छपिया स्वामी नारायण संप्रदाय के प्रर्वतक घनश्याम महाराज की जन्म और बचपन की कर्मस्थली है। हर साल कार्तिक पूर्णिमा और चैत्र पूर्णिमा (कार्तिक और चैत्र मास की पूर्णिमा) पर यहां विशाल मेला लगता है, जिसमें हर साल दुनिया के हर हिस्से से लाखों तीर्थयात्री इस स्थान पर आते हैं। छपिया के मुख्य परिसर के आलावा लगभग दो दर्जन प्रसादी स्थल है जहां श्रद्धालु दर्शन कर अपना जीवन धन्य करते हैं।
1 .मीन सरोवर झील
तरगांव निवास करते हुए आसपास के दर्जनों स्थलों को पावन करते हुए घनश्याम प्रभु ने सम्वत 1845 में मीन सरोवर पर ये लीला रची थी। मीन सरोवर वह स्थान है जहाँ स्वामी नारायण ने मछुआरों को आजीविका के लिए मछलियाँ न मारने की शिक्षा दी थी। यह छोटी झील गर्मियों के दौरान सूख जाती है।
एक बार, घनश्याम अपने मित्रों के साथ मीन झील में तैर रहे थे, उन्होंने एक मछुआरे को अपनी पकड़ी हुई मछलियाँ टोकरी में खाली करते देखा। अहिंसा के प्रबल समर्थक, घनश्याम को मछलियों को अपने जीवन के लिए छटपटाते देखकर बहुत दुख हुआ।
उन्होंने दयापूर्वक मृत मछलियों की ओर देखा, और वे तुरंत जीवित हो गईं।
इसलिए तालाब को मीन सरोवर के नाम से जाना जाता है।
उन्होने मछूवे से कहा,”भाई ये सृष्टि भगवान के द्वारा निर्मित है। हम किसी प्राणी को ना तो मार सकते हैं और ना ही उन्हे किसी तरह का कष्ट ही पहुंचा सकते हैं। हर प्राणी को अपने कर्म का फल भोगना ही पड़ता है। पाप कर्म का फल तुरंत भले ही ना मिले परन्तु उसे नर्क का वास जरूर मिलता है।”
मछुआरा क्रोधित हो गया और अपना जाल लेकर घनश्याम पर झपटा। तब मीन सरोवर में स्वामीनारायण द्वारा मछुवे को दर्शन देने की लीला दिखाई गई। अपनी उँगलियों के इशारे से, घनश्याम ने मछुआरे को समाधि में भेज दिया था।
समाधि में, मृत्यु के देवता यम मछुआरे के सामने प्रकट हुए और उसे दिखाया कि निर्दोष लोगों की जान लेने के उसके पाप पूर्ण कार्य का फल उसे नरक में कष्ट भोगना पड़ेगा। वहां तरह तरह के दंड प्राणियों को दिए जा रहे थे।
उसे भी दंड भुगतना पड़ा था। उसे जब दण्ड दिया जाने लगा तो उसकी काया उछलने लगी थी। उसने घनश्याम प्रभु को कातर ध्वनि में पुकारा।
यह देखकर कि मछुआरे को मछली मारने का पूरा पश्चाताप हो रहा है।मछुआरे ने घनश्याम से क्षमा माँगी। घनश्याम ने दया करके मछुआरे को उसकी समाधि से बाहर निकाला।
वह नरक यातना का वर्णन करके प्रभु को कभी पाप ना करने का बचन दिया।
मछुआरे को घनश्याम की महानता का एहसास हुआ, उसने उनके चरणों में सिर झुकाया और फिर कभी मछली न मारने की कसम खाई।
प्रभु ने अपने चमत्कारों से उन जीवो को जीवित कर दिया और मछुआरे को निर्देश दिया कि वह जीविका के लिए मछलियों को न मारे।
स्वामीनारायण ने समाज को भक्ति के माध्यम से मोक्ष और परम ज्ञान की प्राप्ति के बारे में मछुवे समाज को सिखाया। उन्होंने समाज में दलितों के उत्थान के लिए काम किया। घनश्याम ने छोटी उम्र से ही ऐसे कई हिंदू आदर्श और मूल्य स्थापित किए।
2.काली दत्त उद्धार स्थल
ज्येष्ठ मास में कृष्ण पक्ष की पंचमी तिथि दिनांक 19 जून 1783 शुक्रवार धनिष्ठा नक्षत्र में बालप्रभु तीन माह 12 दिन के होने पर छपिया के नारायण सरोवर के तट पर चौलकरन (मुण्डन संस्कार) हुआ था। पिताजी ने एक अद्वितीय भोज का आयोजन किया था।
अभी भोजन का कार्यक्रम चल रहा था। धर्मदेव अपने लोगों के साथ बैठे हुए थे। भक्ति माता सब लोगों के भोजन व्यवस्था में लगी हुई थी।
चंचल बच्चे दोपहर के भोजन के बाद जल्दी में भोजन करके घनश्याम महराज को लेकर सरोवर के किनारे खेलने चले गए थे। खेलते हुए वे बच्चे, अपने उस प्रिय बच्चे को साथ लेकर शाम के समय पास के नगर के बगीचे में गए। वहां आमों का बगीचा देखकर, पेड़ से गिरे पके आमों को खाकर वे बहुत प्रसन्न हुए।
वे एक वृक्ष के नीचे घनश्याम को रखा और जामुन की तलाश में और आगे बढ़ गए जो कलिदत्त का इलाका था।प्रभु का दूर का मामा कालीदत्त इस अवसर की ताक में बैठा था। वह प्रभु को ईर्ष्या और द्वेष बस मारना चाहता था। वह प्रभु को वृक्ष के नीचे जब पकड़ने गया तब प्रभु कालीदत्त को एक भयानक आग की तरह दिखाई दिये। वहां जाते ही वह जलने लगा। इसलिए वह अपने प्रयास में पीछे हट गया।
वह अपने जादू और काली तंत्र कला का उपयोग करने का फैसला किया। वह अपने तंत्र के प्रयोग से आंधी और झंझावात फैलाया। वृक्ष और टहनियां टूट कर गिरने लगी।बिजली चमक रही थी। मूसलाधार भारी बारिश हो रही थी। कई पेड़ गिर गए। कई जीव-जंतु और पक्षी मर गए। चारों ओर घना अंधेरा छा गया था। कोई भी किसी का चेहरा नहीं देख सकता था।
कालीदत्त इस अवसर का लाभ उठाया। उसने ऐसी माया रची कि वह विशालकाय शरीर के साथ उस आम के वृक्ष पर गिर पड़ा जिसके नीचे घनश्याम बैठा था। वह आम का वृक्ष घनश्याम पर गिर पड़ा। आम का पेड़ कालीदत्त जैसा दुष्ट नहीं था। वृक्ष घनश्याम पर गिर पड़ा और उसे छतरी की तरह सुरक्षित ढक लिया। अब घनश्याम को तूफान और वर्षा से पूरी सुरक्षा मिल गई थी। कालीदत्त स्तब्ध रह गया। वह उसे पकड़ने के लिए फिर दौड़ा, जब उसने देखा कि घनश्याम जीवित है।
कालीदत्त प्रभु के समीप आ गया। मंद मुस्कान के साथ प्रभु ने तीव्र दृष्टिपात किया। जैसे ही उसकी नजर घनश्याम से मिली, वह भूत-प्रेत से ग्रस्त व्यक्ति की तरह इधर-उधर भागने लगा।असुर अपना मान भान खोकर वृक्ष से टकरा कर गिर गया। धरा कांपने लगी। उसके दोनों नेत्रों से खून की धारा निकलने लगी।मुख से भी खून की उल्टी करने लगा। चक्रवात में गिर रहे एक वृक्ष के नीचे दबकर वह मर गया।
तूफान और वर्षा बंद हो गई। इस बीच माता-पिता अपने बच्चों की तलाश में बाहर आ गए। सभी माता-पिता लालटेन और मशालें लेकर बाहर आ गए। उन्होंने अपने बच्चों के नाम पुकारे।
धर्मदेव और भक्तिमाता भी घनश्याम की तलाश में बाहर आ गए थे। घनश्याम की बुआ सुन्दरीबाई, जो घनश्याम से बहुत प्रेम करती थीं, भी घनश्याम की खोज में निकली थीं। घनश्याम के सबसे बड़े भाई रामप्रतापभाई भी अपने छोटे भाई घनश्याम की खोज में निकले थे।
गाँव के अन्य बच्चे मिल गये, परन्तु घनश्याम नहीं दिखा। बच्चों ने अपने माता-पिता को बताया कि उन्होंने घनश्याम को आम के पेड़ के नीचे देखा था, और उसके बाद क्या हुआ, उन्हें नहीं मालूम।
यह सुनकर सुन्दरीबाई बहुत डर गयीं। वे दौड़कर आम के पेड़ के पास पहुँचीं। उन्होंने देखा कि बालक घनश्याम इस प्रकार खेल रहा था, मानो कुछ हुआ ही न हो। "हरि मिल गया। हरि मिल गया।" बुआ सुन्दरीबाई चिल्लायीं।
भक्तिमाता और अन्य लोग वहाँ दौड़े। बुआ सुन्दरीबाई ने बालक घनश्याम को उठाकर भक्तिमाता की गोद में दे दिया। माता की खुशी का ठिकाना न रहा।उन्होंने एक बहुमूल्य हार उतारकर सुन्दरीबाई को दे दिया। घनश्याम को पा लेने की खुशी से बढ़कर कोई चीज अनमोल नहीं है। कालीदत्त को मृतक तथा घनश्याम को मंद मुसकान बिखेरते सकुशल पा सभी गांव वासियों के खुशी का ठिकाना ना रहा। वे प्रभु को उठाकर अपने घर ले आए।
यह स्थान नारायण सरोवर के दक्षिण एक खेत के बाद है। वह स्थान है जहाँ घनश्याम ने पक्षियों को समाधि में भेजा था। वे घास के स्थान पर पेहटुल तोड़ने की लीला किए थे। इसी खेत में कड़वे पेहटुल का मीठा स्वाद भी किए थे। यह बहुत ही कल्याणकारी और दिव्य प्रसादी स्थल है। इस खेत से संबंधित तीन प्रमुख घटनाएं घटित हुई थी।
1.पक्षियों को समाधि में भेजना
चिड़ियों को अचेत कर समाधि में भेजकर खेत की रक्षा बाल प्रभु ने सम्वत 1845 सन 1789 में किए थे। मां बाप के साथ वे अयोध्या से छपिया आए हुए थे।शालिधान के फसल को घर लाना था। खेत की रखवाली घनश्याम को सौंपा गया था। वे बाल सखा के साथ खेल में गए और मस्त हों जाते। खेत में जो चिड़िया आती वह अचेत हो जाती । वे पारलौकिक आनन्द पाती। बाद में संकेत कर चिड़ियों को अचेतता दूर कर देते थे। वे विचित्र तरीके से खेत की रखवाली किए थे। बाद में शालिधान की फसल खलिहाल में लाया गया। उसको साफ कर बैलगाड़ी में लाद कर सभी अयोध्या चले आए।
2. खेत से घास के बजाय पेहटुल उखड़ना
इसी खेत में दयालु प्रभु घास के स्थान पर पेहटुल तोड़ने की लीला किए थे। एक बार बड़े भाई रामप्रताप अपने खेत में घास काटने गए थे। उनके साथ उनका छोटा भाई घनश्याम भी था। खेत में मक्का और पेहटुल साथ-साथ उगे थे। और इन दोनों के बीच उगी घास को निकालना था।
बड़े भाई को काम करते देख घनश्याम के मन में भी काम करने का विचार आया। इसलिए वह भी काम करने लगा। लेकिन घास निकालने की बजाय घनश्याम मक्का और पेहटुल उखाड़ रहा था।
यह देखकर बड़े भाई ने उसे डांटा, लेकिन घनश्याम को इसकी परवाह नहीं थी। बड़े भाई ने कहा,”ये क्या कर रहे हो?”
