Thursday, March 1, 2018

जीवन जीने की कला - आचार्य राधेश्याम द्विवेदी


                                 Image result for जीवन जीने की कला
आज का मनुष्य उस जलधारा की भांति हो गया है जिसे किसी ने किसी पहाड़ की चोटी से गिरा दिया हो, और वह उस छोटी से बिना सोचे समझे टेढ़े-मेढ़े रास्तों से पूरी रफ्तार से किसी भी हाल में नीचे पहुंचना चाहती है, भले उसे यह मालूम नहीं कि नीचे पहुंचकर क्या उसका अस्तित्व रहेगा। वह अपने जीवन को सुकून से भरने के लिए जीवन में इतनी गति पकड़ लेता है किअंत में जाकर उसके पास उन सुखों को जीने का वक्त ही नहीं होता और वह अपना पूरा जीवन दुखमय कर चुका होता है। अंत में साथ होता है तो जीवन जीने का पछतावा, खालीपन का बोझ, और असंतुष्टि से भरा हुआ मन। अपने जीवन को रफ्तार तब दें अगर आप उस रफ्तार में भी जीवन का आनंद लेने की कला को जानते हो। अपनी सांसो को महसूस करें , और सुने कि वह तुमसे क्या कह रही हैं अपने होने को महसूस करें अपने वजूद को महसूस करें ,और जीवन में खुशी के लिए किसी चमत्कार की आशा बिल्कुल ना करें। क्योंकि अगर जीवन की छोटी-छोटी बातों से आप खशी लेना सीख गए, तो आप पाएंगे कि आपके जीवन में चमत्कार हो रहे हैं।
जीवन एक यात्रा है जिसमें हम सब को कुछ विशिष्ट समय मिलता है जिसमें हम अपने जीवन के विभिन्न कार्य क्लपों का निर्वाह करते हैं। आयु कितनी भी लम्बी क्यों ना हो, हम कभी भी संतुष्ट नही होते और जीवन जीने के लिये अतिरिक्त वर्षों की कामना करने लगते हैं।जीवन का यह खेल अधभुत और निराला है।पहले पसीस वर्ष अपने करियर बना ने में लग जाते हैं। पचास वर्ष की आयु तक ग्रहस्थ बनकर गढहे की भांती परिवार का भोज उठाता है। जब परिवार को उसकी ज़रूरत नही लगती तो वह घर में केवल कुत्ते की भांति रखवाली करने के लिये छोड़ दिया जाता है। फिर बारी आती है उल्लू समान जीवन जीने की यानी नींद कम आती है और रातें भी जाग कर काटनी पड़ती हैं । जीवन की प्रत्येक अवस्था में कुछ ना कुछ लगा ही रहता है पर फिर भी हम हैं की सुधरते ही नहीं। यह सब देखकर, बेहतर यह है की हम शुरु से ही भगवान के साथ जुड़ें। अपनी सांसारिक ज़िम्मेदारियों में इतना ना उलझें की अपने जीवन की खेर खबर ही ना रहे। शुरु से ही जीवन में संतुलन लायें और केवल संसार से अपना मन हटा कर भगवान को भी याद करते रहें। यदि हम ऐसा करते हैं तो जीवन की अंतिम चरण की यात्रा सुखद और शांत हो सकती है.जीवन की यात्रा का अर्थ यह नहीं कि अच्छे से बचाकर रखा हुआ आपका शरीर सुरक्षित तरीके से श्मशान या कब्रगाह तक पहुँच जाय। बल्कि आड़े-तिरछे फिसलते हुए, पूरी तरह से इस्तेमाल होकर, सधकर, चूर-चूर होकर यह चिल्लाते हुए पहुँचो - वाह यार, क्या यात्रा थी
