Saturday, April 20, 2024

मोहन प्यारे द्विवेदी द्वारा संकलित प्रिय भजन आचार्य पंडित मोहन प्यारे द्विवेदी "मोहन "


             आचार्य पंडित मोहन प्यारे द्विवेदी "मोहन "

            ये भजन प्रायः पण्डित मोहन प्यारे द्विवेदी अपने दैनिक जीवन में दुहराते रहते थे। इनमें कुछ तो उनके द्वारा स्वयं लिखे हुए हैं, कुछ उन्हें पसन्द आने पर संकलित किए हुए हैं। वे सूर कबीर तुलसी दास जी मीरा रैदास और नानक जी के प्रिय भजन भी गाते थे। उन्हें जिस किसी भी स्रोत से यह मिला, यह उन्हे पसन्द आए और वे इसे अपनी जीवन चर्या का अंग बना लिए थे। आइए इन पर एक नजर डालें।

1 . मन की तरंग मार लो बस हो गय भजन (कबीरदास)

मन की तरंग मार लो बस हो गय भजन ।
आदत बुरी सुधार लो बस हो गया भजन ॥

आऐ हो तुम कहाँ से जाओगे तुम कहाँ ।
इतना सा बस विचार लो बस हो गया भजन ॥

कोई तुमहे बुरा कहे तुम सुन करो क्षमा ।
वाणी का स्वर संभार लो बस हो गया भजन ॥

नेकी सबही के साथ में बन जाये तो करो ।
मत सिर बदी का भार लो बस हो गया भजन ॥

कहना है साफ साफ ये सदगुरु कबीर का ।
निज दोष को निहार लो बस हो गया भजन ॥

2. पितु मातु सहायक स्वामी सखा 

( परम्परागत , स्वर : स्व.मुकेश कुमार)

पितु मातु सहायक स्वामी सखा तुमही एक नाथ हमारे हो.
जिनके कछु और आधार नहीं तिन्ह के तुमही रखवारे हो.
सब भांति सदा सुखदायक हो दुःख दुर्गुण नाशनहारे हो.
प्रतिपाल करो सिगरे जग को अतिशय करुणा उरधारे हो.
भुलिहै हम ही तुमको तुम तो हमरी सुधि नाहिं बिसारे हो.
उपकारन को कछु अंत नही छिन ही छिन जो विस्तारे हो.
महाराज! महा महिमा तुम्हरी समुझे बिरले बुधवारे हो.
शुभ शांति निकेतन प्रेम निधे मनमंदिर के उजियारे हो.
यह जीवन के तुम्ह जीवन हो इन प्राणन के तुम प्यारे हो.
तुम सों प्रभु पाइ प्रताप हरि केहि के अब और सहारे हो।।
 
3. तूने रात गँवायी सोय के (कबीरदास )
 
तूने रात गँवायी सोय के दिवस गँवाया खाय के।
हीरा जनम अमोल था कौड़ी बदले जाय रे।
सुमिरन लगन लगाय के मुख से कछु ना बोल रे।
बाहर का पट बंद कर ले अंतर का पट खोल रे।
माला फेरत जुग हुआ गया ना मन का फेर रे.।
 गया ना मन का फेर रे ।

मनका मनका छँड़ि दे मनका मनका फेर रे ।
दुख में सुमिरन सब करें सुख में करे न कोय रे ।
जो सुख में सुमिरन करे तो दुख काहे को होय रे ।
सुख में सुमिरन ना किया दुख में करता याद रे।
दुख में करता याद रे ।
कहे कबीर उस दास की कौन सुने फ़रियाद रे।।

4. हे गोविन्द राखो शरन ( सूरदास)

हे गोविन्द राखो शरन अब तो जीवन हारे।
नीर पिवन हेत गयो सिन्धु के किनारे।
सिन्धु बीच बसत ग्राह चरण धरि पछारे।
चार प्रहर युद्ध भयो ले गयो मझधारे।
नाक कान डूबन लागे कृष्ण को पुकारे।
 द्वारका मे सबद दयो शोर भयो द्वारे।
शन्ख चक्र गदा पद्म गरूड तजि सिधारे।
 सूर कहे श्याम सुनो शरण हम तिहारे।
अबकी बेर पार करो नन्द के दुलारे।।

5. मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में (कबीर दास)

मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में।
जो सुख पाऊ राम भजन में 
सो सुख नाहिं अमीरी में।
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में।
भला बुरा सब का सुन लीजै, 
कर गुजरान गरीबी में।
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में।
आखिर यह तन छार मिलेगा।
कहाँ फिरत मग़रूरी में।
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में।
प्रेम नगर में रहनी हमारी।
साहिब मिले सबूरी में।
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में।
कहत कबीर सुनो भयी साधो,
साहिब मिले सबूरी में।
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में।।

6.भोली राधिका उठा तू गोद लेते थे।
(मोहन शतक से)

नंदजी को नंदित किए हो खेल बार-बार, 
अम्ब जसुदा को तू कन्हैया मोद देते थे।
कुंजन में कुंजते खगों के बीच प्यार भरे, 
हिय में दुलार ले उन्हें विनोद देते थे।
देते थे हुलास ब्रज वीथिन में घूम- घूम
मोहन अधर चूमि तू प्रमोद देते थे।
नाचते कभी थे ग्वाल ग्वालिनों के संग कभी, 
 भोली राधिका उठा तू गोद लेते थे।।

7 . स्वरचित कवित्त: -गाते रहो गुण ईश्वर के 
          ( ''नवसृजन'' अप्रैल-जून 1979 )

गाते रहो गुण ईश्वर के 
जगदीश को शीश झुकाते रहो।
छवि 'मोहन' की रक्खी नैनन में, 
नित प्रेम की अश्रु बहाते रहो।
नारायण स्वरूप धरो मन में, 
मन से मन को समझाते रहो।
करुणा करि के करुणानिधि को, 
करुणा के गीत सुनाते रहो।। 

8. स्वरचित कवित्त्त ; रही अंत समय मन में मनकी।

जग में जनमें जब बाल भये, 
तब एक रही सुधि भोजन की।
कुछ और बड़े जब हुए तभी 
तन तरूणी की रही कामना तन की।
जब वृद्ध भयो मन तृष्णा ना गई 
सब लोग कहते हैं सनकी सनकी।
सुख! 'मोहन' नहीं मिल्यो कबहूँ, 
रही अंत समय मन में मनकी।। 

9. स्वरचित भजन
प्रेम रस भीगे सने मुक्ति को पा जाते हैं। 

भागवत वेदान्त का सार कहा जाता है,
रसामृत पान से तृप्ति मिल जाती है।
सेवन,आस्वादन भागवत वाक्य कान में 
जीव को हरी का गोलोक मिल जाती हैं।
तेज जल स्थल जाग्रत और स्वप्न में 
सुषुप्ति सृष्टि मिथ्या सत्य हो जाती है।
स्वयं प्रकाश माया कार्य से मुक्त होते 
सत्य स्वरूप चित्त ध्यानस्थ हो जाती हैं।
उनकी प्रतिष्ठा से सुख गति मिलता है 
मित्र प्रेम भाव से अनन्यता मिल जाती है।
उनकी ही आस ले यह द्विज मोहन प्यारे 
प्रेम रस भीगे सने मुक्ति को पा जाती है।।


10 .स्वरचित भजन
हरि नाम जपो हरि नाम जपो 

हरि नाम बड़ा अलबेला है , 
लगता नहीं पैसा अधेला है 
यह जीते जी का मेला है  
हरि नाम जपो हरि नाम जपो ।

जो जन हरि को नहीं ध्यता है, 
वो लाखों कष्ट उठाता है।
 शिर धुनि कर पछताते है, 
हरि नाम जपो हरि नाम जपो ।

जो कल करना हो सो आज कर लो 
जो आज करना है सो अब कर लो ।
मत एक क्षण का विश्वास करो, 
हरि नाम जपो हरि नाम जपो ।

हरि का भजना सुख दाता है 
 हरि का रसना सुख दाता है 
हरि भक्त हरी को पाता है 
,हरि नाम जपो हरि नाम जपो ।।

11. स्वरचित भजन
 हरि नाम जपो नहीं कोई अपना.

हरि नाम जपो ,नहीं कोई अपना 
हरि नाम राम रटले रसना ।
हरि नाम जपो हरि नाम जपो
निस्सार जगत में और हैं कुछ ना।
यह सोच राम भज रेन दिना,
हरि नाम जपो नहीं कोई अपना ।

जो भव सागर चाहो तरना ,
एक राम नाम चित्त में धरना ।
अनमोल स्वास न कभी खोना ,
हरि नाम जपो नहीं कोई अपना ।

इन तन का मोह नहीं करना ,
यह एक दिन रज में मिलना ।
चित्त में हरि चरण ध्यान धरना ,
हरि नाम जपो नहीं कोई अपना।