उन्होने जबाब दिया, “जीव हिंसा कम हो इसलिए यह कर रहा हूं।आप कहे थे पेहतुल से घास निकलना है। मैं तो घास मे से पेहतुल अलग कर रहा हूं। ये दोनों एक ही है।”
बड़े भाई ने उसे फिर से डांटा, लेकिन घनश्याम को इसकी परवाह नहीं थी। बड़े भाई को गुस्सा आ गया। उसने गुस्से में घनश्याम को मारने के लिए हाथ उठाया।
घनश्याम को बुरा लगा। वह भागकर घर में गया, छिपकर चरनी में घास के ढेर में छिप गया ताकि कोई उसे न पा सके। जब बड़ा भाई दोपहर को घर लौटा, तो भक्तिमाता ने उसे अकेला देखकर घनश्याम के बारे में पूछा।
उसने कहा, "घनश्याम पहले ही घर आ चुका है।"
"नहीं, अभी तक नहीं आया," माँ ने कहा।
बड़े भाई को अब आश्चर्य हुआ। उसने कहा, "मैंने जब उसे पीटना चाहा तो वह नाराज होकर कहीं भाग गया होगा।"
घनश्याम की खोज शुरू हुई। उसके सभी गाँव के मित्रों से घनश्याम के बारे में पूछा गया। परन्तु किसी ने घनश्याम को नहीं देखा था। नदी, तालाब, मंदिर, इमली का पेड़ और आम का पेड़ जहाँ- जहाँ घनश्याम जाता था, वहाँ-वहाँ खोजा गया, परन्तु वह कहीं नहीं मिला। आस- पास के गाँवों में दूत भेजे गए। अन्त में वे निराश और असहाय हो गए।
भक्तिमाता की दुर्दशा की कोई सीमा नहीं थी। वह रोने लगी: "अरे प्यारे घनश्याम, मेरे बेटे घनश्याम, तुम कहाँ हो?"
माँ का विलाप घनश्याम सहन नहीं कर सका। उसने घास के ढेर से चिल्लाकर कहा, "मैं आ गया माँ।"
शीघ्र ही मौसी सुन्दरीबाई दौड़कर चरनी के पास गई और घनश्याम का हाथ पकड़कर उसे वापस ले आई। भक्तिमाता घनश्याम से लिपट गई।
घनश्याम ने माँ की गोद में मुँह छिपाते हुए कहा, “माँ, मेरा बड़ा भाई मुझे खोज रहा था, मैं उसे देख रहा था।”
घन श्याम ने अपने भाई को चतुर्भुज स्वरूप का दर्शन भी कराया। बड़े भाई ने दोनों हाथ जोड़ कर बाल प्रभु से क्षमा मांगी थी।
“कितना शरारती है मेरा बेटा घनश्याम!” माँ ने उसे अपने आंचल में छिपाते हुए कहा था।
3.कड़वा पेहटुल को मीठा बनाया
इसी खेत में कड़वे पेहटुल का मीठा स्वाद भी किए थे। वसराम तिवारी बालक घनश्याम के मामा थे। उन्होंने अपने खेत में पेहटुल लगाया था। पेहटुल पकते ही उन्हें उसे चखने की इच्छा हुई। इसलिए उन्होंने एक अच्छा पेहटुल चुनकर खाया। लेकिन जैसे ही उन्होंने पहला टुकड़ा मुंह में डाला, उन्हें थूकना पड़ा। पेहटुल बहुत कड़वा था।
वसराम भक्तिमाता के घर गए और कहा, "बहन, पेहटुल कड़वा होता है। अगर मीठा होता, तो मैं घनश्याम को खेत में ले जाकर खिलाता। उसे पेहटुल बहुत पसंद है न?"
"घनश्याम के लिए पेहटुल कभी कड़वा नहीं हो सकता," भक्तिमाता ने कहा।
“लेकिन वे वास्तव में कड़वे हैं," वसराम ने कहा। घनश्याम सरपट दौड़ता हुआ आया और बोला, "पेहटुल का फल कितना मीठा है!"
वसराम ने पूछा, "कौन सा?" "वही जो मैं आपके खेत से लाया हूँ," घनश्याम ने कहा, "इसे चखो।"
वसाराम ने उसे चखा और पाया कि वह बहुत मीठा है। "क्या यह मेरे खेत का है?" वसराम ने पूछा, "लेकिन मेरे खेत में तो सभी पेहटुल/ककड़ी के फल कड़वे होते हैं।"
"नहीं, वे कड़वे नहीं हैं, वे बहुत मीठे हैं," घनश्याम ने कहा, "चलो वहाँ चलते हैं और मैं तुम्हें दिखाता हूँ।"
वे खेत में गए। वसराम ने ककड़ी के दो से पाँच फल तोड़े और वे मीठे निकले, शहद की तरह मीठे। वह बहुत हैरान हुआ: "यह कैसे? कुछ ही समय में वे मीठे हो गए?"
घनश्याम ने कहा, "चाचा, यदि आप पहले भगवान का हिस्सा निकाल देते, तो सभी फल मीठे होते।"
इसलिए, ध्यान रखें, हर चीज में सबसे पहले भगवान का हिस्सा निकालना चाहिये। जहां भगवान का हिस्सा होगा, वह मीठा होगा और अगर भगवान का हिस्सा नहीं निकाला जाता है, तो वह चीज कड़वी होगी।
4. गुलाब के वृक्ष से सेव के फल
जन्म स्थान मंदिर से पश्चिम दिशा में फिरोजपुर गांव में आनन्द मौर्य का एक जामुन का पेड़ था। यहां घनश्याम जी अपने मित्रों के साथ जामुन खाने की लीला तथा वहां के रखवाले को दण्ड देने के लिए गए थे। यह आश्चर्य जनक चरित्र का स्मरण कराने वाला प्रसादी स्थान है।
एक बार जेठ के महीने में भयंकर गर्मी पड़ रही थी। यहां एक बार घनश्याम अपने मित्रों राम प्रसाद, मंशा राम भाई, तिरजा तिवारी, वेणी माधव और प्रयाग के साथ जामुन के पेड़ पर गुलाब के सेब चखने गया थे।
सभी ने निश्चित किया इस भयंकर गर्मी में जामुन खाने जैसा आनन्द कहां है? वैसे भी आनन्द मौर्य धर्मदेव के अच्छे परिचय वाले हैं थे। इसलिये वह कुछ भी नहीं बोलेंगे। मधुर जामुन के फल से पेड़ लदा था। जिसे देख कर मुंह से पानी आ रहा था।
ज्येष्ठ (जून) का महीना था। जामुन के पेड़ पर बहुत सारे गुलाब के सेब थे। सभी
लोग जामुन के पेड़ से चढ़ गए। सबने यथाशक्ति जामुन का फल खा लिए थे।
लोगों ने अपने थैले में जामुन का फल रख लिया था। वे सभी पेड़ से नीचे उतर आए, पर घनश्याम अभी भी पेड़ पर ही था। वह अपने पैरों से जामुन की डालियां हिला कर जामुन खाने लगा था। वह बोला, “जामुन खाना हो तो खा लो,ले जाना हो तो ले जाओ।”
राम अवध धोबी ने मना किया कि नुकसान मत कीजिए। घन श्याम महराज बात को माने नहीं। इसी बीच पेड़ का चौकीदार आ गया। वह दोनों हाथ में लाठी लिए हुए था। उसकी आवाज सुनकर अन्य लोग अपने घर भाग गए, घनश्याम अभी भी पेड़ पर ही था। चौकीदार क्रोधित हो
घनश्याम को मारने के लिएअपना निशाना साधा और बोला, "अरे चोर, मेरे गुलाब के सेब क्यों खाए?"