प्राकृतिक दिनचर्या, प्रसन्नता, प्रफुल्लता से युक्त जीवनक्रम अपनाने वाले मनुष्यों में भी अधिकाँशतः चिरयुवा बने रहे। ढलती उम्र में भी उनमें असाधरण उत्साह एवं उमंग देखा गया। चर्चिल वृद्धावस्था को सर्वोत्तम काल कहते थे। उनका कहना था, जबानी खिला हुआ है तो बुढ़ापा पका हुआ फल -एक रंग का खजाना दूसरा रस का कलश। दोनों की अपनी सुवास है और अपना सौर्न्दय। इस दृष्टिकोण के करण ही उनमें 80 वर्ष की आयु में भी युवकों जैसी उमंग और बच्चों जैसी मस्ती थीं। इग्लैण्ड के शासकीय कार्यो में भी आयु के अन्तिम अवधि में भी वह परामर्श देते रहे। महात्मा गाँधी 80 वर्ष की आयु में भी अपने को युवक मानते थे। उनकी फुर्ती देखते बनती थी। वृद्धावस्था में भी बर्नाइश की चुस्ती एवं फुर्ती को देखकर उनके युवा होने का सन्देह होने लगता थाँ उसका कारण वे सक्रियता, प्रसन्नता, प्रफुल्लता एवं प्राकृतिक दिनचर्या को बताते थे।
एक जापानी सन्त का कथन है-बुढ़ापे की झुर्रियाँ, ईश्वर का दिया हुआ वरदान है। निश्चय ही प्रसन्नता मुख्य मण्डल पर सतत बनी रही तो वृद्धावस्था, अभिशाप नहीं बन सकती है। भूतपूर्व राष्ट्रपति सर्वपल्ली डाँ. राधाकृष्णन ने चिरयौवन का रहस्य बताते हुए कहा है कि चिरयुवा बने रहने के लिए मनुष्य को हंसमुख स्वभाव को वास्तविक एवं गम्भीर रुप में विकसित करना चाहिए। उन्होने संयमित प्रकृति के अनुरुप आहार-बिहार को चिरयौवन की कुन्जी माना।
डाँ. मेलविल कीथ अपनी पुस्तकरायल रोड टू हेलमें लिखते है कि अप्राकृतिक दिनचर्या के कारण मानव जाति दिन-प्रतिदिन शक्ति सामथ्य की दृष्टि से क्षीण होती जा रही हैं जिसका प्रतिफल है असमर्थ बुढ़ापा-अनेकानेक रोगों की उत्पत्ति। मनुष्य को प्रकृति के अन्य पशु-पक्षियों से प्ररेणा लेनी तथा अनुकरण करनी चाहिए जो आयु के अन्तिम समय में भी असीम उत्साह एवं उमंग से भरे रहते है। जबकि मनुष्य अनेकों प्रकार के रोगों से ग्रस्त हुआ रोते-कलपते जीवन के अन्तिम दिन पूरे करता है।
अविकसित प्राणी जो मनुष्य से हर दृष्टि से छोटे है। उनके पास तो रहने के मकान है ही अन्य साधन। कल के लिए आहार की समस्या है। संचय के नाम पर कुछ भी नहीं है। ऐसी स्थिति में भी सदा स्वस्थ एवं प्रसन्न चित्त रहते है। वृद्धावस्था की असमर्थता का अभिशाप उन्हें नहीं लगने पाता। जबकि मनुष्य साधनों, योग्यता, प्रतिभा की दृष्टि से सबसे आगे है। फिर भी रोग-कलेशों का, असमर्थता का, बुढ़ापे का रोना उसे ही रोना पड़ता है। निस्सन्देह यह अप्राकृतिक रहन-सहन, अनावश्यक चिन्ताओं एवं आशंकाओं का ही दुष्परिणाम है। शारीरिक सक्रियता, मानसिक प्रसन्नता एवं प्रफुल्लता बनी रहे तो कोई कारण नहीं है कि उसे चिर-यौवन के आनन्द से वंचित रहना पड़े। इस तथ्य को समझा एवं अपनाया जा कसे तो उसी प्रकार जीवनपर्यन्त स्वस्थ एवं प्रसन्न चित्त रहा जा सकता है। जिस प्रकार पशु-पक्षी।
कैसे बने रहे युवाअनावश्यक चिंता-बहस, नशा, स्वाद की लालसा, असंयमित भोजन, गुटका, पाऊच, तम्बाकू और सिगरेट के अलावा अतिभावुकता और अतिविचार के चलते बहुत से युवाओं के चहरे की रंगत उड़ी हुई है। मुरझाए हुए मुख देखकर लगता है जैसे किसी ने प्यारे से फूल परजहर छिड़क दिया हो। सब कुछ छोड़ने का संकल्प तो लेने ही पड़ेगा, वर्ना जियो वैसी ही जैसा अब तक जीते आए हो और यह आलेख पढ़ना तुरंत छोड़ दो। युवावस्था में तेज रफ्तार गाड़ी, भड़कीला संगीत, आक्रमक जीवन-शैली, जिम में अतिरिक्त मेहनत और संघर्ष