Sunday, February 6, 2022

महर्षि वेदव्यास नारद संभाषण से भागवत लिखने की प्रेरणा डा. राधे श्याम द्विवेदी (भागवत प्रसंग 21)


        वेदव्यास जी महाराज “भूत” “भविष्य” “वर्तमान” को प्रत्यक्ष अपनी दिव्य दृष्टि से देखने वाले “अमोघ दृष्टा” हैं। “व्यास जी महाराज” ने भविष्य पर दृष्टिपात करके देखा तो घोर कलिकाल के कलुषित प्राणियों को देख कर के चित अशांत हो गया।
       जीवो का कैसे कल्याण होगा कलिकाल में? लोगों की बुद्धि मंद, भाग्य भी अति मंद। कोई बुद्धिहीन व्यक्ति हो तो बात कुछ और ही होता,पर यदि भाग्यशाली हो तो काम चल जाएगा,भाग्यहीन व्यक्ति हो पर बुद्धिमान हो तो बुद्धि के बल पर अपना निर्वाह कर लेगा। पर बुद्धि और भाग्य दोनों ही समाप्त हो गए हो, दोनों ही मंद पड़ गए हो तो ऐसे जीवो का कैसे कल्याण होगा इसलिए “व्यास जी महाराज” ने उन सब का ध्यान रखते हुए एक “वेद” के चार विभाग कर दिए “ऋग्वेद”, “यजुर्वेद”, “सामवेद” और “अथर्व”आदि।
         उनके चित् को फिर भी शांति नहीं मिली क्योंकि “वेदों” में ज्ञान का तो भंडार तो बहुत बड़ा है,पर वेद के गूढ़ ज्ञान को समझने वाला नहीं है । टेड़ी भाषा है तो उसको और सरल करने के लिए “पंचम वेद महाभारत” की रचना की गई।, जिन की गति “वैदिक ज्ञान” में ना हो वह “महाभारत का स्वाध्याय” करके वैदिक ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए महाभारत की रचना की गई, परंतु फिर भी मन को संतोष नहीं हुआ। 
         व्यास जी ने पुराणों की रचना प्रारंभ की। एक–एक करके “सत्रह पुराण” लिख डाले, पर व्यास जी महाराज का मन अभी भी संतुष्ट नहीं है। सोच रहे थे कि अब क्या किया जाए सत्रह पुराण तक लिख डाले। सोच ही रहे थे कि अचानक उनके कान में ध्वनि सुनाई पड़ी “श्रीमन नारायण नारायण” । 
“देवर्षि नारद” गोविंद के गुणानुवाद गाते हुए अपनी वीणा लिए प्रगट हो गए व्यास जी के सामने, “देवर्षि नारद” का दर्शन करते ही “वेदव्यास जी” खड़े हुए और विधिवत पूजन किया |
         अतिथि पूजन करने के पश्चात जब आदर पूर्वक आसन देकर बैठाए तो नारद जी मुस्कुराए हे “पराशर नंदन” (पराशर ऋषि की संतति में जो हुए वह सब पराशर, तो व्यास जी को पाराशर कहकर संबोधन कर रहे हैं) हे “पराशर नंदन”- “वेदव्यास जी” आपका मुंह थोड़ा मलिन सा क्यों दिख रहा है, आपके धर्म-कर्म सब व्यवस्थित तो चल रहे हैं, आपकी दिनचर्या में, भगवत सेवा में पूजा में कोई विघ्न बाधा तो नहीं आ रही है
      व्यास जी कहते हैं नारद जी आपने जो कुछ भी पूछा वह सब ठीक चल रहा है। मेरे पूजा पाठ में कहीं कोई बाधा नहीं है,
पर यह सब करने के बाद मैंने जीवो के कल्याणार्थ मैंने बड़े-बड़े ग्रंथों की रचना की। फिर भी न जाने क्यों चित् को चैन नहीं पड़ रहा। अभी भी मेरा मन संतुष्ट नहीं हो पा रहा है। अभी भी मेरे हृदय में एक “अह्लाद” जो होना चाहिए कि मैंने समाज के लिए कुछ किया, वह पूर्ण संतुष्टि मेरे मन में नहीं है । वह क्यों नहीं है यह कारण मैं स्वयं भी नहीं जानता।
        नारद जी बोले कि हम बताएं | महाराज बड़ी कृपा होगी बताइए , व्यास जी ने कहा।"श्री नारद जी” बोलते दिखाई पड़ रहे हैं, परंतु प्रेरणा देने वाले तो “परमात्मा” है। नारद जी के भीतर से परमात्मा बोल रहे हैं, व्यास जी का मार्गदर्शन करने के लिए। इसलिए,“श्री” लग गई क्योंकि अब “नारद जी भागवत” का उपदेश दे रहे हैं। 
       व्यास जी को भगवान के माध्यम से “भागवत” मतलब “भागवता उप्रोक्तम” भगवान ने जो कहा अरे भगवान ने तो “ब्रह्मा जी” को कहा था,पर ब्रह्माजी ने नारदजी को कहा तो वह क्या था? 
