Saturday, August 30, 2025

भारत में चौसठ योगिनी मंदिर की अवधारणा #आचार्य डॉ. राधेश्याम द्विवेदी


भारत में तंत्र साधना :- 

भारत में तंत्र साधना एक प्राचीन आध्यात्मिक अभ्यास है जिसका उद्देश्य आत्म-साक्षात्कार और आध्यात्मिक विकास प्राप्त करना है।यह वेदों, उपनिषदों और पुराणों से उत्पन्न हुई है और इसमें दीक्षा, अनुष्ठान, मंत्रोच्चार, योग, हस्त मुद्राएं, आंतरिक और बाह्य पूजा, और जटिल ब्रह्मांडीय सिद्धांतों का उपयोग शामिल होता है। तंत्र शरीर को दिव्य मानता है और कुंडलिनी शक्ति के जागरण के माध्यम से मुक्ति प्राप्त करने पर केंद्रित है, जो साधक को व्यक्तिगत बुराइयों (जैसे काम, क्रोध, लोभ, और मोह) पर विजय पाने में मदद करती है।

कौन होता है योगी :- 

योगी तकनीकी रूप से पुरुष है, और योगिनी शब्द महिला अभ्यासियों के लिए प्रयुक्त होता है। दोनों शब्दों का प्रयोग आज भी उन्हीं अर्थों में किया जाता है, लेकिन योगी शब्द का प्रयोग सामान्य रूप से किसी भी धर्म या आध्यात्मिक पद्धति से संबंधित योग और संबंधित ध्यान साधनाओं के पुरुष और महिला दोनों अभ्यासियों के लिए भी किया जाता है।पुरुष शरीर में योग का अभ्यास करने वाले मनुष्य को योगी कहा जाता है। स्त्री शरीर में योग का अभ्यास करने वाली को योगिनी कहा जाता है। 

कौन होती हैं योगिनी:- 

योगिनी वह स्त्री है जो योग और तंत्र के रास्ते पर चलकर आध्यात्मिक साधना करती है। ये देवी शक्ति के विभिन्न रूपों का प्रतिनिधित्व करती हैं और इन्हें अलौकिक शक्तियों का वाहक माना जाता है। सामान्य रूप से ऊपरी तौर पर सप्त मातृका समूह में  सात देवियां - ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, इंद्राणी (ऐंद्री) और चामुंडी) आती हैं। इनमें चंडी और महालक्ष्मी दो और देवियों को मिलाकर नौ-मातृका समूह बनाती हैं। प्रत्येक मातृका को एक योगिनी मान लिया जाता है और वह 8 अन्य योगिनियों से संबद्ध होती है जिसके परिणामस्वरूप 81 (9 गुणा 9) का समूह बन जाता है।

वास्तव में योगिनियाँ ना तो सप्त मात्रिकाएं हैं, ना ही दश महाविद्याएं हैं। वे नव दुर्गा भी नहीं हैं। वे यक्षिणियों के समूह हैं जो सदैव साथ रहती हैं तथा साथ ही कार्य करती हैं। पारंपरिक ग्रंथों में योगिनियों को देवताओं की परिचारिकाओं के रूप में वर्णित किया गया है, जबकि सामान्य अर्थ में योग करने वाली स्त्री को  योगिनी कहा जाता है। 

चौसठ/ इक्यासी योगिनियाँ :- 

चौसठ योगिनियाँ हिंदू धर्म में शक्तिशाली स्त्री देवियां होती हैं । 64 योगिनियों को समर्पित अनेक प्राचीन मंदिर है। जो 9वीं और 12वीं शताब्दी के बीच चंदेल, कलचुरी, गुर्जर-प्रतिहार वंश और शाही चोल जैसे राजवंशों द्वारा निर्मित हुए हैं, ये मंदिर मुख्यतः मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, ओडिशा और तमिलनाडु में स्थित हैं। इनकी गोलाकार, खुली संरचनाएँ तांत्रिक और शैव परंपराओं को दर्शाती हैं।

बीस चौसठ योगिनी मन्दिर:- 

भारत में लगभग बीस चौसठ योगिनी मंदिर मौजूद होने के प्रमाण मिलते हैं, जिनमें से अकेले मध्य प्रदेश में दस मन्दिर स्थित हैं। जो मितावली- मुरैना ; भेड़घाट - जबलपुर; खजुराहो ; हिंगलाजगढ़; शहडोल;  नरेश्वर(नारेसर) - ग्वालियर; बादोह - विदिशा ; उज्जैन ; जीरापुर धार; और आगर मालवा में स्थित हैं। इसके बाद उत्तर प्रदेश का नम्बर आता है जहां चार योगिनी मन्दिर लोखड़ी और रिखियाँ बांदा; दुधई - ललितपुर और वाराणसी में स्थित हैं। उड़ीसा में दो, हीरापुर और रानीपुर झरिया में एक एक मन्दिर अवस्थित है। तमिलनाडु के कांचीपुरम, कावेरी पक्कम में एक; दिल्ली में एक योगमाया/योगिनी मंदिर तथा झारखंड के गोड्डा में भी एक योगिनी मंदिर अवस्थित है। नये शोध और अनुसंधान से ये संख्या और भी बढ़ सकती है। मितावली मुरैना (मध्य प्रदेश) के मन्दिर की प्रेरणा से भारतीय संसद के पुराने भवन की परिकल्पना की गई थी।

छत विहीन हाइपेथ्रल शाक्त मंदिर :- 

ये योगिनी मंदिर आठवीं से बारहवीं  शताब्दी के छत विहीन हाइपेथ्रल मंदिर हैं जो हिंदू तंत्र में योग की महिला गुरु योगिनियों के लिए हैं, जिन्हें व्यापक रूप से देवी विशेष रूप से पार्वती के समान माना जाता है। शक्ति साधना के विभिन्न साधनों के रूप में इस पद्धति का विकास हुआ है। शक्ति पूजा में तांत्रिक परंपराएं शामिल होती हैं, जो देवी की पूजा के लिए विशिष्ट अनुष्ठानों और मंत्रों का उपयोग करती हैं। भारत में योगिनियों की उत्पत्ति के बारे में विभिन्न कथाएं हैं। 

मां काली का अवतार:- 

चौसठ योगिनी मंदिर या चौंसठ योगिनियां प्रायःआदिशक्ति मां काली का अवतार या अंश होती हैं। 64 योगनियों की उत्पत्ति माँ काली से हुआ है। इनमें से हर एक योगिनी की अपनी एक ख़ास विशेषता है। इन 64 योगिनों की उत्पत्ति 8 मातृकाओं से हुई है। इन आठ देवियों ने शुंभ, निशुंभ और रक्तबीज राक्षसों के नाश में माँ दुर्गा की सहायता की थी। हर एक मातृका की सहायक आठ शक्तियाँ थीं। 

दो प्रकार का समूह :- 

मोटे रूप में योगिनी मुख्यत: दो प्रकार की होती हैं: अष्ट योगिनियो और चौसठ योगिनियो का समूह । अष्ट योगिनी, 8 योगिनियों का समूह है, और चौसठ योगिनी, 64 योगिनियों का समूह है। इसीलिए सबको मिलाकर इनकी संख्या 64 हो जाती है। इन आठ योगनियों से ही समस्त योगिनियां अलौकिक शक्तिओं से सम्पन्न हैं और इंद्रजाल, जादू, वशीकरण, मारण, स्तंभन इत्यादि कर्म इन्हीं की कृपा द्वारा ही सफल हो पाते हैं। जब भी कोइ शक्तियां सिद्ध करने के लिए माता काली की अराधना करता है, तो अप्रत्यक्ष रूप से माता काली के साथ ये 64 योगिनियाँ उनके साथ होती हैं।

      योगिनियों को " वास्तविक रूप से मादा पशुओं का रूप धारण करने" और अन्य लोगों को रूपांतरित करने की क्षमता से जोड़ा जाता है। इन्हें भैरव से जोड़ा जाता है, ये अक्सर खोपड़ी और अन्य तांत्रिक प्रतीकों को धारण करती हैं, और श्मशान घाटों और अन्य सीमांत स्थानों में साधना करती हैं। ये शक्तिशाली और खतरनाक होती हैं।

योगिनी मंदिर:- 

वर्तमान मंदिर या तो गोलाकार होते हैं या आयताकार हैं। ये मध्य और उत्तरी भारत में उत्तर प्रदेश , मध्य प्रदेश और ओडिशा राज्यों में फैले हुए हैं। ये लुप्त मंदिर है जिनके स्थान जीवित योगिनी प्रतिमाओं से पहचाने जाते हैं। पूरे उपमहाद्वीप में, उत्तर में दिल्ली से लेकर पश्चिम में राजस्थान की सीमा तक, पूर्व में वृहत्तर बंगाल और दक्षिण में तमिलनाडु तक,ये मन्दिर व्यापक रूप से फैले हुए हैं ।

      कहा जाता है कि घोर नामक दैत्य के साथ युद्ध करते हुए माता ने उक्त 64 अवतार लिए थे । यह भी माना जाता है कि ये सभी माता पार्वती की सखियां हैं। इन 64 देवियों में से 10 महाविद्याएं और सिद्ध विद्याओं की भी गणना की जाती है। चौसठ योगिनी हिंदू धर्म की तांत्रिक परंपरा में देवी शक्ति के 64 रूपों का एक समूह है।

       स्कंदपुराण का काशीखंड खंड ,जो वाराणसी में 64 योगिनियों के भेष बदलकर आने की पौराणिक कथा का वर्णन करता है, कहता है कि पूजा सरल हो सकती है, क्योंकि योगिनियों को केवल फल, धूप और प्रकाश के दैनिक दान की आवश्यकता होती है। यह शरद ऋतु के लिए एक प्रमुख अनुष्ठान का वर्णन करता है, जिसमें अग्नि आहुति, योगिनियों के नामों का पाठ और अनुष्ठानिक प्रसाद शामिल हैं, जबकि वाराणसी के सभी निवासियों को वसंत ऋतु में होली के त्योहार पर देवियों का सम्मान करने के लिए मंदिर जाना चाहिए । 

       चौसठ योगिनी मंदिर को लेकर आस-पास के लोगों का कहना है कि आज भी यह मंदिर शंकर भगवान की तंत्र साधना के कवच से ढका हुआ है। यहां पर किसी को भी रात में ठहरने की इजाजत नहीं है। ये योगिनियां देवी के विभिन्न पहलुओं का प्रतिनिधित्व करती हैं, जैसे ज्ञान, शक्ति, सौंदर्य और करुणा आदि। चौसठ योगिनी मंदिरों को अक्सर गोलाकार या आयताकार संरचनाओं में बनाया जाता है, जिनमें प्रत्येक में 64 छोटे कक्ष या आले होते हैं, जो प्रत्येक योगिनी को समर्पित होते हैं। यहां सूर्य के गोचर के आधार पर ज्योतिष और गणित की शिक्षा प्रदान की जाती थी। इनके मंदिर में 64 कमरे होते हैं और हर कमरे में भगवान शिव और योगिनी की मूर्ति स्थापित होती है। इसी कारण इसे चौसठ योगिनी मंदिर कहा जाता है। दिन ढलने के पश्चात् यहां तंत्र साधक(अघोरी) आते हैं और भगवान शिव की योगिनियों को जाग्रत करने का प्रयास करते हैं। मंदिर को "तांत्रिक विश्वविद्यालय" के रूप में भी जाना जाता है, क्योंकि यह माना जाता है कि यहां तंत्र-मंत्र की शिक्षा दी जाती थी। 

भारत में बीस चौसठ योगिनी मंदिर :- 

भारत में लगभग बीस चौसठ योगिनी मंदिर हैं, जिनमें से 10 मध्य प्रदेश में स्थित हैं। ये मंदिर 64 योगिनियों को समर्पित हैं, जिनमें से प्रत्येक एक दिव्य स्त्री शक्ति का प्रतिनिधित्व करती है। समस्त योगिनियां अलौकिक शक्तिओं से सम्पन्न हैं तथा इंद्रजाल, जादू, वशीकरण, मारण, स्तंभन इत्यादि कर्म इन्हीं की कृपा द्वारा ही सफल हो पाते हैं। 

अष्ट योगिनियां :- 

प्रमुख रूप से आठ योगिनियों के नाम इस प्रकार हैं:- 

1.सुर-सुंदरी योगिनी,

2.मनोहरा योगिनी, 

3. कनकवती योगिनी, 

4.कामेश्वरी योगिनी, 

5. रति सुंदरी योगिनी, 

6. पद्मिनी योगिनी, 

7. नतिनी योगिनी और 

8. मधुमती योगिनी।

चौंसठ योगिनियों के नाम :- 

1.बहुरूप, 3.तारा, 3.नर्मदा, 4.यमुना, 5.शांति, 6.वारुणी 7.क्षेमंकरी, 8.ऐन्द्री, 9.वाराही, 10.रणवीरा, 11.वानर-मुखी, 12.वैष्णवी, 13.कालरात्रि, 14.वैद्यरूपा, 15.चर्चिका, 16.बेतली,17.छिन्नमस्तिका, 18.वृषवाहन, 19.ज्वालाकामिनी, 20.घटवार, 21.कराकाली, 22.सरस्वती, 23.बिरूपा, 24.कौवेरी. 25.भलुका, 26.नारसिंही, 27.बिरजा,28.विकतांना, 29.महालक्ष्मी, 30.कौमारी,31.महामाया, 32.रति, 33.करकरी, 34.सर्पश्या, 35.यक्षिणी, 36.विनायकी, 37.विंध्यवासिनी, 38. वीरकुमारी, 39. माहेश्वरी, 40.अम्बिका, 41.कामिनी, 42.घटाबरी, 43.स्तुती, 44.काली, 45.उमा, 46.नारायणी, 47.समुद्र, 48.ब्रह्मिनी, 49.ज्वालामुखी,50.आग्नेयी, 51.अदिति, 51.चन्द्रकान्ति, 53.वायुवेगा, 54.चामुण्डा, 55.मूरति, 56.गंगा, 57.धूमावती, 58.गांधार, 59.सर्व मंगला, 60.अजिता, 61.सूर्यपुत्री 62.वायु वीणा, 63.अघोर और 64. भद्रकाली।

चौसठ योगिनी मंदिर की वास्तुकला :- 

मंदिर का लेआउट गोलाकार है, जिसमें मुख्य देवता को समर्पित केंद्रीय मंदिर है और उसके चारों ओर गोलाकार पैटर्न में 64 सहायक मंदिर हैं । प्रत्येक सहायक मंदिर में एक अलग देवी की मूर्ति है, जो स्त्री देवत्व के विभिन्न रूपों का प्रतीक है। चौसठ योगिनी मंदिर, 64 योगिनियों को समर्पित भारतीय मंदिर स्थापत्य कला की उत्कृष्ट कृतियाँ हैं, जो दिव्य स्त्री और पुरुष ऊर्जाओं के गतिशील अंतर्संबंध का प्रतिनिधित्व करती हैं। पहाड़ियों की चोटियों पर स्थित, इन मंदिरों में जटिल डिज़ाइन तत्व हैं, जिनमें मंदिर और मूर्तियाँ ब्रह्मांडीय ऊर्जा, प्रकृति और आध्यात्मिक शक्ति का प्रतीक हैं।

64 योगिनियों के योगिनी प्रधान मंदिर  64 योगिनियों के मंदिर, विशेष रूप से योगिनी-प्रधान, भारत में स्थित हैं और ये मंदिर तांत्रिक प्रथाओं और देवी योगिनी की पूजा के लिए जाने जाते हैं। ये मंदिर गोलाकार होते हैं और 64 छोटे-छोटे कमरों से युक्त होते हैं, जिनमें से प्रत्येक में एक शिवलिंग और एक योगिनी की मूर्ति होती है। प्रत्येक मंदिर में एक योगिनी की छवि या प्रतिमा होती है, जिसे अक्सर पशु के सिर या रूपात्मक विशेषताओं के साथ दर्शाया जाता है, जो प्रकृति, वनों और भैरव पंथ से उनके संबंध को दर्शाता है।योगिनियों को गतिशील नृत्य, ध्यान या राजसी मुद्रा में दिखाया जाता है, जो उनकी विविध शक्तियों और पहलुओं का प्रतीक है।

एक केंद्रीय मंदिर का विधान : - 

64 योगिनियों के मंदिर में एक केंद्रीय मंदिर का विधान होता है, जिसमें आमतौर पर भगवान शिव या शक्ति की मूर्ति होती है। यह मंदिर, 64 योगिनियों के कक्षों से घिरा होता है, जो दिव्य पुरुष और स्त्री ऊर्जा की एकता का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसमें आमतौर पर भगवान शिव या शक्ति की मूर्ति होती है, जो आसपास के प्रत्येक कक्ष से दिखाई देती है, जो दिव्य पुरुष और स्त्री ऊर्जा की एकता का प्रतिनिधित्व करती है।

एक खुला केंद्रीय प्रांगण : - 

64 योगिनियों के मंदिर में एक खुला केंद्रीय प्रांगण होता है, जिसके चारों ओर 64 योगिनियों की मूर्तियाँ स्थापित होती हैं। यह प्रांगण आमतौर पर एक गोलाकार या अर्धवृत्ताकार आकार का होता है, और इसके केंद्र में एक मंडप या मंदिर होता है, जो मुख्य देवता को समर्पित होता है। प्रांगण खुला होता है, जो प्रकृति और ईश्वर के बीच के संबंध को और पुष्ट करता है। प्रांगण के चारों ओर स्तंभ हैं, जिन पर अक्सर जटिल नक्काशी की गई है, जो अलग- अलग मंदिरों को सहारा देते हैं।