करने की प्रवृत्ति ज्यादा नजर आती है, लेकिन उम्र बढ़ते ही स्वभाव की यह उग्रता, गुस्सा और संघर्ष की क्षमता कम होती जाती है, लेकिन चिड़चिड़ाहट बढ़ जाती है। ऐसा व्यक्ति खतरों की तुलना में सुरक्षा को ज्यादा तवज्जो देता है। जोखिम भरे और जिम्मेदारी के कार्य से बचता है। याददाश्त कम होकर भावुकता बढ़ने लगती है। पुरुषों में होने वाले इस तरह के मनोवैज्ञानिक, व्यावहारिक और शारीरिक परिवर्तन को मेडिकल साइंस में एंड्रोपॉज कहा जाता है। 
योग कहता है कि यह दो तरह की अतियाँ हैं। यदि आप युवावस्था में व्यर्थ के कार्यों में उर्जा का अतिरिक्त क्षय करते हैं तो फिर एक समय बाद आपको दूसरी अति पर जाना पड़ेगा, तो बचाओ अपनी एनर्जी। बहस, दिमागी द्वंद्व, व्यर्थ का गुस्सा और अव्यवस्थित कार्य प्रणाली तथा जीवन शैली से आपके कार्य, व्यवहार और शरीर तथा मन की क्षमता का पतन होता है। सवाल उठता है कि फिर युवा क्या करें। योग और बौद्ध धर्म कहता है कि मध्यम मार्ग अपनाओ।
आप युवा हैं या नहीं है यदि युवा बने रहना चाहते हैं तो योग से बेहतर विकल्प नहीं। जिम आपके शरीर को तोड़ देगा, लेकिन योग सिर्फ जोड़ने का कार्य करना है। आपमें जो नहीं है उसे ब्रह्मांड के किसी भी कोने से खिंचकर ले आएगा योग। जब तक युवत्व आपके पास है तब तक संसार भी आपके साथ है। योग से जोश और होश दोनों ही बरकरार रहता है। चेहरे पर तेज और भुजाओं में ताकत बनी रहेगी और दिमाग की धार भी तलवार की चमक के साथ चमकती रहेगी।
उम्र का रहस्यकछुए की साँस लेने और छोड़ने की गति इंसानों से कहीं अधिक दीर्घ है। व्हेल मछली की उम्र का राज भी यही है। बड़ और पीपल के वृक्ष की आयु का राज भी यही है। वायु को योग में प्राण कहते हैं। प्राचीन ऋषि वायु के इस रहस्य को समझते थे तभी तो उन्होंने बढ़ती उम्र को रोक देने का शॉर्ट कट निर्मित किया। श्वास को लेने और छोड़ने के दरमियान घंटों का अंतराल प्राणायाम के अभ्यास से ही संभव हो पाता है। आप क्यों नहीं प्राणायाम करते हैं?
योगा पैकेज पाँच मिनट में सूर्य नमस्कार होता है और पाँच मिनट में कपालभाती प्राणायाम, बस हो गया काम खतम। शंख प्रक्षालन, ताड़ासन, त्रिकोणासन, पश्चिमोत्तनासन, उष्ट्रासन, धनुरासन और नौकासन करने के बाद प्राणायाम और ध्यान कर लें और यदि योगा मसाज को जोड़ लेंगे तो मजा जाएगा, फिर भूल जाएँ बुढ़ापे को। हाँ, इस सब को सीखकर करने में समय तो लगेगा ही, लेकिन यदि एक बार सीख लिया तो फिर घर पर करने में मात्र एक घंटा। एक फार्मेट तैयार कर लें शौच और ब्रश करने के बाद योगा करने का।
 चिर युवा रहने के खास उपाय :- सुखमय वृद्धावस्था के लिए अपने स्वयं के स्थायी स्थान पर रहें ताकि स्वतंत्र जीवन जीने का आनंद ले सकें! अपना बैंक बेलेंस और भौतिक अमूल्य संपत्ति सदा अपने पास रखें!  अपने बच्चों के इस वादे पर निर्भर ना रहें कि वो वृद्धावस्था में आपकी सेवा करेंगे, क्योंकि समय बदलने के साथ उनकी प्राथमिकता भी बदल जाती है! उन लोगों को अपने मित्र समूह में शामिल करें जो आपको जीवन को प्रसन्न देखना चाहते हैं!  