Saturday, September 28, 2024

छपिया के स्वामीनारायण की अदभुत और दिव्य बाललीलायें : आचार्य डॉ. राधेश्याम द्विवेदी

एतिहासिक पृष्ठभूमि

अनादि काल से ही भारत अवतारों, ऋषियों और साधुओं से सुशोभित होता रहा है। जब-जब दुष्ट तत्व धर्म का दमन करते हैं, तब-तब भगवान धर्म की पुनः स्थापना के लिए धरती पर अवतार लेते हैं। त्रेता के युग में भगवान रामचंद्र और द्वापर के अंत में भगवान कृष्ण दो सबसे उल्लेखनीय अवतार रहे हैं।

     भगवान कृष्ण के निधन के पाँच हज़ार वर्ष बाद, कलियुग में, दुष्टता का राक्षस अपने निर्वासन से बाहर निकल आया था, एक बार फिर लोगों के दिलो-दिमाग अंधकारमय होने लगा था। भारत भूमि जीवनदायी नैतिक और आध्यात्मिक पोषण से वंचित होने लगा था। धर्म, सत्य, अहिंसा और ब्रह्मचर्य के शाश्वत मूल्यों में निरन्तर बाघा आने लगी थी।

    कलियुग के दौरान बुराई और आगजनी ने समाज पर अखण्ड राज किया और लोगों में अत्याचार और अविश्वास पैदा किया । तबके शासक अपने राजनीतिक संघर्षों में व्यस्त थे, लोग आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक रूप से पीड़ित थे। भगवान नर नारायण देव के तत्वावधान में बद्रीकाश्रम में मर्यादिक ऋषि उद्धवजी धर्मदेव और भक्तिमाता के समागम में पृथ्वी की स्थिति पर चिंता व्यक्त की गई। कैलाश की श्रृंखलाओं से ऋषि दुर्वासा वहां आए और सभी को यह कहते हुए भगा दिया कि चूंकि उन्होंने उनका अपमान किया है, इसलिए उन्हें मानव रूप धारण करना होगा और दुष्टों के हाथों कष्ट भोगना होगा।

      इस पर धर्मदेव और भक्ति माता ने विनम्रता पूर्वक ऋषि को शांत किया और ऋषि के दर्शन की अपरिवर्तनीयता की घोषणा करते हुए दुर्वासा ने स्पष्ट किया कि धर्मदेव भक्ति माता के ब्राह्मण परिवार में जन्म लेंगे और उन सभी को मुक्त करेंगे और बुराई से उनकी रक्षा भी करेंगे।

     नारायण ऋषि ने स्पष्ट किया कि वे धर्म के रक्षक के रूप में जन्म लेंगे और बुराई को मिटा देंगे। इस प्रकार घनश्याम के जन्म के साथ एक युग की शुरुआत हुई, जिन्होंने बुराई को मिटाने और धर्म की रक्षा करने के लिए विभिन्न रूपों में जन्म लेकर विविध लीलाओं का मंचन किया।


अनेक नामो वाले हैं भगवान स्वामीनारायण जी 

स्वामीनारायण भगवान का बचपन का नाम घनश्याम पांडे है। जिन्होंने स्वामी नारायण संप्रदाय की स्थापना की थी। जिनके अन्यानेक नाम इस प्रकार है- श्रीहरि कृष्ण, हरिकृष्ण महाराज, श्रीकृष्ण, श्री हरि, सहजानंद स्वामी, घनश्याम शर्मा , सरजू दास, न्याय कारण, नीलकंठ वर्णी, नारायण मुनि देव, श्रीजी महाराज इत्यादि। इसके अलावा और भी नाम को उनके लिए प्रयुक्त हुआ है। पद्मपुराण', 'सप्तकन्दपुराण' और 'भागवत पुराण' में नारायण के अवतार के बारे में संकेतात्मक जानकारी  मिलती है।