"मैं चोर नहीं हूँ," घनश्याम ने कहा, "क्योंकि जंगल में उगने वाले फल सभी को खाने की स्वतंत्रता है!" यह कहकर वह पेड़ से नीचे कूद गया।
घनश्याम महराज ने कहा, देखो भाई खाने वाले खा लिए, ले जानें वाले ले गए। बिगाड़ने वाले बिगड़कर चले गए। हम तो निर्दोष हैं इसलिए खड़े हैं। सभी दोषी तो भाग खड़े हुए।
चौकीदार घनश्याम की बात से सहमत नहीं हुआ। वह उनको पीटने के लिए हाथ ऊंचा करके उनके पीछे दौड़ा लिया। प्रभु को एसा लगा कि वह कि वह पकड़ ही लिए गए। वह भी घबरा गए। चौकीदार पहलवान था। प्रभु के पीछे दौड़ कर हाथ पकड़ लिया।
घनश्याम तुरन्त क्रोधित होकर बहुत ही तत्परता से चौकीदार का हाथ पकड़कर ऐसा झटका दिया कि चौकीदार दस कदम पीछे जाकर जमीन पर गिर गया। उसका
का हाथ टूट गया और वह मुँह ऊपर करके जमीन पर बेहोश होकर गिर पड़ा। प्रभु शान्त होकर अपने घर आ गए।
इससे पहले कि चौकीदार उठकर अपना धूल भरा शरीर साफ कर पाता, घनश्याम गायब हो गया।
घनश्याम की लीला जामुन के पेड़ के गुलाब की तरह मधुर है।
यह पाठ बताता है कि सब कुछ भगवान का है और उन्हीं के लिए है। यदि हम विपरीत आचरण करेंगे तो भगवान नाराज होंगे। जामुन के पेड़ का मालिक बनने का प्रयास करने वाले चौकीदार ने घनश्याम को उसके फल खाने से मना कर दिया और उसे पीटा भी गया।
5. बहेरिया का कुवां फिरोजपुर छपिया
छपिया के नैरित्य कोण पर फिरोजपुर गांव है जिसमें यह बहिरिया का प्रसादी कुवां है। इसमें बालप्रभु घनश्याम के छोटे भाई इच्छाराम एक बार गिर गए थे तो बालप्रभु ने अपने चमत्कार से उनकी जान बचाई थी।
एक बार इस गांव में नट लोग आए थे। वे अपना करतब दिखा रहे थे। घनश्याम और इच्छाराम भी मित्रों के साथ रात में वहां गए हुए थे। खेल देखकर वे देर रात अंधेरे में घर लैट रहे थे। इच्छाराम का ध्यान भंग होने से वह इसी कुएं में गिर गए। इतने में एक बनिए के लड़के को बोला हे हरि कृष्ण हे घनश्याम! इच्छाराम बहेरिया के कुएं में गिर गए हैं।
यह सुन कर घनश्याम कुएं की तरफ़ दृष्टि डाली तो तुरन्त पानी सूख गया और पाताल में चला गया। इच्छाराम कुंए से बोले' “हे घनश्याम भाई आप की दया से मैं स्वस्थ हूं। मुझे किसी प्रकार की चोट नहीं लगी है।”
इतने में छपिया गांव में यह बात फैल गई कि इच्छाराम बहेरिया के कुंए में गिर गए हैं। इस बात को सुन कर धर्म पिता तत्काल बहेरिया के कुएं पर आकर घनश्याम प्रभु से पूंछा, “इच्छाराम भाई कहां हैं?”
इतने में कुएं से इच्छा राम ने आवाज लगाई ,” हे धर्म पिता! मैं कुएं में हूं। मैं घनश्याम प्रभु की कृपा से सकुशल हूं।”
इतने में घनश्याम महराज ने कुएं में हाथ डाल कर इच्छारामभाई को बाहर निकाल दिए।
यह दृश्य देख कर छपियावासी अत्यन्त चकित हो गए। तब से यह कुंवा प्रसादी का स्थल हो गया और लोग इसका दर्शन करने यहां पर आने लगे।
6. मोक्ष वाले पीपल से दिव्य अवलोकनयह घटना बाल प्रभु के आठ वर्ष के उम्र की संबत 1845 की है। छपिया के नैरित्य कोण फिरोजपुर के गांव को सीमा लगती है। यहां उपवन वाटिका बहुत था। यह स्थान रेलवे स्टेशन के तरफ़ जाने वाले मार्ग पर पड़ता है। एक बार घनश्याम प्रभु झट से एक पेड़ पर चढ़ गए और चारो तरफ़ दृष्टि डाली थी। यह जानने के लिए कि मोक्ष के भागी मुमुक्षुजीव किस तरफ हैं? तब से इस पीपल का नाम मोक्ष पीपल पड़ गया।
जब घनश्याम प्रभु इस पीपल के पेड़ पर चढ़ गए और चारो तरफ़ दृष्टि डाले थे। वे पश्चिम दिशा की ओर काफी देर तक देखते रहे।
उनके साथ आए बच्चे खेल रहे थे जो लगभग ख़त्म ही होने वाला था कि उनके एक दोस्त ने उन्हें दूर से पेड़ पर बुलाया, वह उन्हे गहरे विचारों में खोए हुए देखा। उन्होंने उन्हें नीचे बुलाया और उनकी स्थिर दृष्टि का कारण पूछा।
गहराई के गहन उत्तर ने उनके अवतार के उद्देश्य को चिन्हित रूप से समेटा। उन्होंने कहा, "मैं पश्चिम की ओर देख रहा था, जहां हजारों भक्त मेरे आगमन की प्रतीक्षा कर रहे हैं। वे मेरे आने और एकांतिक धर्म की स्थापना की प्रतीक्षा कर रहे हैं। वे अपने मोक्ष की प्रतीक्षा कर रहे हैं।"
इसी पेड़ की एक और घटना है। घनश्याम को अक्सर इस विशाल पेड़ से लगाव था।वे समय पाकर इसकी ऊंचाई पर चढ़ जाते और आसमान और चारों तरफ़ देखते विचारों में खोए खोए से रहते थे। एक बार उनके साथ उनके मामा वसराम तिवारी भी थे।जो उन्हें देख कर टोकते हुए बोले,” हे भांजे! क्या देख रहे हो? नीचे आ जाओ। कहीं गिर पड़े तो हड्डी टूट जाएगी।”
तभी घनश्याम महराज हंसते हंसते बोले,
“मैं और मेरे भक्त मुमुक्षु जीव नहीं गिरेंगे।”
ऐसा कह कर घन श्याम प्रभु ने मामा को पीपल के पेड़ के पत्ते पत्ते पर अलग अलग किस्म के फल दिखाए। मामा यह चमत्कार देख आश्चर्य में पड़ गए। उन्हें अनेक फल देखने और खाने की इच्छा हुई।
मामा बोले, “भांजे दो चार फल हमें भी दो।”घनश्याम महराज ने उन्हें प्रेम पूर्वक फल प्रदान किया।
मामा उन फलों को लेकर मामी लक्ष्मीबाई आदि बहनों को दिए थे और भांजे घनश्याम महराज के चमत्कार की जानकारी भी दिए थे। इसे सुनकर और फल देख कर सभी लोग आश्चर्य में पड़ गए थे। ऐसी सुन्दर लीला प्रभु ने इस स्थान पर की थी। तभी से यह प्रसादी स्थल माना जाने लगा।
7.भूतवाला कुआं, तिनवा, छपिया
छपैया से थोड़ी 2 किमी दूर पर तिनवा नाम का एक गांव है, जहां भक्तिमाता के रिश्तेदार रहते थे। ये भूत वाला कुंवा तिनवा गांव के बाहर एक बाग में स्थित है।
भक्ति माता इस कुंए से पानी भरने आई हुई थी।
उस गांव में नबाब के सैनिक आए थे जो उत्पात करते थे। यह देख कर धर्मदेव एक दिन भक्तिमाता, धर्मदेव , राम प्रताप भाई और घनश्याम तिनवा गए और अपने रिश्तेदार प्रथित पांडे और उनकी पत्नी वचनबाई के साथ एक-दो हफ्ते वहां रहे। भक्तिमाता को मेहमान माना जाता था, लेकिन उन्होंने घर के सभी कामों में मदद करना शुरू कर दिया - यहां तक कि पास के कुएं से पानी लाना भी।
वचनबाई ने भक्तिमाता को चेतावनी दी कि शाम के बाद उन्हें कुएं से पानी लाने नहीं जाना चाहिए क्योंकि कुएं में हजारों भूत रहते हैं। कई लोगों ने भूतों को देखा था।
एक शाम सूर्यास्त के ठीक बाद, पीने का पानी पर्याप्त नहीं था (खत्म हो गया था) इसलिए भक्तिमाता ने एक घड़ा और रस्सी ली और वह कुएँ की ओर चल पड़ी। उसने घड़े की गर्दन के चारों ओर रस्सी बाँधी और उसे कुएँ में उतार दिया। भूतों ने घड़े को पकड़ लिया और डरावनी तेज़ आवाज़ें निकालने लगे। भक्तिमाता घबरा .गई और अचानक उसे भूतों के बारे में याद आया। उसने घड़ा छोड़ दिया, जो कुएँ में गिर गया, और वह जल्दी से घर भाग गई।
अपनी माँ को डर से काँपते हुए देखकर, घनश्याम ने पूछा, "माँ, तुम इतनी डरी हुई क्यों हो?" फिर भक्तिमाता ने अपने बेटे को कुएँ में भूतों के बारे में बताना शुरू किया।
अगले दिन अपने माता-पिता को बताए बिना, घनश्याम और उसके कुछ दोस्त भूत कुएँ पर चले गए। अपने दोस्तों के डर से, उसने कुएँ में कूदने की इच्छा व्यक्त की। उन्होंने यह कहकर उसे हतोत्साहित करने की कोशिश की कि भूत उसे ज़िंदा खा जाएँगे।
घनश्याम ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया और कुएँ में कूद गया। पानी के छींटे भूतों को जगाते थे और घनश्याम द्वारा छुआ गया पानी उन पर गिर रहा था। भगवान द्वारा छुआ गया पानी पवित्र जल है और जब यह भूतों पर पड़ा तो वे जलने लगे।
भूत कुएँ से बाहर निकल आए। भूतों को बाहर निकलते देखकर बच्चे बहुत डर गए। घनश्याम अपने गीले कपड़ों के साथ कुएँ पर चढ़ गया, वह कुएँ के किनारे पर खड़ा था।
भूत-प्रेत क्षमा और दया की गुहार लगाने लगे - "आप भगवान हैं। कृपया हमारी सहायता करें"।
घनश्याम ने पूछा कि उन्होंने कौन से बुरे कर्म किए हैं, जो उन्हें भूतों का जीवन मिला है?
