Tuesday, September 5, 2017

पितृपक्ष में श्राद्ध कर्म --डा. राधेश्याम द्विवेदी

पितृपक्ष में श्राद्ध कर्म के लिए चित्र परिणाम
हिन्दू धर्म में तीन प्रकार के ऋण के बारे में बताया गया है, देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण। इन तीनों ऋण में पितृ ऋण सबसे बड़ा ऋण माना गया है। शास्त्रों में पितृ ऋण से मुक्ति के लिए यानि श्राद्ध कर्म का वर्णन किया गया है। यमराज हर साल पितृपक्ष में सभी जीवों को 15 या 16 दिनो के लिए छूट दे देते हैं।छूट दे हैं। जिससे वो अपने लोगों के पास जाकर तर्पण यानि भोजन, जल आदि ग्रहण कर सकें। शास्त्रों के अनुसार पितर ही अपने कुल की रक्षा करते हैं श्राद्ध को तीन पीढ़ियों तक करने का विधान बताया गया है। तीन पूर्वजों में वसु को पिता के समान, रूद्र को दादा के समान और और आदित्य देव को परदादा के समान माना जाता है। श्राद्ध के समय यही तीन पूर्वज अन्य पूर्वजों का प्रतिनिधित्व करते हैं। 


हिन्दू धर्म में मान्यता है कि आश्विन कृष्ण पक्ष में हमारे पूर्वज इस धराधाम पर आते हैं,और अपने हिस्से का अन्न जल किसी किसी रुप में ग्रहण करते हैं। इस तिथि पर सभी पितृगण अपने वंशजों के द्वार पर आकर अपने हिस्से का भोजन सूक्ष्म रुप में ग्रहण करते हैं और आशीर्वाद देते हैं। हमारा दायित्व बनता है कि जो पूर्वज अब हमारे साथ नहीं है,लेकिन उनका आशिष हमें मिलता रहे।इसलिए अपनो की उन्नती और विकास के लिए हमारे पितृदेव श्राद्ध के समय हमें कृतार्थ करने के लिए पृथ्वी पर आते हैं और समस्त हिन्दू समाज के लोग अपनी श्रद्धा और सामर्थय्नुसार अपने पूर्वजों के लिए श्रद्दापूर्वक श्राद्ध करते हैं।
जैसे मनुष्यों का आहार अन्न है, पशुओं का आहार तृण है, वैसे ही पितरों का आहार अन्न का सार-तत्व (गंध और रस) है। अत: वे अन्न जल का सारतत्व ही ग्रहण करते हैं। शेष जो स्थूल वस्तु है, वह यहीं रह जाती है।जिस प्रकार बछड़ा झुण्ड में अपनी मां को ढूंढ़ ही लेता है, उसी प्रकार नाम, गोत्र, हृदय की भक्ति एवं देश-काल आदि के सहारे दिए गए पदार्थों को मन्त्र पितरों के पास पहुंचा देते हैं।जीव चाहें सैकड़ों योनियों को भी पार क्यों कर गया हो, तृप्ति तो उसके पास पहुंच ही जाती है।जिस प्रकार बछड़ा झुण्ड में अपनी मां को ढूंढ़ ही लेता है, उसी प्रकार नाम, गोत्र, हृदय की भक्ति एवं देश-काल आदि के सहारे दिए गए पदार्थों को मन्त्र पितरों के पास पहुंचा देते हैं।जीव चाहें सैकड़ों योनियों को भी पार क्यों कर गया हो, तृप्ति तो उसके पास पहुंच ही जाती है।जिस प्रकार बछड़ा झुण्ड में अपनी मां को ढूंढ़ ही लेता है, उसी प्रकार नाम, गोत्र, हृदय की भक्ति एवं देश-काल आदि के सहारे दिए गए पदार्थों को मन्त्र पितरों के पास पहुंचा देते हैं।जीव चाहें सैकड़ों योनियों को भी पार क्यों कर गया हो, तृप्ति तो उसके पास पहुंच ही जाती है।
श्राद्ध फल से ना सिर्फ हमारे पितरों की आत्मा को शांति मिलती है बल्कि हमें विशेष रुप से हमारे पितर हमारे जीवन सुख शांती के लिए आशीर्वाद भी देते हैं। इसलिए हमें आवश्यक रुप से वर्ष भर में पितरों की मृत्युतिथि को सर्वसुलभ जलतिलयवकुश और पुष्प आदि से उनका श्राद्ध संपन्न करना चाहिए और सामर्थ्यानुसार ब्राह्मण देव को भोजन प्रसाद ग्रहण करवाना चाहिए पुण्य के भागी बनना चाहिए श्राद्धों में सात पदार्थों को ग्रहण करने से पितृ बहुत खुश होते हैं जैसे गंगाजल, दूध, शहद, तरस का कपड़ा, दौहित्र, कुतप (कुश) और तिल।चना, मसूर, बड़ा उड़द, कुलथी, लहसुन, प्याज, सत्तू, रेंड, मूली, काला जीरा, कचनार, खीरा, काला उड़द, काला नमक, लौकी, बड़ी सरसों, काल सरसों की पत्ती, शतपुष्पी तथा बासी, अपवित्र फल या अन्न श्राद्ध में अर्पित नहीं करने चाहिए।
            जमीन के नीचे पैदा होने वाली सब्जियां पितरों को नहीं चढ़ती हैं ।शास्त्रों में वर्णन मिलता है की जिस प्रकार तुलसी के अभाव में ठाकुर जी का भोजन अधूरा माना जाता है। उसी तरह से पितरों को खुश करने के लिए जितने भी भोग अर्पित कर दें मगर तुलसी से पिंड की पूजा करने पर ही पितरों की तृप्ति होती है। तृप्त होने के बाद वह गरुड़ पर सवार होकर खुशी-खुशी विष्णुलोक में वास करते हैं। श्राद्ध सम्पन्न होने पर कौवे, गाय, कुत्ते, चींटी तथा भिखारी को भी यथा नियम भोजन वितरित करना चाहिए।साधारणत : प्रतिदिन किया जाने वाला तर्पण दोनों हाथों से किया जाता है लेकिन श्राद्ध में किया जाने वाला तर्पन केवल दाहिने हाथ से किया जाना चाहिए। तर्पण के लिए शुक्रवार, रविवार, संक्रांति, युगादि मन्वादि तिथियों में तिल का तर्पण निषिद्ध है।