स्वामीनारायण मंदिर छपिया की स्थिति

उत्तर भारत के अवध प्रान्त (उत्तर प्रदेश) के अयोध्या धाम से कुछ ही किमी की दूरी पर गोंडा नामक एक अत्यन्त पिछड़े जिले में यह पावन भूमि स्थित है। स्वामी नरायन छपिया, गोंडा जिला मुख्यालय से 50 किलोमीटर दूरी पर मनकापुर तहसील में पड़ता है। यहां स्वामी नरायन मंदिर प्रशासन यात्रियों के रहने व खाने के लिए खास इंतजाम करता है। परिसर में ही वातानुकूलित कक्ष के साथ ही अन्य इंतजाम भी हैं। छपिया स्वामी नारायण संप्रदाय के प्रर्वतक घनश्याम महाराज की जन्म और बचपन की कर्मस्थली है। यहां हर साल देश व विदेश से लाखों की संख्या में श्रद्धालु दर्शन-पूजन करने आते हैं। कार्तिक पूर्णिमा पर यहां भारी भीड़ होती है। यहां गो-सेवा के साथ ही तालाब का दृश्य काफी आकर्षक है। 

      गोण्डा प्राचीन काल में कोशल महाजनपद का भाग था। अयोध्या राज्य का यह गोचारण क्षेत्र हुआ करता था। मुगलों के शासन में यह फरवरी 1856 ई . तक अवध का हिस्सा होते हुए मुगलों के आधीन आ गया था जो बाद में अंग्रेजों के कब्जे में आ गया।

पिताश्री की पृष्ठ भूमि 

निम्नलिखित चित्र घनश्याम महाराज के पूर्वजों का प्रतिनिधित्व करता है । इस कुल में इस प्रकार पूर्वजों की जानकारी मिलती है। पहला नाम राम प्रसाद का है।घर्निघर (नेपाल में रहने के लिए चले गए)। अगला नाम गंगा प्रसाद अगला लक्ष्मण राम है (जो इत्तर में रहने के लिए चले गए)। अगला नाम वंशीधर का है। अगला नाम वेधमान का है। अगला नाम कनयन का है। 

अगली जोड़ी  बालशर्मा + भाग्यवीति की है अगली जोड़ी धर्मदेव + भक्तिमाता की है।          धर्मदेव, वास्तविक नाम देवशर्मा या हरिप्रसाद का जन्म संवंत 1796, कार्तिक सुद, एकादशी (प्रबोधनी) को इटार में हुआ था। भक्तिमाता, जिन्हें मूर्ति या प्रेमवती के नाम से भी जाना जाता है और जिनका जन्म का नाम बाला था, का जन्म छप्पैया में संवत् 1798, कार्तिक सुद, पूनम को हुआ था।

    भक्तिमाता के पिता का नाम कृष्णशर्मा और माता का नाम भवानी था । कृष्ण शर्मा के कोई पुत्र नहीं था, इसलिए उन्होंने धर्मदेव के पिता बालशर्मा से अनुरोध किया कि क्या वे धर्मदेव और भक्तिमाता को विवाह के बाद छप्पैया में रहने की अनुमति देंगे। बालशर्मा ने इस अनुरोध को स्वीकार कर लिया और उसका सम्मान किया।

स्वामीनारायण भगवान के पिता का नाम हरि प्रसाद पांडे (जिन्हें धर्मदेव के नाम से भी जाना जाता है) था। उनके पिता की जन्म तिथि कार्तिक सुद 11, वि.स. 1796 थी । पिता का जन्मस्थान इटार , सहजनवा , गोरखपुर में स्थित था। जो बाद में अपने ससुराल छपिया मे आकर बस गए थे। गोरखपुर जिले के सहजनवा तहसील अंतर्गत ग्राम सभा इटार पांडेय से जुड़ी यह रहस्यमई बात भी है । सदियों पहले प्राचीन काल  में बांसी के राजा जब शिकार करने निकले थे। उस समय एक हिरण को अपना निशाना बनाये थे, लेकिन हिरण भागते भागते बाबा टेकधर के पास जा पहुंचा। बाबा टेकधर ब्राह्मण परिवार के तपस्वी तेजस्वी एवं महान ऋषि थे। उन्हे बरम बाबा भी कहा जाता है। जब राजा ने ब्राह्मण ऋषि से हिरन को अपना शिकार बताया तो बाबा टेकधर हिरण के रक्षा के लिए राजा से कहा, “हे राजन हम अपने प्राणों की आहुति दे देंगे लेकिन अपने जीते जी हिरण का शिकार होते हुए नहीं देख पाएंगे।” यह सुनते ही राजा क्रोधित होकर के बाबा टेकधर के गांव ईटार पांडे को आग लगा कर जलवा दिए। इस कारण पूरा इटार पांडे गांव जलकर भस्म हो गया था । बरम बाबा बांसी के राजा को श्रापित कर दिये । उसी कारण राजा का सात पुस्त तक बासी में वंश नहीं चला। 