मन्दिर की संरचना : - 

64 योगिनियों के मंदिर की संरचना गोलाकार है, जिसमें 64 छोटे कमरे हैं, प्रत्येक में एक शिवलिंग है। यह मंदिर एक पहाड़ी की चोटी पर स्थित है और इसकी बाहरी त्रिज्या 170 फीट है. मंदिर का डिज़ाइन इस तरह से किया गया है कि यह भूकंप जैसी आपदाओं को झेलने में सक्षम है. इसके केंद्रीय भाग में स्लैब के आवरण हैं जिनमें छिद्र हैं, जिससे बारिश का पानी एक बड़े भूमिगत भंडारण में जमा हो जाता है. मंदिर आमतौर पर एक मंजिला होते हैं और इनकी छत सपाट पत्थर की स्लैब से बनी होती है। पत्थर की भार वहन करने वाली संरचनाएँ मंदिर को स्थायित्व प्रदान करती हैं।

पहाड़ी की चोटी पर स्थित स्थान :- 

मंदिर आमतौर पर पहाड़ी की चोटी पर बनाए जाते हैं, जो सांसारिक और दिव्य क्षेत्रों के बीच संबंध का प्रतीक हैं।पहाड़ी की चोटी पर लगभग 100 फीट की ऊंचाई पर स्थित यह अद्भुत मंदिर, अपनी गोलाकार संरचना के कारण उड़न तश्तरी जैसा प्रतीत होता है। पहाड़ी की चोटी पर योगिनी मंदिर  बनाने के पीछे कई कारण हैं, जिनमें आध्यात्मिक, भौगोलिक और सांस्कृतिक महत्व शामिल हैं। ये मंदिर अक्सर एकांत और ऊंचे स्थानों पर बनाए जाते थे, जो ध्यान और साधना के लिए उपयुक्त माने जाते थे। पहाड़ की चोटी को ऊर्जा का केंद्र माना जाता है, और योगिनियों को शक्ति और ऊर्जा का प्रतीक माना जाता है। इस प्रकार, मंदिर को पहाड़ी पर बनाने से आध्यात्मिक शक्ति और पवित्रता की भावना बढ़ जाती है. पहाड़ी की चोटी पर स्थित मंदिर, एकांत और शांति प्रदान करते हैं, जो ध्यान और साधना के लिए आदर्श वातावरण बनाते हैं। यह योगिनियों की पूजा और उनके साथ जुड़ने के लिए एक उपयुक्त स्थान माना जाता है. कुछ योगिनी मंदिरों को तंत्र साधना के लिए भी जाना जाता है। पहाड़ी की चोटी पर स्थित मंदिर, तंत्र साधकों को एकांत और गुप्त वातावरण प्रदान करते थे, जहां वे अपनी साधना कर सकते थे. कुछ मान्यताओं के अनुसार, प्राचीन काल में देवी-देवता पहाड़ों पर निवास करते थे, इसलिए मंदिरों को पहाड़ों पर बनाना शुभ माना जाता था. पहाड़ी की चोटी पर स्थित मंदिर, निचले इलाकों की तुलना में अधिक सुरक्षित होते थे। प्राचीन काल में, इन मंदिरों को हमलों से बचाने के लिए भी पहाड़ों पर बनाया जाता था. पहाड़ी की चोटी पर मंदिर बनाने से वास्तुकला को भी एक अनूठा रूप मिलता है। यह मंदिर को आसपास के वातावरण के साथ एकीकृत करता है और एक विशिष्ट दृश्य प्रभाव पैदा करता है. पहाड़ी की चोटी पर स्थित मंदिर, पर्यटकों और तीर्थयात्रियों के लिए भी एक आकर्षक स्थान होते हैं। यह मंदिर के धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व को भी बढ़ाता है।

लेखक परिचय:-

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।

(वॉर्ड्सऐप नम्बर+919412300183)



भारतीय संस्कृति में सौभाग्य और सुचिता का प्रतीक: सिन्दूर✍️आचार्य डॉ राधेश्याम द्विवेदी

पीले मिश्रित लाल रंग को सिंदूरी रंग कहा जाता है। यह रंग नारंगी और लाल के बीच का होता है। इसे कुमकुम भी कहा जाता है, जो आमतौर पर हिंदू महिलाओं द्वारा उपयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त, सिंदूर को अबीर और गुलाल के रूप में भी जाना जाता है, जो होली जैसे त्योहारों में उपयोग किए जाते हैं । इसके अलावा, इसे "नाग-संभूत" या "नागज" भी कहा जाता है, क्योंकि कुछ मान्यताओं के अनुसार इसकी खोज नागों द्वारा की गई थी।

सिंदूर का इतिहास:- 

शिव पुराण में वर्णन मिलता है कि माता पार्वती ने वर्षों तक शिव जी को वर के रूप में प्राप्त करने के लिए तपस्या की थी। जब भगवान शिव ने मां पार्वती को अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार कर लिया तो मां पार्वती ने सुहाग के प्रतीक के रूप में सिंदूर मांग में लगाया था। उन्होंने कहा  कि जो स्त्री सिंदूर लगाएगी उसकी पति को सौभाग्य और लंबीआयु की प्राप्ति होगी। धार्मिक मतों के अनुसार सबसे पहले माता पार्वती ने ही सिंदूर लगाया था और तभी से ये परंपरा चल पड़ी। सिंदूर को देवी पार्वती से जोड़ा जाता है, और इसे पति की लंबी उम्र और वैवाहिक जीवन की सुख-समृद्धि के लिए लगाया जाता है। यह माना जाता है कि इसे लगाने से देवी पार्वती का आशीर्वाद मिलता है। इस लिंक से सिन्दूर की महत्ता और स्पष्ट हो जाती है - 

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नवपाषाण काल में सिंदूर का प्रयोग:- 

बलूचिस्तान के मेहरगढ़ गहराई में मिली नवपाषाण काल की महिला कारीगरों की मूर्ति से प्रतीत होता है कि उस समय के महिलाओं के बालों के बीच में सिन्दूर जैसा रंग लगाया जाता था। सिंदूर भारतीय संस्कृति और परंपरा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो विवाहित स्त्रियों के सौभाग्य और शुभता का प्रतीक माना जाता है। सिंदूर का प्रयोग और इसका सांस्कृतिक महत्व हजारों वर्षों से प्रचलित है। विवाहित स्त्रियाँ अपनी माँग में सिन्दूर भरने की यह प्रथा लगभग 8000 वर्ष पूर्व से ही प्रचलित है।

हड़प्पा - मोहनजोदड़ो की सभ्यता :- 

सिंदूर का उपयोग हड़प्पा , मोहनजोदड़ो की सभ्यता में भी देखा गया है, जहाँ खुदाई में स्त्रियों की मूर्तियों के मांग में सिंदूर के निशान पाए गए हैं। यह प्रमाणित करता है कि सिंदूर का प्रयोग भारत में बहुत पुराने समय से हो रहा है।इस सभ्यता सबसे बड़ी स्थल राखीगढ़ी में खुदाई के दौरान महिलाओं के सजने संवरने को लेकर काफी चीजें मिलीं हैं। पत्थर की मालाएं, मिट्टी,तांबा व फियांस से बनीं चूड़ियां, कंगन, सोने के आभूषण, मिट्टी की माथे की बिंदी, सिंदूर दानी, अंगूठी, कानों की बालियां आदि प्रमुख हैं। इससे ये पता चल जाता है कि महिलाएं लगभग आठ हजार साल पहले भी सिंदूर लगाती थीं और सजने संवरने के लिए कंगन-चूड़ी, अंगूठी, बिंदी आदि का उपयोग करती थीं। पता चलता है कि पुराने जमाने में हल्दी, फिटकिरी, या चूने से सिंदूर को बनाया जाता था।  इस सभ्यता से भी कुछ ऐसे सबूत मिलते हैं जो बताते हैं कि सिंदूर लगाने की परंपरा तब भी थी।  जिनमें महिलाओं की मांग में सिंदूर लगाने के साक्ष्य हैं। इस काल से जुड़ी देवियों की कुछ ऐसी मूर्तियां मिली हैं जिनके सिर के बीच में एक सीधी रेखा है और उस पर लाल रंग भरा गया है। पुरातत्वविदों का मानना है कि यह और कुछ नहीं बल्कि सिंदूर है। 

पारंपरिक सिन्दूर का उपयोग :- 

हल्दी और फिटकरी या चूने, या अन्य सामग्री से बनाया गया था।  लाल सीसा और सिन्दूर के विपरीत, ये अपराध नहीं होते हैं।  कुछ व्यावसायिक सिन्दूर के बारीक कणों के मसाले मौजूद होते हैं, जिनमें से कुछ मानक के अनुसार निर्मित नहीं होते हैं और उनमें सीसा हो सकता है। सिंदूर का इस्तेमाल पारंपरिक रूप से औषधीय कारणों से भी किया जाता रहा है। आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों में, हिंदू धर्म में ऐतिहासिक जड़ों वाली चिकित्सा पद्धति में, लाल सिंदूर पाउडर में औषधीय गुण होते हैं जो महिलाओं को लाभ पहुंचाते हैं, जिसमें उनकी कामोत्तेजना को बढ़ाने के लिए रक्त प्रवाह को सक्रिय करना शामिल है - यही कारण है कि अविवाहित महिलाओं और विधवाओं को इसे लगाने की अनुमति नहीं रही है।

सिंदूर का आध्यात्मिक महत्व :- 

सिंदूर का महत्व भारतीय समाज में अत्यधिक है। यह केवल सौंदर्य का प्रतीक नहीं है, बल्कि इसका धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व भी है। विवाहित स्त्रियों के लिए सिंदूर एक शुभ संकेत है। मांग में भरने का अर्थ होता है कि वह स्त्री विवाहित है और अपने पति की लंबी आयु और समृद्धि की कामना करती है। सिंदूर का लाल रंग शक्ति और उर्वरता का प्रतीक है, जो स्त्रियों की ऊर्जा और जीवंतता को दर्शाता है।

सौभाग्य और सुहाग का प्रतीक:- 

सिंदूर विवाहित महिलाओं के लिए सौभाग्य और सुहाग का प्रतीक है। यह माना जाता है कि सिंदूर लगाने से पति की रक्षा होती है और वैवाहिक जीवन में खुशहाली आती है। सिंदूर लगाने से सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है और नकारात्मक ऊर्जा दूर होती है, ऐसा माना जाता है। 

सिंदूर का सांस्कृतिक महत्त्व :- 

सिंदूर का सांस्कृतिक महत्त्व भी अत्यधिक है। हिंदू धर्म में, विवाह के समय पति द्वारा पत्नी की मांग में सिंदूर भरना एक महत्व- पूर्ण रस्म है, जो उन्हें आधिकारिक रूप से पति-पत्नी घोषित करता है। यह रस्म भारतीय समाज के विभिन्न हिस्सों में थोड़े-बहुत भिन्न रूपों में प्रचलित है, लेकिन इसका मूल अर्थ वही रहता है। विवाहित स्त्रियाँ प्रतिदिन अपनी मांग में सिंदूर भरती हैं, जिसे वे अपने पति के प्रति समर्पण और सम्मान के रूप में देखती हैं। इसकेअलावा, विशेष अवसरों और त्योहारों पर भी सिंदूर का प्रयोग विशेष रूप से किया जाता है। छठ पूजा में माताएं बहुत लंबे शिर के बीचोबीच मांग से नाक तक सिन्दूर लगाती हैं और छठ माता से आशीर्वाद प्राप्त करती हैं।

विभिन्न साहित्यिक ग्रंथों में सिंदूर का उल्लेख:

प्राचीन भारतीय साहित्य में सिन्दूर का उल्लेख विभिन्न संदर्भों में मिलता है, जिसमें धार्मिक, सौंदर्य, और वैवाहिक प्रथाएं शामिल हैं। हालांकि सिन्दूर को स्पष्ट रूप से विवाह के प्रतीक के रूप में उल्लेख करने की प्रथा मध्यकाल में अधिक स्पष्ट हुई, प्राचीन साहित्य में इसका उपयोग सौभाग्य, शक्ति, और सौंदर्य प्रसाधन के रूप में देखा जाता है।

वैदिक साहित्य (1500-500 ईसा पूर्व)में सिन्दूर का प्रयोग :- 

लाल रंग के पदार्थों का सामान्य उल्लेख है, जिसे विवाहित महिलाओं के अलंकरण से जोड़ा गया है। कन्या के मांग में पहले सिन्दूर उसके शादी के दिन पति द्वारा सजाया जाता है जिसे हिंदूविवाह में सिंदूर दान कहा जाता है। सिन्दूर के संबंध में कुछ वैदिक धारणा भी है कि इसे लगाने के बाद पति को अपनी पत्नी का रक्षक बनना होता है तथा उसे हर सुख दुःख का साथी भी बनना पड़ता है। 

    ऋग्वेद और अथर्ववेद में सिन्दूर का सीधा उल्लेख नहीं है, लेकिन लाल रंग के पदार्थों (जैसे गेरू, कुमकुम, या हरिद्रा) का उपयोग धार्मिक अनुष्ठानों और सौंदर्य प्रसाधन में वर्णित है। उदाहरण के लिए, अथर्ववेद (6.138) में सौभाग्य और प्रजनन से संबंधित मंत्रों में लाल रंग के पदार्थों का उल्लेख है, जिसे सिन्दूर से जोड़ा जा सकता है।

पंच-सौभाग्य में समलित:- 

सिंदूर को वैदिक काल में पंच-सौभाग्य में शामिल किया गया था। पंच सौभाग्य बालों पर पुष्प, मंगल सूत्र, पैर की उंगली में छल्ले, चेहरे पर हल्दी और सिंदूर को कहा गया है। गृह्यसूत्र (वैदिक अनुष्ठान ग्रंथ) में विवाह संस्कारों के दौरान सौंदर्य प्रसाधनों और मांगलिक चिह्नों का उल्लेख है, जिसमें लाल रंग का उपयोग सिन्दूर के रूप में हो सकता है। सौभाग्य वती स्त्री के लिए मांगलिक प्रथाओं का उल्लेख मिलता है ।)

(संदर्भ: ऋग्वेद (10.85, विवाह सूक्त) 

महाकाव्य: रामायण और महाभारत (500 ईसा पूर्व-300 ईस्वी) में सिंदूर का महत्व:- 

सिंदूर लगाने का चलन प्राचीन काल से चला रहा है और इसका संबंध माता पार्वती व देवी सीता से भी जुड़ता है। वाल्मीकि रामायण में सीता के सौंदर्य प्रसाधन का वर्णन है, जिसमें लाल रंग के पदार्थों (संभवतः सिन्दूर या कुमकुम) का उपयोग मस्तक पर किया गया है। उदाहरण के लिए, सुंदरकांड (5.15) में सीता के मांगलिक अलंकरण का उल्लेख है, जो सिन्दूर से संबंधित हो सकता है। सिंदूर का उल्लेख रामायण काल में भी किया गया था। माना जाता है कि माता सीता नित दिन शृंगार के रूप में सिंदूर का प्रयोग करती थीं। बिंदी की तरह, सिंदूर का महत्व सिर के केंद्र में तीसरे नेत्र चक्र (उर्फ अजना चक्र) के पास इसके स्थान से उपजा है। मस्तिष्क से अजना चक्र की निकटता इसे एकाग्रता, इच्छा और भावनात्मक विनियमन से जोड़ती है। जो लोग चक्रों की शक्ति में विश्वास करते हैं, उनके लिए इस स्थान पर सिंदूर लगाने का अर्थ है एक महिला की मानसिक ऊर्जा को अपने पति पर ध्यान केंद्रित करने के लिए उपयोग करना।

       एक कथा के अनुसार, हनुमान जी ने जब मां सीता को सिंदूर लगाते हुए देखा और तो जिज्ञासावश उनसे यह पूछा लिया कि वह हर दिन सिंदूर क्यों लगाती हैं? तब जानकी जी ने उन्हें बताया कि वह भगवान श्री राम की लंबी आयु के लिए मांग में सिंदूर भरती हैं और भगवान श्री राम इससे प्रसन्न होते हैं। तब श्री राम के अनन्य भक्त हनुमान जी ने अपने प्रभु को प्रसन्न करने के लिए पूरे शरीर पर सिंदूर का लेप लगा लिया था। इसलिए वर्तमान काल में भी हनुमान जी की पूजा में सिंदूर का प्रयोग निश्चित रूप से किया जाता है। ऐसा करने से हनुमान जी प्रसन्न होते हैं और साधक की सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती है।

द्रौपदी की सिंदूरी मांग सजाने की कहानी:- 

प्रसिद्ध महाकाव्य महाभारत में, पांडवों की पत्नी द्रौपदी , हस्तिनापुर में घटने वाली घटनाओं से लेकर घृणा और विध्वंस तक, अपना सिन्दूर लिखा हुआ है । विवाह और सौभाग्य के संदर्भ में मांग में लाल रंग लगाने की प्रथा का संकेत है। द्रौपदी ने चीरहरण के गुस्से में बाल खोल दिए थे और सिंदूर नहीं पोछा। कहा जाता है कि उसके बाद सिंदूर भी नहीं लगाया था। द्रौपदी ने चीरहरण का बदला पूर होने पर महाभारत युद्ध में दुशासन के खून से बाल धोए थे और उसके बाद लाल सिंदूर से मांग सजाया था।

( संदर्भ:आदिपर्व, 1.189)।   

      ललिता सहस्रनाम और सौंदर्य लहरी ग्रंथों में सिन्दूर के प्रयोग का अक्सर उल्लेख किया गया है । सौंदर्य लहरी में प्राचीन कला कृतियाँ वर्णित हैं - 

तनोतु क्षेमं नः तव

वदना सौन्दर्यलहरी

परिवह-स्त्रोतः शरणिरिव 

सीमन्त-सारणीः।

वहन्ती सिन्दूरं प्रबल 

काबरी भारतीमिरा-

द्विशां बृंदैर बंदी-कृतमिव 

नवीनार्का किरणम् ॥

(हे माँ, आपके केशों के बीच की वह रेखा,जो एक चैनल की तरह दिखती है,जिसके माध्यम से आपके प्राकृतिक की तेज़ लहरें उतरती हैं,और जो दोनों तरफ से आयोजित होती है,आपका सिंदूर, जो उगते सूरज की तरह है,आपके शत्रुओं के सैनिकों की तरह काले बालों का उपयोग करके, हमारी रक्षा करें और हमें शांति दें।

