Tuesday, February 15, 2022

श्रीकृष्ण की द्वारका का पौराणिक और ऐतिहासिक महत्व

श्रीकृष्ण की द्वारका का पौराणिक और ऐतिहासिक महत्व
 डा. राधे श्याम द्विवेदी                                                     
                 हम दंतकथाओं की महानता और सच्‍चाई के बारे में प्रायः परीक्षण करते रहते हैं। यदि हम1500 बीसी से पहले के समय की याद करें तो हमारे मस्तिष्‍क के सामने होगा, सोने का एक शहर-मंत्रमुग्‍ध कर देने वाली दिव्य द्वारका, अर्थात भगवान श्रीकृष्‍ण की पावन राजधानी। गुजरात में श्रीकृष्‍ण को रणछोडराय के नाम से पुकारा जाता है। मथुरा से आने के बाद द्वारका को श्रीकृष्‍ण ने अपनी राजधानी बनाया और शेष जीवन यही व्‍यतीत किया था। यह स्‍थान सौराष्‍ट्र के पश्चिमी द्वीप पर है, इस जगह का हिन्‍दू धर्म में उल्‍लेखनीय महत्‍व है। यह एकमात्र ऐसा स्‍थान है, जिसे चारों धामों में से एक धाम के रूप में और सप्‍तपुरी (प्राचीन सात शहर) में से एक पुरी के रूप में मान्‍यता दी गई है। इसी कारण, सदियों से लाखों तीर्थयात्री और इतिहास के विद्वान यहां आते जाते रहे हैं। और अपने को धन्य मान रहे हैं। 

            श्रीकृष्‍ण ने मथुरा में अत्‍याचारी राजा कंस का वध करके उसके श्‍वसुर जरासंध को क्रोधित कर दिया था। जरासंध ने अपने पुत्र की मृत्‍यु का प्रतिशोध लेने के लिए श्रीकृष्‍ण के राज्‍य पर 17 बार आक्रमण किया। श्रीकृष्‍ण को पता था कि उनके लोग जरासंध से एक और युद्ध लड़ने में समर्थ नहीं हैं। उन्‍हें इस बात का बखूबी ज्ञान था कि इस युद्ध से न केवल लोगों की जानें जाएंगी बल्कि इससे किसान और अर्थव्‍यवस्‍था पर भी बुरा असर पड़ेगा। इसीलिए श्रीकृष्‍ण युद्ध छोड़कर भाग गए और इसी कारण उन्‍हें रणछोड़जी (वह व्‍यक्ति जो रणभूमि छोड़कर भाग जाता है) के नाम से पुकारा जाने लगा।