बस चार दिन जग में रहना ,
फिर अपने निजी देश चलना ।
अब वाद - विवाद नहीं करना ।
हरि नाम जपो नहीं कोई अपना।

सब कर्म - अकर्म तो कुछ करना ,
सब अपने प्रभु को भेंट करना ।
फिर यम के त्रास से नहीं डरना ,
हरि नाम जपो कोई नहीं अपना।

सुखदायक हैं तो ये श्री चरना ,
फलदायक हैं तो ये श्री चरणा 
कर जोड़ के विनती करूँ कृष्णा ,
हरि नाम जपो नहीं कोई अपना .।।

12. नानक देव जी का प्रिय भजन :-

सुमिरन कर ले मेरे मना, तेरी बीती उमर हरिनाम बिना
कूप नीर बिनुं, धेनुं छीर बिनुं, धरती मेह बिना।
जैसे तरुवर फल बिन हीना, तैसे प्रानी हरिनाम बिना।
देह नैन बिन, रैन चंद बिना, मंदिर दीप बिना।
जैसे पंडित बेद बिहीना, तैसे प्रानी हरिनाम बिना।
काम क्रोध मद लोभ निहारो, छांड दे अब संतजना।
कहे नानकशा सुन भगवंता, या जगमें नहीं कोई अपना।।

13.मांगलिक श्लोकः- 

उन दिनों तीन दिनों की शादी बारात जाती थी। पहले दिन शादी दूसरे दिन बड़हार और शिष्टाचार होता था। इसमें विद्वत जन बर बधू और दोनो पक्ष को मंगल श्लोक तथा आशीर्वाद देते थे। ऐसे अवसर पर पंडितजी इस प्रकार की मांगलिक शब्दावली का प्रयोग करते थे-

अहि यतिरहि लोके, शारदा साऽपि दूरे।
बसति विबुध वन्द्यः, शक्र गेहे सर्वदा।
निवसति शिवपुर्यम्, षण्मुखोऽसौकुमारः।
तवगुण महिमानम्, को वदेदात्र श्रीमान्।।

अर्थ :- 
 बिना किसी रुकावट के सांप के लोक में जो शिव जी रहते हैं उनकी महिमा का गुणगान कौन कर सकता है क्योंकि सरस्वती जी भी उनसे दूर रहती हैं। जो इंद्र के घर सदा अपने बंधु बांधवों के साथ रहते हैं । जिनके पुत्र कार्तिकेय के छ: मुख हैं और जो शिव लोक में निवास करते हैं। श्री मान आपके गुणों की महिमा आज कौन कर सकता है। अर्थात आपके महान गुणों का बखान कोई नही कर सकता है।

अजब गजब/चित्र विचित्र अर्थ वाला मंगल श्लोक 

नन्वासस्यां समाजयां ये ये चन्द्राः पण्डिताः, वैकणाः, नैयायिकाः वेदान्तज्ञदयो वर्तन्ते, तं तं सर्वान् प्रति अस्य श्लोकस्यार्थस्य कथनार्थम् निवेदयामि। सोऽयं श्लोकः-

 इस समाज में उपस्थित जो जो पण्डित व्याकरण ज्ञाता न्याय शास्त्र के ज्ञाता वेदान्त के ज्ञाता उपस्थित हैं, उन उन सबसे निवेदन है कि इस श्लोक का अर्थ बतलाने की कृपा करें।

''ति गौ ति ग ति वा ति त्वं प री प न प नि प पं
मा प धा प र प द्या अंतु उ ति रा सु ति ति वि ते।''


 ( प्रस्तुति: आचार्य डा.राधे श्याम द्विवेदी)


कवि परिचय :- 

(आशुकवि आचार्य पंडित मोहन प्यारे द्विवेदी का जन्म 1 अप्रैल 1909 में बस्ती जिले दुबौली दूबे नामक गांव में हुआ था। उन्होंने समाज में शिक्षा के प्रति जागरुकता के लिए आजीवन प्राइमरी विद्यालय करचोलिया का प्रधानाचार्य पद निभाया था। सेवानिवृत्त लेने बाद लगभग दो दशक वे नौमिषारण्य में भगवत भजन में लीन रहे। उनकी मुख्य रचनाएँ : नौमिषारण्य का दृश्य, कवित्त, मांगलिक श्लोक, मोहन शतक आदि है। वे दिनांक 15 अप्रॅल 1989 को 80 वर्ष की अवस्था में अपने मातृभूमि में अंतिम सासें लेकर परमतत्व में समाहित हो गये l )

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