किसी के साथ अपनी तुलना ना करें और ना ही किसी से कोई उम्मीद ना रखें!अपनी संतानों के जीवन में दखल अन्दाजी ना करें, उन्हें अपने तरीके से अप ना जीवन जीने देंऔर आप अपने तरीके से अपना जीवन जीएँ! अपनी वृद्धावस्था को आधार बनाकर किसी से सेवा करवाने, सम्मान पाने का प्रयास ना करें। लोगों की बातें सुनें लेकिन अपने स्वतंत्र विचारों के आधार पर निर्णय लें। प्रार्थना करें लेकिन भीख ना मांगे, यहाँ तक कि भगवान से भी नहीं। अगर भगवान से कुछ मांगे तो सिर्फ माफ़ी या हिम्मत! सबकुछ दिया ईश्वर का ही है और वह आपका सच्चा सहायक है। अपने स्वास्थ्य का स्वयं ध्यान रखें, चिकित्सीय परीक्षण के अलावा अपने आर्थिक सामर्थ्य अनुसार अच्छा पौष्टिक भोजन खाएं और यथा सम्भव अपना काम अपने हाथों से स्वयं करें! अपने जीवन से कभी थकें नहीं हमेशा प्रसन्न रहे!  प्रति वर्ष  अपने जीवन के साथी केसाथ भ्रमण/ यात्रा पर एक या अधिक बार अवश्य जाएं,  इससे आपका जीने का नजरिया बदलेगा! किसी भी टकराव को टालें एवं तनाव रहित जीवन जिऐं!  जीवन में स्थायी कुछ भी नहीं है चिंताएं भी नहीं इस बात का विश्वास करें ! अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को यथासंभव रिटायरमेंट से पहले पूरा कर लें, याद रखें जब तक आप जीना शुरू नहीं करते हैं तब तक आप जीवित नहीं हैं!
कुछ और उपाय
1. फालतू की संख्याओं को दूर फेंक आइए। जैसे- उम्र, वजन, और लंबाई। इसकी चिंता डॉक्टर को करने दीजिए। इस बात के लिए ही तो आप उन्हें पैसा देते हैं। 2. केवल हँसमुख लोगों से दोस्ती रखिए। खड़ूस और चिड़चिड़े लोग तो आपको नीचे गिरा देंगे। 3. हमेशा कुछ सीखते रहिए। इनके बारे में कुछ और जानने की कोशिश करिए - कम्प्यूटर, शिल्प, बागवानी, आदि कुछ भी। चाहे रेडियो ही। दिमाग को निष्क्रिय रहने दें। खाली दिमाग शैतान का घर होता है और उस शैतान के परिवार का नाम है - अल्झाइमर मनोरोग।
4.
सरल साधारण चीजों का आनंद लीजिए।
5.
खूब हँसा कीजिए - देर तक और ऊँची आवाज़ में।
6.
आँसू तो आते ही हैं। उन्हें आने दीजिए, रो लीजिए, दुःख भी महसूस कर लीजिए और फिर आगे बढ़ जाइए। केवल एक व्यक्ति है जो पूरी जिंदगी हमारे साथ रहता है - वो हैं हम खुद। इसलिए जबतक जीवन है तबतक 'जिन्दा' रहिए।
7.
अपने इर्द-गिर्द वो सब रखिए जो आपको प्यारा लगता हो - चाहे आपका परिवार, पालतू जानवर, स्मृतिचिह्न-उपहार, संगीत, पौधे, कोई शौक या कुछ भी। आपका घर ही आपका आश्रय है।
8.
अपनी सेहत को संजोइए। यदि यह ठीक है तो बचाकर रखिए, अस्थिर है तो सुधार करिए, और यदि असाध्य है तो कोई मदद लीजिए।
9.
अपराध-बोध की ओर मत जाइए। जाना ही है तो किसी मॉल में घूम लीजिए, पड़ोसी राज्यों की सैर कर लीजिए या विदेश घूम आइए। लेकिन वहाँ कतई नहीं जहाँ खुद के बारे में खराब लगने लगे।
10.
जिन्हें आप प्यार करते हैं उनसे हर मौके पर बताइए कि आप उन्हें चाहते हैं; और हमेशा याद रखिए कि जीवन की माप उन साँसों की संख्या से नहीं होती जो हम लेते और छोड़ते हैं बल्कि उन लम्हों से होती है जो हमारी सांस लेकर चले जाते हैं





No comments:

Post a Comment