   कुछ वर्षों बाद राजस्व गांव इटार के पावन भूमि पर एक ऐसे वीर, सन्यासी, पराक्रमी,  योद्धा  का जन्म हुआ जी ने पूरे विश्व में पूजा जाता है । भगवान स्वयं ईटार पांडेय के वंश कुल में अवतार लिए थे। जिन्हें बाद में भगवान स्वामी नारायण छपिया के नाम से जाना जाने लगा है। 

माताजी की पृष्ठभूमि

स्वामीनारायण भगवान के माताजी का नाम भक्ति-माता , मूर्ति देवी ( बाला, प्रेमवती) (कृष्ण-शर्मा और भवानी की बेटी) है। माता की जन्म तिथि कार्तिक सुदी 15, वि.स. 1798 है । माता का जन्मस्थान छपिया था। ये अपने मायके में रहीं। धर्मदेव यही आकर बस गए थे।तरगांव निवासी उनकी माता भक्ति देवी ब्राहमणों की उपजाति बड़गइयां दूबे से थीं। घन श्याम के माता-पिता का विवाह 250 साल पहले तरगांव के जिस मंडप में हुआ था, उसके अवशेष आज भी यहां विद्यमान हैं। बचपन में ज्यादातर प्रभु ननिहाल में रहे। इसलिए इसी चबूतरे पर 08 वर्ष की अवस्था में भगवान स्वामी नारायण का जनेऊ संस्कार भी किया गया। उनके पिता और माता के विवाह का यह मंडप (अब चबूतरा) भी उस दौर की याद दिलाता है। (बाल प्रभु का ननिहाल का उल्लेख बल्लम पधरी के रुप में भी मिलता है । यहां उनका यज्ञोपवीत संस्कार कहा जाता है। इस पर इस पर इस सम्प्रदाय के विद्वान बंधुओं के मार्ग दर्शन की आवश्यकता है?)

रामप्रतापभाई का विवाह

धर्मदेव ने अपने सबसे बड़े पुत्र रामप्रताप का विवाह पारिवारिक रीति-रिवाजों के साथ परम्परागत रूप से किया था। ब्राह्मण बलदेव ने अपनी सुसज्जित एवं अलंकृत इकलौती पुत्री सुवासिनी को परम्परागत तरीके से रामप्रताप को विवाह में दान कर दिया था। वह गुणवती थी, उसने योग्य धार्मिक पति प्राप्त किया, प्रेम और सद्गुणों से उसका अनुसरण किया, एक आदर्श पत्नी के रूप में रहकर उनकी सेवा करती रही। युवा घनश्याम को अपनी भाभी सुवासिनी से बहुत लगाव था। घनश्याम उसे बहुत प्रिय था। बड़े भाई रामप्रताप भाई का स्वभाव क्रोधी था। छोटी-छोटी बातों में भी वे घनश्याम को मारने के लिए हाथ उठा देते थे। इसलिए जब भी घनश्याम को कुछ चाहिए होता तो वे अपनी भाभी से पूछते थे।

वंशजों को ही मिली पंथ की जम्मेदारी

अपना पंच भौतिक शरीर त्यागते समय स्वामीनारायण ने अपना संदेश दूसरों तक पहुंचाने और अपने साथी, स्वामी नारायण संप्रदाय को संरक्षित करने के लिए पूरे पंथ को दो भागों ( गद्दी ) में बांट दिया था।

