Saturday, February 12, 2022

श्रीमद्भागवत कथा : प्रथम स्कन्ध, (पंचम अध्याय) भगवान के यश कीर्तन की महिमा (प्रसंग 35)

श्रीमद्भागवत कथा : प्रथम स्कन्ध, (पंचम अध्याय) 
भगवान के यश कीर्तन की महिमा (प्रसंग 35) 
डा. राधे श्याम द्विवेदी
 प्रिय सुधी पाठकों आपने श्रीमदभागवत जी की कथा के प्रथम स्कन्ध के चतुर्थ अध्याय की कथा में यह जाना कि व्यास देव जी जिन्होने वेदान्त तथा पुराणादि की रचना की परन्तु उन्हें अपनी रचनाओं आदि से सन्तुष्टि नहीं प्राप्त हुई। इसका मुख्य कारण यह था कि उन्होने सिर्फ़ ज्ञान और सिद्धन्तों की चर्चा की थी। आज तक उन्होने परमात्मा की लीलाओं आदि का चित्रण और व्याख्या नहीं की थी।भक्ति योग के बारे में उन्होने लिखा ही नहीं था, शास्त्र कहते हैं कि जिसने परमात्मा के प्रेम को महसूस नहीं किया उसका जीवन तो व्यर्थ ही है, व्यास जी को कष्ट यह था कि उन्होने इतने शास्त्रादि रचित किये परन्तु आज मनुष्यों में श्रद्धा समाप्त सी हो गई है, सिर्फ़ भौतिकता से ही मनुष्य गृसित है। परमात्मा के प्रति उसकी श्रद्धा समाप्त होती जा रही है। व्यास जी ने आज तक धर्म और शास्त्रों के लिये जो प्रयास किये उनसे वो स्वयं असंन्तुष्ट हैं। 
         सरस्वती नदी के तट पर व्यास जी अपने आश्रम में थे तभी नारद जी व्यास के सम्मुख उपस्थित हुए, व्यास जी बहुत व्यथित थे, नारद जी उन्हें देखकर मुस्कुराते हुए बोले, “हे व्यास देव आपकी जितनी भी जिज्ञासाएं थीं सभी पूर्ण हुई हैं तथा आपने पुराणादि का सम्पादन किया है तथा एक महान गृन्थ, महाभारत का संकलन आपने किया है, आखिर आपके विषाद का कारण क्या है, आज तक आपने निराकार बृम्ह के विषय में वेदान्त सूत्र अथवा ब्रम्ह सूत्र आदि की रचना की और आज आपको यह लगता है कि आपके सभी प्रयास आदि व्यर्थ गये I”
         नारदजी ने व्यास जी से पूछा अनेक पुराणों के रचयिता भगवान के अंशावतार व्यास जी इतने ग्रंथों की रचना करने के बाद भी ऐसा लगता है कि आपके मन को समाधान नहीं है | व्यास जी बोले आप सत्य कह रहे हैं अनेकों रचना के बाद भी मेरे मन संतुष्ट नहीं है | 
           कृपया आप बता दें मेरे प्रयास में कहां क्या कमी है | नारद जी बोले व्यास जी आपने भगवान नारायण के निर्मल यश का वर्णन जितना होना चाहिए नहीं किया पुराणों में भी आपने देवताओं के ही गुण गाए हैं।
     नारद जी की बात सुनकर व्यास देव बोले, “हे देवर्षि, आपने मेरे विषय में जो भी कहा सही कहा है, परन्तु मैं अपने कार्यों से आज ब्तक सन्तुष्ट नहीं हुं, आप परम ज्ञाता है, परमात्मा के अनन्य भक्त हैं, इस जगत के सृष्टा, पालक तथा संहारक जो परमात्मा हैं तथा जो भौतिक पृक्रति के तीनो रूपों से परे हैं ऐसे प्रभू का आप निरन्तर स्मरण करते रहते हैं। आप तीनों लोकों में भृमण करते रहते है। अतः आपसे निवेदन है कि कृपया आप मुझे मेरे अभावों से मेरी कमियों के बारे में मुझे बताएं। ”
