Monday, February 14, 2022

श्रीकृष्ण का द्वारका गमन ( प्रसंग 41) श्रीमद्भागवत कथा : प्रथम स्कन्ध, (दशमोsध्याय)

    श्री कृष्ण का द्वारका गमन ( प्रसंग 41) 
श्रीमद्भागवत कथा : प्रथम स्कन्ध, (दशमोsध्याय) 
डा. राधे श्याम द्विवेदी

            प्रिय मित्रों, जय श्री कृष्ण जय श्री राधे।। हम सभी का परम सौभाग्य है कि हम सभी परमात्मा की रसमय कथा में लीन हैं। हम सभी पर उनकी महान करुणा और कृपा है तभी हम इस उपक्रम में आप से जुड़े हुए हैं। 
          नवम अध्याय की कथा का हमने रसास्वादन कर लिया है। नवम अध्याय में परमात्मा ने बहुत सुन्दर शिक्षाएं प्रदान की हैं । हम लोगों को, पहला तो यह कि पितामह बांणों की सैया पर लेटे हैं असहनीय पीड़ा से गृसित हैं परन्तु ऐसे समय में भी पितामह के पास ऋषि-मुनि, भक्त आदि एकत्र हैं। सत्संग हो रहा है, परमात्मा का चिंन्तन हो रहा है, और स्वयं परमात्मा उन्हें दर्शन देने आये हुए हैं। पितामह को अपने कष्टों का दुख नहीं है उन्हें आनन्द यह है कि गोविन्द उन्हें दर्शन देने आये हुए हैं। इस घटना से यहां तत्व ज्ञान का संदेश मिलता है कि हमें अपने दुखों को कमियों को महत्व नहीं देना चाहिये। बल्कि सकारात्मक सोच के द्वारा सिर्फ़ परमात्मा की कृपा का अनुभव करना चाहिये और परमात्मा से निवेदन कर जाने-अनजाने अपने किये अशुभ कर्मों के लिये क्षमा मांगनी चाहिये। हमें प्राश्चित करना चाहिये, जब कि होता यह है कि हम विपदा पड़्ते ही, कष्ट होते ही परमात्मा को दोष देना चालू कर देते हैं। जब कि हमें कष्ट अथवा सुख जो भी मिल रहा है वह हमारे द्वारा पूर्व किये कर्मों के फ़लस्वरूप प्राप्त हो रहा है। प्रायः एक जरा सी चीज का अभाव होने पर हम परमात्मा को दोष देने लगते हैं ,जब कि अन्य प्राप्त चीजों के लिये हम परमात्मा को धन्यवादं नहीं देते।हमें परमात्मा को अपना सम्बन्धी बनाना चाहिये और उससे सम्बन्ध प्रगाढ करना चाहिये I
          भगवान् श्रीकृष्ण युधिष्ठिर से कहते हैं- राजन्! व्रत, दान और धर्मके विषयमें मैंने आपको बतलाया। चूँकि इस सम्पूर्ण संसारका मूल धर्म ही है, इसलिये आप भी धर्मपरायण हो जायँ। पार्थ! जानते हुए भी मैंने काम और अर्थका प्रकाश नहीं किया, क्योंकि इसमें तो सभी लोग स्वतः प्रवृत्त होते रहते हैं, अतः इसके वर्णनकी क्या आवश्यकता। पाण्डुनन्दन! इस भविष्योत्तरमें मैंने सदाचारसम्पन्न पुरुषोंके व्रत एवं दान समूहोंका वर्णन किया। मैंने जो इतिहास और पुराणों में देखा और जो वेद-वेदाङ्गसे सम्बद्ध हैं, उन सभी विषयोंको यहाँ प्रदर्शित किया। राजन् ! लोकवेदविरुद्ध विषयोंमें आस्था नहीं करनी चाहिये, क्योंकि वह प्रलापमात्र ही है। आपसे विशेष स्नेह होनेके कारण मैंने यह सब वर्णन किया। 
       पार्थ! दाम्भिक और शठके सम्मुख इन विषयोंको प्रकट नहीं करना चाहिये। नास्तिक, अश्रद्धालु और कुतर्कियोंसे इसकी चर्चा नहीं करनी चाहिये। सदाचारी, जितेन्द्रिय, सत्य और पवित्रतामें रत व्यक्तियोंके सामने इसके व्याख्यानसे सुगति प्राप्त होती है। 