(-आदि शंकराचार्य,सौंदर्य लहरी,पृष्ठ 44)

दांपत्य जीवन में सिंदूर का महत्व:- 

शास्त्रों में बताया गया है कि जिन सुहागिन महिलाओं द्वारा मांग में सिंदूर लगाया जाता है, उन्हें पति की अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता है। साथ ही समूचे परिवार को संकटों से छुटकारा मिल जाता है। नवरात्रि व दीपावली में मां दुर्गा और माता लक्ष्मी की उपासना में भी सोलह शृंगार में सिंदूर का स्थान श्रेष्ठ माना जाता है। शास्त्रों के अनुसार, सिंदूर का प्रयोग करने से माता सती और मां पार्वती का आशीर्वाद प्राप्त होता है। इसके साथ दांपत्य जीवन में सुख और समृद्धि आती है। प्राचीन साहित्य में सिन्दूर का उपयोग मुख्य रूप से सौंदर्य और धार्मिक संदर्भों में है, लेकिन विवाह से इसका संबंध पुराणों और महाकाव्यों में अधिक स्पष्ट है। मार्कण्डेय पुराण और देवी भागवत में सिन्दूर को विवाहित स्त्रियों के सौभाग्य और पति की दीर्घायु से जोड़ा गया है, जो इसे विवाह के प्रतीक के रूप में स्थापित करता है।

जैन धर्म में सिंदूर :- 

जैन महिलाएं सिन्दूर लगाती हैं, पूर्वोत्तर शहरों में। जैन ननों को यह अपने बालों या कपड़ों पर लगाना पसंद है। सिन्दूर की देवियों की वैधानिक स्थिति के दर्शन के लिए बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है, कई स्थानीय कला कृतियाँ, सिन्दूर देवियों को भी सिन्दूर लगाती हैं।

(- संदर्भ: रामायण और महाभारत में विवाहित स्त्रियों के अलंकरण।)

पुराण (300-1000 ईस्वी) में सिन्दूर के संदर्भ :- 

मार्कण्डेय पुराण और कामसूत्र में सिंदूर को सौभाग्य और वैवाहिक जीवन से जोड़ते हैं। मार्कण्डेय पुराण और देवी भागवत पुराण में सिन्दूर को माता पार्वती और अन्य देवियों के साथ जोड़ा गया है। सिन्दूर को देवी पूजा में चढ़ाया जाता था, और इसे सौभाग्य का प्रतीक माना जाता था। मार्कण्डेय पुराण (चंडी सप्तशती) में सिन्दूर के उपयोग को वैवाहिक सुख और पति की दीर्घायु से जोड़ा गया है।

     विष्णु पुराण और भागवत पुराण में भी कुमकुम और सिन्दूर जैसे पदार्थों का उल्लेख पूजा और सौंदर्य के संदर्भ में है, जो विवाहित स्त्रियों की प्रथाओं से संबंधित है 

(- संदर्भ: मार्कण्डेय पुराण (7.2) में देवी पूजा और सिन्दूर का उल्लेख।)

काव्य और नाटक (200 ईसा पूर्व- 1000 ईस्वी) में सिन्दूर:- 

कालिदास के साहित्य : जैसे कुमार - संभवम और रघुवंशम में स्त्रियों के सौंदर्य प्रसाधन में लाल रंग के पदार्थों (सिन्दूर या कुमकुम) का उल्लेख है। उदाहरण के लिए, कुमार संभवम (7.12) में पार्वती के मस्तक पर लाल रंग के अलंकरण का वर्णन है, जो सिन्दूर से जोड़ा जा सकता है।

      भास और शूद्रक जैसे नाटककारों के नाटकों (जैसे मृच्छ कटिकम्) में विवाहित स्त्रियों के मांग में लाल रंग लगाने की प्रथा का उल्लेख मिलता है, जो सामाजिक और वैवाहिक प्रतीक के रूप में देखा जाता है।  

(- संदर्भ: कालिदास की रचनाओं में सौंदर्य वर्णन।)

कामसूत्र और अन्य स्मृति ग्रंथ (200- 400 ईस्वी) में सिन्दूर का उल्लेख :- 

वात्स्यायन का कामसूत्र में सौंदर्य प्रसाधनों और अलंकरणों का विस्तृत वर्णन है, जिसमें सिन्दूर और कुमकुम जैसे लाल रंग के पदार्थों का उपयोग विवाहित स्त्रियों के लिए वर्णित है (अध्याय 4)। यह सौभाग्य और आकर्षण का प्रतीक माना जाता था। मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति में विवाहित स्त्रियों के लिए विशिष्ट अलंकरणों का उल्लेख है, जिसमें मांगलिक चिह्न (संभवतः सिन्दूर) शामिल हो सकते हैं।  

(- संदर्भ: कामसूत्र (4.1) में सौंदर्य प्रसाधन।)

भक्ति साहित्य (600-1000 )ईस्वी में सिंदूर :- 

भक्ति काल के दौरान, विशेष रूप से दक्षिण भारत में, आलवार और नयनार संतों के तमिल भक्ति साहित्य में सिन्दूर और कुमकुम का उल्लेख देवी पूजा और वैवाहिक सौभाग्य के संदर्भ में है। उदाहरण के लिए, तिरुक्कुरल में सौभाग्यवती स्त्री के अलंकरणों का वर्णन है, जो सिन्दूर से संबंधित हो सकता है। मध्यकालीन साहित्य (जैसे भक्ति काव्य और क्षेत्रीय साहित्य) में सिन्दूर का उपयोग विवाह के प्रतीक के रूप में और अधिक स्पष्ट हो जाता है।

(- संदर्भ: तमिल भक्ति साहित्य में सौंदर्य और पूजा।)

सिंदूरी शाम के विविध उल्लेख:- 

यह एक बहुत ही लोकप्रिय वाक्यांश है जिसका उपयोग अक्सर कविता, गीत और कला में किया जाता है, विशेष रूप से सूर्यास्त के समय के सौंदर्य का वर्णन करने के लिए। श्रीप्रकाश पाण्डेय की एक रचना दृष्टव्य है - 

धड़कन में संगीत प्यार का

होंठों पर तुम्हारा नाम

सूरज ने भी रच दी देखो

वहां नभ पर सिन्दूरी शाम 

घर-घर गूंजी एक कहानी

बस्ती-बस्ती फैली ये बात

पलकों पर चाँद सजाने में

यहां कट गयी सारी रात

शब्दों से गीतों को ढलने में

कितना दर्द हुआ बदनाम।

रहे प्रतीक्षा रत जीवन भर

मंजिल तक ना पहुंचे पास

सांस-सांस पर नाम तुम्हारा

पल-पल मिलने की आस

राहों में यादों के जंगल

भटकन सुबह और शाम।।

पूनम श्रीमाली की ये पंक्तियां भी दिल को छू लेती हैं - 

शाम सिंदूरी , 

ये डूबता सूरज और 

ये सिंदूरी नज़ारा ,

ये झील का किनारा ..!!

ये खूबसूरत कुदरती  नज़ारा

उस पर ये खामोशी 

और ख्वाब तुम्हारा।

ऐसे कैसे जाने देंगे प्रियतम

अभी तो शुरू हुआ है 

(तुम्हें सोचना) हमारा ..…....!!

संस्कृति में सिन्दूर:- 

सिन्दूर से जुड़ी हैं कई भारतीय फ़िल्में और नाटक, थीम इस स्मारक का महत्व- गिर्द घूमती है। इनसे सिंदूर (1947), सिंदूरम(1976),रक्त सिंधुरम (1985 ), सिंदूर(1987) और सिंदूर तेरे नाम का सीरीज़, (2005- -2007) शामिल हैं। 

ऑपरेशन सिंदूर 2025 :- 

अभी हाल ही 2025 में  भारतीय सशस्त्र बल ने पहलगाम हमले का जवाब पाकिस्तान पर मिसाइल हमले करके दिया। पहलगाम हमलों में पुरुष हिंदू क्रॉटल की मौत के संदर्भ में, मिसाइल हमले को ऑपरेशन सिंदूर नाम दिया गया था। आतंकियों ने सिंदूर उजाड़ी तो हमने बदले के लिए ऑपरेशन सिंदूर से करारा जवाब दिया । भारत ने सबसे पहले सिंधु नदी का पानी रोक कर आतंक पर चुप्पी साधी पाकिस्तान सरकार को जगाया। उसके बाद ऑपरेशन सिंदूर ने आतंकियों को राख करने का काम किया। ये संयोग समझिए या कुछ और…जो सिंधु और सिंदूर आज पाकिस्तान के लिए काल बने हैं। 

सिंदूर का वैज्ञानिक दृष्टिकोण:- 

सिंदूर का प्रयोग केवल धार्मिक और सांस्कृतिक कारणों से नहीं किया जाता, बल्कि इसका वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी है। पुरुषों के मुकाबले महिलाओं का ब्रह्मरंद्र यानी मस्तिष्क का उपरी भाग बहुत ही संवेदनशील और कोमल होता है। ऐसे में सिंदूर लगाने से विद्युत ऊर्जा पर नियंत्रण पाई जा सकती है और इससे नकारात्मक विचार दूर रहते हैं। ऐसा भी देखा गया है कि सिंदूर लगाने से सिर दर्द, अनिद्रा, मस्तिष्क से जुड़ा रोग समाप्त हो जाता है। यह भी कहा जाता है कि सिंदूर के प्रयोग से चेहरे पर जल्दी झुर्रियां भी नहीं पड़ती है और बढ़ती उम्र के संकेत दिखाई नहीं देते हैं।

       सिंदूर हल्दी और चूने के मिश्रण से बनाया जाता है, जो शरीर के लिए फायदेमंद होता है। यह माना जाता है कि सिंदूर लगाने से तनाव और मानसिक दबाव को कम करने में मदद मिलती है।इससे रक्त चाप तथा पीयूष ग्रंथि भी नियंत्रित होती है। सिंदूर में पाए जाने वाले पारंपरिक घटक, जैसे हल्दी और पारा, स्वास्थ्य के लिए लाभकारी माने जाते हैं। हल्दी एक प्राकृतिक एंटीसेप्टिक है, जबकि पारा रक्तचाप को नियंत्रित करने में मदद करता है।

निष्कर्ष :- 

प्राचीन भारतीय साहित्य में सिन्दूर का उल्लेख सौंदर्य प्रसाधन, धार्मिक अनुष्ठान, और सौभाग्य के प्रतीक के रूप में मिलता है। वैदिक साहित्य में लाल रंग के पदार्थों का सामान्य उल्लेख है, जबकि रामायण, महाभारत, और पुराणों में इसे विवाहित स्त्रियों के अलंकरण से जोड़ा गया है। मार्कण्डेय पुराण और कामसूत्र जैसे ग्रंथ सिन्दूर को सौभाग्य और वैवाहिक जीवन से जोड़ते हैं, जो विवाह प्रतीक के रूप में इसकी प्रारंभिक भूमिका को दर्शाता है। मध्यकालीन साहित्य में यह प्रथा और स्पष्ट हो जाती है। इस प्रकार सिंदूर भारतीय समाज और संस्कृति का एक अभिन्न अंग है। इसका इतिहास, महत्व और सांस्कृतिक महत्त्व हमें हमारे पुरखों से विरासत में मिला है, जिसे हमें संजोकर रखना चाहिए। सिंदूर का प्रयोग केवल एक परंपरा नहीं, बल्कि स्त्रियों के जीवन में  जीवन में सौभाग्य, प्रेम और शक्ति का प्रतीक है। यह न केवल एक श्रृंगार है, बल्कि विवाहित महिलाओं के लिए सौभाग्य, प्रेम, समर्पण और सकारात्मक ऊर्जा का प्रतीक है। 


लेखक परिचय:-

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।

(वॉर्ड्सऐप नम्बर+919412300183)

Friday, August 22, 2025

भारत में सूर्य उपासना के प्रमुख केन्द्र आचार्य डॉ. राधेश्याम द्विवेदी

सूर्य उपासना :- 

सूर्य देव की पूजा या आराधना हिंदू धर्म में एक महत्वपूर्ण परम्परा है। सूर्य को प्रत्यक्ष देवता माना जाता है और उनकी उपासना से आध्यात्मिक विकास, उत्तम स्वास्थ्य, सफलता और स्पष्ट सोच प्राप्त होती है।सूर्य की उपासना करके इंसान अपने जीवन को सर्वोत्तम बना सकता है।शिक्षा के क्षेत्र में सर्वोच्च स्थान पाने के लिए सूर्य उपासना सबसे अधिक महत्व पूर्ण है।

     सूर्य उपासना प्रति दिन, रविवार के दिन नियमित रूप से किया जाता रहा है।इसके अलावा मुख्य पर्वों में कार्तिक शुक्ल षष्ठी को छठ पूजा, भाद्रपद शुक्ल पक्ष का अंतिम रविवार को बड़ा रविवार और माघ शुक्ल सत्तमी को रथ सप्तमी प्रमुख रूप से शामिल है। रथ सप्तमी को आरोग्य सप्तमी भी कहते हैं।क्रोधित दुर्वासा ऋषि ने श्री कृष्ण के पुत्र साम्ब को कुष्ठ होने का श्राप दिया था। साम्ब की ये स्थिति देखकर श्रीकृष्ण ने उसे भगवान सूर्य की उपासना करने को कहा था,जो कोणार्क में सूर्य मंदिर निर्माण करके यही तपस्या करके शाप मुक्त हुए थे। कार्तिक का छठ पर्व सूर्य देव और छठी मैया को समर्पित है, जिसमें व्रती (उपवास रखने वाले) सूर्योदय और सूर्यास्त दोनों समय सूर्य को अर्घ्य देते हैं। सूर्य की पहली किरण ऊषा और अंतिम किरण प्रत्यूषा की पूजा की जाती है।छठ पूजा चार दिनों तक चलने वाला एक महत्वपूर्ण पर्व है, जो कार्तिक शुक्ल पक्ष की चतुर्थी से सप्तमी तक मनाया जाता है।

सूर्य उपासना की विधि :- 

1. सूर्योदय से पहले उठकर स्नान करें और अपने शरीर और मन को शुद्ध करें। 

2. तांबे के लोटे में जल, अक्षत, लाल फूल और रोली मिलाकर सूर्य को अर्घ्य दें। 

3. सूर्य मंत्र का जाप करें। इससे सूर्य शिक्षा का वरदान देंगे । इसलिए इन मंत्रों का जाप करना चाहिए - 

ॐ सूर्याय नम: । 

ॐ भास्कराय नम:।

ॐ रवये नम: ।

 ॐ मित्राय नम: ।

ॐ भानवे नम: ।

ॐ खगय नम: ।

ॐ पुष्णे नम: । 

ॐ मारिचाये नम: ।

ॐ आदित्याय नम: । 

ॐ सावित्रे नम: ।

ॐ आर्काय नम: । 

ॐ हिरण्यगर्भाय नम: ।

इसके अलावा निम्न मंत्र भी बहुत सिद्धमंत्र है। इस मंत्र का जाप विशेष रूप से किया जा सकता है।

"ॐ घृणि सूर्याय नमः" या 

"ॐ ह्रीं ह्रीं सूर्याय नमः।"

4. आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ भी किया जा सकता है।रविवार को आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करना विशेष फलदायी माना जाता है। 

5. सूर्य को प्रणाम भी किया जाता है।सूर्य को जल अर्पित करने के बाद, पूर्व दिशा में मुख करके सूर्य देव को प्रणाम करें। 

6. अन्य उपाय में रविवार का व्रत रखा जा सकता है। सूर्य देव को लाल फूल, चंदन, धूप अर्पित करें। शाम को सूर्यास्त से पहले घी का दीपक जलाएं। सूर्य देव के 12 नामों का जाप करें। 

7.सूर्य उपासना से आध्यात्मिक विकास होता है।सूर्य देव की कृपा से स्वास्थ्य अच्छा रहता है। सूर्य देव की उपासना से जीवन में सफलता प्राप्त होती है। सूर्य देव की कृपा से सोचने की शक्ति बढ़ती है। 

8.सूर्य देव की पूजा से सुख-समृद्धि आती है। सूर्य देव शिक्षा के कारक माने जाते हैं, उनकी उपासना से शिक्षा में सफलता मिलती है। 

भारत के प्रमुख सूर्य मंदिर :- 

भारत में मुख्यतः बीस सूर्य मंदिर का उल्लेख मिलता है। ये मंदिर भारत की समृद्ध सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत का हिस्सा हैं और सूर्य देव की पूजा के लिए महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं,जो निम्न लिखित हैं - 

1.उलार्क सूर्य मंदिर,पटना

उलार्क सूर्य मंदिर, बिहार के पटना जिले में दुल्हिनबाजार प्रखंड के पास स्थित एक प्रसिद्ध सूर्य मंदिर है। यह देश के 12 प्रसिद्ध सूर्य मंदिरों में से एक माना जाता है। इसे भगवान भास्कर का तीसरा सबसे बड़ा सूर्य आर्क स्थल माना जाता है। 

2.कोणार्क सूर्य मंदिर

कोणार्क सूर्य मंदिर ओड़िशा के पुरी जिले में समुद्र तट पर पुरी शहर से लगभग 35 किलोमीटर (22 मील) उत्तर पूर्व स्थित है।यह मंदिर 13वीं शताब्दी में राजा नरसिंह देव द्वारा बनवाया गया था और यह भारत की मध्ययुगीन वास्तुकला का एकउत्कृष्ट उदाहरण है।

3.मोडेरा सूर्य मंदिर

मोढेरा का सूर्य मंदिर, गुजरात के मेहसाणा जिले में स्थित एक प्राचीन मंदिर है, जो अपनी अनूठी वास्तुकला और जटिल नक्काशी के लिए प्रसिद्ध है। यह मंदिर 11वीं शताब्दी में सोलंकी वंश के राजा भीम प्रथम के शासनकाल में बनाया गया था।  

4.कटारमल सूर्य मंदिर (उत्तराखंड)

यह मंदिर 9वीं शताब्दी में बनाया गया था और यह उत्तराखंड के सबसे महत्वपूर्ण सूर्य मंदिरों में से एक है, जो उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में स्थित एक प्राचीन सूर्य मंदिर है। यह मंदिर कुमाऊं क्षेत्र का एकमात्र सूर्य मंदिर होने का गौरव रखता है. इसे "बड़ादित्य सूर्य मंदिर" के नाम से भी जाना जाता है. यह मंदिर 2,116 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और कोणार्क के सूर्य मंदिर से भी पुराना माना जाता है।

5.रणकपुर सूर्य मंदिर (राजस्थान)

यह मंदिर 15वीं शताब्दी में बनाया गया था और यह अपनी जटिल नक्काशी और 1444 खंभों के लिए प्रसिद्ध है।

6.सूर्य पहर मंदिर (असम)

यह मंदिर असम के गोलपारा जिले में स्थित है और सूर्य देव को समर्पित है. 