    नारद जी व्यास देव की व्यग्रता देख कर बोले, “हे व्यास देव, यह एक रहस्य है कि परमात्मा बार बार इस पृथ्वी पर अवतार लेकर आते हैं और इस जगत के जीव भी परमात्मा का ही विस्तार हैं और परमात्मा यह चाहते हैं कि जीव के साथ उसके प्रेम पूर्ण सम्बन्ध हों। इसमें ही परमात्मा और जीव दोनो को आनन्द है। ” “हे व्यास देव आपने वैदिक साहित्य के अनेकों विस्तार किये, जिनका मुख्य उद्देश्य सिर्फ़ वेदान्त दर्शन ही है। इसमें परमात्मा की महिमा आदि का कोई वर्णन नहीं है। आपके सम्पादन से सिर्फ़ ज्ञान और ब्रम्ह सूत्र का प्रचार है। परमात्मा के प्रेम और भक्त के रस का प्रचार नहीं। हे व्यास जी, आपने धर्म के द्वारा बताए गये चार पुरुषार्थों के विषय में काफ़ी वर्णन किया है परन्तु आपने परमात्मा की महिमा का वर्णन नहीं किया है। 
     जब कि ये चारों पुरुषार्थ परमात्मा की भक्ति के बिना संभव ही नहीं हैं।क्यों कि ये पुरुषार्थ भी परमात्मा की कृपा के बिना संभव नहीं है। वाणी से वेदान्त आदि का वर्नन किया जाय ठीक है परन्तु जिस वाणी से परमात्मा की महिमा का वर्णन ना किया जाये परमात्मा की लीलाओं का बखान ना किया जाये वह वाणी तो कौवे के समान है उसका कोई महत्व नहीं है। "
    नारद जी कहते हैं, “हे व्यास जी! जो साहित्य, शास्त्र आदि परमात्मा की यशगाथा, नाम रूप तथा उसकी लीलाओं की चर्चा, व्याख्या आदि से पूर्ण हैं। वह इस जगत के जीवों को भक्ति प्रदान करने वाले हैं । जिसके परिणाम से मनुष्य पापों से मुक्त होता है। परमात्मा से उसका प्रेम सम्बन्ध स्थापित होता है, जो मनुष्य परमात्मा की लीलाओं को सुनता है । उसका हृदय पवित्र हो जाता है। ” वे आगे कहते हैं, “हे व्यास देव! आप परम भाग्यशाली हैं। आप सामाधिस्थ होकर परमात्मा की रसमय लीलाओं का ध्यान करें, चिन्तन करें I परमात्मा के रूप, रस, सौन्दर्य तथा उसके चरित्र का चिन्तन मनुष्य में भक्ति का प्राकट्य कर देता है तथा भक्त सदैव परमात्मा के आनन्द स्वरूपी रस में आनन्दित रहता है। ” 
    यहां एक बात समझने वाली है कि ज्ञान मार्गी और भक्ति मार्गी में क्या और कितना फ़र्क है? ज्ञान मार्गी की यात्रा बन्दर के बच्चे के जैसी होती है जब कि भक्ति मार्गी की यात्रा बिल्ली के बच्चे की जैसी होती है। 
    बन्दर जब अपने बच्चे को लेकर पेड़ पर इधर उधर छलांगे मारता है तो वह अपने बच्चे को स्वयं नहीं पकड़ता बल्कि उसका बच्चा स्वयं बंदरिया के पेट से चिपक कर उसको बहुत मजबूती से पकड़े रहता है। आपने देखा होगा कि जब बिल्ली का बच्चा छोटा होता है और बिल्ली इधर उधर दिवालों आदि पर चढ कर जाती आती है तो बिल्ली अपने बच्चे को अपने मुंह से पकड़ कर अर्थात उठाकर ले जाती है। 
    बिलकुल ऐसा ही फ़र्क है, भक्त और ज्ञानी में I भक्त परमात्मा को समर्पित हो जाता है, और उसकी मुक्ति पर्मात्मा की कृपा से होती है। भक्त परमात्मा के प्रेम में ही रहता है ,जब कि ज्ञानी की स्थिति बन्दर के बच्चे की जैसी होती है । वह स्वयं प्रयास करता रहता है उसे खतरा भी रहता है कि हांथ छूटा और नीचे जा गिर सकता है। 