तिल-तर्पण खुले हाथ से देना चाहिए। तिलों को रोओं में या हस्तमूल में लगे नहीं रहना चाहिए।यदि किसी कारण श्राद्धों में पितरों का श्राद्ध छूट गया हो तो अमावस्या के दिन सर्वप्रथम छूटे हुए श्राद्ध के निमित्त विधिपूर्वक श्राद्ध कर्म करना चाहिए और उसके बाद पितृ विसर्जन तर्पण करके भोजन ग्रहण करना चाहिए। ब्रह्म पुराण (220/143 )में  पितृ गायत्री मंत्र दिया गया है ,इस मंत्र कि प्रतिदिन 1 माला या अधिक जाप करने से पितृ दोष में अवश्य लाभ होता हैमंत्र :-
ऊॅ क्री क्लीं ऐं सर्व पितृभ्यो स्वात्म सिद्धये ऊॅ फट।।
ऊॅ सर्व पितृ प्रं प्रसन्नो भव ऊॅ ।।
देवताभ्यः पित्रभ्यश्च महा योगिभ्य एव   |
नमः स्वाहायै   स्वधायै  नित्यमेव नमो नमः  ||
साथ ही साथ यह जाप भी किया जा सकता है. 1. कुलदेवतायै नम: (21 बार)   2. कुलदैव्यै नम: (21 बार)   3. नागदेवतायै नम: (21 बार)   4. पितृ दैवतायै नम: (108 बार)
श्राद्ध कर्म करने वालों को निम्न मंत्र तीन बार अवश्य पढ़ना चाहिए। यह मंत्र ब्रह्मा जी द्वारा रचित आयु, आरोग्य, धन, लक्ष्मी प्रदान करने वाला अमृतमंत्र -  देवताभ्य: पितृभ्यश्च महायोगिश्च एव च।
नम: स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव भवन्त्युत।। 


समस्त परिवार प्रसन्नता विनम्रता के साथ अपने पितरों को भोजन परोसे और ब्राह्मण भोजन करवाने के पश्चात ही स्वयं भोजन ग्रहण करें।श्राद्ध कर्म जब तक हो रहा हो तब तक पुरुष सूक्त तथा पवमान सूक्त का जप निरंतर होते रहना चाहिए। ब्राह्मण देव जब भोजन प्रसाद ग्रहण कर लें तब अपने पितृदेव से प्रार्थना करनी चाहिए-
दातारो नोअभिवर्धन्तां वेदा: संततिरेव च॥
श्रद्घा नो मा व्यगमद् बहु देयं नोअस्तिवति।
इसके बाद ब्राह्मणों की प्रदक्षिणा, दक्षिणा देकर उनका आशीर्वाद लेना चाहिए और उन्हें विदा करना चाहिए



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