7.सूर्य मंदिर, प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश)

यह मंदिर उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में स्थित है और सूर्य देव को समर्पित है।

8.दक्षिणार्क सूर्य मंदिर (बिहार)

यह मंदिर बिहार के गया जिले में स्थित है और सूर्य देव को समर्पित है।

9.देव सूर्य मंदिर (बिहार)

यह मंदिर बिहार के औरंगाबाद जिले में स्थित है और भगवान सूर्य को समर्पित है।

10.मार्तंड सूर्य मंदिर (कश्मीर)

यह मंदिर 8वीं शताब्दी में राजा ललितादित्य मुक्तापीड द्वारा बनवाया गया था और यह कश्मीर के सबसे पुराने सूर्य मंदिरों में से एक है।

11.औंगारी सूर्य मंदिर (बिहार)

यह मंदिर बिहार के नालंदा जिले में स्थित है और सूर्य देव को समर्पित है।

12.बेलार्कसूर्य मंदिर

बेलाउर सूर्य मंदिर बिहार के भोजपुर जिले के बेलाउर गाँव के पश्चिमी एवं दक्षिणी छोर पर अवस्थित एक प्राचीन सूर्य मन्दिर है। इसका निर्माण राजा सूबा ने करवाया था। बाद मे बेलाउर गाँव में कुल 52 पोखरा (तालाब) का निर्माण कराने वाले राजा सूबा को 'राजा बावन सूब' के नाम से पुकारा जाने लगा। राजा द्वारा बनवाए 52 पोखरों मे एक पोखर के मध्य में यह सूर्य मन्दिर स्थित है।

13.सूर्य मंदिर, हंडिया

हंडिया में सूर्य मंदिर, जिसे सूर्य नारायण धाम मंदिर भी कहा जाता है, बिहार के नवादा जिले के नारदीगंज प्रखंड में स्थित है. यह मंदिर द्वापर युग से जुड़ा हुआ है और माना जाता है कि इसका निर्माण भगवान कृष्ण के पुत्र साम्ब ने करवाया था. यह मंदिर कुष्ठ रोग से मुक्ति के लिए प्रसिद्ध है और माना जाता है कि मंदिर के पास स्थित तालाब के पानी में स्नान करने से कुष्ठ रोग ठीक हो जाता है।

14.सूर्य मंदिर, गया

गया में सूर्य मंदिर, देव सूर्य मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है, जो बिहार के औरंगाबाद जिले में स्थित है। यह मंदिर भगवान सूर्य को समर्पित है और छठ पूजा के दौरान विशेष रूप से प्रसिद्ध है।

15.सूर्य मंदिर, महोबा

उत्तर प्रदॆश के महोबा में सूर्य मंदिर राहिला सागर के पश्चिम दिशा में स्थित है। इस मंदिर का निर्माण चंदेल शासक राहिल देव वर्मन ने एक तालाब को खुदवाकर जिसे राहिल सागर के नाम से जाना जाता है 890 से 910 ई. के दौरान नौवीं शताब्दी में करवाया था। इस मंदिर की वास्तुकला काफी खूबसूरत है। इस मंदिर को 1203 में कुतुबुद्दीन ऐबक ने भारी नुकसान पहुँचाया।

16.रहली का सूर्य मंदिर, सागर, मध्य प्रदेश 

रहली का सूर्य मंदिर, मध्य प्रदेश के सागर जिले में स्थित एक प्राचीन मंदिर है। यह मंदिर सुनार नदी के तट पर स्थित है और कर्क रेखा पर स्थित देश का एकमात्र सूर्य मंदिर होने का गौरव रखता है. नौवीं सदी में चंदेल राजाओं द्वारा निर्मित, यह मंदिर ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व रखता है. 

17.सूर्य मंदिर, झालावाड़

झालावाड़ का सूर्य मंदिर, जिसे झालरापाटन का सूर्य मंदिर भी कहा जाता है, राजस्थान के झालावाड़ जिले के झालरापाटन शहर में स्थित है। यह मंदिर अपनी अनूठी वास्तुकला और धार्मिक महत्व के लिए प्रसिद्ध है। 

18.सूर्य मंदिर, रांची

यह झारखंड की राजधानी रांची से लगभग 40 किमी (25 मील) दूर एनएच-43 ( रांची-टाटा रोड) पर एक पहाड़ी की चोटी पर स्थित है। मंदिर का निर्माण एक विशाल रथ के रूप में किया गया है जिसमें सुंदर ढंग से डिज़ाइन किए गए अठारह पहिये और सात प्राकृतिक घोड़े हैं। मंदिर में शिव , पार्वती और गणेश सहित कई अन्य देवता भी हैं ।

19.सूर्य मंदिर, कंदाहा,  सहरसा

कन्दाहा गांव में स्थित सूर्य मंदिर, सहरसा जिले के महिषी प्रखंड की पस्तवार पंचायत में है। यह एक महत्वपूर्ण धार्मिक और ऐतिहासिक स्थल है, जो सहरसा जिला मुख्यालय से लगभग 16 किलोमीटर दूर है।इस मंदिर में सात घोड़ों के रथ पर सवार सूर्य भगवान की मूर्ति एक ग्रेनाइट स्लैब पर बनी हुई है।

20.सूर्य मंदिर, नीरथ, हिमाचल प्रदेश

यह एक प्राचीन और अनोखा सूर्य मंदिर है जो उत्तर भारत में स्थित है। यह मंदिर सतलुज नदी के बाएं तट पर स्थित है और रामपुर से 18 किलोमीटर दूर है। यह मंदिर नागर शैली में बनाया गया है और भगवान सूर्य देव (सूर्य) और उनकी पत्नी छाया को समर्पित है। 

लेखक परिचय:-

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।

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Saturday, August 16, 2025

भारत के पांच चौसठ योगिनी (जोगन) मंदिर # आचार्य डॉ राधेश्याम द्विवेदी

तांत्रिक परंपराओं की पूर्ति हेतु चौसठ योगिनी स्वरूपों की परम्परा : - शक्ति साधना के विभिन्न साधनों के रूप में इस पद्धति का विकास हुआ है। शक्ति पूजा में तांत्रिक परंपराएं शामिल होती हैं, जो देवी की पूजा के लिए विशिष्टअनुष्ठानों और मंत्रों का उपयोग करती हैं। भारत में योगिनियों की उत्पत्ति के बारे में विभिन्न कथाएं हैं। ये योगिनी मंदिर 9वीं से 12वीं शताब्दी के छतविहीन हाइपेथ्रल मंदिर हैं , जो हिंदू तंत्र में योग की महिला गुरु योगिनियों के लिए हैं, जिन्हें व्यापक रूप से देवी विशेष रूप से पार्वती के समान माना जाता है। 

मां काली का अवतार:- 

चौसठ योगिनी मंदिर या चौंसठ योगिनियां प्रायःआदिशक्ति मांकाली का अवतार या अंश होती हैं। वर्तमान मंदिर या तो गोलाकार होते हैं या आयताकार हैं। ये मध्य और उत्तरी भारत में उत्तर प्रदेश , मध्य प्रदेश और ओडिशा राज्यों में फैले हुए हैं। ये लुप्त मंदिर है जिनके स्थान जीवित योगिनी प्रतिमाओं से पहचाने जाते हैं। पूरे उपमहाद्वीप में, उत्तर में दिल्ली से लेकर पश्चिम में राजस्थान की सीमा तक, पूर्व में वृहत्तर बंगाल और दक्षिण में तमिलनाडु तक,ये मन्दिर व्यापक रूप से फैले हुए हैं ।

      कहा जाता है कि घोर नामक दैत्य के साथ युद्ध करते हुए माता ने उक्त 64 अवतार लिए थे । यह भी माना जाता है कि ये सभी माता पार्वती की सखियां हैं। इन 64 देवियों में से 10 महाविद्याएं और सिद्ध विद्याओं की भी गणना की जाती है।चौसठ योगिनी हिंदू धर्म की तांत्रिक परंपरा में देवी शक्ति के 64 रूपों का एक समूह है।

        सप्तमातृका समूह में  (ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, इंद्राणी (ऐंद्री) और चामुंडी), चंडी और महालक्ष्मी से मिलकर नौ-मातृका समूह बनाती हैं। प्रत्येक मातृका को एक योगिनी माना जाता है और वह 8 अन्य योगिनियों से संबद्ध होती है जिसके परिणामस्वरूप 81 (9 गुणा 9) का समूह बनता है।

       स्कंदपुराण का काशीखंड खंड ,जो वाराणसी में 64 योगिनियों के भेष बदलकर आने की पौराणिक कथा का वर्णन करता है, कहता है कि पूजा सरल हो सकती है, क्योंकि योगिनियों को केवल फल, धूप और प्रकाश के दैनिक दान की आवश्यकता होती है। यह शरद ऋतु के लिए एक प्रमुख अनुष्ठान का वर्णन करता है, जिसमें अग्नि आहुति, योगिनियों के नामों का पाठ और अनुष्ठानिक प्रसाद शामिल हैं, जबकि वाराणसी के सभी निवासियों को वसंत ऋतु में होली के त्योहार पर देवियों का सम्मान करने के लिए मंदिर जाना चाहिए । 

     चौसठ योगिनी मंदिर को लेकर आस-पास के लोगों का कहना है कि आज भी यह मंदिर शंकर भगवान की तंत्र साधना के कवच से ढका हुआ है। यहां पर किसी को भी रात में ठहरने की इजाजत नहीं है। ये योगिनियां देवी के विभिन्न पहलुओं का प्रतिनिधित्व करती हैं, जैसे ज्ञान, शक्ति, सौंदर्य और करुणा आदि। चौसठ योगिनी मंदिरों को अक्सर गोलाकार या आयताकार संरचनाओं में बनाया जाता है, जिनमें प्रत्येक में 64 छोटे कक्ष होते हैं, जो प्रत्येक योगिनी को समर्पित होते हैं। यहां सूर्य के गोचर के आधार पर ज्योतिष और गणित की शिक्षा दी जाती प्रदान की जाती थी। इनके मंदिर में 64 कमरे होते हैं और हर कमरे में भगवान शिव और योगिनी की मूर्ति स्थापित होती है। इसी कारण इसे चौसठ योगिनी मंदिर कहा जाता है। दिन ढलने के पश्चात् यहां तंत्र साधक(अघोरी) आते हैं और भगवान शिव की योगिनियों को जाग्रत करने का प्रयास करते हैं। मंदिर को "तांत्रिक विश्वविद्यालय" के रूप में भी जाना जाता है, क्योंकि यह माना जाता है कि यहां तंत्र-मंत्र की शिक्षा दी जाती थी। 

      योगाभ्यास करने वाली स्त्री को योगिनी या योगिन कहा जाता है। पुरुषों के लिए इसका समानांतर योगी है। अष्ट या चौंसठ योगिनियां प्रायः आदिशक्ति मां काली का अवतार या अंश होती है। घोर नामक दैत्य के साथ युद्ध करते हुए माता ने उक्त चौंसठ चौंसठ अवतार लिए थे । यह भी माना जाता है कि ये सभी माता पर्वती की सखियां हैं। इन चौंसठ देवियों में से दस महाविद्याएं और सिद्ध विद्याओं की भी गणना की जाती है। ये सभी प्रायः आद्य शक्ति काली के ही भिन्न-भिन्न अवतारी अंश हैं। कुछ लोग कहते हैं कि समस्त योगिनियों का संबंध मुख्यतः काली कुल से हैं और ये सभी तंत्र तथा योग विद्या से घनिष्ठ सम्बन्ध रखती हैं। 

     भारत में आठ या 9 प्रमुख चौसठ- योगिनी मंदिर का उल्लेख मिलता है । इसमें केवल पांच के लिखित साक्ष्य उपलब्ध होते हैं-दो ओडिशा में तथा तीन मध्य प्रदेश में। समस्त योगिनियां अलौकिक शक्तिओं से सम्पन्न हैं तथा इंद्रजाल, जादू, वशीकरण, मारण, स्तंभन इत्यादि कर्म इन्हीं की कृपा द्वारा ही सफल हो पाते हैं। प्रमुख रूप से आठ योगिनियों के नाम इस प्रकार हैं:- 

1.सुर-सुंदरी योगिनी, 2.मनोहरा योगिनी, 3. कनकवती योगिनी, 4.कामेश्वरी योगिनी, 5. रति सुंदरी योगिनी, 6. पद्मिनी योगिनी, 7. नतिनी योगिनी और 8. मधुमती योगिनी।

चौंसठ योगिनियों के नाम :- 

1.बहुरूप, 3.तारा, 3.नर्मदा, 4.यमुना, 5.शांति, 6.वारुणी 7.क्षेमंकरी, 8.ऐन्द्री, 9.वाराही, 10.रणवीरा, 11.वानर-मुखी, 12.वैष्णवी, 13.कालरात्रि, 14.वैद्यरूपा, 15.चर्चिका, 16.बेतली,17.छिन्नमस्तिका, 18.वृषवाहन, 19.ज्वालाकामिनी, 20.घटवार, 21.कराकाली, 22.सरस्वती, 23.बिरूपा, 24.कौवेरी. 25.भलुका, 26.नारसिंही, 27.बिरजा,28.विकतांना, 29.महालक्ष्मी, 30.कौमारी,31.महामाया, 32.रति, 33.करकरी, 34.सर्पश्या, 35.यक्षिणी, 36.विनायकी, 37.विंध्यवासिनी, 38. वीरकुमारी, 39. माहेश्वरी, 40.अम्बिका, 41.कामिनी, 42.घटाबरी, 43.स्तुती, 44.काली, 45.उमा, 46.नारायणी, 47.समुद्र, 48.ब्रह्मिनी, 49.ज्वालामुखी,50.आग्नेयी, 51.अदिति, 51.चन्द्रकान्ति, 53.वायुवेगा, 54.चामुण्डा, 55.मूरति, 56.गंगा, 57.धूमावती, 58.गांधार, 59.सर्व मंगला, 60.अजिता, 61.सूर्यपुत्री 62.वायु वीणा, 63.अघोर और 64. भद्रकाली।

1.चौसठ योगिनी मंदिर, मुरैना:- 

मध्य प्रदेश के मुरैना स्थित चौसठ योगिनी मंदिर का विशेष महत्व है। इस मंदिर को गुजरे ज़माने में तांत्रिक विश्वविद्यालय कहा जाता था। उस दौर में इस मंदिर में तांत्रिक अनुष्ठान करके तांत्रिक सिद्धियाँ हासिल करने के लिए तांत्रिकों का जमवाड़ लगा रहता था। मौजूदा समय में भी यहां कुछ लोग तांत्रिक सिद्धियां हासिल करने के लिए यज्ञ करते हैं। ग्रामपंचायत मितावली, थाना रिठौराकलां, ज़िला मुरैना (मध्य प्रदेश) में यह प्राचीन चौंसठ योगिनी शिव मंदिर है। इसे ‘इकंतेश्वर महादेव मंदिर’ के नाम से भी जाना जाता है। इस मंदिर की ऊंचाई भूमि तल से 300 फीट है। इसका निर्माण तत्कालीन प्रतिहार क्षत्रिय राजाओं ने किया था। यह मंदिर गोलाकार है। इसी गोलाई में बने चौंसठ कमरों में हर एक में एक शिवलिंग स्थापित है। इसके मुख्य परिसर में एक विशाल शिव मंदिर है।भारतीय पुरातत्व विभाग के मुताबिक़, इस मंदिर को नवीं सदी में बनवाया गया था। कभी हर कमरे में भगवान शिव के साथ देवी योगिनी की मूर्तियां भी थीं, इसलिए इसे चौंसठ योगिनी शिवमंदिर भी कहा जाता है। देवी की कुछ मूर्तियां चोरी हो चुकी हैं। कुछ मूर्तियां देश के विभिन्न संग्रहालयों में भेजी गई हैं। तक़रीबन 200 सीढ़ियां चढ़ने के बाद यहां पहुंचा जा सकता है। यह सौ से ज़्यादा पत्थर के खंभों पर टिका है। किसी ज़माने में इस मंदिर में तांत्रिक अनुष्ठान किया जाता था।यह स्थान ग्वालियर से करीब 40 कि.मी. दूर है। इस स्थान पर पहुंचने के लिए ग्वालियर से मुरैना रोड पर जाना पड़ेगा। मुरैना से पहले करह बाबा से या फिर मालनपुर रोड से पढ़ावली पहुंचा जा सकता है। पढ़ावली ऊंची पहाड़ी पर स्थित है। यही वह शिवमंदिर है, जिसको आधार मानकर ब्रिटिश वास्तुविद् सर एडविन लुटियंस ने संसद भवन बनाया।

