Thursday, January 25, 2018

जिन्दगी का यह यादगार समय - डा. राधेश्याम द्विवेदी

ब्रह्म इस विश्व की सबसे बड़ी परम तथा नित्यचेति सत्ता है, जो जगत का मूल कारण है। उसे ही सत, चित्त आनंद स्वरूप माना जाता है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में पृथ्वी  आकाश  पाताल के समस्त प्राणी, जीव-जन्तु, पेड़-पौधे तथा वनस्पति आदि सभी कुछ इसी में समाहित हैं। इसे हम प्रकृति, परमात्मा, परम पिता, परमेश्वर, परब्रह्म   भगवान इत्यादि अनेक नामों से सम्बोधित करते हैं। अपनी इसी अनादि, अनन्त शक्ति अथवा अपरम्पार क्षमता के कारण भगवान को सर्वोपरि माना गया है। इस ब्रह्माण्ड में स्थित सभी बस्तुयें, जड-चेतन, जीव-जन्तु पंचभौतिक तत्व -पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और पवन से ही अस्तित्व में आये हैं। इसी से जगत के सारे प्राणियों के भौतिक शरीर की रचना होती है। ईश्वर की भांति हर प्राणी पर एक और भार होता है जो जीवन पर्यन्त खत्म नहीं हो पाता है। वह है मातृ और कर्म भूमि का कर्ज, जिसे कोई कभी भी नहीं उतार सकता है। इसलिए इंसान को सदैव मातृ और कर्म भूमि की रक्षा के लिए तत्पर रहना चाहिए।
अपनी जन्म कर्म भूमि हमें मातृभूमि जैसी ही लगनी भी चाहिए। उसका कण-कण हमें पवित्र लगना चाहिए। हमारी मातृभूमि, कोई मिट्टी का ढेर नहीं, वह जड़ या अचेतन नहीं, ऐसी हमारी भावना होनी चाहिये। इस प्रकार की जिनकी भावना और श्रध्दा रहेगी, उनका ही राष्ट्र बनेगा और वे ही राष्ट्र के सच्चे सेवक उत्तराधिकारी कहलाये जा सकते हैं। हमें यह हरगिज नहीं सोचना चाहिए कि देश ने हमें क्या दिया, बल्कि हमें यह सोचना चाहिए कि हमने देश को क्या दिया। जिस देश की मिट्टी में हम पैदा हुए, उसका कुछ कर्ज तो हम चुका सकते हैं। हम पढ़-लिखकर आईएएस और आईपीएस के अलावा प्रख्यात डाक्टर इंजीनियर जो भी बनें, लेकिन हम यह भी चाहते हैं कि हम जहां भी रहें हमारी धमनियों में खून के साथ-साथ देशभक्ति की भावना भी बहती रहे। जब देश सुरक्षित रहेगा तभी हम भी सलामत रह सकेंगे। देश की सुरक्षा सिर्फ हमारी ही नहीं, बल्कि इस मुल्क के हर आम अवाम का फर्ज है।
कभी हमारे जीवन में निराशा आती है तो कभी आशा, कभी सुख तो कभी दुःख , कभी हार तो कभी जीत, कभी सफलता तो कभी असफलता यह क्रम अनवरत रूप से चलता रहता है लेकिन जीवन यहीं पर खत्म नहीं हो जाता वह बढ़ता रहता है साँसों का सफ़र अनवरत रूप से चलता है और हम आगे बढ़ते रहते हैं बस यही जीवन है इस जीवन को हर परिस्थिति में कैसे चलाया जाए ? हम अपनी मानसिक स्थिति को किस तरह नियंत्रित कर सकते हैं ? अगर  इन कुछ बातों को अपनाया जाए तो एक बेहतर जीवन जिया जा सकता है जब हम ऐसा कर पाने में सफल हो जाते हैं तो संसार के लिए हम आदर्श और अनुकरणीय बन जाते है दूसरों के भले के लिए जो सांसें हमने जी हैं, वहीअसली जिंदगी होती है
यह अजीब इत्तफाक ही कह सकते है कि मेरे पिताजी का और मेरा रिटायरमेंट तिथि एक ही रही, ठीक 30 वर्ष वाद उनकी तरह 30.06.2017 को मैं सेवानिवृत्त हुआ। आज से 30 साल पहले 30.06.1987 को वह गोरखपुर से सेवानिवृत्त होकर  उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के मरवटिया पाण्डेय नामक साधनहीन एक छोटे से गांव को अपना आशियाना बनाये थे और मुझे भी ठीक उसी तरह करना पड़ रहा है। जव वह रिटायर हुए थै मैं बड़ौदा में 3 माह सेवा किया था। दूर रहने के कारण इस अवसर के प्रति उतनी जिज्ञासा व लगाव भी नहीं था। मैं पूर्णतः एक ग्राम्य परिवेश का रहने वाला ज्यादा कुछ जानता भी नहीं था। मुझे ना तो मेरे बड़ों ने कोई खास जानकारी दी और ना ही मैं स्वयं अपने को इतना अपडेट ही कर सका था। मेरे नाना जी की मेरी मां इकलौती संतान थी। मा की मां बचपन में ही खत्म हो गई थी। मां की दादी ने मां को पाला पोषा था। बाद में बाबूजी अपने पैतृक जन्मभूमि पर कम तथा इस नेवासा वाले जगह मरवटिया पाण्डेय ज्यादा रहने लगे थे। बाबूजी से लगाव ज्यादा होने के कारण मुझे भी मरवटिया में रहना ज्यादा पसन्द आने लगा था। ईश्वर ने उन्हीं की तरह सारी परिथितियां भी उत्पन्न कर रखी थी।

