल की परिक्रमा:-
तिरुवन्नामलई पंच भूत स्थलंगल में से एक है, जो चिदम्बरम, श्री कालहस्ती, तिरुवनईकोएल तथा कांचीपुरम के साथ अग्नि तत्त्व को दर्शाता है, जिनमें ये चार क्रमशः पंच भूत तत्वों- आकाश, हवा, जल और पृथ्वी का प्रतिनिधित्व करते हैं। वैसे तो चार ब्रह्मोत्सवम हर वर्ष मनाये जाते हैं, लेकिन सबसे प्रसिद्ध वह है, जो तमिल महीने कार्तिकेय (नवंबर / दिसंबर) में पड़ता है। दस दिनों तक चलने वाले इस कार्यक्रम की समाप्ति कार्तिगय दीपम से होती है। इस संध्या को एक बड़ी कड़ाही में तीन टन घी डालकर इसे दीप के रूप में अन्नमलई पहाड़ के सबसे ऊपरी हिस्से पर रख कर जलाया जाता है। हर पूर्णिमा की रात करीब दसियों हज़ार तीर्थयात्री भगवान शंकर की पूजा करते हैं और खाली पैरों से अरुणाचल पहाड़ी की परिक्रमा करते हैं। इस परिक्रमा की कुल दूरी तकरीबन 14 किलोमीटर है। तमिल कैलेंडर के अनुसार, इस वार्षिक "चित्र पूर्णिमा" की रात हजारों श्रद्धालु विश्व के कोने-कोने से इस पवित्र शहर में आते हैं।
लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।)
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