एक भूत ने उत्तर दिया कि वे बुरे लोग थे - वे मांस खाते थे, शराब पीते थे, जुआ खेलते थे, चोरी करते थे, लोगों को परेशान करते थे और उन्हें चोट पहुँचाते ,जानवरों और मनुष्यों को मारते थे, आदि।
एक दिन उनका राजा और उसके सैनिकों के साथ झगड़ा हुआ। वे सभी लड़ाई में मारे गए और अपने पापों के कारण भूत बन गए।
एक अन्य भूत ने कहा, "हम अभी भी कुएं में जगह के लिए एक-दूसरे से लड़ते हैं"।
भूतों ने विनती की "हे भगवान, कृपया हमें क्षमा करें और हमें हमारे बंधन से मुक्त करें"।
घनश्याम ने उन्हें उनके बंधन से मुक्त किया और बोले, “जिन जिन के ऊपर पानी की बूंदें पड़ी है। वे लोग बद्रीकाश्रम में जाएं। आज से यह भूतिया कुंवा महान तीर्थ के रुप में प्रसिद्ध होगा।”कुएं में एक भी भूत नहीं बचा और फिर घनश्याम घर लौट आया।
यह खबर जल्दी ही पूरे गांव में फैल गई और हर कोई घनश्याम की प्रशंसा करने लगा। घनश्याम ने पापियों को मुक्ति दिलाने, सत्य का प्रचार करने और बुराई का नाश करने के लिए जन्म लिया था।
आज उनके भक्त इस कुएं को 'भूतियो कुवा' के नाम से जानते हैं। कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष में इस कुवें में स्नान करने से तथा नारायण सरोवर के किनारे बैठ कर श्राद्ध करने से भूत आदि के कष्ट से मुक्ति मिलती है। नरक प्राप्त जीवों का भी कल्याण हो जाता है।
8.कल्याण सागर,नारेचा छपिया
कल्याण सागर तालाब छपिया मंदिर से एक किमी दूर नरेचा गांव के पश्चिम दिशा में स्थित है। यहाँ पर प्रसादी की छतरी स्थित है।
इस कल्याण सागर के जल में घन श्याम महराज के वचनामृत से मृत शरीर को तैरते छोड़ देने पर जीवन दान मिला था।
प्राचीन समय में राजा नरेचा के राजा सनमान सिंह के पुत्र की शादी थी।राज महल में आनन्द के गीत गाए जा रहे थे। सरोवर के किनारे राजा के आदमी आतिश बाजी और बंदूक की हर्ष फायरिंग कर रहे थे। इस माहौल को देख कर अगल बगल लोग भीड़ लगा कर आनन्द ले रहे थे। यहां पर उसी समय घनश्याम महराज अपने मित्रों के साथ आए हुए थे। एक सिपाही की बंदूक से गोली छूटते ही दो व्यक्ति की मृत्यु हो गई थी। यह समाचार जब राज महल में गया तो आनन्द की जगह पूरे राज महल में शोक छा गया।
राजा को याद आया कि घन श्याम महराज को सभी लोग भगवान कहते हैं। मैं उनके पास जाकर बिनती करता हूं। वे महाराज जी के पास जाकर दोनों हाथ जोड़ कर बोले, “हे प्रभु! आप सर्व नियंता हैं। इन दोनों की मृत्यु के कारण शोक व्याप्त हो गया है। इन दोनों को जीवन दान दे दें तो अच्छा रहेगा।”
घनश्याम महराज बोले,” एकदम आदमी मृत्यु को नहीं प्राप्त होता है। आपके महल के आगे जो सरोवर है। उसमें दोनों मृतक शरीर को लिटा दें। पानी के स्पर्श से दोनों लोग जीवित हो जाएंगे।”
विश्वास रखकर राजा ने ऐसा ही किया। घनश्याम महाराज पत्थर पर खड़े होकर बोले, दोनों का नाम पुकारे। “हे गदाधर! हे
पृथ्वीपाल!आप लोग पानी में क्यों सो रहे हो? पानी से बाहर आओ।” इतना सुनते ही दोनों लोग आलस छोड़ कर उठ खड़े हो गए।
दोनों लोग घनश्याम महराज के पास आकर प्रार्थना करने लगे, “हे भगवान! हम लोग इस सरोवर के जल से आप के धाम को प्राप्त हो गए थे। इतने में आप आदेश दे दिए कि हम इस देह में ही वापस आ गए।”
यह सुनकर सनमान सिंह को यह विश्वास हो गया। बाद में राजा ने घनश्याम और उनके मित्रों को राज महल में स्वागत किया। उन्हें एक अच्छे आसन पर बैठाया गया था। राजा रानी ने मोती के थाल से, चन्दन पुष्प से पूजन किए थे। उन्हें दूध शक्कर और चीउरा इत्यादि खिलाए। घनश्याम महराज की विदाई करते समय रानी ने सुन्दर वचनों से प्रार्थना की, “हे प्रभु! आप काल के भी काल हैं। दीन दयाल हैं। आज आपने हमारी इज्ज़त रख ली। आप हमें परलोक में भी काल, कर्म और माया से रक्षा करना।”
प्रभु ने इस प्रकार अपना आशीर्वाद भी दिया। “इस सरोवर ने दो मानव का कल्याण किया है। इस कारण से यह सरोवर कल्याण सरोवर के नाम से प्रसिद्ध होगा।”
9.हनुमान जी का मंदिर नरेचा छपियानरेचा गांव के कल्याण सागर नामक तालाब के सामने हनुमान जी का यह मन्दिर प्रतिष्ठित है। बालप्रभु के जन्म के छ्ठी के दिन कालीदत्त राक्षस ने बाल प्रभु को मां से छीन कर गायब कर दिया था तब हनुमान जी ने प्रभु की रक्षा की थी।
आषाढ़ संवत 1837 चैत सुदी चौदस दिनांक 8 अप्रैल 1781को छठी के अवसर पर धर्म भक्ति भवन छपिया में बाल प्रभु घनश्याम को गायब करने की घटना घटी हुई थी।
माता भक्ति बालक के जन्म के छठे दिन अपने कर्तव्यों में इतनी व्यस्त थीं कि वे अपने बच्चे को खुद के गोद में नहीं ले सकीं थीं । यद्यपि वह उनके लिए उनकी आत्मा से भी अधिक प्रिय था। उन्होंने अन्य छोटे बच्चों को अपने बच्चे की देखभाल करने के लिए दिया था तथा अतिथि महिलाओं की यथायोग्य सेवा में लग गई थी ।
इस शुभ घड़ी में भीड़- भाड़ को देख कर कालीदत्त राक्षस ने अपने मंत्र से अभिमंत्रित पुतरियों को उत्पन्न किया था जो बालक को उठा कर आकाश मार्ग से चलने लगी थी। मां भक्ति देवी ने क्रंदन किया तो परिवार के सब लोग जग गए। बाल प्रभु ने अपना भार बढ़ा दिया तो पुतरियों ने बालक को जमीन पर रख वहां से भागने लगीं ।
उसी समय प्रभु की इच्छा से हनुमान जी ने पुतरियों को ताड़ित करना शुरू कर दिया था। वे प्रभु की शक्ति समझ हनुमान जी से प्राण दान मांगी। कालीदत्त को उन पुतरियो ने बहुत फटकारा। जो अपनी जान बचाकर जंगल में छिप गया था। हनुमान जी ने बाल प्रभु को उठाकर मां की गोद में सुरक्षित लौटा दिया था।
तभी से यह मंदिर यहा प्रतिष्ठित किया गया है। श्री घनश्याम जी महराज के माता भक्तिमाता पिता धर्मदेव हमेशा हनुमान जी पूजा किया करते थे।
10.खापा तलावड़ी (पेड़ के ठूठ से जख्म) तेंदुवा रानीपुर, छपिया
खम्पा तलवाडी एक तालाब /पोखर है जहाँ घनश्याम (स्वामीनारायण) स्नान करते थे और पास की कुटिया में एक संत से रामायण की कहानियाँ सुनते थे। पोखर के पास एक इमली का पेड़ हुआ करता था। इसी पर चढ़ कर एक बार खेलते समय वे घायल हो गए थे, जिससे उनके शरीर पर निशान पड़ गया था।