    नारद जी व्यास जी को समझाते हैं कि, “आप तो स्वयं परमात्मा के अंश स्वरूप हो अंशावतार हो तथा जगत के कल्याण के हेतु से व्यास जी आपका इस धरा पर आगमन हुआ है।अतः आप भगवान श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाओं का विस्तार पूर्वक वर्णन करिये। ”
   देवऋषि नारद जी का पूर्व चरित्र :-
 नारद जी ने व्यास जी को अपने पूर्व जन्म के विषय में बतलाने लगे। नारद जी कहते हैं कि हे व्यास देव मैं पूर्व जन्म में मैं एक दासी का पुत्र था।मेरी माता वेदान्त के सिद्धान्तो के अनुयायी भक्त ब्राम्हणों की सेवा किया करती थी। वर्षा ऋतु में जब वे ब्राम्हण चौमासा करते थे उस दौरान मैं स्वयं उन ब्राम्हणों की सेवा सत्कार आदि किया करता था। नारद जी कहते हैं कि वे ब्राम्हण पवित्र हृदय और अत्यन्त ज्ञानी थे । मुझ पर उनकी अनन्य कृपा रहती थी। नारद जी कहते हैं कि व्यास जी, मैं स्वयं भी उनके सानिध्य मे रहकर अल्प भाषी अर्थात कम बोलने वाला हो गया था। मैं निरन्तर उनकी सेवा मे रहता था तथा उनका बचा हुआ भोजन खाता था । जिसके प्रभाव से मेरे संचित अशुभ कर्म समाप्त हो गये । सारे पाप नष्ट हो गये। मेरा हृदय भी पवित्र हो गया I ब्राम्हणों की संगति में रहने के कारण मुझे परमात्मा कृष्ण की रसमयी मनोहर लीलाओं की कथा सुनने को मिलती थी । जिसे सुनने सुनते मेरी परमात्मा से प्रीति हो गई थी। ब्राम्हणों ने मुझे अध्यात्म का व्यवहारिक ज्ञान भी प्रदान किया । जिसके परिणाम स्वरूप इस जगत से मेरा मोह समाप्त हो गया था। उनके प्रति मेरी भक्ति अचल होती गई I
     नारद जी आगे कहते हैं कि ये व्यास जी, उन ब्राम्हणों की सेवा में रहते हुए मैंने परमात्मा की लीलाओं का रसमय कीर्तन निरन्तर सुना। जिसके प्रभाव वश मेरे अन्दर के रजोगुण तथा तमोगुण नष्ट हो गये। मोह ममता आदि का अंत हो गया।मेरे कर्म बन्धन स्वरूपी संचित पापादि भी समाप्त हो चुके थे।इन्द्रियों पर मेरा नियंत्रण हो गया था। मेरे हृदय में उन ब्राम्हणों तथा परमात्मा के प्रति प्रबल श्रद्धा हो गई थी। 
    मुझ पर परमात्मा की कृपा हुई और उन ब्राम्हणों ने मुझे परमात्मा के रहस्यमयी उपदेशों की शिक्षा भी प्रदान की।जिसे परमात्मा अपने अनन्य भक्तों को स्वयं देते हैं। जिसके प्राभाव से मैं ये समझ सका कि परमात्मा श्रीकृष्ण ही इस जगत के सृष्टा, पालक और संहारक हैं । यदि मनुष्य अपने किये समस्त कार्यों को श्रीकृष्ण को समर्पित कर दे तो कष्टों और दुखों से उसे मुक्ति प्राप्त हो जाती है। इस बात का तात्पर्य यह है कि यदि मनुष्य को अच्छा कर्मफ़ल प्राप्त हुआ तो कर्ता भाव उसे अहंकारित करता है और यदि कर्म परिणाम अशुभ हुआ तो मनुष्य दुखी होता है अथवा क्रोधित होता है । परन्तु जब हम सभी कर्मों के परिणामों को परमत्मा को समर्पित कर देते हैं । अर्थात उसकी कृपा मान लेते हैं तो हम पूर्णतः मुक्त हो जाते हैं। नारद जी कहते हैं व्यास जी यह विद्वानों और भक्तों द्वारा बताई गई, संसारिक कष्टों से मुक्ति प्रदान कराने वाली सबसे रहस्यमयी औषधि है I  