      पार्थ! आप स्वयं साक्षात् धर्मस्वरूप और धर्म एवं अर्थके तत्त्वके मर्मज्ञ तथा भूत भविष्यके ज्ञाता हैं। आपने इसे जाननेकी इच्छा प्रकट की, अतः मैंने आपके सम्मुख धर्मके रहस्यको प्रकाशित किया। मनुष्योंको इन विषयोंपर श्रद्धा-विश्वास रखना चाहिये। अब मैं द्वारकाके लिये प्रस्थान कर रहा हूँ, पुनः आपके महोत्सव और यज्ञके अवसरपर उपस्थित रहूँगा। सब कुछ कालके अधीन है, अतः किसी तरहका संताप नहीं करना चाहिये। 
         युधिष्टिर द्वारा राजपाठ ग्रहण करने के बाद कृष्ण कई महीने हस्तिनापुर में रहे। फ़िर एक दिन कृष्ण नें युधिष्टिर से द्वारका जाने की अनुमति मांगी। कृष्ण उम्र में छोटे हैं इसलिए युधिष्टिर जी से प्रणाम करते हैं। कृष्ण युधिष्टिर जी को तभी तो उनसे अनुमति मांग रहे हैं। युधिष्टिर ने प्रसन्नता पूर्वक कृष्ण को अनुमति प्रदान की। भगवान कृष्ण के द्वारका जाने के लिये तैयारियां प्रारम्भ हो गईं। भगवान को राजा युधिष्टिर नें गले से लगाया। सभी पांडव कृष्ण से मिले। द्रोपदी-सुभद्रा कुन्ती गान्धारी आदि सभी के हृदय दृवित हैं । सभी भगवान को बिदा करते समय दुखी हैं। परन्तु यात्रा से पूर्व अपसगुन ना हो इसलिये कोई रोया नहीं और मुस्कुराते हुए भगवान को बिदा करना है। सभी के हॄदय दृवित थे, भगवान के बिदाई समारोह में शंख, मृदंग, वीणा, ढोल आदि बजाए जाने लगे। भगवान की स्तुतियां गाई जा रही थीं। भगवान पर पुष्प वर्षा की जा रही थी। भगवान कृष्ण मोर मुकुट लगाए हैं । उनके घुंघराले बालों की लटें उनके मुखारबिंद के दोनो तरफ़ झूल रही हैं। भगवान मुस्कुरा रहे हैं। सभी का अभिवादन स्वीकार कर रहे हैं । भगवान, को बिदा करने के लिये महाराज युधिष्टिर ने अर्जुन को कहा कि सेना के साथ जाओ और द्वारिका की सीमा तक कृष्ण को छोड़ आओ। भील आदि जन जातियां रास्ते में रहती हैं । अतः अर्जुन को कृष्ण की सुरक्षा के लिये साथ भेज रहे हैं युधिष्टिर जी। 
         युधिष्टिर कृष्ण से वात्सल्य भाव रखते हैं । उन्होने बाल कृष्ण को गोद में खिलाया है । अतः आज भी उन्हें कृष्ण छोटे ही दीखते हैं। जिसने कौरवों की सेना को सिर्फ़ रथ हांकते हांकते हरा दिया उसे महाराज युधिष्टिर आज भी छोटा समझते हैं। कृष्ण मुस्कुरा रहे हैं युधिष्टिर को देख रहे हैं। भगवाम कृष्ण, उद्धव- सात्यकी के साथ द्वारिका के लिये प्रस्थान कर रहे हैं I
          हस्तिनापुर के नर, नारी, बालक, वृद्ध सभी भगवान को बिदा करने के लिये एकत्र हैं। परमात्मा सबसे मिल रहे हैं सभी दुखी हैं सभी के हॄदय दृवित हैं। भगवान रथ पर चढने से पूर्व महाराज युधिष्टिर से मिलते हैं । युधिष्टिर जी का हृदय करुणा से भर आया, गला रुंध गया, शब्द मुंह से नहीं निकाल पाए। भीम भैया से कृष्ण की बहुत प्रीति थी। कृष्ण भीम भैया से हास्य भी बहुत करते थे। भीम को कृष्ण ने प्रणाम किया । भीम बहुत कठोर हृदय हैं परन्तु जब कृष्ण ने मुस्कराते हुए भीम भैया की ओर देखा तो भीम का हृदय भर आया। नकुल सहदेव भी दुखी थे कृष्ण को बिदा करते हुए I