यह छपैया के उतर की ओर तरगांव के नैरित्य कोण पर स्थित है।इस तालाब के तट हरिदास जी की परम कुटी में राम कथा होती थी। धनश्याम और उनके मित्र वहां जाकर कथा सुनते तालाब में स्नान करते और तरह - तरह की लीला करते रहते थे। वे गोपालों को बाल कृष्ण जैसे दर्शन और लीला दिखाते थे।
इस छोटी झील है जिसे अब खापा तलावड़ी (झील) के नाम से जाना जाता है। यह पूरे साल पानी से भरी रहती है। झील के आस-पास के क्षेत्र में कई पेड़- पौधे और खूबसूरत फूल हैं और यहाँ हमेशा ताजे फूलों की खुशबू आती रहती है। इस वजह से यह सभी स्थानीय बच्चों के खेलने-कूदने की पसंदीदा जगह बन गई है।
झील के किनारे एक छोटी सी झोपड़ी थी, जिसमें हरिदासजी नाम के एक बाबा रहते थे। उनके रामायण के पाठ इलाके में बहुत मशहूर थे और अक्सर कई लोग उनके पाठ के लिए इकट्ठा होते थे।
एक दिन घनश्याम और उसके दोस्त वेणीराम, प्रागजी, सुखनंदन और दूसरे लोग यहां खेलने और मौज-मस्ती करने आए। घनश्याम ने बाबा जी को कथा करते देखा और अपने दोस्तों को पहले कथा सुनने के लिए राजी किया। सभी बच्चों की तरह उन्होंने कुछ देर तक कथा सुनी और फिर झील में तैरने के लिए उठ गए। तैरते समय उन्हें फूलों की मीठी सुगंध आई और उन्होंने पूछा कि यह सुगंध कहां से आ रही है। सुखनंदन ने कहा कि यह चमेली के फूल की सुगंध है, इसलिए कुछ फूल तोड़कर बच्चों ने एक माला बनाई और उसे घनश्याम के सिर पर रख दिया।
साधु बाबा इस दर्शन को पाकर अपने को धन्य माना। संयोग से उसी समय, गायों का एक झुंड, जो वहां से गुजर रहा था। घन श्याम प्रभु ने उसे बुलाया तो गाय का झुंड वहां रुक गया और घनश्याम के दर्शन के लिए उनके चारों ओर इकट्ठा हो गया। ग्वाले ने गायों को आगे बढ़ाने की कोशिश की लेकिन वे घनश्याम के पास से हिली नहीं।
घनश्याम ने कुछ देर तक झुंड को धीरे से सहलाया और इमली के पेड़ पर चढ़ कर लम्बा हाथ करके दूसरी ध्वनि निकाल कर गायों से कहा, "अब तुम जा सकते हो"। गायों ने उसकी आज्ञा का पालन किया और ग्वाले के साथ चली गईं।
बच्चों ने फिर से अपना खेल जारी रखा और घनश्याम आषाढी सम्वत 1845 के दिन जामुन के वृक्ष पर चढ़ गए थे। (कहीं कहीं इमली के पेड़ पर चढ़ने का उल्लेख आता है।) वह कुछ देर तक वहाँ खेलता रहा। जब घनश्याम पेड़ से उतर रहा था, तो उसका पैर फिसला ।
गिरते समय पेड़ से एक ठूठ उसकी दाहिनी जाँघ में लगा और वह धड़ाम से ज़मीन पर गिरा। जांघ से खून की धारा निकल पड़ी ,जो रुकने का नाम नहीं ले रही थी।
दूसरे बच्चों ने देखा कि घाव से खून बह रहा है और वे बहुत डर गए, इसलिए उनमें से एक भागकर घर गया और घनश्याम के पिता धर्मदेव को बुलाया।
जब वह गया हुआ था, तो अचानक एक तेज़ रोशनी चमकी और भगवान के वैद्य अश्विनीकुमार घाव का इलाज करने के लिए देवलोक से नीचे आए। उन्होंने घाव पर दिव्य औषधि लगाई और उस पर एक सूती पट्टी बाँधी। सूती कपड़ा वेणीराम ने दिया था, क्योंकि देवलोक में केवल रेशम ही होता है।
धर्मदेव और रामप्रताप जल्दी से देखने आए कि क्या हुआ था और धर्मदेव ने पूछा कि दवा किसने लगाई और पट्टी किसने बाँधी।
घनश्याम ने जवाब दिया कि कुछ लोगों ने घाव का इलाज किया था और धर्मदेव से कहा कि वह शोर न मचाए, क्योंकि वह ठीक है।
धर्मदेव और रामप्रताप फिर घनश्याम को घर ले गए, घनश्याम ने जोर देकर कहा कि वह पैदल घर जा सकता है।
घर पर भक्तिमाता और सुवाशिनी भाभी चिंतित थीं और घनश्याम के आने का इंतज़ार कर रही थीं। जब वे पहुँचे तो भक्तिमाता ने घनश्याम को गले लगाया और पूछा कि क्या हुआ है।
घनश्याम ने कहा, "दुखी मत हो क्योंकि मुझे कोई चोट नहीं लगी है"। उसने पट्टी हटाई और भक्तिमाता ने देखा कि उसकी जांघ पर सिर्फ़ एक छोटा सा निशान था - घाव ठीक हो गया था। यह अश्विनीकुमार द्वारा लगाई गई दिव्य औषधि के कारण था। भक्तिमाता और सुवाशिनी भाभी अब खुश थीं।
खपड़े यानी खापो वाली इस घटना के बाद से ही इस झील को खापा तलावड़ी के नाम से जाना जाता है।
आज यहां कोई झोपड़ी नहीं है, कोई बाबा नहीं है और न ही जामुन/इमली का पेड़ है, लेकिन इस घटना की याद दिलाने के लिए एक छोटी सी छतरी' जरूर है।
इस दिव्य चरित की विशेष महिमा है। इस चरित्र का वर्णन खुद प्रभु ने अपने 37वें वचनामृत में किया है।
11.श्रवण पाकड़ तलावड़ी(तालाब )
अयोध्या से करीब 35 किमी. की दूरी पर, श्रवणपाकर एक पौराणिक ऐतिहासिक स्थल है। यहां त्रेता युग में राजा दशहरा के दिन बाण से घायल होकर श्रवण कुमार ने अपना प्राण त्याग दिया था। पौराणिक मान्यता के अनुसार त्रेता युग में भ्रमण के दौरान श्रवण कुमार इसी स्थान पर माता पिता के साथ विश्राम के लिए रुके थे। श्रवण कुमार ने यहां पाकड़ की दातुन करके फेंक दिया था। बाद में यहां पाकड़ का एक विशाल पेड़ तैयार हो गया।
कथाओं के अनुसार इस जगह पर वह माता-पिता को बैठा कर उनकी प्यास बुझाने के लिए पानी लेने निकले थे।जहां सरोवर पर उन्हें अयोध्या के राजा दशरथ का शब्दभेदी बाण लगा था। तभी से इस क्षेत्र का नाम श्रवण पाकड़ हो गया। यहां पर प्रति वर्ष माघ महीने में विशाल मेला लगता है।
श्रवण तलावड़ी नामक इस तालाब में साल में एक बार मेला लगा था। इस मेले में तालाब में स्नान करना महत्वपूर्ण माना जाता था। इसलिए धर्मदेव और अन्य लोग मेले में आए। युवा घनश्याम भी उनके साथ गया।
एक भिक्षुक (तपस्वी) संत उस तालाब के किनारे विशिष्ट मुद्रा में बैठे थे। उनके साथ कुछ अंधे व्यक्ति बैठे थे और उनसे विनती कर रहे थे: "हे भिक्षुक, हमें दृष्टि दीजिए।" भिक्षुक ने कहा, "मुझे पैसे दीजिए और मैं अपने मुंह से एक फूंक मारकर आपको दृष्टि दूंगा।"
"हे भले आदमी, हम आपको पैसे कैसे दे सकते हैं? हमारे पास पैसे नहीं हैं। हम भीख मांगकर अपना गुजारा करते हैं। फिर भी हमें एक दिन में एक बार खाना मिलता है और चार बार भूखे मरते हैं। हम पैसे कहां से लाएँ?" भिक्षुक ने कहा, "तो फिर चले जाओ।"
घनश्याम ने यह देखा। उसे यह बहुत बुरा लगा। उसने उन अंधों को रोका जो निराश होकर जा रहे थे। उसने उनसे कहा: "हे भक्तों, निराश मत हो। भगवान दयालु हैं।"
अंधे ने कहा, "जब आप ऐसा कहते हैं, तो हमें लगता है कि भगवान सचमुच दयालु हैं। हम उनकी एक झलक पाने के लिए प्रतीक्षा कर रहे हैं।"
घनश्याम ने उनकी आँखों को अपने कोमल हाथ से सहलाया और कहा: "क्या आप कुछ देख सकते हैं?"