मैं अक्तूबर 1988 में ब्रजमण्डल के आगरा नामक नगर में राजकीय सेवा के माध्यम से आया था। पूरी निष्ठा इमानदारी से अपने फर्ज को अंजाम देता रहा। यहां से हटने के बारे में भी विचार आया। परन्तु विचार से ही हर बात नहीं बनती है। परम ज्योति -परम सत्ता ही हर गतिविधियों का नियामक होता है। उसकी सर्वोच्चता सदैव बरकरार रहती है। उसके सामान्य नियमानुसार जून 2017 में अपनी सेवामुक्त होने वाली आयु को पूरा करते ही हमें यहां से हटकर अपनी जन्म भूमि वापस चले जाना चाहिए। परन्तु लगता है कि अभी कुछ फर्ज अवशेष रह गये हैं। परम सत्ता ने मुझे यहां रुकने के लिए एक माध्यम उत्पन्न कर दिया।
मेरे बेटों की शिक्षा आगरा में ही हुआ था। वे चिकित्सा जगत से जुड़े हैं। उनके लिए किसी एक जगह से बंधना आवश्यक नहीं था। परन्तु परिस्थितियां एसी बनी कि मेंरे बेटे को दो बार काउंसिलिंग में आगरा का कालेज ही मिला। हो सकता है कि हमारा भी कोई कार्य अधूरा रह गया हो जिसे बाद में इस माध्यम से रुककर मुझे पूरा करना हो। मेरी समझ में भलीभांति गया कि इसे कर्ज कहते हैं जिसे पूरा करना मेरा फर्ज है।
भगवान विष्णु 4 जुलाई 2017 से योग निद्रा में चले गए हैं। अब 21 अक्तूबर 2017 को जग के पालनहार दोबारा जग की सुध लेंगे। इस बीच पूरी सृष्टि का संचालन शिव परिवार करता है। चतुर्मास का प्रारंभ बुधवार 5 जुलाई 2017  से शुरू हो गया है। वैसे तो मेरी मां मध्य मई से अपनी विशिष्ट शारीरिक व्याधि की अवस्था को प्राप्त हो गयी थी। भगवान विष्णु की कृपा से वह अपने अंतिम दिन गिन रही थी। मुझे बुलाने तथ पंचभौतिक शरीर की सद्गति करने के लिए बार-बार दबाव डाल रही थी। जब 4 जुलाई को भगवान विष्णु निद्रा में चले गये तो इस घड़ी का असर भी मेरी मां के स्वास्थ्य और व्याधि पर पड़ा। परम पिता परमेश्वर ने हमेशा हमेशा के लिए उन्हें अपने पास  बुला लिया और मेरा बहुत बड़ा सपना अधूरा का अधूरा रह गया। शायद मेरी इच्छा वह पूरी करना ही नहीं चाहता था।

एक इतिहास तथा पुस्तकालय विज्ञान के सेवक के रूप में मैंने 30 साल के कार्यकाल में नियमानुसार और जरुरत से ज्यादा लागों के ज्ञान के यज्ञ में अपनी आहुति देने का प्रयास किया हैं। इस मिशन में अच्छे और बुरे हर तरह के लोगों के अनुभवों का सामना करना पड़ा। यह मेरा अनुभव रहा कि इस व्यवसाय में लोग ईमानदारी से सहयोग नहीं करते और अपने सीमित स्वार्थ तथा क्षणिक लाभ के लिए दूसरे के अधिकारों का हनन भी करने से चूकते नहीं है। जीवन के ये आखिरी लम्हें बहुत कष्टप्रद तथा यादगार रहे। मेरे संचित पुण्य सम्भवतः समाप्त हो गये थे। हमें एक एक करके अनेक समस्याओं से दो चार होना पड़ा। जिस विभाग एवं संस्थान के लिए मैंने अपनी पूरी जिन्दगी खपाई, जिस सेवा भाव को मैं अपने जीवन के सफर में प्राथमिकता पर रखा था। उससे लाभ लेकर मेरे अभिन्न या खास जन ही समय खराब या पद समाप्त होते ही प्रतिकूल सा व्यवहार करने लगे। मैंने अपने इन आत्मीयों से जो आपेक्षा रखी थी उसे पूरा करना तो दूर उसके विरुद्ध और प्रतिकूल व्यवहार तथा आचरण करने में भी वे तनिक गुरेज नहीं किया है। खैर ! हमने तो ईश्वर की भवितव्यता समझ इसे भी अंगीकार करना अपना धर्म समझ लिया है। अब भी मैं उन सबके कल्याण तथा मंगलमय भविष्य की कामना ही परम पिता परमेश्वर से करता हॅू।

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