       भगवान ने ही “ब्रह्मा जी” के भीतर से से नारद जी को कहा। फिर भगवान ने ही नारद जी के भीतर बैठ कर के व्यास जी को कहा । फिर व्यास जी के भीतर बैठकर भगवान ने बैठकर ही “सुखदेव जी” को को कहा। फिर “सुखदेव जी” के भीतर बैठकर भगवान ने ही “परीक्षित जी” को कहा। इसलिए बोलता हुआ कोई भी दिखाई पड़े। पर वक्ता के भीतर से बोलने वाले तो परमात्मा ही होते हैं । इसलिए वक्ता “भगवत स्वरूप” ही होता है । इसलिए श्री नारद यह कहते हुए संकेत दे रहे हैं “सूत जी” अब केवल नारद नहीं बोल रहे नारद जी के भीतर से भगवान बोल रहे हैं। 
         नारद जी कहते हैं व्यास जी तुमने बहुत कुछ लिखा और अपनी लेखनी में बहुत चमत्कार दिखाएं । कहीं-कहीं पर तो आपने ऐसे भी “ब्याम्स्ति” वाक्य बोल दिए कि लोगों की बुधि चक्कर खा गई समझने में। अर्थ लगाने में और कई जगह तो आपके वाक्य ने अर्थ का अनर्थ भी कर दिया। जैसे हिंसा पर रोक लगाने के लिए कहीं-कहीं पर आपने हिंसा को ही कोई नियम बना दिया। अमुक यज्ञ करते समय अमुकपशु का बलिदान कर दो।एक तरफ तो लिख रहे हो “अहिंसा परमो धर्मः” और दूसरी तरफ लिख रहे हो “पशु आलभे तम्ह:”। लोगों ने तो आपके वचन को प्रमाणपत्र बना करके पशुओं का बलिदान करना चालू कर दिया। समाज में तो एक हिंसा का अधिकार लोगों को मिल गया।  जबकि आपका उद्देश्य तो यह नहीं था। आपका उद्देश्य तो “निवृत्ति परख” था। जो जब चाहे तब मारते रहते हैं पशुओं को उनको एक प्रतिबंध लगा रोकना चाहिए, कैसे–कि अमुक यज्ञ करते समय अमुक पशु की बलि चढ़ा दो,कम से कम जब कोई यज्ञ होगा तभी तो कोई पशु का बलिदान होगा जो रोज रोज काट रहे हैं वह तो बच गए, तो नित्य की हिंसा को रोकने के लिए, हिंसा को एक नियम में आपने बाधा ताकि कम हिंसा हो पर लोगों ने तो आप के वचन को प्रमाण पत्र बना कर के जो नहीं करने वाले थे उन्होंने भी हिंसा करना प्रारंभ कर दिया |
      तुम कितना बढ़िया बोल रहे हो,कितना व्याकरण–सम्मत बोल रहे हो, यह भगवान नहीं देखते हैं पर क्या बोल रहे हो, कहां से बोल रहे हो |
        वाणी का वैभव भगवान नहीं देखते,प्रतिपाद्य विषय क्या है क्या है तुम्हारा, बोल किसके बारे में रहे हो, बहुत उच्च कोटि का विद्वान साहित्यिक भाषा में यदि किसी राजा के गुणानुवाद गावे तो उसका कोई महत्व नहीं, अगर कोई देहाती भाषा में गोविंद के गुणानुवाद गावे तो बड़े-बड़े संत सुनकर के “मुग्ध” हो जाते हैं प्रभु की उस महिमा को, तुम्हारा प्रतिपाद्य विषय क्या है “व्यास जी” तुमने भाषा का “वेशिष्ठ” तो दिखाया पर, गोविंद के गुण–नुवाद नहीं गए तो