अंधे ने खुशी से चिल्लाया, "हाँ, हम देख सकते हैं, हाँ, हम इसे टिमटिमाते हुए देखते हैं। हम युवा कन्हैया को देखते हैं। वह अपने पैरों को मोड़कर खड़ा है, और वह बांसुरी बजा रहा है। ओह, क्या अद्भुत बांसुरी बजा रहा है!" "आज से आप हमेशा कन्हैया को देख सकेंगे और उसकी बांसुरी सुन सकेंगे। मुझे बताओ, क्या आप कुछ और देखना चाहते हैं?" घनश्याम ने कहा। "नहीं," अंधे ने कहा, "सब कुछ इसी में है।" भगवान में दृढ़ विश्वास (भरोसा) सभी परेशानियों का इलाज है।
गुजरात, महाराष्ट्र सहित अन्य प्रांतों से आने वाले स्वामीनारायण संप्रदाय के हरिभक्त छपिया मंदिर में दर्शन करने के बाद यहां आकर दर्शन करते हैं।
हर साल अयोध्या में माघ मास में आयोजित मेले में हजारों की संख्या में श्रद्धालु दर्शन के लिए आते हैं और यही लोग अयोध्या से श्रवणपाकर में भी आयोजित मेले में दर्शन के लिए आते हैं।
स्वामीनारायण ट्रस्ट द्वारा जीर्णोद्धार
इस स्थान पर स्थित श्रवण मंदिर एवम पोखरे का जीर्णोद्धार स्वामी नारायण ट्रस्ट के द्वारा स्थापित किया गया है। इस पवित्र स्थली पर दूर-दराज से लोग अंत्येष्टि क्रिया के दर्शन करने आते हैं। उतर प्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारा पर्यटन संवर्धन योजना के तहत मंदिर व पोखरे के जीर्णोद्धार के लिए 50 लाख रुपये की स्वीकृति प्रदान करते हुए करीब 23 लाख रुपये का बजट जारी कर दिया है।
12. राम सागर ,भेटिया का तालाब छपिया पैर से दबाते ही जल पाताल गयायह स्थान छपिया के भेटियां गांव की झाड़ियों में है। भेटिया का हिंदी अर्थ भेंट उपहार या नजर लाने वाला होता है। चूंकि यहां खेत से निकला सारा धान अपने बचनानुसार मोती मामा ने फसल बचाने के एवज में अपने भांजे घनश्याम बाल प्रभु को दान में भेंट कर दिया था। इसीलिए इस गांव और तालाब का नाम भेंटिया पड़ा । दान की महत्ता के कारण पवित्र इस तालाब के किनारे श्राद्ध कर्म भी होने लगे हैं। भेंटिया एक पर्वतीय जन जाति भी होती है। हो सकता है इस गांव के निवासियों का इनसे कोई संबंध रहा हो। इस गांव में छोटे मंदिर में छोटे हनुमान जी की मूर्ति है। यहां पर भोटिया का तालाब है। यहां पर घनश्याम ने अपने पैर के अंगूठे से दबाया तो पानी पाताल में चला गया था।
एक समय की बात है वर्षा ऋतु में घनश्याम के मामा मोती ने इस तालाब में धान की फसल लगाई थी। कुछ दिन बाद अधिक वर्षा से धान डूब गया। उनके मामा चिंतित रहने लगे। एक बार कोई जरूरी काम होने के कारण धर्मदेव मोती मामा और घनश्याम महाराज उस तालाब के पास से जा रहे थे। धर्मदेव ने रोपे हुई धान के बारे में पूछा तो मामा बोले कि यह फसल बरबाद होकर सड़ जाएगा। वे उदास हो गए थे। घनश्याम महराज ने पूछा,” मामा कितना धान पैदा होगा?”
मामा ने उत्तर दिया,”अब कुछ भी नहीं पैदा होगा। जो कुछ भी होगा वह अब सब तुम्हारा है।”
घनश्याम महराज जहां धान लगाया गया था वहां जाकर अपने दाहिने पैर के अंगूठे से धक्का दिए। धरती मां में तीव्र आवाज आई। जमीन में दरार पड़ गई। चारो तरफ के गांव वाले आ गए। वह ऊपर का सारा पानी दरार के रास्ते अन्दर चला गया। धान बाहर दिखाई देने लगा।
एसा होने से तालाब के जीव जन्तु तथा मछ्ली विना पानी के परेशान हो गए। यह देखकर घनश्याम प्रभु को दया आ गई और उन्होने उन जीवों की मुक्ति का संकल्प लिया।
इंद्र देवता ने उन जीवों को लेने के लिए कई विमान भेज दिए। सभी जीव जो मर गए थे । घनश्याम महाराज की स्तुति करते हुए स्वर्ग को चले गए। सभी लोग घन श्याम भगवान को श्री रामचन्द्र भगवान समझ कर हाथ जोड़कर प्रणाम करने लगे।
इस घटना के बाद इस तालाब को राम सागर या धर्म तालाब के नाम से जाना जाता है। यहां पर छतरी भी बनी हुई है।
वर्ष 2019 में केन्द्र सरकार द्वारा हृदय- अमृत योजना की राशि से लाखों खर्च कर इस सरोवर का जीर्णोद्धार व जल भंडारण के लिए सौर ऊर्जा से चालित तीन बोिरंग कराया गया था।
तालाब के चारों ओर पाइप बिछा यहां लगाए गए पेड़-पौधों के लिए पटवन की भी सुविधा मुहैया करायी गई थी। जो देखरेख के अभाव में तालाब में लगाए गए सारे बोरिंग, मोटर पंप और फैंसी लाइट पुरी तरह से बंद हो गए है।
रामसागर तालाब के चारों ओर लगे फैंसी लाइटों के मरम्मत करने व बंद पड़ी लाइटों को शुरू कराया जाना चाहिए। यह तालाब नगर वासियों के साथ-साथ देश के विभिन्न प्रांतों से श्राद्ध कर्मकांड के लिए आने वाले तीर्थयात्रियों को भी शुद्ध आवोहवा का एक प्रमुख केन्द्र बन गया है। तालाब को हरित पटरी पर लाने के लिए हर संभव प्रयास किया गया है।
13. लोह गंजारी जंगलेश्वर महादेव मंदिर
लोह गंजारी गांव में जंगलेश्वर महादेव जी का मंदिर है। यहां पर धर्मदेव के मित्र संध्यागिरि साधु रहते थे। घनश्याम महराज को लेकर धर्मदेव पिता अक्सर यहां आया करते थे। यहां पर घनश्याम महराज कई आश्चर्य चकित करने वाले कृत्य किए हैं
धर्मदेव के मित्र संध्यागिरि साधु प्रतिदिन जंगलेश्वर महादेव जी के मंदिर की सेवा पूजा किया करते थे।
मंदिर के चारो तरफ बड़ा बगीचा था। उसमे बड़े बड़े नाग निवास करते थे। इस कारण से कई बार शंकर जी की पूजा में दिक्कतें आ जाती थी।
साधु ने एक बार घनश्याम महराज से प्रार्थना किया कि हे भगवान! हमारा ये कष्ट दूर करें।
घनश्याम महराज हंसते हंसते हुए गरुण महाराज को याद किया।तुरन्त गरुण जी महाराज नमस्कार मुद्रा में सामने उपस्थित हो गए। गरुण जी को देखते ही सारे नाग पाताल लोक में चले गए। यह स्थान एकदम निर्भय बन गया।
एक बार लखनऊ के नबाब ने लोह गंजरी गांव पर सैनिक भेजे थे। तब साधु की प्रार्थना पर घन श्याम महराज ने अपना प्रताप दिखाया था कि गांव के अन्दर से अरबी सेना बाहर आ रही है। नबाब के सैनिक को पता चला। इस कारण हथियार गोले बारूद छोड़ कर भाग गए ।
मंदिर के पिछले भाग में साधु ने कुम्हड़ा लगाया था। कुम्हड़े बहुत बड़े बड़े थे। बड़ा भाई अकेले उसे उठा नहीं सकते थे। छपिया के घन श्याम महराज ने उसे एक हाथ से ही उठा दिया था। यहां पर कई आश्चर्य जनक कार्य घन श्याम महराज ने किया है। यह एक प्रसादी का स्थल है। यहां भी एक छतरी बनी रहती है।
14. महादेव शिव मंदिर पतिजिया बुजुर्ग दरियापुर छपिया
छपिया रेलवे स्टेशन से पूरब पतिजिया गांव स्थित है। यहां शंकर जी अति प्रसादी वाला मंदिर है। यहां धर्म पिता सपरिवार घनश्याम महाराज के साथ आते थे। उसी समय एक बार मंदिर के शिव लिंग से भोले नाथ प्रकट होकर घनश्याम महाराज से मिले और दोनों भगवान एक दूसरे को भेंटे भी थे।यहां शिवरात्रि का बड़ा मेला लगता है।
एक बार धर्म पिता सपरिवार घनश्याम महाराज के साथ यहां आये थे। उसी समय शंकर और पार्वती जी भी आपस में विचार करते हैं। हम लोगों के दर्शन हेतु साक्षात भगवान आए हैं। इसलिए हम लोग भी सामने से उनसे जाकर मिलते हैं। यह विचार कर वे महाराज जी सामने आए। अंतर्यामी महाप्रभु भोले नाथ को पहचान गए। दोनों भगवान घन श्याम और भोले नाथ एक दूसरे से गले मिले।