प्रत्येक गदी में एक आचार्य नियुक्त किया।   उन्होंने औपचारिक रूप से अपने दो भाइयों में से प्रत्येक के एक- एक पुत्र को गोद लिया और उन्हें आचार्य के पद पर नियुक्त किया। स्वामीनारायण के बड़े भाई रामप्रताप के पुत्र अयोध्या प्रसाद और उनके छोटे भाई इच्छाराम के पुत्र रघुवीर को क्रमशः अहमदाबाद गदी और वडताल गदी का आचार्य नियुक्त किया गया था । स्वामी नारायण ने आदेश दिया कि यह पद वंशानुगत होना चाहिए ताकि आचार्य अपने परिवार से रक्त वंश की सीधी रेखा बनाए रखें। उनके अनुयायियों के दो क्षेत्रीय सूबाओं में प्रशासनिक विभाजन को स्वामीनारायण द्वारा लिखे गए एक दस्तावेज़ में विस्तार से बताया गया है, जिसे देश विभाग लेख कहा जाता है ।  स्वामीनारायण ने सभी भक्तों और संतों से कहा कि वे दोनों आचार्यों और वंश के बाहर के एक आचार्य गोपालानंद स्वामी के निर्देशों का पालन करें , जिन्हें संप्रदाय के लिए मुख्य स्तंभ और मुख्य तपस्वी माना जाता था। नित्यानंद स्वामी को वड़ताल मंदिर की देखभाल का कार्य दिया गया और ब्रह्मानंद स्वामी को अहमदाबाद मंदिर की देखभाल का कार्य दिया गया। लेकिन सभी धार्मिक नियंत्रण और मध्यस्थता गोपालानंद स्वामी को दी गई।  उनका दोनों भतीजों को गद्दी देना लोगों को रास नहीं आया।इसे लेकर विरोध शुरू हुआ।विरोध के बाद स्वामीनारयण संप्रदाय दो खेमों में बंट गया।घनश्याम पांडे के खेमे ने वंश परंपरा को स्वीकार किया और दूसरे खेमे ने साधु परंपरा को अपनाया।

    20वीं शताब्दी में साधु परंपरा के शास्त्री महाराज ने नई गद्दी चलाई।इस गद्दी को नाम दिया गया बोचासनवासी अक्षय पुरुषोत्तम संप्रदाय। यह संप्रदाय आधुनिक समय में बाप्स नाम से लोकप्रिय है. बाप्स परंपरा के लोगों को ही साधु परंपरा वाला कहा जाता है।

1.अहमदाबाद की नर नारायण देव गद्दी 

स्वामी नारायण ने अपनी मृत्यु से पूर्व दो गदियों (नेतृत्व की सीटें) की स्थापना की। एक सीट अहमदाबाद ( नर नारायण देव गदी ) में स्थापित की गई।स्वामीनारायण के बड़े भाई रामप्रताप के पुत्र अयोध्या प्रसाद को इस गद्दी का प्रमुख बनाया गया। स्वामी नारायण के बड़े भाई रामप्रतापजी छपिया मे ही पैदा हुए थे। उनका सुवासिनी-बाई से हुआ था। प्रभु की बाल लीला में इस भाभी ने बहुत अहम रोल किया था। बाद में वे इन्हें अपने दिव्य स्वरूप का दर्शन भी कराए थे। इन्हीं के सुपुत्र आचार्य अयोध्या प्रसाद महाराज छपिया धाम के प्रथम पीठाध्यक्ष हुए और धाम को दिव्य रूप देने में महती भूमिका निभाये हैं। छपिया के मुख्य भवन में धर्म देव , मूर्ति देवी के साथ प्रथम आचार्य अयोध्या प्रसाद महाराज की छवि भी प्रतिष्ठित की गई है। अहमदाबाद गादी के वर्तमान आचार्य कोशलेंद्र प्रसाद पांडे जी हैं।

2.वडताल की लक्ष्मी नारायण देव गद्दी

स्वामी नारायण के छोटे भाई इच्छारामजी थे जिनकी वरियारी-बाई से विवाह हुआ था। स्वामी नारायण द्धारा दूसरी वडताल (लक्ष्मी नारायण देव गदी ) में 21 नवंबर 1825 को स्थापित की गई थी। छोटे भाई इच्छाराम के पुत्र रघुवीर को इस गद्दी का प्रमुख बनाया गया। वडताल गादी के अजेंद्रप्रसाद पांडे हैं।