     हस्तिनापुर के नागरिक भगवान की स्तुति कर रहे हैं। एक महिला दूसरी स्त्री को बता रही है कि यही हैं कृष्ण सुभद्रा जी के भाई हैं। राजमाता कुन्ती के भाई के बेटे हैं । इन्होने युद्ध में अर्जुन का रथ हांका था I
दूसरी स्त्री कहती है ,हां हां !मैं भली भांति जानती हुं । ये वही हैं जो वृन्दावन में गोपियन संग रास रचाते थे।मथुरा के कंस महाराज को इन्हींने मारा था, अब द्वारकाधीश हैं I
तीसरी स्त्री कहती है ,नहीं नहीं ! तुम ना जानो ये परमात्मा है जगत के मालिक हैं। ये, द्रोपदी की लाज जब दुःशासन उतार रहा था, इन्हीने तो बचाई थी महारानी द्रोपदी की लाज को। 
 चौथी कहती है, देखो तो रूप ऐसा लगता है जैसे कामदेव से भी सुन्दर हैं, मुंख की मुस्कान तो देखो मानो प्राण ही ले लेंगे, कितनी सौभाग्यशाली हैं वो स्त्रियां जो इनकी रानी बनी हैं। 
एक स्त्री पुनः बोल पड़्ती है, अरी तुम का जानो, ये तो शिशुपाल आदि बहुत बलशाली राजाओं को हरा के अपने बल पर रूक्मणी जी को हरण कर अपनी रानी बना लाये थे। इनकी आठ पटरानी हैं और सोलह हजार रानी हैं। जिन्हें ये भौमासुर के कैद से छुड़ा के लाये थे।भौमासुर को इन्होने जब मार दिया और उसके कैदखाने से सोलह हजार स्त्रियों को मुक्त करा दिया था
           जब सोलह हजार स्त्रियां मुक्त हो गईं तो उन्होने इनसे पूछा कि हमें आपने आजाद तो करा दिया परन्तु एक बात बताइये हमें भौमासुर हरण करके लाया था। हमें उसने कैद में रक्खा था।हम इतने समय से भौमासुर की कैद में हैं और यहां से मुक्त होने के बाद हमें कौन अपने घर रखेगा? हमारे साथ सम्बन्ध कौन रखेगा? हमारी देखभाल कौन करेगा? अब तो हम बेसहारा होकर इधर उधर भटकती रहेंगी। आप ही बताइये हमारे साथ क्या कोई विवाह करेगा ? कौन हमारा जीवन साथी बनेगा? हे सखी ये वही हैं जिन्होंने उन सोलह हजार स्त्रियों से विवाह कर लिया। जिन्हे भौमासुर की कैद से छुड़ाया था, ऐसे कृपा और करुणा के सागर हैं ये श्याम सुन्दर जी। 
        कृष्ण जी रथ पर चढ गये हैं । रथ चल पड़ा है । भगवान रथ पर खड़े होकर सभी का अभिवादन मुस्कुराते हुए स्वीकार कर रहे है। नगर के नागरिक रथ के पीछे पीछे भगवान को विदा करने नगर की सीमा तक जाते हैं । भगवान ने नगर की सीमा पर रथ रुकवया। सभी को भगवान ने समझा बुझा कर वापस भेजा दिया। 
         इतना कहकर भगवान् श्रीकृष्ण प्रसन्नचित्त होकर पाण्डवोंद्वारा अर्चितसम्मानित हुए, फिर सभी मित्रों और बन्धुजनोंकी सम्मति प्राप्तकर भगवान् श्रीकृष्णने ब्राह्मणोंको प्रणामकर द्वारकाकी ओर प्रस्थान किया।

                        ।।इति दसम् अध्यायः।।


No comments:

Post a Comment