           अपने कुछ यादव साथियों के साथ श्रीकृष्‍ण गोमांतक पर्वत पार करके सोमनाथ से 32 किमी. दूर सौराष्‍ट्र के किनारे पहुंचे। कुछ स्रोतों के मुताबिक श्रीकृष्‍ण वर्तमान स्थित ओखा के पास पहुंचे थे और बेट द्वारका नामक अपना नया राज्‍य बसाया। ऐसी धारणा है कि समुद्र देवता ने उन्‍हें अपना राज्‍य बसाने के लिए 12 योजन अर्थात लगभग 773 वर्ग किमी भूमि प्रदान की थी और हिन्‍दू मान्‍यताओं में सुंदर इमारतें बनाने वाले भगवान विश्‍वकर्मा ने श्रीकृष्‍ण की इच्‍छा को स्‍वीकार करके उनके लिए एक नए राज्‍य का निर्माण किया। धन-धान्‍य से संपन्‍न यह राज्‍य स्‍वर्ण नगरी कहलाया और द्वारका के राजा श्रीकृष्‍ण को द्वारकाधीश कहा जाने लगा। श्रीकृष्‍ण के जीवन का उद्देश्‍य एक ऐसे राज्‍य की स्‍थापना करना था, जो सत्‍य धर्म के सिद्धान्‍त पर आधारित हो। द्वारका द्वारावती के नाम से भी जानी जाती है, जो ‘द्वारा’ शब्‍द से बना है, जिसका अर्थ होता है द्वार या दरवाजा और ‘का’ का अर्थ होता है ब्रह्मा। इस प्रकार द्वारका को 
ब्रह्मलोक का द्वार माना गया, जो सत्‍य की अनिर्वचनीय भूमि है। दूसरे शब्‍दों में आध्‍यात्मिक रूप से यह मुक्ति का द्वार है।
         द्वारका नियोजित रूप से बसा शहर था, जहां छह सुसंगठित क्षेत्र थे- आवासीय, व्‍यावसायिक जोन, चौड़ी सड़कें, चौक, महल और कई सार्वजनिक सुविधाएं। जन सभाएं एक हाल में आयोजित होती थीं, जिसे सुधर्म सभा (सत्‍य धर्म सभा) कहा जाता था। नगर में सात ऐसे स्थान थे, जो सोने, चांदी व अन्‍य कीमती पत्‍थरों से बने थे, साथ ही सुंदर बाग व झीलें भी थीं। पूरा नगर चारो ओर से पानी से घिरा हुआ था, यहा से मुख्‍य भूमि तक जाने के लिए पुल बने हुए थे।
 जलमग्‍न द्वारका:-   
यह माना जाता है कि श्रीकृष्‍ण की मृत्‍यु और यादव वंश के पतन के पश्‍चात आई एक भयानक बाढ़ में द्वारका के साथ-साथ पूरा सोने का शहर भी समंदर की गहराई में डूब गया। हालांकि, वर्तमान की खुदाई हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्‍या इस दंतकथा का कोई ऐतिहासिक आधार है, जैसे कि सभी दंतकथाओं का होता है। ऐसा माना जाता है कि नगर समुंदर में जलमग्‍न हो गया और विभिन्‍न सभ्‍यताओं ने छह बार इसका पुनर्निर्माण कराया। आधुनिक युग में द्वारका का निर्माण सातवीं बार उसी क्षेत्र में हुआ। वर्तमान में द्वारका के अवशेष अरब समुद्र में गोमती नदी के मुहाने पर स्थित हैं और दूसरे विख्‍यात ऐतिहासिक और धार्मिक स्‍थलों की तरह ही द्वारकाधीश मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। ऐसा माना जाता है कि भगवान श्रीकृष्‍ण की अनन्‍य भक्‍त मीराबाई ने अपने प्राणों का परित्‍याग यहीं पर किया था। प्रतिवर्ष जन्‍माष्‍टमी के उत्‍सव में भाग लेने के लिए पूरे विश्‍व से हजारों भक्‍तगण यहां आते हैं। 
वास्‍तविकता क्या :-
ऐसे कई सिद्धान्‍त हैं जो द्वारका के वास्‍तविक स्‍थान के बारे में सुझाव देते हैं। लेकिन कई ऐसे पुरातात्विक संकेत हैं जो इस विश्‍वास का समर्थन करते हैं कि प्राचीन द्वारका वर्तमान द्वारका के ठीक नीचे और बेट द्वारका से आगे उत्‍तर दिशा में है, दक्षिण में ओखमंडी और पूर्व में पिंडारा है।
        अभी हाल ही में मिली जानकारी यह संकेत करती है कि प्राचीन द्वारका की कथाओं का ऐतिहासिक आधार है। खुदाई के दौरान जो तीस तांबे के सिक्‍के, शिलाखंड का आधार, वर्तुल और पुराने समय के प्राचीन मिट्टी के बर्तन के नमूने मिले थे, वे 1500 ईसा पूर्व के हैं।
         भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण संस्‍था द्वारा समुद्री जल पर पानी के अंदर किया गया हालिया शोध यह दर्शाता है कि दो सहस्राब्दि पूर्व यहां एक नगर का अस्तित्‍व था। खोए हुए नगर की सन 1930 से खोज जारी है। सन 1983-1990 के बीच हुई छानबीन से यह पता चला कि नगर नदी के किनारे छह खण्‍डों में बसा हुआ था। उन्‍हें द्वारका नगरी के अवशेष भी मिले हैं, समुद्र में जिनका विस्‍तार आधे किलोमीटर से भी अधिक क्षेत्र में है। शिलाखण्‍ड के आधार पर सीधे बनीं दीवारें यह सिद्ध करती हैं कि भूमि वापस समुद्र में चली गई थी। समुद्री पुरातत्‍व इकाई द्वारा की गई खोज और प्रचीन लेखों में द्वारका के प्रारूप का वर्णन एक समान है।