   नारद जी पुनःकहते हैं, हे व्यास जी ! जैसे एक योग्य और कुशल वैद्य रोगी की चिकित्सा के लिये उसके रोग की चिकित्सा करने के बजाय रोग के उत्पन्नता के कारण की चिकित्सा करने का प्रयास करता है। अतः रोग की चिकित्सा के लिये सर्वथा उचित है कि उसके लिये ऐसे आहार की व्यव्स्था की जाये जो रोगी के स्वास्थ के लिहाज से अनुकूल हों । जैसे कभी कभी दूध की रबड़ी खाने से पेट गड़बड़ हो जाता है तो कुशल वैद्य दूध से ही निर्मित दही अथवा मट्ठे से खाने के लिये कुछ औषधियां देता है। जिसके परिणामतः रोग ठीक हो जाता है। 
     मनुष्य इस जगत में तीन प्रकार के भौतिक तापों से पीड़ित है। ये ताप हैं दैहिक अर्थात देह से सम्बन्धित समस्याएं।दूसरी हैं दैविक अर्थात जो आकस्मिक अर्थात दैव योग से समस्याएं आती हैं। तीसरी हैं भौतिक ताप अर्थात इस भौतिक जगत की समस्याएं जैसे माया, ममता, लोभ आदि तो नारद जी कहते हैं, व्यास जी इस जगत का मनुष्य तीन प्रकार के भौतिक तापों से समस्याग्रस्त है अथवा पीड़ित है। समस्याएं हैं भौतिक तो भौतिक में परिवर्तन कर दो जैसे दूध की जगह वैद्य ने दही का प्रयोग किया । आप भी भौतिक की धारणा बदल दीजिये और अपने मन को अपने शरीर को परमात्मा के कीर्तन उनकी लीलाओं के रसास्वादन में लगा दीजिये । भौतिक की जगह परमात्मा में अपने चित्त को स्थापित कर दीजिये। जब मनुष्य अपने समस्त कर्म परमात्मा को समर्पित कर देता है तो वह समस्त कर्म बन्धनों से मुक्त हो जाता है। क्यों कि कर्म रूपी वृक्ष ही मनुष्य के विनाश का कारण बनता है। 
     नारद जी कह रहे हैं कि इस जगत में मनुष्य परमात्मा की संतुष्टि के लिये जो भी कार्य करता है वह भक्ति योग बन जाता है। सभी भूतों में परमात्मा कृष्ण का दर्शन ही उनकी अनन्य भक्ति है और यह स्थिति भागवत जी के श्रवण से प्राप्त होती है नारद जी व्यास जी से कह रहे हैं कि हे व्यास देव आप परमात्मा कृष्ण के क्रिया कलापों तथा उनकी जीवन लीलाओं का रसमय वर्णन करो। जिसके श्रवण से परमात्म जनों की ज्ञान की प्यास भी शान्त होगी और साथ ही समान्य जनों के कष्टों का अन्त भी होगा, इसलिये व्यास देव जी आप परमात्मा की रसमयी श्रीमदभाग्वत जी की रचना करिये। 
    परमात्मा की इच्छा हुई कि व्यास जी की पीड़ा का अन्त किया जाये सो नारद जी व्यास जी को यह संदेश देने के लिये आ गये कि आप परमात्मा की रसमय लीलाओं का वर्णन करिये और श्रीमद्भागवत जी की रचना करिये। 
           
                ओउ्म हरिः ओउ्म तत्सत्


    
    

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