भोले नाथ बोलने लगे, “ आप हमारे दर्शन के लिए आए थे। आपका प्रेम देखकर हम भी आपके दर्शन करने के लिए आ गए।
घनश्याम महाराज धर्म कुल तथा श्री शंकर पार्वती जी सभी लोग चलते हुए पतीलिया तक आ गए।पतीलिया में शंकर पार्वती जी दोनों अदृश्य हो गए।
इसके बाद धर्म भक्ति और रिश्तेदार तथा घनश्याम के मित्र सभी ने मंदिर में जाकर दर्शन किए। मेला देख कर सब लोग छपिया वापस आ गए। इस महत्त्व वाला यह प्रसादी स्थल है।
यहां दोनों के मिलन के प्रतीक चिन्ह के रुप में एक छतरी का निर्माण किया गया है। इसे ही प्रसादी स्थल कहा जाता है। इस शिव मंदिर को स्थानीय जनता बाबा पाटेश्वर नाथ के नाम से भी जनता है।15. गौ घाट,गौरा चौकी मार्ग, छपिया
गौ घाट भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के गोंडा जिले के छपिया ब्लॉक में एक गांव है। यह विश्वामित्री नदी के तट पर स्थित है। नदी के तट पर सीढ़िया बनी हुई है।
यह जंगल का क्षेत्र है। नदी में जल ना होने से घन श्याम महराज ने अपने पैर के अंगूठे से दबाया तो अखण्ड जल की धारा निकल पड़ी थी। यह जिला मुख्यालय गोंडा से 54 किमी पूर्व में स्थित है। छपिया से 5 किमी दूर स्थित है । राज्य की राजधानी लखनऊ से 170 किमी दूर स्थित है ।
एक बार यहां सुखा पड़ा था। गाएं पानी के अभाव में मर रही थी। घनश्याम प्रभु ने अपने पैर के अंगूठे को यहां दबाया तो जल की स्रोत निकल पड़ी। गायों ने अपनी प्यास बुझाई थी। इसलिए इसे गौ घाट नाम मिला है। तबसे यह घाट कभी नहीं सूखता है।
गौरी गाय की दास्तान
एक बार गौरी गाय शाम को घर नहीं आई। उसकी खोज बीन शुरू हुई। राम प्रताप भाई और मंगल अहीर इसे खोजने के लिए निकल पड़े। इन्हें गाय नहीं मिली।
इस बार धर्मपिता राम प्रताप भाई और घनश्याम महाराज के साथ गाय खोजने निकले। फिरोज पुर होकर नरेचा गांव वहां से लोह मंजरी गए। वहां भी गाय नहीं मिली। इसके बाद वे लोग गौ घाट पर आए।
वहां पर एक अहीर के द्वारा ज्ञात हुआ कि नदी के उस किनारे पर गाय ने बछड़े को जन्म दिया है। यह जान कर धर्म पिता और दोनों भाई उसे लेने के लिए पहुंचे। घनघोर रात का समय था नदी में थोड़ा ही जल था। प्रभु ने कहा , पिता जी और भाई आप गाय और बछड़े को लेकर हमारे पीछे पीछे आइए। इतने में सिंह की आवाज सुनाई दी। धर्म पिता सोचने लगे यह सिंह हम तीनो के साथ गाय और बछड़े को मार देगा।
पिता जी को उदास देखकर घनश्याम महराज सिंह के सामने अमी दृष्टि से देखे। सिंह को पूर्व जन्म का ज्ञान आ गया ।
घनश्याम महराज साक्षात भगवान हैं। सिंह पांच प्रदक्षिणा करके हाथ जोड़ कर चला गया। एसा चमत्कार घनश्याम महाराज ने गौ घाट तीर्थ में दिखाया था।
जहां घनश्याम महराज ने पैर के अंगूठे से जमीन को दबाया था। वहां आज भी पानी बहता रहता है। यह स्थान सीढ़ी से उतरते ही दिखाई देता है। इस प्रकार का यह प्रसादी स्थल है।
16. मखौड़ा: राम और घनश्याम दोनों से जुडा आख्यान
मनोरमा नदी का प्राकट्य
राजा दशरथ के पुत्रेष्टि यज्ञ से पहले मखौड़ा में कोई नदी नहीं थी। शृंगी ऋषि ने सरस्वती का आह्वान मनोरामा के नाम से किया था। नचिकेता पुराण में कहा गया है कि,
‘अन्य क्षेत्रे कृतं पापं,
काशी क्षेत्रे विनश्यति।
काशी क्षेत्रे कृतं पापं,
प्रयाग क्षेत्रे विनश्यति।
प्रयाग क्षेत्रे कृतं पापं,
मनोरमा विनश्यति।
मनोरमा कृतं पापं,
ब्रजलेपो भविष्यति।।’
अर्थात, किसी भी क्षेत्र में किया गया पाप काशी स्नान से नष्ट हो जाता है। काशी में किया पाप प्रयागराज में गंगा स्नान से नष्ट हो जाता है। प्रयाग में किया पाप मनोरामा में स्नान से नष्ट हो जाता है । मनोरमा में किया पाप बज्र के समान घातक होता है। पुराणों में इस नदी को सरस्वती कीसातवीं धारा भी कहा गया है।
राम जन्म का आधार
मखौडा धाम बस्ती जिले में हर्रैया तहसील के सबसे प्राचीन स्थानों में से एक है जहां राजा दशरथ ने महर्षि वशिष्ठ की सलाह पर ऋषिश्रिंग की मदद से पुत्रकामेक्षी यज्ञ किया था। यज्ञकुंड से बाहर खीर का वर्तन निकला और ऋषिश्रिंग ने दशरथ को खीर का बर्तन दिया, जिससे वह उसे अपनी रानियों के बीच वितरित करने की सलाह दी। कौशल्या ने आधा खीर खा लिया, सुमित्रा ने इसका एक चौथाई खा लिया। कैकेयी ने कुछ खीर खा लिया और शेष को सुमित्रा को वापस भेज दिया जिसने खीर को दूसरी बार खाया। इस प्रकार खीर की खपत के बाद राजकुमारों की कल्पना की गई। चूंकि कौशल्या ने राम को जन्म देने वाले सबसे बड़े हिस्से का उपभोग किया था। कैकेयी ने भरत को जन्म दिया। सुमित्रा ने लक्ष्मण और शत्रुघ्न को जन्म दिया।उसके बाद से प्रतिवर्ष वैशाख महीने में अक्षय तृतीया से जानकी नवमी तक पुत्रेष्टि यज्ञ की परंपरा आज भी जारी है। यहां दशरथ महल तथा हनुमान गढ़ी अयोध्या के दिव्य मंदिर है। जहां भारी संख्या में सन्त महात्मा रहते हैं और भारी संख्या में श्रद्धालु दर्शन करने आते रहते हैं।
यहां राम सीता लक्ष्मण हनुमान तथा शिव परिवार की सुन्दर मूर्तियां अनायास मन को मोह लेती है।
इस मखौड़ा तीर्थ में जब से राजा दशरथ ने पुत्रेष्टि यज्ञ किया था तब से आज तक चैत मास की पूर्णिमा का मेला लगता है। इसमें हजारों लाखों श्रद्धालु आते हैं। इस दिन यहां लिट्टी चोखा खाने का महत्त्व है।
धर्म पिता यहां सबको खाना खिलाए थे। इस मेले में पृथ्वी का भार स्वरुप कुछ आसुरी शक्तियां भी आती हैं और पहले स्नान करने के होड़ में आपस में लड़ कर अपना अस्तित्व समाप्त तक कर देते हैं। मखौड़ा घनश्याम से अछूता नहीं
राम नवमी के दिन अवतारित और कृष्ण लीला को अपना अभीष्ट मानने वाले बाल प्रभु घनश्याम महाराजा मखौड़ा की महिमा से अछूते नहीं थे। विश्व स्तरीय संस्कृति और पावन तीर्थ के प्रेरणा स्त्रोत इस स्थल पर घन श्याम अपने माता पिता और परिवार के साथ अनेक बार पदार्पण कर अपनी लीला दिखाए हैं।आज भी स्वामी नारायण पंथ के अनुयाई भारी संख्या में इस प्रसादी स्थल का दर्शन करने आते रहते हैं। यह स्थान घनश्याम महाराज की जन्म भूमि छपिया से कुछ ही किमी की दूरी पर ही स्थित है।
एक बार नदी के किनारे दबी हुई सोने की तोप मिली थी। अयोध्या के तत्कालीन राजा दर्शन सिंह ने इस तोप को अयोध्या नगरी में लाने का आदेश दिए थे। उन्होने यह भी आदेश दिया था कि तोप ना लाने पर मृत्यु दंड दिया गया जायेगा। सिपाही लोग बहुत प्रयत्न किए कि तोप उठ जाए। वे लोग अपने साथ बड़ी लोहे की गाड़ी और दस जोड़ी बैल भी लेकर आए थे। पचास व्यक्ति उसे उठाने का उद्यम कर रहे थे।
इसे देखकर घनश्याम ने अपने भाई से पूछा,”भाई साहब ये लोग मिल कर क्या काम कर रहे हैं?”बड़े भाई ने सिपाहियों से पूछा। सिपाहियों ने उत्तर दिया,”हमे अयोध्या के राजा ने तोप लाने के लिए भेजा है। तोप ले जानें पर एक क्या दण्ड मिलेगा यह भी सिपाहियों ने बताया।
इस बात को सुन कर घनश्याम महाराज को दया और आ गई।घनश्याम महाराज ने सिपाहियों से कहा आप लोग सभी दूर हट जाएं। हम लोग तोप को गाड़ी में रख देंगे।
सिपाही उतर देते हैं हम पचास स्वस्थ आदमी तोप को गाड़ी में नहीं रख पा रहे हैं तो आप बालक कैसे इसे रख पाओगे?