2. चौंसठ योगिनी मंदिर, जबलपुर:- 

चौंसठ योगिनी मंदिर जबलपुर, मध्य प्रदेश का प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है। यह मंदिर जबलपुर की ऐतिहासिक संपन्नता में एक और अध्याय जोड़ता है। प्रसिद्ध संगमरमर चट्टान के पास स्थित इस मंदिर में देवी दुर्गा की 64 अनुषंगिकों की प्रतिमा है। इस मंदिर की विषेशता इसके बीच में स्थापित भागवान शिव की प्रतिमा है, जो कि देवियों की प्रतिमा से घिरी हुई है। इस मंदिर का निर्माण सन 1000 के आसपास कलचुरी वंश के शासकों ने करवाया था। जबलपुर का ‘चौंसठ योगिनी मंदिर’ सुप्रसिद्ध पर्यटन स्थल भेड़ाघाट व धुआंधार जलप्रपात के नजदीक एक ऊंची पहाड़ी के शिखर पर स्थापित है। पहाड़ी के शिखर पर होने के कारण यहां से काफ़ी बड़े भू-भाग व बलखाती नर्मदा नदी को निहारा जा सकता है। चौंसठ योगिनी मंदिर को दसवीं शताब्दी में कलचुरी साम्राज्य के शासकों ने मां दुर्गा के रूप में स्थापित किया था। लोगों का मानना है कि यह स्थली महर्षि भृगु की जन्मस्थली है, जहां उनके प्रताप से प्रभावित होकर तत्कालीन कलचुरी साम्राज्य के शासकों ने इस मंदिर का निर्माण करवाया। वर्तमान में मंदिर के अंदर भगवान शिव व मां पार्वती की नंदी पर वैवाहिक वेशभूषा में बैठे हुए पत्थर की प्रतिमा स्थापित है। मंदिर के चारों तरफ़ करीब दस फुट ऊंची गोलाई में चारदीवारी बनाई गई है, जो पत्थरों की बनी है तथा मंदिर में प्रवेश के लिए केवल एक तंग द्वार बनाया गया है। चारदीवारी के अंदर खुला प्रांगण है, जिसके बीचों- बीच करीब डेढ़-दो फुट ऊंचा और करीब 80-100 फुट लंबा एक चबूतरा बनाया गया है।

      चारदीवारी के साथ दक्षिणी भाग में मंदिर का निर्माण किया गया है। मंदिर का एक कक्ष जो सबसे पीछे है, उसमें शिव- पार्वती की प्रतिमा स्थापित है। इसके आगे एक बड़ा-सा बरामदा है, जो खुला है। बरामदे के सामने चबूतरे पर शिवलिंग की स्थापना की गई है, जहां पर भक्तजन पूजा-पाठ करवाते हैं।मंदिर की चारदीवारी जो गोल है, उसके ऊपर मंदिर के अंदर के भाग पर चौंसठ योगिनियों की विभिन्न मुद्राओं में पत्थर को तराश कर मूर्तियां स्थापित की गई हैं। लोगों का मानना है कि ये सभी चौंसठ योगिनी बहनें तथा तपस्विनियां थीं, जिन्हें महाराक्षसों ने मौत के घाट उतारा था। राक्षसों का संहार करने के लिए यहां स्वयं दुर्गा को आना पड़ा था। इसलिए यहां पर सर्वप्रथम मां दुर्गा की प्रतिमा कलचुरी के शासकों द्वारा स्थापित कर दुर्गा मंदिर बनाया गया था तथा उन सभी चौंसठ योगिनियों की मूर्तियों का निर्माण भी मंदिर प्रांगण की चारदीवारी पर किया गया। कालांतर में मां दुर्गा की मूर्ति की जगह भगवान शिव व मां पार्वती की मूर्ति स्थापित की गई है, ऐसा प्रतीत होता है। इस मंदिर के सीढियों से ऊपर चढ़ने के बाद जैसे ही ऊपर पहुँचा तो वहाँ बनी विशाल गोलाकार आकृति की चारदीवारी देखकर थोड़ा सा आश्चर्य हुआ था कि यह मन्दिर गोलाई में क्यों है? मन्दिर के बाहर बैठने के लिये पत्थर के स्थान बने हुए थे। मुख्य प्रवेश मार्ग के बाहर एक चबूतरे के नीचे सुरंग जैसा निर्माण कार्य दिखायी दिया। मन्दिर में प्रवेश करने का मुख्य द्धार बहुत ज्यादा ऊँचा नहीं बना था इसलिये उसमें से झुक कर अन्दर जाना पड़ा। अन्दर जाते ही सम्पूर्ण मन्दिर दिखायी दे गया। गोलाई वाली चारदीवारी से मन्दिर के शीर्ष व झन्ड़े ही दिख रहे थे। सबसे पहले मुख्य मन्दिर के दर्शन किये गये। उसके बाद वहाँ गोलाई वाली चारदीवारी में बनाई हुई मूर्तियाँ देखी गयी। मुख्य मन्दिर में तो सिर्फ़ एक ही मूर्ति है। जो भगवान शंकर व पार्वती को समर्पित है। मन्दिर में लगी हुई 64 मूर्तियों को देखने की बारी आयी तो उन मूर्तियों की दुर्दशा देखकर बड़ा बुरा लगा। कलाकारों ने महीनों की मेहनत से इन्हे तैयार किया गया होगा। टूटी-फ़ूटी कटी हुई मूर्तियों के बारे में पता लगा कि यहाँ शाँत धर्म के किसी धर्मनिरपेक्ष हमलावर ने हमला बोला था यहाँ की सभी 64 की 64 योगिनी की मूर्तियाँ तोड़ी गयी है, एक भी मूर्ति ऐसी नहीं मिली जो बिना तोड़-फ़ोड़ के बची हो।

3. चौंसठ योगिनी मंदिर, खजुराहो:-

शिवसागर झील के दक्षिण पश्चिम में स्थित चौसठ योगिनी मंदिर चंदेल कला की प्रथम कृति है। यह मंदिर भारत के सभी योगिनी मंदिरों में उत्तम है तथा यह निर्माण की दृष्टि से सबसे अधिक प्राचीन है। इतिहासकार बताते हैं कि यह खजुराहो का सबसे पुराना मंदिर है। इसे लोग एकत्तार्सो महादेव मंदिर के नाम से भी जानते हैं। यहां पहले 64 योगिनियों की मूर्तियां हुआ करती थीं, जिनका दर्शन करने के लिए लोग दूर- दूर से आते हैं।यह मंदिर खजुराहो की एक मात्र मंदिर है, जो स्थानीय कणाश्म (ग्रेनाइट) पत्थरों से बनी है तथा इसका विन्यास उत्तर- पूर्व से दक्षिण- पश्चिम की ओर है । यह मंदिर 18 फुट जगती पर आयताकार निर्मित है। इसमें बहुत सी कोठरियाँ बनी हुई हैं। प्रत्येक कोठरी 2.5’ चौड़ी और 4′ लंबी है। इनका प्रवेश द्वार 32 ’ ऊँचा और 16’ चौड़ा है। हर कोठरी के ऊपर छोटे- छोटे कोण स्तुपाकार शिखर है। शिखर का निचला भाग चैत्य गवाक्षों के समान त्रिभुजाकार है। चैसठ योगिनी मंदिर खजुराहो का एक प्रसिद्ध तीर्थस्थान है। 875-900 ई. के आसपास बना यह मंदिर खजुराहो के मंदिरों के पश्चिमी समूह में आता है। यह मंदिर 64 योगिनी को समर्पित है जो देवी माँ के रूप है। इस मंदिर का डिज़ाइन साधारण और बिना किसी सजावट के है। इसकी दीवारों पर खजुराहो के मंदिरों की तरह नक्काशी की कमी है। इस मंदिर में 67 तीर्थ हैं ,जिनमें से 64 प्रत्येक योगिनी के निवास स्थान के रूप में उपयोग किया जाते हैं। एक बड़ा मंदिर महिषासुर मर्दिनी के रूप में देवी दुर्गा को समर्पित है। बाकी मंदिर मैत्रिका ब्राह्मणी और महेश्वरी के लिए है। यह मंदिर खजुराहों के सबसे पुराने मंदिरों में से एक है। यह भारत का सबसे पुराना योगिनी मंदिर है।

4. चौंसठ योगिनी मंदिर ,हीरापुर , उडीसा :- 

हीरापुर भुवनेश्वर से 20 किलोमीटर दूर एक छोटा सा गांव है। इसी गांव में भारत की सबसे छोटी योगिनी मंदिर ‘चौसठ योगिनी’ स्थित है। यह भारत का सबसे पुराना योगिनी मंदिर है। कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण ब्रहम वंश की महारानी के द्वारा 9वीं शताब्दी में हुआ था। इसका उत्खनन 1958 ई. में किया गया था।यह मंदिर गोलाकार आकृति के रुप में बनी हुई है जिसका व्यास 30 फीट है। इसकी दीवारों की ऊंचाई 8 फीट से ज्यादा नहीं है। यह मंदिर भूरे बलूए पत्थर से निर्मित है। इसके अन्दर वृत्ताकार दीवालों की प्रत्येक गुहिकाओं-कोटरों में देवियों की मूर्तियां स्थापित हैं। इनमें 56 काले ग्रेनाइट पत्थरों से निर्मित हैं। सबके मध्य में मां काली की प्रतिमा स्थापित है। यह मानव शिर पर खड़ी हैं। इसे चण्डी मण्डप कहा जाता है। इसके चारो ओर 8 देवियों की प्रमिताये बनी हैं। कुछ इतिहासकारों का विश्वास है कि चण्डी मण्डप में एक महाभौरव की मूर्ति की पूजा होती थी। इस मंदिर में 64 योगिनियों की मूर्त्तियां बनाई गई है। इनमें से 60 मूर्त्तियां दीवारों के आले में स्थित है। शेष मूर्त्तियां मंदिर के मध्य में एक चबूतरे पर स्थापित है। मध्य के इस चबूतरे पर शिवलिंग स्थापित होने के प्रमाण मिलते हैं जो उचित प्रतीत होती हैं। इस मंदिर का बाहरी दीवार भी काफी रोचक है। इन दीवारों में नौ आले हैं जिनमें महिला पहरेदार या नव दुर्गा के स्वरूप की मूर्त्तियां स्थापित है। हीरापुर योगिनी मंदिर में सक्रिय पूजा ( पूजा ) अभी भी जारी है।

5.रानीपुर-झरिया बलांनगिर उडीसा का चौंसठ योगिनी मन्दिर:-

ईटों से निर्मित यह एतिहासिक मन्दिर उड़ीसा के बलांगिर जिले के तितिलागढ़ तहसील रानीपुर झरिया नामक जुड़वे गांव में स्थित है। इस मंदिर के लिंटल पर एक अभिलेख में एक शैव आचार्य गगन शिव ने इसके दानकर्ता थे।सोमतीर्थ का जिक्र पुराण में तीसरी चैथी शताब्दी में हुआ है। इसे सोम तीर्थ भी कहा गया है।यह नौवीं- दसवीं ई. मे सोमवंशी केशरी राजाओं ने निर्मित कराया था। इस क्षेत्र में वैष्णव, बौद्ध,तांत्रिक पूजा पद्धति में प्रचलित था। इस मन्दिर में त्रिमुखी शिव की पाषाण मुर्ति है। इसके मध्य में पार्वती की खड़ी हुई प्रतिमा है। इस मंदिर मं 64 योगिनों के विभिन्न मुद्राओं की मूर्तियां स्थापित हैं।तितिलागढ़ प्राचीन राजपथ पर स्थित इसे पांचवी शताब्दी में पाणिनी ने भी वर्णित किया है जो मध्य भारत से दक्षिणापथ को जाता है। यह टोंग जार नदी के तट पर बसा हुआ है। पास ही सोमेश्वर सागर भी तथा पहाड़िया भी हैं।

लेखक परिचय:-

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं। मोबाइल नंबर +91 8630778321; वॉर्ड्सऐप नम्बर+919412300183)



Friday, August 15, 2025

श्री महामंत्रराज जपविधि के विविध सोपान द्विवेदि आचार्य डॉ. राधे श्याम


तैयारी और वातावरण :-
सबसे पहले नहा धोकरशुद्ध वस्त्र पहन ले। इन वस्तुओं को सिर्फ पूजा के समय ही पहनने है। शुद्ध आसन पर बैठकर पूर्वाविमुख या उत्तरविमुख होकर बैठना चाहिए। किसी भी मकान का ईशान कोण पूर्व और उत्तर कोण पूरी तरह से साफ-सुथरा हवादार होना चाहिए। जहां पर जूते चप्पल नहीं हो, झूठा खाना पीना आदि जहां पर ना हो , किसी भी प्रकार की टीवी की हल्ला गुल्ला की कोई आवाज ना आती हो। हल्की सुगंध धूप अगरबत्ती हो और पीले रंग के ऊनी कपड़े का आसन हो, जिस पर बैठकर बैठकर मंत्र जाप करें। 
        पूजा पाठ धर्म-कर्म जब आदि शुभ कार्य करते समय हमारे शरीर से ऊर्जा शक्ति उत्पन्न होने लग जाती है। यदि शरीर का कोई भी भाग हमारा पृथ्वी को छु रहा है तो हमारी सारी ऊर्जा की शक्ति पृथ्वी मे चली जायेगी। पूजा का जप का सारा लाभ पृथ्वी को मिलेगा । इसका हमें कोई फल नहीं मिलेगा। पूजा करते समय ध्यान रहे हमारे शरीर का कोई भी हिस्सा धरती को ना छुने पाये तभी मंत्र जाप का सही फल मिलता है। 
      जाप स्थान आप पसंद करें उस बैठने के स्थान को आसन को बदलना नहीं चाहिए। माला को हर रोज जाप करते समय आँखो से जरूर छुये और उस स्थान का वातावरण शुद्ध और शांत बनाया जाता है, तथा उस स्थान पर अध्यात्मिक तरंगे ,दिव्य, स्पनदंन उत्पन्न होने लग जाते हैं। उसी तरह उसी जगह जप करने से जाप का फल बढ़ता जाएगा। जाप समाप्ति के बाद भी उस जगह 5,6 मिनट चुपचाप बैठे रहना चाहिए। इस प्रकार वह शक्ति हमारे शरीर में समा जाती है। 
        अपने इष्ट देव और अपने पितरों की फोटो सुंदर तरीके से सजाकर सामने रखें फोटो प्रतिमा सफेद या लाल पीले वस्त्र बिछाकर उस पर रखे। धूप ,दीप, चंदन तिलक हररोज लगाएं और शुद्ध जल का पात्र भरकर रखें। गाय के घी का दीपक जलाकर रखें। मीठी सुगंध धुप जब तक जाप चालू है तब तक जरूर रखें। जिस नाम का मंत्र जप करें उसको पूर्ण भावना ,भक्ति और शान्त से करे। जाप करते समय इधर-उधर बातचीत ना किया जाए। जो व्यक्ति प्रत्येक नाम या मंत्र का पूर्ण अर्थ समझते हुए जाप करता है । सबसे उत्तम मानसिक जाप वही होता है। जाप करने से मानसिक शांति प्राप्त होती है। अंगूठे और अनामिका से जाप करने से सिद्धि मे सफलता प्राप्त होती है। जाप हमेशा अंगूठे एवं उगली के अग्रभाग से करना चाहिए।
 प्रथम गुरुदेव श्री श्री 1008 पण्डित राम बल्लभ शरणजी महराज वेदांती 
जय जय श्री गुरु रामबल्लभा शरण कृपाला।
लीलामय अवतार करत संतन प्रतिपाला।
गुरु वशिष्ट सम तेज देखि मुख पाप नशाहीं।
बुद्ध वृहस्पति सरिस विमुख आश्रित बन जाहीं।।

द्वितीय गुरुदेव श्री श्री 1008 पण्डित राम पदारथ दास महराज वेदांती जी 
जय गुरु देव दयालु दयामय जयति सदा सुख धामा।
जय श्री राम पदारथ स्वामी वेदांती शुभ नामा ।
जय जग भूषण अपगत दूषण जय संतन प्रिय कारी ।
जय वैष्णव कुल पूज्य प्रभाकर दीनन के हितकारी।।
        मंत्र जाप किसी भी समय किया जा सकता है यदि मन अनियंत्रित है तो मंत्र जप उच्च स्वर में करना चाहिए। यह उपाय मन को शांत को नियंत्रित करने का एक चमत्कारी साधन है । 
    तृतीय गुरुदेव श्री हरिनामदास              महाराज वेदांती
जय जय श्री हरिनाम दास गुरुदेव कृपाला।
करुणामय अवतार करत भक्तन प्रतिपाला।
दिव्य सूर्य सम तेज निरखि त्रयताप नशाहीं।
करत विमल उपदेश अवनि तल भक्तनह माही।।

परम पूज्य चतुर्थ (वर्तमान)गुरुदेव श्री शंकरदास जी महाराज वेदांती जी, 
श्री राम बल्लभा कुंज ,श्री अयोध्या जी
जय जय श्री रामशंकर दास जय महाराज वेदांती।
हरहु कष्ट अपार भवसागर पार दो मन की शान्ति।
 राम बल्लभा कुंज अयोध्या पीठासीन अवस्थित।
सिया राम जी विवाह महोत्सव भव्य आयोजित।।
श्रीराम का षडक्षर मंत्र चिन्तामणि है:-
प्रभू राम का नाम स्वयं में एक महामंत्र है। राम नाम की महिमा अपरंपार और नैया को पार लगाने वाली है । राम नाम का मंत्र सर्व रूप मे ग्रहण किया जाता है । इसके जाप और केवल धयान से ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति सहज हो जाती है। अन्य नामो कि अपेक्षा राम नाम हजार नामों के समान है । राम मंत्र को तारक मंत्र भी कहा जाता है। इस मंत्र का जाप करने से सभी दुःखों का अंत होता है। प्रतिदिन भगवान श्रीराम के मंत्र का जाप करने से मनचाही कामना पूरी होती है। श्रीराम का षडक्षर मंत्र अति लाभकारी है। षडक्षर राम मंत्र 'राम रामाय नम:' है जिसे चिन्तामणि भी कहा जा सकता है, किसी भी कामना को पूर्ण करने के लिए इस राम मंत्र का साधक को, उपासक को अनुष्ठान करना चाहिए।
       श्री महामंत्रराज जप विधि
     पंडित श्री रामबल्लभाशरण जी                   महाराज द्वारा संपादित
                     तथा
       पंडित श्री राम शंकर दास जी 
          वेदांती द्वारा अनुमोदित
                      तथा
       द्विवेदि आचार्य डॉ. राधेश्याम                          द्वारा प्रस्तुति 

