Saturday, September 2, 2017

सृष्टि के संतुलन में मृत्यु की भूमिका - डा. राधेश्याम द्विवेदी




’सौ लाख पूत सवा लाख नाती तेहि रावन घर दिया ना बाती’’ यह कहावत संसार की नश्वरता का बोध कराता है। जब एक शक्ति व प्रतिभा सम्पन्न रावण के परिवार के साथ नश्वरता की इतनी बड़ी घटना घट सकती है तो आम नागरिक का क्या विसात है। हमें अपने सम्पन्नता में अपना संतुलन कभी नहीं खोना चाहिए और सदैव अच्छे आचरण व लक्ष्य का अनुकरण करते रहने चाहिए।संसार में आज जो अमन दिखलाई पड़ रहा है, धुली हुई चाँदनी सी शान्ति जो चारों ओर छिटकी हुई है।इसके पीछे भी किसी अदृश्य शक्ति का हाथ होता है। इसमें सबसे अधिक श्रेय मृत्यु का है संसार में आज तक जितने जीव - जन्तु ,कीड़े-मकोड़े, साँप- बिच्छू, चिड़ियाँ-चुरंगा और मनुष्य उत्पन्न हुए, यदि वे सबके सब जीते होते, जितने पेड़ उगे, लता-बेलियाँ जनमीं, यदि वे सब मौजूद होतीं, तो आज इस पृथ्वी पर बहुत अजीब सी हलचल होती रहती । तो रहने को कहीं जगह होती, खाने को अन्न मिलता, सब ओर जंगल खड़ा होता, और चारों ओर एक हंगामा सा बरपता रहता।
यह मृत्यु का ही कमाल है, कि आज संसार इस खलबली से बचा हुआ है। मृत्यु का प्रभाव मनुष्य के चाल चलन और विचारों पर भी कम जादू नहीं करता, उपनिषद कहते हैं, कि ''बुराइयों से बचने की सबसे अच्छी औषधी मृत्यु की याद है, क्योंकि जिसको मृत्यु की स्मृति ठीक-ठीक होती है, उससे बुराई हो ही नहीं सकती और यही कारण है कि हमारे यहाँ मृत्यु की ओर दृष्टि अधिकता से फेरी गयी है। बात-बात में उसकी याद दिलाई गयी है। हमारे यहाँ ही नहीं, संसार में जितने कवि, पण्डित, महात्मा और साधु संत हो गये हैं, उन सभी लोगों ने मृत्यु पर दृष्टि रखकर ऐसी-ऐसी बातें कही हैं, ऐसी जी में चुभ जाने वाली शिक्षाएँ दी हैं, जो अपना बहुत बड़ा प्रभाव रखती हैं। जितना महत्व ईश्वर को दिया गया है उससे कम मृत्यु को नहीं दिया गया है। दोनों ही शास्वत सत्य तथा निरन्तर रहने वाली शक्तियां हैं। दोनों एक दूसरे पर आश्रित भी हैं विरोधी भी हैं और पूरक भी । यदि कोई प्राणी इन्हें सदा याद रखेगा तो उसे कभी भी मात खानी ही नहीं पड़ेगी।
मृत्यु का मानव के हृदय पर क्या प्रभाव पड़ता है, उस घड़ी वह क्या विचारता है, उसकी स्मृति होने पर वह क्या सोचता समझता है, उसके जी में कैसे-कैसे भाव उठ खड़े होते हैं, इन बातों का निरूपण किस-किस तरह से किया गया है, यह मैं थोड़े में यहाँ दिखलाता हूँ।
गोस्वामी तुलसीदासजी धन दौलत बरन् राज तक से लोगों का जी हटाते हुए कहते हैं, ''धन अरब खरब तक जमा किया जा सकता है, राज की हद सूर्य के निकलने की जगह से डूबने की जगह तक हो सकती है, किन्तु जब मरना आवश्यक है, तो ये सब किस काम आवेंगे''-
अरब ख़रब लौं दरब है उदय अस्त लौं राज।
तुलसी जो निज मरन है तो आवै केहि काज।
एक भजन संसार के समस्त झंझटों से लोगों को यों चौकन्ना बनाते हैं-''मन! अवसर निकल जाने पर पछतायेगा, दुर्लभ देह पाकर तुझको चाहिए कि तू भगवान के चरणों से जी जान से लपट जा। रावण और सह्स्त्रबाहु ऐसे राजे भी कालबली से बचे, हम-हम करके धन एकत्र किया, घर बसाए, पर अन्त में खाली हाथ उठकर चले गये। लड़के, बाले, स्त्रियों स्वार्थ में डूबी हुई हैं, तू इन सबों से प्यार मत बढ़ा, और जब ये सब अन्त में तुझको छोड़ ही देंगे, तो फिर अभी से तू ही इनको क्यों छोड़ दे। मूर्ख! सावधान हो जा, झूठी आशाओं में मत फँस, और जो सबका स्वामी है उससे प्रेम कर क्योंकि चाह की आग भाँति-भाँति के भोगों से जो उसके लिए घी का काम देते हैं, कभी नहीं बुझती''-
मन पछितैहै अवसर बीते।
दुरलभ देह पाइ हरिपद भजु करम बचन अरु ही तें।
सहसबाहु दसबदन आदि नृप बचे काल बली तें।
हम - हम करि धन धाम सँवारे अंत चले उठि रीते।
सुत बनितादि जानि स्वारथ रत  करु नेह सबहीं ते।
अंतहु तोहि तजैंगे पामर तू तजै अबही ते ?
अब नाथहिं अनुरागु जागु जड़ त्यागु दुरासा जी तें।
बुझै काम - अगिनि तुलसी कहुँ विषय भोग बहु घीतें।
मानव का दुर्लभ शरीर बहुत पुण्य उदय होने पर मिलता है। इसे व्यर्थ में गवांना नहीं चाहिए। यदि सही कामों में तथा मानवता जनता की सेवा में अपना अमूल्य समय नहीं लगाया तो फिर बाद में पछताने के अलावा कोई उपाय नही बचेगा। ईश्वर यदि आपको कोई अवसर दिया है तो उसे अपने व्यक्तिगम हितों के बजाय आम मानवता के हितों में लगाना चाहिए।

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