       श्री कृष्ण जन्म को लेकर विद्वानों में मतभेद है अलग- अलग शोध में कृष्ण के जन्म की तारीख अलग-अलग बताई गई है। पहला शोध- 3112 ईसा पूर्व (यानी आज से 5125 वर्ष पूर्व) को हुआ। ब्रिटेन में रहने वाले शोधकर्ता ने खगोलीय घटनाओं, पुरातात्विक तथ्यों आदि के आधार पर कृष्ण जन्म और महाभारत युद्ध के समय का वर्णन किया है। ब्रिटेन में कार्यरत न्यूक्लियर मेडिसिन के फिजिशियन डॉ. मनीष पंडित ने महाभारत में वर्णित 150 खगोलिय घटनाओं के संदर्भ में कहा कि महाभारत का युद्ध 22 नवंबर 3067 ईसा पूर्व को हुआ था। इन गणनाओं के अनुसार कृष्ण का जन्म र्इसा पूर्व 3112 में हुआ था, यानि महाभारत युद्ध के समय कृष्ण की उम्र 54-55 साल की थी।अपनी खोज के लिए टेनेसी के मेम्फिन यूनिवर्सिटी में फिजिक्स के प्रोफेसर डॉ. नरहरि अचर द्वारा 2004-05 में किए  गए शोध का हवाला भी दिया। इसके संदर्भ में उन्होंने पुरातात्विक तथ्यों को भी शामिल किया। जैसे कि लुप्त हो चुकी सरस्वती नदी के सबूत, पानी में डूबी द्वारका और वहाँ मिले कृष्ण बलराम के की छवियों वाले पुरातात्विक सिक्के और मोहरे, ग्रीक राजा हेलिडोरस द्वारा कृष्ण को सम्मान देने के पुरातात्विक सबूत आदि। 
कृष्ण जन्म को लेकर ऐतिहासिक प्रमाणिकता :-   
भारतवर्ष में मानव सभ्यता का इतिहास कितना प्राचीन है, इसका अंदाजा हम हडप्पा और मोहन जोदाडों से लेकर पुरातत्व के अवशेषों से लगा सकते हैं। इस अति प्राचीन और पवित्र धरती पर कई महापुरुष भी हुए। ऐसा ही ऐतिहासिक नाम है, भगवान श्री कृष्ण का, जिनका वर्णन प्राचीन ग्रंथों से लेकर आज भी जीवंत है। लेकिन उनका जन्म किस सन् में हुआ इसकी अभी तक कोई पुष्ट जानकारी नहीं थी, परंतु खगोलीय गणनाओं, गणितीय संक्रियाओं एवं आधुनिक सॉफ्टवेयर की मदद की गई। एक खोज के अनुसार यह दावा किया गया है कि भगवान श्री कृष्ण का जन्म 21 जुलाई 3228 ईसा पूर्व में हुआ था।
आधुनिक साफ्टवेयर की ली मदद:-
 विशेषज्ञों के अनुसार श्रीकृष्ण के जन्म के समय वर्णित घटनाओं को संदर्भ लेने पर 5 हजार वर्ष पूर्व जाना दुस्साहस हो सकता है, परंतु इन गणितीय खगोलीय संक्रियाओं को हम पारंपरिक गणितीय विधियों द्वारा हल कर सकते हैं। इसमें आधुनिक साफ्टवेयरों की सहायता से किसी भी पूर्व या संभावित ग्रह स्थिति का पुनः चित्रण कर क्रास चैक किया जा सकता है।
संकेतों और श्लोंकों का अध्ययन:-
अध्ययन के मुताबिक पहले भारतीय पंचांग सातवर्षीय रहा है, जिसमें 2700 वर्षों का एक चक्र था। इसकी गणना आकाश में सप्तर्षि तारामंडल की गति के संक्रमण द्वारा की जाती थी। जिसे 27 नक्षत्रों में विभाजित किया गया था। धर्मग्रंथों में श्रीकृष्ण जन्म के संदर्भ में जो संकेत हैं, वे भाद्रपद माह की अष्टमी को रोहणी नक्षत्र में अर्धरात्रि को हुए। उपरोक्त सकेतों का वर्णन विस्तार से श्री विष्णु पुराण, महाभारत व श्रीमदभागवत में हैं। श्री विष्णु पुराण के 38 वें अध्याय में एक श्लोंक के अनुसार श्रीकृष्ण की मृत्यु के दिन कलियुग का प्रारंभ हुआ। श्रीमदभागवत पुराण के खंड 11 के अध्याय छह में एक श्लोक में ब्रम्हा, श्रीकृष्ण की आयु के संदर्भ म कहते हैं, कि श्रीकृष्ण के जन्म के 125 वर्ष हो चुके हैं।
कर्नाटक मंदिर का अभिलेख :-
धर्मशास्त्रों के अनुसार कलियुग का आरंभ 3102 ईसा पूर्व से माना जाता है, क्यों हमारे सभी पंचांग या ज्योतिषीय गणनाओं के आधार पर 1991ई. तक कलियुग के 5100 वर्ष बीत चुके हैं। इस तरह गणितज्ञ आर्यभट्ट ने खगोलीय निबंध आर्यभट्टीय एवं संदर्भ में महाभारत के समय की खगोलीय घटनाओं का वर्णन है। जब श्रीकृष्ण 90 वर्ष के थे। तब दुर्लभ चंद, सूर्यग्रहण दोनों का होना। औष्ण पक्ष की अवधि घटकर 13 दिन हो जाना एवं आकाश में एक धूमकेतू का चमकते हुये गुजर जाना। उपरोक्त खगोलीय घटनाओं का वर्णन कर्नाटक के एक मंदिर में पाए गए अभिलेख के अनुसार भी सही पाया गया है।
श्रीकृष्ण की कुंडली भी तैयार:-  
विशेषज्ञों के अनुसार कलियुग प्रारंभ होने यानी 3102 ईसा पूर्व से 125 वर्ष घटाने पर कृष्ण के जन्म का वर्ष निकलता है जो कि 3228 ईसा पूर्व है। बाकी का कार्य ग्रहों की स्थिति डालते हुये श्री कृष्ण भगवान की कुंडली बन जाती है। 21 जुलाई 3228 ईसा पूर्व कृष्ण के जन्म के समय वर्णित सभी परिस्थितियों को संतुष्ट करने वाली तिथि है, इसी अधार पर कृष्ण की आयु में 125 वर्ष जोडने पर कृष्ण का अवसान 18 फरवरी 3102 ईसा पूर्व दोपहर को हुई थी। मृत्यु की घटनाओं से पूर्णतः मेल खाती है।







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