       द्विवेदि आचार्य डॉ. राधेश्याम 

            श्री सीतारामाभ्याम नमः।
            श्रीमते रामानंदाय नमः।
             ॐ रामाय नमः।
             ॐ राम भद्राय नमः।
             ॐ रामचन्द्राय नम:।
ऊपर के मन्त्रों से तीन बार आचमन करके दाएं हाथ से जल लेकर बाएं हाथ से ढक कर आगे के मंत्र से अभिमंत्रित करें।
मंत्र का अभिमंत्रण :-
     ॐ नमो भगवते रघुनंदाय रक्षोघ्नविशदाय मधुर प्रसन्न वदनाय अमित तेजसे बलाय रामाय विश्नवे नमः। ॐ क्लीं तेजसे राम तारक ब्रह्म स्वाहा।
 (( विनियोग : प्रत्येक देवी-देवता की साधना में मंत्र जप, कवच एवं स्तोत्र पाठ तथा न्यासादि करने से पहले विनियोग पढ़ा जाता है। इसमें देवी या देवता का नाम, उसका मंत्र, उसकी रचना करने वाले ऋषि, उस स्तोत्र के छंद का नाम, बीजाक्षर शक्ति और कीलक आदि का नाम लेकर अपने अभीष्ट मनोरथ सिद्धि के लिए जप का संकल्प लिया जाता है। इसके बाद न्यास किए जाते हैं। उपरोक्त विनियोग में जिन देवता, ऋषि, छंद, बीजाक्षर शक्ति और कीलक आदि का नाम होता है, उन्हीं को अपने शरीर में प्रतिष्ठित करते हैं।))
पुनः अभिमंत्रित जल को बाएं हाथ में रख कर षड अक्षर राम मंत्र को पढ़कर आठ बार सिर पर छिड़कें। फिर दाएं हाथ से जल लेकर आगे के मंत्र को विनियोगः तक पढ़कर जल गिरा दें।
              विनियोग:-
ॐ अस्य श्रीराम षडअक्षरमन्त्रराजस्य ब्रह्मा ऋषि, गायत्री छंद: श्री रामो देवता, रां बीजम, नमः शक्तिः, रामाय कीलकम श्री रामप्रीतयर्थे जपे विनियोग:। 
आगे के मंत्र को पढ़ पढ़ कर मंत्रोक्त नामानुसार प्रत्येक अंग का स्पर्श करते हुए ऋष्यादिन्यास करने चाहिए।
((न्यास विधि:-
न्यास कई प्रकार के होते हैं, किंतु ऋष्यादिन्यास, हृदयादिन्यास, अंगन्यास, करन्यास और दिगन्यास ही मुख्य हैं। 
ऋष्यादिन्यास:-
जब ‘नमः शिरसि’ बोला जाता है तो दाएं हाथ की पांचों उंगलियों को मस्तक से स्पर्श किया जाता है। ‘नमः मुखे’ कहकर होंठों के बीच में ग्रास मुद्रा बनाकर या वैसे ही उंगलियों से मुख का स्पर्श किया जाता है। इसी प्रकार ‘नमः हृदये’ कहकर हृदय का स्पर्श, ‘नमः गुह्ये’ कहकर जननेंद्रिय वाले स्थान का स्पर्श, ‘नमः पादयोः’ कहकर दोनों घुटनों या पंजों का स्पर्श और ‘नमः नाभौ’ कहकर नाभि-स्थल का स्पर्श किया जाता है, जबकि ‘नमः सर्वांगे’ कहकर दोनों हाथों से दोनों भुजाओं एवं समस्त शरीर का स्पर्श करने का विधान है।))
ऋष्यादिन्यास:-
श्री ब्रह्मने ऋषये नमः शिरसि। 
ॐ गायत्री छन्दसे नमः मुखे। 
ॐ श्री राम देवतायै नमः हृदि।
ॐ राम बीजाय नमः गुह्ये।
ॐ नमः शक्तये नमः पादयो:।
ॐ रामाय कीलकाय नमः सर्वांगे।।
(( करन्यास : यह न्यास पद्मासन की मुद्रा में घुटनों पर हाथ रखते हुए किया जाता है। ‘अंगुष्ठाभ्यां नमः’ कहकर तर्जनी को मोड़कर, अंगूठे की जड़ से जहां मंगल का क्षेत्र है, वहां लगाते हैं। फिर ‘तर्जनीभ्यां नमः’ कहकर अंगूठे की नोक से तर्जनी के छोर का स्पर्श करते हैं। फिर ‘मध्यमाभ्यां नमः’ कहकर मध्यमा का अंतिम भाग, ‘अनामिकाभ्यां नमः’ कहकर अनामिका के अंतिम भाग और ‘कनिष्ठिकाभ्यां नमः’ कहकर कनिष्ठिका उंगली के अंतिम भाग से अंगूठे की नोक का स्पर्श करते हैं। फिर ‘करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः’ कहकर दोनों हाथों की हथेलियों को एक-दूसरे के ऊपर-नीचे दो बार करके एक-दूसरे के ऊपर-नीचे घुमाते हैं।))
करन्यास: -
ॐ राम अंगुष्ठाभ्यां नमः।
ॐ रीन तर्जनीभ्यां नमः। 
ॐ रुन मध्यमाभ्यां नमः। 
ॐ रैन अनामिकाभ्यां नमः। 
ॐ रौन कनिष्ठिकाभ्यां नमः। स
ॐ र: करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।
(( हृदयादिन्यास :- 
हृदयादिन्यास के अंतर्गत मंत्राक्षरों को शरीर के मुख्य स्थानों- मस्तक, हृदय, शिखा-स्थान (जहां आत्मा का वास है), नेत्र तथा सर्वांग की रक्षा हेतु प्रतिष्ठित किया जाता है ताकि समस्त शरीर मंत्रमय हो जाए और शरीर में देवी या देवता का आविर्भाव हो जाए।))
अंगन्यास: -
ॐ रान हृदयाय नमः। 
ॐ रीन शिरसे स्वाहा।
ॐ रुन शिखायै वषट्। 
ॐ रैन कवचाय हुम्। 
ॐ रौन नेत्रत्रयाय वौषट्। 
ॐ र: अस्त्राय फट्।
ॐ राम नमः मुर्घनि।
ॐ रामाय नमः नाभौ।
ॐ नमो नमः पादयो:।
ॐ राम बीजाय नमः दक्षिणस्तने।
ॐ नमः शक्त्ये नमः वामस्तने।
ॐ रामाय कीलकाय नमः हृदि।।
(( प्राणायाम-
मन मे प्राणायाम करके सूर्यनारायण को मन ही मन नमस्कार करें । अंगूठे से नाक के दाहिने छिद्र को दाएं हाथ के अंगूठे से दबाकर बाएं छिद्र से श्वसनों को धीरे-धीरे खींचते हुए राम इस बीज मंत्र को 16 बार पढ़ कर पूरक करें। फिर दूसरे प्रकार से जब सांस खींचना रुक जाए तब अनामिका और कनिष्ठिका अंगुली से नाक के बाएं छिद्र को भी दबा 64 बार बीज मंत्र को पढ़कर स्वास रोककर कुंभक करें। फिर अंगूठे को हटाकर दाहिने छिद्र से श्वास को धीरे-धीरे छोड़ते हुए 32 बार बीज मंत्र पढ़ कर रेचक करें। विशेष जानकारी अपने सदगुरु या किसी जानकर आचार्य से प्राप्त ध्यान करें। अब आंखें बंद करके स्वयं निर्धारण संख्या को करें ऐसी संख्या का प्रत्येक दिन नियम से करें कम या ज्यादा ना करें । जप करते समय शुद्ध मन में अपने इष्ट देव के मनोहर रूप के दिव्य दर्शन आप को बंद आंखों से ही होने लग जाएंगे।आपको धिरे धिरे एक दिव्य परमानंद परम शांति सुख का अद्भुत आनंद प्राप्त होगा। इस दिव्यानंद को आप किसी दूसरे को बता नहीं पाएंगे आप के सभी प्रकार के कष्ट ,रोग, दोष आपके सभी प्रकार के गृह कलेश का नाश हो जाएगा। ))
                       ध्यान:-
वामे भूमिसुता पुरश्च 
हनुमान्पश्चात्सुमित्रा सुतः
शत्रुघ्नो भरतश्च पार्श्व दळयो राछ्वीय्यादि कोनेषुच।
सुग्रीवाश्चा, विभीषनश्चा युवराट तारासुतो जांबवान
मध्ये नील सरोज कोमल रुचिं 
रामं भजे श्यामलं ।।
                 पुनः
12 बार राम गायत्री मंत्र जपें
राम गायत्री मंत्र  
ॐ दाशरथये विद्महे जानकी वल्लभाय धीमहि तन्नो रामः प्रचोदयात् ॥
         6 मन्त्रों को एक में मिलाकर 5 बार जपें।
ॐ लम लक्षमनाय नमः।
ॐ भम भरताय नमः।
ॐ शम शत्रुघ्नाय नमः।
ॐ श्रीं सीतायै स्वाहा। रां रामाय नमः।
     पुनः युगल मंत्र 108 बार जपें।
श्रीं सीतायै स्वाहा। रां रामाय नमः।
             फिर
  रां रामाय नमः।
राम तारक मंत्र 6000 या यथा शक्ति जपे।
        पुनः युगल मंत्र 108 बार जपें।
श्रीं सीतायै स्वाहा। रां रामाय नमः।
इसके बाद 6 मन्त्रों को एक में मिलाकर 5 बार जपें।
ॐ लम लक्षमनाय नमः।
ॐ भम भरताय नमः।
ॐ शम शत्रुघ्नाय नमः।
ॐ श्रीं सीतायै स्वाहा। रां रामाय नमः।
    पुनः 12 बार राम गायत्री मंत्र जपें।
राम गायत्री मंत्र :-
ॐ दाशरथये विद्महे जानकी वल्लभाय धीमहि तन्नो रामः प्रचोदयात् ॥
पुनः पूर्ववत प्राणायाम करना चाहिए।
ॐ श्री राम: शरणं मम।
श्रीमद् राम चन्द्र चरणौ शरणं प्रपदये।
श्रीमते रामचन्द्राय नम:।
सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते ।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद्व्रतं मम ॥
 (रामायण 12/ 20॥)
श्रीरामचन्द्र रघुनाथ जगच्छरण्य 
राजीव लोचन रघुत्तम रावणारे।
सीतापते रघुपते रघुवीरराम
त्रायस्व राघव हरे शरणागत माम।।
         ++-------++
(( राम जी के कुछ अन्य ध्यान मंत्र:-
इसे यथा संभव समय निकाल कर बार बार पढ़ना और दुहराना चाहिए।

ॐ आपदामप हर्तारम दातारं सर्व सम्पदाम,
 लोकाभिरामं श्री रामं भूयो भूयो नामाम्यहम ।।

श्री रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे 
रघुनाथाय नाथाय सीताया पतये नमः ।।

लोकाभिरामं रणरंगधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्। कारुण्यरूपं करुणाकरं तं श्रीरामचन्द्रं शरणं प्रपद्ये॥ 

आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसम्पदाम्।
लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो-भूयो नामाम्यहम्॥

 राम रामेति रामेति रामे मनोरमे ।
 सहस्त्र नाम तत्तुन्यं राम नाम वरानने || ))
           
                  इति शुभम्।


एशिया की सबसे बड़ी झील चिल्का # आचार्य डॉ राधेश्याम द्विवेदी


विस्तार:- 

चिल्का, सातपाड़ा, खोरधा जिला पुरी , ओडिशा राज्य में स्थित एक खारे पानी की झील है। यह भारत की सबसे बड़ी और दुनिया की दूसरी एशिया की सबसे बड़ी तटीय झील है , जो अपनी जैव विविधता के लिए प्रसिद्ध है, जिसमें कई प्रवासी पक्षी और समुद्री जीव जैसे कि इरावदी डॉल्फ़िन शामिल हैं। 

     इसकी लंबाई 65 किमी चौड़ाई 9 से 20 किमी.और गहराई लगभग 2 मी.है!  मोटे रूप में चिलिका झील 70 किलोमीटर लम्बी तथा 30 किलोमीटर चौड़ी है। यह समुद्र का ही एक भाग है जो महानदी द्वारा लायी गई मिट्टी के जमा हो जाने से समुद्र से अलग होकर एक छीछली झील के रूप में बन गया है। दिसम्बर से जून तक इसमें समुद्र का पानी वापस गिरने से  झील का जल खारा रहता है, किन्तु वर्षा ऋतु में बरसात की नदियों का पानी गिरने से इसका जल मीठा हो जाता है। इसकी औसत गहराई 3 मीटर है। यह विशाल मछली पकड़ने की जगह है। जो 132 गाँवों में रह रहे 150,000 मछुआरों को आजीविका का साधन उपलब्ध कराती है।

     इस खाड़ी में लगभग 160 प्रजातियों के पछी पाए जाते हैं। कैस्पियन सागर, बैकाल झील, अरल सागर और रूस, मंगोलिया, लद्दाख, मध्य एशिया आदि विभिन्न दूर दराज़ के क्षेत्रों से यहाँ पछी उड़ कर आते हैं। ये पछी विशाल दूरियाँ तय करते हैं। प्रवासी पछी तो लगभग 12000  किमी से भी ज्यादा की दूरियाँ तय करके चिल्का झील पंहुचते हैं।

     1981 में, चिल्का झील को रामसर घोषणापत्र के मुताबिक अंतरराष्ट्रीय महत्व की आर्द्रभूमि के रूप में चुना गया। यह इस महत्व वाली पहली पहली भारतीय झील थी।

     एक सर्वेक्षण के मुताबिक यहाँ 45% पछी भूमि, 32% जलपक्षी और 23% बगुले हैं। यह झील 14 प्रकार के रैपटरों का भी निवास स्थान है। लगभग 155 संकटग्रस्त व रेयर इरावती डॉल्फ़िनों का भी ये घर है। इसके साथ ही यह झील 37 प्रकार के सरीसृपों और उभयचरों का भी निवास स्थान है। यात्री अपनी यात्रा में इन्हें देखने का अवसर पाते हैं।

    उच्च उत्पादकता वाली मत्स्य प्रणाली वाली चिल्का झील की पारिस्थितिकी आसपास के लोगों व मछुआरों के लिये आजीविका उपलब्ध कराती है। मॉनसून व गर्मियों में झील में पानी का क्षेत्र क्रमश: 1165 से 906 किमी. तक हो जाता है। एक 32 किमी. लंबी, संकरी, बाहरी नहर इसे बंगाल की खाड़ी से जोड़ती है। यह नौकायन का बहुत सशक्त साधन भी है। सीडीए द्वारा हाल ही में एक नई नहर भी बनाई गयी है जिससे झील को एक और जीवनदान मिला है। लघु शैवाल, समुद्री घास, समुद्री बीज, मछलियाँ, झींगे और केकणे आदि चिल्का झील के खारे जल में फलते फूलते हैं।

इतिहास:- 

भूवैज्ञानिक साक्ष्य इंगित करता है कि चिल्का झील अत्यंतनूतन युग (18 लाख साल से पूर्व 10,000 साल तक) के बाद के चरणों के दौरान बंगाल की खाड़ी का हिस्सा था। चिल्का झील के ठीक उत्तर में खुर्दा जिले के गोग्लाबाई सासन गांव (20°1′7″N 85°32′54″E /  20.01861°N 85.54833°E) में खुदाई भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा आयोजित की गई। गोलाबाई गांव तीन चरणों में चिल्का क्षेत्र- नवपाषाण युग (नियोलिथिक) (c. 1600 ईसा पूर्व), ताम्रपाषाण युग (c. 1400 ईसा पूर्व से c. 900 ईसा पूर्व) और लौह युग (c. 900 ईसा पूर्व से c. 800 ईसा पूर्व संस्कृति के एक दृश्य का सबूत प्रदान करता है।

भूविज्ञान:- 

यह झील बदलते माहौल वाले वातावरण में एक ज्वारनदमुखी डेल्टा प्रकार की अल्पकालिक झील है। भूवैज्ञानिक अध्धयनों के अनुसार की झील की पश्चिमी तटरेखा का विस्तार अत्यंतनूतन युग (Pleistocene Era) में हुआ था जब इसके उत्तरपूर्वी क्षेत्र समुद्र के अंदर ही थे। इसकी तटरेखा कालांतर में पूर्व की तरफ़ सरकने के प्रमाण इस बात से मिल जाते हैं कि कोर्णाक सूर्य मंदिर जिसका निर्माण कुछ साल पहले समुद्र तट पर हुआ था अब तट से लगभग 3 कि॰मी॰ (2 मील) दूर आ गया है।

     चिल्का झील का जल निकासी कुण्ड पत्थर, चट्टान, बालू और कीचण के मिश्रण के आधार से निर्मित है। इसमें विभिन्न प्रकार के अवसादी कण जैसे चिकनी मिट्टी, कीचड़, बालू, बजरी और शैलों के किनारे है लेकिन बड़ा हिस्सा कीचण का ही है। हर वर्ष लगभग 16 लाख मीट्रिक टन अवसाद चिल्का झील के किनारों पर दया नदी और अन्य धाराओं द्वारा जमा की जाती हैं।

      एक कल्पना के अनुसार पिछले 6,000–8,000 वर्षों के दौरान विश्वव्यापी समुद्री स्तर में बढोत्तरी हुई। 7,000 साल पहले इस प्रक्रिया में आई कमी की वजह से झील के दक्षिणी क्षेत्रों में पर रेतीले तटों का निर्माण हुआ। समुद्र स्तर में बढोत्तरी के साथ साथ तट का विस्तार होता रहा और इसने पूर्वोतर में समुद्र की तरफ बढते हुए चिल्का की समुद्री भूमि का निर्माण किया। इस समुद्री भूमि के दक्षिण-पश्चिमी छोर पर मिले एक जीवाश्म बताता है कि झील का निर्माण 3,500–4,000 वर्ष पूर्व हुआ होगा। झील के उत्तर में तट की दिशा में तीखे बदलाव, तट पर बालू को बहाती तेज हवाएँ, लंबा त्टीय मोड़ (समुद्रतटवर्ती बहाव), विभिन्न उपक्षेत्रों में मजबूत ज्वार व नदी तरंगों की उपस्थिति और अनुपस्थिति इस समुद्री भूमि  के विकास का कारण हैं।