इतना सुनने पर घनश्याम ने सभी को राम जी भगवान के स्वरुप का दर्शन कराया और एक हाथ से तोप को गाड़ी में रख दिया। सभी सिपाही घनश्याम महाराज के चरणों में गिर गए।
17.स्वामी नारायण छपिया के पूर्वज सती जीवराणी देवी की समाधि (छतरी)
छतरी का आशय
छतरी का आशय मृत्यु-स्मारक/समाधि से होता है । यह मुख्यतः दो प्रकार की होती है- एक छोटे आकार की छतरी और दूसरा उससे थोड़ी विशाल और एक श्रेणी ऊपर देवल या मंदिर के रुप आकर की संरचना। देवल अति-महत्वपूर्ण व्यक्तियों योद्धाओं और लोक-देवी - देवताओं की स्मृति में बनाया जाता है । छतरी निर्माण के पश्चात उसपर सम्बंधित व्यक्ति के नाम का शिलालेख स्थापित किया जाता है । इस शिलालेख में जिस व्यक्ति की छतरी/देवल है उसका नाम ,उसके पूर्वजों का नाम, व्यक्ति का जन्म दिन ,मृत्यु दिन एवं सम्पूर्ण जीवन का मुख्य मुख्य वृतांत और समाज के प्रति उस व्यक्ति का योगदान आदि लिखा जाता है । जब किसी राजा महाराजा रानी महारानी अथवा उनके अधीनस्थ जागीरदारों या उच्चाधिकारियों का निधन हो जाता है तो जिस स्थान पर उनको मुखाग्नि दी जाती उस स्थान पर उनकी छतरी का निर्माण करवा दिया है ।छतरी में सबसे नीचे चौकोर अथवा आठ कोनों का चबूतरा बनाया जाता है । इस चबूतरे के ऊपर दूसरे गोल चबूतरे बनाये जाते हैं । फिर इन चबूतरों पर छः या आठ स्तम्भ लगा के उस के ऊपर गुम्बद-नुमा छतरी लगाई जाती है । इन चबूतरों स्तम्भों छतरियों के पत्थरों की नक्काशी और बनावट राजपूती/ राजस्थानी स्थापत्य कला का शानदार बेजोड़ और उत्कृष्ट नमूना होता है ।
सती जीवराणी देवी की छतरी छपिया
छपैया में बसे इटार पांडेय जो गोरखपुर के सहजनवा से यहां आए हैं । उनके वंश के मूल पुरुष का नाम रामप्रसाद पांडे मिलता है। इस पंथ के एक पावर प्लांट प्रेजेंटेशन में इसके समानांतर या अगली पीढ़ी में घरनिघर पाण्डे नेपाल में रहने के लिए चले गए उल्लखित है। अगले नाम की जोड़ी में बालकराम तुर्वाधि और जीवराणी बाई का नाम उल्ल्खित है। इसी में कई पीढ़ियों के बाद क्रमशः कृष्णशर्मा - भवानीबाई (स्वामी नारायण प्रभु के परदादा परदादी या परनाना परनानी) महत्त्व पूर्ण नाम है। अगले क्रम में बालशर्मा- भाग्यवती (स्वामी नारायण प्रभु के दादा दादी) और फिर भक्ति धर्मदेव (स्वामी नारायण प्रभु के माता पिता) का नाम आता है।
धर्मदेव का वास्तविक नाम देवशर्मा या हरिप्रसाद था,जिनका जन्म संवंत 1796, कार्तिक हुआ था। भक्तिमाता, जिन्हें मूर्ति या सुदी एकादशी (प्रबोधनी) को इटार में प्रेमवती के नाम से भी जाना जाता है और जिनका जन्म का नाम बाला था, जिनका जन्म छप्पैया में संवत् 1798, कार्तिक सुदी पूनम को हुआ था।
भक्तिमाता के पिता का नाम कृष्णशर्मा और माता का नाम भवानी था। कृष्ण शर्मा के कोई पुत्र नहीं था, इसलिए उन्होंने धर्मदेव के पिता बाल शर्मा से अनुरोध किया कि क्या वे धर्मदेव और भक्तिमाता को विवाह के बाद छप्पैया में रहने की अनुमति देंगे? बालशर्मा ने इस अनुरोध को स्वीकार कर लिया और उसका सम्मान करते हुए उन्हें छपिया में बसने की अनुमति प्रदान कर दी।
इस प्रकार हम देखते हैं कि बालकराम तुर्वाधि और जीवरानीबाई बाल प्रभु के (दाहीमां= चिरस्थाई) पूर्वज परदादा परदादी या परनाना परनानी के रूप में पूज्य अवतारित हुए हैं। इस सूची में बाल प्रभु के भाई बहन और भतीजों के नाम इस क्रम में मिलते हैं। रामप्रताप, सुवासनीबाई ,इच्छाराम, घनश्याम, नंदराम, तत्तलोरराम ,सीतारमी ,गोपालजी, बद्रीनाथ, वृंदावनप्रसाद और बाल प्रभु के प्रथम उत्तराधिकारी अहमदाबाद गादी के आचार्य अयोध्या प्रसाद जी महाराज का नाम उल्लिखित है। एक और नाम रघुवीर का भी इसमें दर्ज है जो इनके दुसरे वड़ताल गादी के आचार्य बने हैं।
बालकराम तुर्वाधि जीवराणी बाई स्मारक
इस वंश वृक्ष बालकराम तुर्वाधि और जीवराणी बाई के स्मारक के रूप में यह प्रसादी स्थल बहुत ही पावन तीर्थ स्थल है। जीवराणी के तेंदुवा रानीपुर छपिया की समाधि पर इस स्मारक को बनाने के उद्देश्य इस प्रकार उत्कीर्ण किया हुआ है -
छपिया पुर में भक्तिमाता के( दाहीमां= चिरस्थाई ) दादी /नानी जीवराणी बाई ने अष्टाक्षर मंत्र (ॐ नमो नारायणाय ) का जप कराया था । तुम्हारे पुत्र कृष्ण शर्मा और भवानी की बेटी भक्ति माता के उदर से अवतारी पुरुष ( घनश्याम बालप्रभु)। का जन्म होगा। जो अनेक अदभुत चरित्र करके यहां अदृश हुए । बाद में यहां जीवराणी देवी का अपने पति के साथ अंतिम संस्कार किया गया था। उनकी स्मृति स्थल के रुप में में राजेंद्र प्रसाद महराज ने और छपिया मंदिर महाराज हरिकृष्ण दास तथा भुज मंदिर के महंथ पुरानी स्वरुप दास जी ने संवत 2055 में इस छतरी का निर्माण कराया।
लेख जो मेरे द्वारा पढ़ा जा सका वह कुछ इस प्रकार है --“सति जिवराणी देवी
का छुपयापुरमा भवितमातानां दाहीनां जीराणीवा अंत समये हाथमां माथा। अष्टाक्षरसयनो जाप करवा लाग्यांत्यारे साक्षात् पूर्ण पुरुषोत्तम जगबाने र्शन आपी ने होके कप्यू के तमारा पुत्र कृष्णशार्माना पुत्री भक्ति देवीने यां सर्वे अवतारना अवतारी भगवान ओवा अमो प्रगट धड़ नर्वे जीवोना कल्याणकारी अर्वा अनेक अद्भूत चरित्रो करीशु अनुवः दात्त जपी -गवान अदृश्यथया पछी जीव राणी वाजे पनि साये देह. पारने नवन्त्रनो आंग्रे संस्कार अहिं कर्यो हो तेनी स्मृती घाटे आचार्य श्री राजेन्द्र पसादजी महाराजनी ने छपैया मंदिर ना महंत शास्त्री हरि कृष्ण दास भुज स्थान देना महंत पुराणी हरिरूप दासजी नी नपर वा अ.ना. जादवा हरजी कस.प. सामबाई सुत हीर तस्वीरवार आचीनी सेवाक संवत २०५५।"
18.घनश्याम महाराज का गृहस्थाग और कौशीदत्त की मूर्खता
घनश्याम महाराज ने 11 वर्ष, 3 महीने और 1 दिन की छोटी सी उम्र में आषाढ़ सुदी 10 सम्बत 1849 विक्रमी को घर छोड़ दिया था। घनश्याम महाराज सुबह सामान्य से पहले उठ गए ताकि उन्हें जाते समय कोई न देख सके। अपनी पूजा पूरी करने के बाद, उन्होंने अपने साथ ले जाने के लिए केवल जरुरी जरूरी आवश्यक सामान एकत्र कर एक पोटरी में बांध लिया था।
गृह त्याग का निर्णय लेने के बाद घर से तैयार होकर घनश्याम महाराज सरयू नदी की ओर चल पड़े थे । नदी के किनारे पहुँचकर घनश्याम महाराज ने सोचा, "अगर मैं नाव का इंतज़ार करूँ, तो कोई मुझे देख सकता है और मेरे जाने की बात जान सकता है।" इसलिए घनश्याम महाराज ने नदी पार करने का विचार किया। इस समय कालीदत्त जिसे उन्होंने मार कर बैकुंठ पहुंचाया था उसीके एक साथी कौशीदत्त ने घनश्याम महाराज को नदी के किनारे खड़े देखा था। कालीदत्त की मौत का बदला लेने के लिए उसने घनश्याम महाराज को नदी में धकेल दिया था। घनश्याम महाराज को मारने के विचार से कौशीदत्त बहुत खुश हुआ था। उसे पता नहीं था कि घनश्याम महाराज ने मुँह नहीं बनाया, बल्कि कौशीदत्त को मूर्ख बनाने के लिए पानी के नीचे जानबूझ कर ही चले गए थे ।
घनश्याम महाराज अब नीलकंठवर्णी के नाम से जाने जाते हैं और यहीं से उनका वन विचरण शुरू होता है। वनविचरण उस समय पूरे भारत में नीलकंठवर्णी की तीर्थयात्रा के प्रकरण से ही जुड़ा है। नंगे पांव चलते हुए वे सभी तरह के लोगों से हर जगह मिलते थे। जब वे नहीं चलते थे, तो वे तपस्या करते थे, धर्म परिवर्तन करते थे या दूसरों को उपदेश देते थे। इस प्रकार वे एक महत्व पूर्ण मिशन से जुड़े हुए थे।
सात कोसी परिक्रमा की परंपरा
अक्षय नवमी के दिन भगवान घनश्याम ने सात मुख वाले अश्व पर बैठकर यहां की 108 बार परिक्रमा की थी। इसके बाद से ही यहां पर सात कोसी परिक्रमा की परंपरा चली आ रही है। मंदिर परिसर के नारायन सरोवर से प्रारंभ होकर परिक्रमा मार्ग में पहला गांव सड़वाल, बाद में तीनवा, दाननगर, असवारा, भोई गांव, गौ घाट, लोहा गंजरी, पातीजिया, नागपुर, नेवाडे और छपिया आदि प्रमुख गांव आते हैं। परिक्रमा भगवान की जन्मस्थली पर आकर खत्म होती है।
आचार्य डॉ राधेश्याम द्विवेदी
लेखक परिचय
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं. वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम-सामयिक विषयों, साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं। मोबाइल नंबर +91 8630778321, वर्डसैप्प नम्बर+ 91 9412300183)
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