सब बेकार है अरे “नेस कर्म” की भी बहुत अच्छा कर्म है “निष्काम भाव” से किया जाए परंतु भगवान से विमुख हो,भगवान की प्रीति ना हो उसने इस कर्म की भी कोई शोभा नहीं,उस ज्ञान की कोई शोभा नहीं जो गोविंद से जुड़ा हुआ ना हो | इसलिए व्यास जी महाराज आपने अपनी योग्यता का बहुत अद्भुत परिचय दिया है ग्रंथों में, परंतु अभी तक गोविंद के गुणा-नुवाद किसी ग्रंथ में नहीं गए, जब तक भगवान की “प्रीति कौमुदी” का विस्तार नहीं करोगे, गायन नहीं करोगे तब तक ना तो आपको ही चैन मिलेगा ना उस वाणी के द्वारा भक्तों को इतना आनंद मिलेगा |
      व्यास जी इसलिए आपसे भी निवेदन है कि आप भी गोविंद के गुणा-नुवाद गावो, फिर देखो आपको कितना आनंद मिलता है और आपकी वाणी से भक्तों को को कितना परम सुख प्राप्त होता है संकेत भर कर दिया है अब गोविंद के गुणा-नुवाद तुम विस्तार से सुनाओ ऐसा कहकर कि नारद जी तो अंतर्धान हो गए
        व्यास जी महाराज ने तुरंत अपनी कमी का अनुभव कर लिया कि अभी तक मैं वक्ता बनकर सोच रहा था कि मैं मैं बोल रहा हूं, मैं लिख रहा हूं पर अब मैं वही लिखूंगा तो “ठाकुर जी” लिखाएंगे,जो उनकी प्रेरणा होगी |
         सरस्वती नदी में स्नान किया और स्नान करके जैसे ही व्यास जी महाराज ध्यान मग्न हो कर बैठे अपने “शम्य्प्राश आश्रम” में,हृदय में भागवत की भागीरथी प्रगट होने लगी, गदगद गोविंद के गुणा-नुवाद गाने लगे, व्यास जी गाते गए और “गणेश जी” महाराज लिखते गए |
          भागवत संहिता तैयार हुई और श्री वेदव्यास जी महाराज ने इस पावन परमहंसों की संहिता प्रगट कर दी। अठारह हज़ार श्लोकों की यह दिव्य संहिता तैयार तो हो गई। परम मंगलमय भगवत स्वरूप श्रीमद्भागवत महापुराण के अंतर्गत आपने श्रवण किया,देवर्षि नारद से प्रेरित हुए श्री वेदव्यास जी महाराज ने अपने सम्य्प्राश आश्रम में माता सरस्वती का ज्ञान प्राप्त करके जैसे ही प्रभु का सुमिरन और ध्यान किया हृदय प्रदेश में भगवती गंगा प्रभावित हो गई। 
पुराणों के क्रम में “भागवत” पुराण पाँचवा स्थान है। पर लोकप्रियता की दृष्टि से यह सबसे अधिक प्रसिद्ध है। 
         वैष्णव जन 12 स्कंध, 335 अध्याय और 18 हज़ार श्लोकों के इस पुराण को “महापुराण” मानते हैं। स्कंध या खंड का अर्थ है ढेर, समुच्चय, संग्रह, समूह, पेड़ का तना, पेड़ की मोटी शाख या डाल होता है। किसी बड़े विभाग की मुख्य शाखाएँ भी स्कंध कही जाती है। यह भक्तिशाखा का अद्वितीय ग्रंथ माना जाता है और आचार्यों ने इसकी अनेक टीकाएँ की है।


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