     दक्षिणी क्षेत्र में वर्तमान समुद्री स्तर से 8 मी॰ (26 फीट) की उंचाई पर स्थित कोरल की सफ़ेद पट्टीयाँ यह दर्शाती हैं कि यह क्षेत्र कभी समुद्र के अंदर था और वर्तमान गहराई से कहीं ज्यादा गहरा था। बाहरी घेरेदार रेतीली भूमि पट्टी के क्रमविकास का घटनाक्रम यहाँ पाए जाने वाले खनिज पदार्थों के अध्धयन से पता किया गया है। यह अध्धयन झील की सतह के 16 नमूनों पर किया गया। नमूनों की मात्रा उपरी सतह के 40 और निचली सतह के 300 वर्ष तक पुराने होने के क्रम में 153 ± 3 ग्रे और 2.23 ± 0.07 ग्रे के बीच थी।

भूगोल और स्थलाकृति:- 

चिल्का झील का मनचित्र जिसमें नालाबण द्वीप, चिल्का पछी अभयारण्य, डॉल्फ़िन अभयारण्य, पुरी नगर और मलुद प्रायद्वीप दिख रहे हैं।चिल्का झील विशाल क्षेत्रों वाली कीचड़दार भूमि व छिछले पानी की खाड़ी है। पश्चिमी व दक्षिणी छोर पूर्वी घाट की पहाड़ियों के आंचल में स्थित हैं।

     तमाम नदियाँ जो झील में मिट्टी व कीचड़ ले आती है झील के उत्तरी छोर को नियंत्रित करती हैं। बंगाल की खाड़ी में उठने वाली उत्तरी तरंगो से एक 60 कि॰मी॰ (37 मील) लंबा घेरेदार बालू-तट जिसे रेजहंस,कहा जाता है, बना और इसके परिणाम स्वरूप इस छिछली झील और इसके पूर्वी हिस्से का निर्माण हुआ। एक अल्पकालिक झील की वजह से इसका जलीय क्षेत्र गर्मियों में 1,165 कि॰मी2 (449.8 वर्ग मील) से लेकर बारिश के मौसम में 906 कि॰मी.(349.8 वर्ग मील) तक बदलता रहता है।

चिल्का झील का उत्तरी छोर:- 

इस झील में बहुत सारे द्वीप हैं। संकरी नहरों से अलग हुए बड़े द्वीप मुख्य झील और रेतीली घेरेदार भूमि के मध्य स्थित हैं। कुल 42 कि॰मी2 (16 वर्ग मील) क्षेत्रफल वाली नहरें झील को बंगाल की खाड़ी से जोड़ती हैं। इसमें छ: विशाल द्वीप हैं परीकुड़, फुलबाड़ी, बेराहपुरा, नुआपारा, नलबाणा, और तम्पारा। ये द्वीप मलुद के प्रायद्वीप के साथ मिलकर पुरी जिला के कृष्णा प्रसाद राजस्व क्षेत्र का हिस्सा हैं। 

झील का उत्तरी तट:- 

झील का उत्तरी तट खोर्धा जिला का हिस्सा है व पश्चिमी तट गंजाम जिला का हिस्सा है। तल छटीकरण के कारण रेतीले तटबंध की चौड़ाई बदलती रहती है और समुद्र की तरफ़ मुख कुछ समय के लिये बंद हो जाता है। झील के समुद्री-मुख की स्थिति भी तेजी से उत्तर-पूर्व की तरफ खिसकती रहती है। नदी मुख जो 1780 में 1.5 कि॰मी॰ (0.9 मील) चौड़ा था चालीस साल बद सिर्फ़ .75 कि॰मी॰ (0.5 मील) जितना रह गया। क्षेत्रीय मछुआरों को अपना रोजगार क्षेत्र बचाने व समुद्र में जाने के लिये झील के मुख को खोद कर चौड़ा करते रहना पड़ता है।

     पानी की गहराई सूखे मौसम में 0.9 फीट (0.3 मी॰) से 2.6 फीट (0.8 मी॰) और वर्षा ऋतु में 1.8 मी॰ (5.9 फीट) से 4.2 मी॰ (13.8 फीट) तक बदलती रहती है। समुद्र को जाने वाली पुरानी नहर की चौड़ाई जिसे मगरमुख के नाम से जाना जाता है अब 100 मी॰ (328.1 फीट) है। झील मुख्यत: चार क्षेत्रों में बंटी हुई है, उत्तरी, दक्षिणी, मध्य व बाहरी नहर का इलाका। एक 32 कि॰मी॰ (19.9 मील) लंबी बाहरी नहर झील को बंगाल की खाड़ी से अराखुड़ा गाँव में जोड़ती है। झील का आकर किसी नाशपाती की तरह है और इसकी अधिकतम लंबाई 64.3 कि॰मी॰ (40.0 मील) और औसत चौड़ाई 20.1 कि॰मी॰ (12.5 मील) बनी रहती है।

जल व अवसाद की गुणवत्ता:- 

चिल्का विकास प्राधिकरण (सीडीए) पानी की गुणवत्ता माप का एक संगठित प्रणाली की स्थापना की और लिमनोलॉजी (अंतर्देशीय जल का अध्ययन करने वाले) की तहकीकात, झील के पानी की निम्नलिखित भौतिक- रासायनिक विशेषताओं को बतलाते है। झील को क्षारीय मात्रा के अनुसार मुख्य रूप से 4 भागों में विभाजित किया गया है। जिन्हें मुख्यत: दक्षिणी, मध्य, उत्तरी व बाहरी नहरें के नाम से जाना जाता है। मॉनसून के दौरान ज्वार की वजह से आने वाले समुद्री पानी की भारी मात्रा से उतपन्न क्षारीयता को उत्तरी व मध्य क्षेत्रों में भारी बारिश से आये ताजे पानी की भारी मात्रा बराबर कर देती है। दक्षिणी भाग में ताजे पानी के ज्यादा ना पंहुचने की वजह से मॉनसून के दौरान भी क्षारीयता बनी रहती है। हालांकि मॉनसून के बाद के मौसम में उत्तरी हवाओं के चलने से दक्षिणी भाग में क्षारीयता कुछ कम हो जाती है। यह हवाएँ पानी को झील के अन्य भागों से मिलाने का काम करदेती हैं। गर्मियों में झील का पानी का स्तर नीचे होता है, इसकि वजह से समुद्री पानी बाहरी नहरों से ज्यादा आता है और गर्मियों में क्षारीयता बढ जाती है।

चिल्का झील की गतिविधियाँ:- 

1. नाव की सवारी :- 

चिल्का झील के विशाल विस्तार का आनंद लेने और विभिन्न द्वीपों की यात्रा करने के लिए नाव की सवारी की जा सकती है। आप मनोरम दृश्यों का आनंद लेने और वन्यजीवों को देखने के लिए मोटरबोट और पारंपरिक लकड़ी की नावों सहित विभिन्न प्रकार की नावों में से चुना जा सकता है।

2. पक्षी-दर्शन :- 

चिल्का झील पक्षी-प्रेमियों के लिए एक स्वर्ग है, खासकर सर्दियों के मौसम में जब दुनिया भर से हज़ारों प्रवासी पक्षी झील पर आते हैं। शांत वातावरण का आनंद लेते हुए रंग-बिरंगे और दुर्लभ पक्षी प्रजातियों को देखा जा सकता है।

3. जल क्रीड़ाओं का आनंद :-  

दिल की धड़कनें तेज़ करने के लिए कयाकिंग, कैनोइंग और विंडसर्फिंग जैसे विभिन्न जल क्रीड़ाओं में हाथ आजमाया जा सकता है। यह झील की शांति में डूबने का एक शानदार तरीका है।

4. सूर्योदय - सूर्यास्त के नज़ारों का आनंद :- 

चिल्का झील पर सूर्योदय और सूर्यास्त के मनमोहक नज़ारे देखा जा सकता है। झील पर पड़ते आकाश के बदलते रंग एक जादुई नज़ारा बनाते हैं।

5. कैंपिंग का अनुभव : - 

चिल्का झील के आसपास कैंपिंग कर तारों के नीचे रहने जैसा महसूस होता है। यहांअलाव भी जलाया जा सकता है। यहां खाना भी बनाया जा सकता है। अपने साथियों के साथ कुछ मज़ेदार खेल खेलकर अच्छा समय बिताया जा सकता है। यह एक ऐसा जीवन भर का अनुभव है जिसे हर किसी को ज़रूर आज़माना चाहिए!

6. फ़ोटोग्राफ़ी :- 

झील के आसपास के नज़ारे हरे-भरे और मनोरम हैं, जो इसे फ़ोटोग्राफ़रों के लिए कुछ बेहतरीन तस्वीरें लेने के लिए एक बेहतरीन जगह बनाते हैं। झील के आसपास के जीवंत पक्षी जीवन और जीवन के सार को अपने कैमरे में कैद किया जा सकता है और अपनी यात्रा को जीवन भर याद किया जा सकता है। 

7. कालीजय द्वीप : - 

पास ही में कालीजय द्वीप है , जो अपने धार्मिक महत्व के लिए जाना जाता है। यहाँ देवी कालीजय का मंदिर है और यहाँ की यात्रा से आध्यात्मिक अनुभव के साथ-साथ झील के मनमोहक दृश्य भी देखने को मिलता है।

8. सतपाड़ा द्वीप :- 

चिल्का झील के दक्षिणी किनारे पर स्थित सतपाड़ा शहर की सैर करें। यह नौका विहार और डॉल्फ़िन देखने के लिए एक लोकप्रिय जगह है।


लेखक परिचय:-

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।

 मोबाइल नंबर +91 8630778321; 

वॉर्ड्सऐप नम्बर+919412300183)



अलारनाथ मन्दिर आलारपुर , ब्रह्म गिरि , जिला पूरी उड़ीसा

अलारनाथ मन्दिर,NH-203A, आलारपुर , ब्रह्म गिरि , जिला पूरी उड़ीसा 752011
अलारनाथ मन्दिर या अल्वारनाथ भारत के ओड़िशा राज्य के पुरी ज़िले के ब्रह्मगिरि कस्बे में स्थित एक प्रसिद्ध हिन्दू मन्दिर है। यह भगवान विष्णु को समर्पित है। आषाढ़ मास के कृष्णपक्ष में जब भगवान जगन्नाथ की स्नान यात्रा में पश्चात उनका दर्शन पुरी में नहीं हो सकता, तो पुरी से 23 किमी दूर स्थित इस मन्दिर में श्रद्धालुओं की भीड़ लग जाती है।यह मंदिर विशेष रूप से अनवासरा काल के दौरान प्रसिद्ध है, जो स्नान यात्रा के बाद होता है, जब पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर के देवता दर्शन के लिए उपलब्ध नहीं होते। इस दौरान, भक्तों का मानना है कि भगवान जगन्नाथ अलारनाथ देव के रूप में प्रकट होते हैं , जिससे अलारनाथ मंदिर एक लोकप्रिय तीर्थ स्थल बन जाता है। ऐतिहासिक रूप से यह आलवार सन्त रामानुज की इस क्षेत्र की यात्रा से सम्बन्धित है। परिसर में मां लक्ष्मी की मूर्ति भी दर्शनीय और प्रभाकारी है।

Saturday, August 9, 2025

भारत अमेरिका का बिगड़ता सम्बन्ध, मजबूत होगा भारत # आचार्य डॉ राधेश्याम द्विवेदी


अमेरिका और रूस विश्व की दो महान प्रभावशाली ताकतें रही हैं। भारत इन दोनों से बाहर रहा है और निर्गुट वाले रास्ते को अपनाया था। बाद में चीन और पाकिस्तान के हस्तक्षेप और बार - बार भारत पर युद्ध थोपने के कारण भारत को रूस की मदद लेने को बाध्य होना पड़ा था। अमेरिका शुरू से ही पाकिस्तान को अपने छत्र - छाया में रखता चला आया है। उसे आर्थिक मदद और हथियार सप्लाई करता रहा। बीच - बीच में अमेरिका भारत से जुड़ने का भी प्रयास किया परन्तु उसकी चाल दोगली रही। उसने कई बार भारत को नीचा दिखाने का प्रयास भी किया और उस पर अनेक प्रकार के व्यवसायिक प्रतिबंध भी लगाया। 

     इन दिनों अमेरिका और भारत पर पुनः इतिहास दोहरा रहा है । एक बार फिर अमेरिका 'दादागिरी' और दबाव की राजनीति पर उतर आया है। भारत ने भी पहले की तरह अब भी यह साफ कर दिया है कि वह किसी भी वैश्विक ताकत के आगे नहीं झुकेगा। भारत अपने देश के लोगों के हितों को सर्वोपरि रखेगा।

इतिहास के आइने में भारत और अमेरिका के संबंध:- 

भारत और अमेरिका के संबंध, एक जटिल और बहुआयामी रिश्ता रहा है जो 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद से यह शनै: शनै: विकसित हुआ है। आज, इनमें रणनीतिक साझेदारी है जो विभिन्न क्षेत्रों में फैली हुई है, जिसमें व्यापार, रक्षा, प्रौद्योगिकी और क्षेत्रीय सुरक्षा आदि शामिल है। भारत और अमेरिका के बीच एक जटिल और गतिशील साझेदारी है जो विभिन्न क्षेत्रों में सहयोग पर आधारित है। दोनों देशों के बीच मजबूत संबंध न केवल उनके द्विपक्षीय हितों के लिए, बल्कि क्षेत्रीय और वैश्विक स्थिरता के लिए भी महत्वपूर्ण हैं।

1947 से पहले की स्थिति :- 

भारत शताब्दियों गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था। अफगानी , मुस्लिम आक्रांता और अंग्रेजों ने इसका खूब दोहन किया। इसे लूटा और जबरन अपनी संस्कृति थोपने का प्रयास भी किया है। सोने की चिड़िया कहे जाने वाले इस देश को खूब लूटा खासूटा गया।भारत और अमेरिका के बीच पहले से कोई औपचारिक संबंध नहीं थे, लेकिन अमेरिका ने भारत की स्वतंत्रता के लिए समर्थन व्यक्त किया था।

शीत युद्ध का दौर में :- 

शीत युद्ध के दौरान, भारत और अमेरिका के संबंध तनावपूर्ण थे, क्योंकि भारत ने गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाई थी, जबकि अमेरिका सोवियत संघ के साथ प्रतिस्पर्धा कर रहा था। अमेरिका ने भारत को झुकाने की अनेक कोशिश की है। बीते 60 साल में 1965, 1971, 1974 और 1998 इन चार बड़े मोड़ों पर अमेरिका ने अपनी ताकत दिखाई, भारत पर प्रतिबंध लगाए, तरह तरह की धमकियां दीं गई। पर हर बार भारत ने दृढ़ता,आत्मसम्मान और पूरी मजबूती के साथ जवाब दिया है। 

वर्ष 1965 का दौर में : - 

उन दिनों भारत खाद्यान्न के मामले में आत्म निर्भर नहीं हो पाया था।अमेरिका से भारत में लाल रंग का घटिया क्वालिटी का गेहूं आयात हो रहा था । भारत पाक युद्ध के दौरान अमेरिका ने गेहूं रोकने की धमकी दी, भारत ने आत्मसम्मान को चुना। भारत-पाक युद्ध 1965 के बीच जब भारत खाद्य संकट से जूझ रहा था, तब अमेरिका 'PL-480' स्कीम के तहत भारत को गेहूं देता था। लेकिन युद्ध रोकने के लिए अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने गेहूं बंद करने की धमकी दी। तब भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने जवाब दिया कि ''हम भूखे रह सकते हैं, लेकिन आत्मसम्मान से समझौता नहीं करेंगे।" और इसी समय 'जय जवान, जय किसान' का नारा गूंजा था और देश एकजुट हुआ था।

वर्ष 1971 का दौर में : - 

अमेरिकी दबाव के बावजूद भारत ने पाकिस्तान को हराया था। बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान अमेरिका पूरी तरह पाकिस्तान के साथ खड़ा था। राष्ट्रपति निक्सन और हेनरी किसिंजर ने भारत पर कूटनीतिक और सैन्य दबाव बनाने की पूरी कोशिश की। यहां तक कि अमेरिकी नौसैनिक बेड़ा बंगाल की खाड़ी तक भेज दिया गया। लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी झुकी नहीं। भारत ने निर्णायक जीत दर्ज की और बांग्लादेश का निर्माण कराया।

वर्ष 1974 का पोखरण-1 परमाणु परीक्षण का दौर :- 

पोखरण-1 के परमाणु परीक्षण पर अमेरिका ने प्रतिबंध लगाए थे ,  भारत इस बार भी रुका नहीं था।भारत ने पहली बार राजस्थान के जैसलमेर जिले के पोखरण में परमाणु परीक्षण किया था । जवाब में अमेरिका ने तकनीकी सहायता, परमाणु ईंधन और आर्थिक सहयोग पर प्रतिबंध लगा दिए। फिर भी श्रीमती इंदिरा गांधी ने स्वदेशी तकनीक और वैज्ञानिक आत्मनिर्भरता के सहारे देश का परमाणु कार्यक्रम जारी रखा था।

1998 में पोखरण-2 का परीक्षण :- 

1998 में भारत द्वारा किए गए पोखरण परमाणु परीक्षण के समय भारत और अमेरिका के संबंध तनावपूर्ण थे। परीक्षण के बाद, अमेरिका ने भारत पर कई आर्थिक प्रतिबंध लगाए, जिसमें कुछ रक्षा सामग्रियों और प्रौद्योगिकियों के हस्तांतरण पर रोक लगाना, अमेरिकी ऋण और क्रेडिट गारंटी को रोकना, और अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों द्वारा भारत को वित्त पोषण का विरोध करना शामिल था। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था -"हम घुटने नहीं टेकेंगे।" भारत ने पोखरण-2 परीक्षण कर दुनिया को चौंका दिया था। अमेरिका बौखला गया था और उसने भारत के विरुद्ध व्यापक प्रतिबंध लगाए थे। विश्व बैंक से आर्थिक मदद रोक दी गई, सैन्य उपकरणों की बिक्री पर रोक लगाई गई। तब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने दो टूक कहा कि "भारत की सुरक्षा के लिए जो जरूरी होगा, हम करेंगे। चाहे अमेरिका माने या न माने।"

भारत का स्पष्ट रुख:- 

भारत ने इन प्रतिबंधों का दृढ़ता से विरोध किया था और अपने परमाणु कार्यक्रम को जारी रखा था। कुछ ही महीनों बाद अमेरिका को समझ में आ गया कि भारत को अलग- थलग नहीं किया जा सकता।  1999 में प्रतिबंध हटने लगे थे। भारत और अमेरिका के बीच संबंध 2000 के दशक में नाटकीय रूप से सुधर गए, और दोनों देश अब एक रणनीतिक साझेदारी में बदल गए थे।

बिल क्लिंटन का युग:- 

2000 में राष्ट्रपति बिल क्लिंटन भारत दौरे पर आए। दोनों देशों के संबंधों में सुधार दिखने लगा था। 9/11 केआतंकी हमलों के बाद, अमेरिका ने भारत पर लगाए गए कुछ प्रतिबंधों को हटा भी दिया था। 

ऐतिहासिक परमाणु समझौता सम्पन्न:- 

बाद में, 2008 में, दोनों देशों ने एक ऐतिहासिक भारत-अमेरिका परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिससे दोनों देशों के बीच सहयोग का एक नया युग शुरू हुआ। 

2000 के बाद के समय:

2000 के बाद, दोनों देशों के बीच संबंध तेजी से सुधरने लगे। व्यापार, रक्षा, और रणनीतिक सहयोग में वृद्धि हुई। देश के विकास की गाड़ी काफी कुछ पटरी पर आ गई थी।

वर्तमान परिपेक्ष्य:- 

आज, भारत और अमेरिका एक मजबूत रणनीतिक साझेदारी साझा करते हैं।

अमेरिका भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार हैऔर दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार 2022 में 191 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया था । अमेरिका भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) का एक प्रमुख स्रोत है। दोनों देशों ने स्वच्छ ऊर्जा और जलवायु परिवर्तन पर सहयोग के लिए कई पहल हुए हैं।

रक्षा सहयोग - संबंध:- 

भारत और अमेरिका के बीच रक्षा सहयोग बढ़ रहा है, जिसमें संयुक्त सैन्य अभ्यास, रक्षा प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और रक्षा उपकरण खरीदना शामिल है।अमेरिका हिंद महासागर क्षेत्र में भारत की समुद्री सुरक्षा को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है।

अंतरिक्ष, प्रौद्योगिकी और सांस्कृतिक सहयोग:- 

भारत और अमेरिका अंतरिक्ष सहयोग में भी सहयोग कर रहे हैं, जिसमें नासा और इशरो की साझेदारी और मानव अंतरिक्ष उड़ान कार्यक्रम शामिल हैं। दोनों देशों ने महत्वपूर्ण और उभरती प्रौद्योगिकियों पर सहयोग को मजबूत करने के लिए एक पहल की है। अमेरिका में बड़ी संख्या में भारतीय छात्र और पेशेवर रहते हैं, और शिक्षा दोनों देशों के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी है।दोनों देशों के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान भी बढ़ रहा है, जिसमें फिल्म, संगीत और कला शामिल हैं।

विविध क्षेत्रों में अमेरिका - भारत का सम्बन्ध:- 

भारत-अमेरिका संबंध साझा लोकतांत्रिक मूल्यों और द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर बढ़ते समान हितों के आधार पर एक प्रमुख रणनीतिक गठबंधन के रूप में विकसित हुए हैं। दोनों देशों के बीच उच्च-स्तरीय यात्राओं ने सहयोग के लिए निरंतर गति प्रदान की है, जबकि लगातार विस्तारित हो रहे संवाद ढांचे ने जुड़ाव के लिए दीर्घकालिक आधार तैयार किया है। अमेरिका भारत के लिए एक महत्वपूर्ण साझेदार है, जो रणनीतिक समर्थन, आर्थिक अवसर, रक्षा सहयोग और तकनीकी प्रगति प्रदान करता है। मजबूत द्विपक्षीय संबंध भारत के वैश्विक प्रभाव, सुरक्षा और आर्थिक विकास को बढ़ाते हैं। भारत-अमेरिका द्विपक्षीय सहयोग में व्यापार और निवेश, रक्षा और सुरक्षा, शिक्षा, विज्ञान और प्रौद्योगिकी, साइबर सुरक्षा, उच्च प्रौद्योगिकी, असैन्य परमाणु ऊर्जा, अंतरिक्ष अनुप्रयोग, स्वच्छ ऊर्जा, पर्यावरण, कृषि और स्वास्थ्य सहित कई क्षेत्र शामिल हैं। दोनों देशों में लोगों के बीच सक्रिय संपर्क और राजनीतिक समर्थन द्विपक्षीय संबंधों को पोषित करते हैं।

वर्ष 2009 में हुआ और सुधार :- 

दोनों देशों ने वर्ष 2009 में 'रणनीतिक साझेदारी' समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। दोनों देशों ने वर्ष 2020 में 'व्यापक वैश्विक रणनीतिक सहयोग' समझौते को मंजूरी दी, जो 15 वर्षों के अंतराल के बाद हुआ, जिससे अमेरिका- भारत संबंधों में सुधार हुआ है।

भारत पर एक तरफा टैरिफ ,अमेरिका के दादागिरी के आठ प्रमुख कारण:- 

अमेरिका ने भारत पर पहले 25 फीसदी अतिरिक्त टैरिफ लगाकर व्यापार बढ़ाने का दबाव बनाया। यह नया टैरिफ़ पहले से लागू 25 प्रतिशत टैरिफ़ के साथ जुड़कर कुल शुल्क 50 फीसदी टैरिफ कर दिया है। अतिरिक्त टैरिफ़ 27 अगस्त से लागू हो जाएगा। सवाल है कि अमेरिका टैरिफ़ को लेकर ख़ासकर भारत को ही निशाना क्यों बना रहा है, जबकि रूस से तेल खरीदने के मामले में चीन, भारत से कहीं आगे है।

      भारत से एक्सपोर्ट होने वाले सामानों पर लगने वाले भारी टैरिफ से इनकी बिक्री में दिक्कत आ सकती है। 50 फीसदी टैरिफ़ लगने से भारत का अमेरिका को होने वाला एक्सपोर्ट घट जाएगा, फलत: भारत में नौकरियां चली जा सकती है।इससे देश में बेरोजगारी बढ़ेगी और मंदी का दौर आ सकता है। इसका असर दूसरे उद्योग धंधों पर भी पड़ेगा, उत्पादन कम होगा,इससे हरेक उद्योग प्रभावित होंगे और हरेक सेक्टर में नौकरियां जा सकती हैं।

     जिन देशों में टैरिफ कम लगाया गया है, उनके सामानों की पहुंच अमेरिका के बाजार में बढ़ सकती है। भारत पर भारी टैरिफ लगाने के पीछे अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत द्वारा लगातार रूस से तेल का आयात करना कारण बताया है। 

       ट्रंप के भारत से चिढ़ने के पीछे सिर्फ तेल आयात ही वजह नहीं है, बल्कि कई अन्य कारण भी हैं। भारत अपनी पुरानी मित्रता और देशहित को ऊपर रखते हुए रूस से लगातार तेल आयात में लगा हुआ है, जिसकी वजह से भारत पर भारी टैरिफ लगाया गया है। अमरीका के प्रायः हर राष्ट्रपति साम्राज्यवादी रहा है। पर ओबामा जार्ज बुश और क्लिंटन कुछ उदारवादी रहे। ट्रंप और बाइडन बिल्कुल विपरीत स्वभाव वाले रहे। अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति ट्रंप के भारत से चिढ़ने के पीछे सिर्फ तेल आयात ही वजह नहीं है, बल्कि आठ अन्य कारण भी हैं।

1.भारत ने रूस से तेल लेना बंद नहीं किया :- 

ट्रंप की कई चेतावनियों को दरकिनार करते हुए भारत ने अब तक रूस से तेल खरीदना बंद नहीं किया है। ट्रंप का दावा है कि भारत न सिर्फ सस्ते में रूस से तेल आयात कर रहा है, बल्कि उन्हें अन्य देशों को भारी कीमत पर बेचकर अच्छा मुनाफा भी कमा रहा है। इसके लिए ट्रंप ने भारत पर टैरिफ रूपी जुर्माना भी लगाया है। भारत ने भी तुरंत जवाब देते हुए साफ कर दिया , “जो कदम देशहित में होगा, वह भारत उठाता रहेगा।”

2.ब्रिक्स को लेकर नाराज़गी :- 

ब्रिक्स, उभरती अर्थव्यवस्थाओं का समूह है. इसमें भारत समेत चीन, रूस, ब्राज़ील, दक्षिण अफ्रीका के अलावा ईरान, इथियोपिया, इंडोनेशिया, मिस्र और संयुक्त अरब अमीरात भी शामिल हैं।ये सभी देश डॉलर पर अपनी निर्भरता को कम करने के पक्ष में हैं, जो राष्ट्रपति ट्रंप को बिल्कुल पसंद नहीं है। वे समय-समय पर ब्रिक्स देशों को 100 प्रतिशत तक टैरिफ़ लगाने की धमकी देते आए हैं। उनका यह भी कहना है कि अगर ब्रिक्स देशों ने अपनी करेंसी चलाने की कोशिश की तो उन्हें अमेरिका से व्यापार को अलविदा कहने के लिए तैयार रहना होगा।

3.सीज फायर का क्रेडिट न दिया जाना:- 

भारत और पाकिस्तान के बीच मई में हुए कई दिनों तक संघर्ष चला था। पहलगाम हमले के बाद भारत ने पीओके और पाकिस्तान में जबरदस्त हमले किए थे। हालांकि, चार दिन के बाद दोनों देशों में सीजफायर हो गया था, लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने युद्धविराम करवाने का दावा किया। वे 30 से ज्यादा बार कह चुके हैं कि उन्होंने भारत और पाक के बीच संघर्षविराम करवाया, लेकिन भारत सरकार ने साफ किया कि यह भारत और पाक के बीच डीजीएमओ स्तर पर हुआ। इसमें किसी भी तीसरे देश का कोई रोल नहीं है। ओर पाकिस्तान सरकार ने ट्रंप को सीजफायर क बार क्रेडिट दिया है। जानकारों की मानें तो ट्रंप के भारत से चिढ़ने की एक वजह भारत द्वारा सीज फायर का क्रेडिट न दिया जाना भी है।

4.ऑपरेशन सिंदूर' रोकने का श्रेय न मिलना :- 

ऑपरेशन सिंदूर' के बाद पाकिस्तान ने भारत के ख़िलाफ़ जवाबी कार्रवाई की थी. हालांकि बाद में दोनों देशों ने संघर्ष विराम का एलान किया था।राष्ट्रपति ट्रंप बार-बार यह दावा करते रहे हैं कि सीजफायर उन्होंने कराया है, जबकि भारत ने साफ़ किया है कि इसमें अमेरिका की भूमिका नहीं है। जम्मू- कश्मीर के पहलगाम में हुए हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच सैन्य संघर्ष में बदल गया था।

5.चीन के साथ भारत की बढ़ती नजदीकी:

2020 में गलवान घाटी में भारत-चीन सैन्य झड़प के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहली चीन यात्रा करने जा रहे हैं। शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) समिट में शामिल होने के लिए पीएम मोदी चीन जाएंगे। यह दौरा 31 अगस्त से 1 सितंबर तक होगा।पिछले साल अक्तूबर में पीएम मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने रूस के कज़ान में ब्रिक्स सम्मेलन के दौरान मुलाक़ात की थी। जून, 2025 में राष्ट्रीय सलाहकार अजीत डोभाल और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह बीजिंग भी पहुंचे थे. उसके बाद विदेश मंत्री डॉ. एस जयशंकर भी चीन गए थे।

6.भारत ने नोबेल दिए जाने की मांग नहीं की :- 

ट्रंप की लंबे समय से इच्छा है कि इस बार का शांति का नोबेल पुरस्कार उन्हें ही दिया जाए। इसके चलते वे दुनियाभर के युद्धों में खुद ही बीच में कूद पड़ते हैं और उसे रुकवाने का दावा करते हैं। भारत - पाकिस्तान से इतर, इजरायल-ईरान, इजरायल-हमास, थाइलैंड-कंबोडिया जैसे युद्ध रुकवाने का भी ट्रंप दावा कर चुके हैं। इजरायल, कंबोडिया और पाकिस्तान जैसे देशों ने आधिकारिक रूप से ट्रंप को नोबेल दिए जाने की मांग की है, लेकिन भारत ने ऐसा नहीं किया है। भारत ने दो टूक कहा है कि ऐसे सवाल वाइट हाउस से ही पूछे जाने चाहिए, नाकि भारत से। ऐसे में ट्रंप को इससे मिर्ची लगना तय है।

7. रूस-यूक्रेन युद्ध ना रुकवा पाना:- 

अमेरिका अन्य पश्चिमी देशों की तरह शुरुआत से ही इस युद्ध में यूक्रेन की तरफ है। इसके चलते उसने रूस पर पहले तो कई कड़े प्रतिबंध लगाए, लेकिन जब उसका भी कोई असर नहीं पड़ा तो यूक्रेन को खुलकर हथियारों और आर्थिक मदद करने लगा। इसके बाद जब ट्रंप राष्ट्रपति बने तो उन्होंने इस युद्ध को रुकवाने के लिए पूरी जी-जान लगा दी। कभी यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की से बात की तो कभी पुतिन को फोन लगा दिया। लेकिन उनकी तमाम कोशिशें भी काम नहीं कर सकीं और रूस किसी भी कीमत पर यूक्रेन में बमबारी करने से पीछे नहीं हटा। ऐसे में भारत द्वारा रूस से तेल खरीदना भी अमेरिका को बुरा लग गया और अब वह भारी टैरिफ लगाकर रूस से तेल खरीदने से रोकना चाहता है।

8.कृषि और डेयरी बाजार तक अधिक पहुंच बढ़ाना चाहता है अमेरिका:- 

अमेरिका कई सालों से भारत के साथ ट्रेड डील करने की कोशिश कर रहा है। राष्ट्रपति ट्रंप के पहले कार्यकाल में भी यह कोशिश हुई थी, लेकिन बात नहीं बनी।ट्रंप का मानना है कि भारत के साथ ट्रेड डील अमेरिका के लिए भारतीय बाज़ारों को खोलने का काम करेगी, लेकिन कुछ मुद्दों पर सहमति नहीं बन पा रही है।

    अमेरिका भारत में कृषि और डेयरी बाजार बहुत बड़ा है और अमेरिका भी इसका लाभ लेना चाहता है। भारत और अमेरिका के बीच कई महीनों से ट्रेड डील पर बातचीत चल रही है, लेकिन भारत किसी भी हाल में अमेरिका के कृषि और डेयरी प्रोडक्ट्स वाली मांगों को मानने को तैयार नहीं है। अमेरिका भारत से मक्का, सेब, सोयाबीन समेत तमाम चीजों पर टैरिफ कम करने कीमांग कर रहा है और अपने डेयरी प्रोडक्ट्स पर भी डील चाहता है। लेकिन इससे भारत के किसानों को नुकसान हो सकता है और यही वजह है कि भारत सरकार किसी भी कीमत पर समझौता करने के मूड में नहीं है। इसकी एक झलक पीएम मोदी ने अभी हाल ही में एक बयान के जरिए कर दी है। ट्रंप को जवाब देते हुए पीएम मोदी ने साफ साफ कहा है - “हमारे लिए किसान हित सर्वोच्च प्राथमिकता है और भारत पशु-पालकों, मछुआरों के हितों से कभी समझौता नहीं करेगा।” इसी वजह से भारत और अमेरिका के बीच व्यापार डील रुकी हुई है।

भारत की इकोनॉमी कोई रोक नहीं सकता:- भारत को अमेरिका के टैरिफ से घबराना नहीं चाहिए क्योंकि उसकी इकोनॉमी को आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता है. भारत को अमेरिका के इस कदम का फायदा उठाकर अपनी अर्थव्यवस्था को रिस्ट्रक्चर करना चाहिए।पाकिस्तानी एक्सपर्ट मुक्तेदार खान का कहना है कि दुनिया में सिर्फ तीन ऐसे देश हैं, जो अपने बलबूते पर तेजी से विकास कर सकते हैं, वो हैं- अमेरिका, चीन और भारत, क्योंकि इनके पास एक बड़ी मिडिल क्लास है। उन्होंने कहा कि भारत के पास 90 प्रतिशत लोग गरीब हैं, लेकिन जो 10 प्रतिशत लोग अमीर हैं, वो 150 मिलियन हो जाते हैं यानी 15 करोड़ लोग इंडिया में बहुत अमीर हैं तो 15 करोड़ की मार्केट बहुत बड़ी है, जिस पर भारत विकास कर सकता है।

     भारत इस समय दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी इकोनॉमी है और इंटरनेशनल मोनेट्री फंड, वर्ल्ड बैंक जैसी कई बड़ी फर्म्स ने भविष्यवाणी की है कि 2025 में भारत चौथे नंबर पर आ जाएगा। इस समय अमेरिका, चीन और जर्मनी के बाद जापान चौथे नंबर पर है और ऐसे कयास लगाए जा रहे हैं कि बहुत जल्द भारत जापान को पीछे छोड़ देगा।



 लेखक परिचय:-

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।