घनश्याम प्रभु का जन्म और बचपन की अदभुत और दिव्य बाललीलायें 

उत्तर भारत के अवध प्रान्त(उत्तर प्रदेश) के अयोध्या के पास गोंडा जिले के छपैया( छवि का धाम) नामक छोटे गाँव में घन श्याम पांडे के रूप में कृष्ण के कलयुगी अवतार स्वामी नारायण भगवानअवतारित हुए थे । उस समय अंग्रेजों की गुलामी का दौर था। इस मुश्किल भरे समय के बीच सोमवार, 3 अप्रैल, 1781 ई. को रात्रि 10 बजकर 10 मिनट पर भगवान स्वामी नारायण का अवतरण चैत्र सुदी नवमी संवत् 1837 को पिता हरि प्रसाद पांडे (जिन्हें धर्मदेव के नाम से भी जाना जाता है) और माता प्रेमवती (जिन्हें भक्तिमाता या मूर्तिदेवी के नाम से भी जाना जाता है) के घर में हुआ था। ये सरयूपारीण ब्राह्मण थे। उनका सावर्णी गोत्र और कौमुधी शाखा थी। 

      रात्रि की दस घड़ी चौदह पल के उस समय ने पूरे भूमंडल को मांगल्य से भर दिया था। देवों और ईश्वरों ने दिव्य रूप से आकाश से पुष्पों की वर्षा की थीं। चतुर्दिक मंगल ही मंगल छा गया था। संयोगवश उस दिन रामनवमी भी थी । इसलिए इस दिन को स्वामी नारायण संप्रदाय के लोगों द्वारा स्वामि नारायण जयंती के रूप में भी मनाया जाता है।  इनके जन्म के पूर्व इनके माता-पिता (भक्तिदेवी और धर्मदेव) काशीपुरी की यात्रा पर गये थे जहाँ स्वामी रामानन्द जी का शिष्यत्व ग्रहण कर, ईश्वर की पूजा आराधना किये, भागवत कथामृत सुने और कई अन्य धार्मिक कार्य किये थे। यात्रा खत्म होने के बाद अपने गाँव छपिया लौटने के बाद वह शुभ दिन आ गया और भगवान श्री स्वामीनारायण का जन्म उनके घर में हुआ और इनका नाम घनश्याम रखा गया। उनके दो भाई और थे, बड़े भाई का नाम रामप्रताप पांडे और छोटे भाई का नाम इच्छाराम पांडे था। घन श्याम ने छपिया के आसपास दर्जनों गांवों के लोगों को अपनी लीला दिखाकर आत्मविभोर किया था।

दिव्य और कुशाग्र बालक 

आम बच्चों से एकदम अलग जीवन यापन करने वाला छपिया नामक छोटे से गांव  में जन्मा बालक घनश्याम पांडे आम बच्चों से एकदम अलग और तीक्ष्ण बुद्धि का स्वामी भी था। उनके इस धाम की धरती के पशु पक्षी बेल लता और मछली आदि को स्वर्ग लोक की प्राप्ति होती है । उनके प्राकट्य के समय सब दिव्य लक्षण घटित हो रहे थे।पिता जी ने स्नान करके पुत्र का जातकर्म किया। ब्राह्मणों और गरीबों को भोजन दान किया गया था।

कालीदत्त से छ्ठी के दिन प्रभु की रक्षा 

आषाढ़ संवत 1837 चैत सुदी चौदस दिनांक 8 अप्रैल 1781को छठी के अवसर पर कालीदत्त राक्षस ने अपने मंत्र पुतरियों को उत्पन्न किया था जो बालक को आकाश मार्ग से चलने लगी थी। मां भक्ति देवी ने क्रंदन किया तो सब जग गए। बाल प्रभु ने अपना भार बढ़ा दिया तो पुतरियों ने बालक को जमीन पर रख वहां से भागने लगीं । उसी समय प्रभु की इच्छा से हनुमान जी ने पुतरियों को ताड़ित करना शुरू कर दिया था। वे प्रभु की शक्ति समझ हनुमान जी से प्राण दान मांगी। कालीदत्त को उनने बहुत फटकारा। जो अपनी जान बचाकर जंगल में छिप गया था। हनुमान जी ने बाल प्रभु को उठाकर मां की गोद में सुरक्षित लौटा दिया था। 

        हनुमान जी का मंदिर गांव का कल्याण सागर नामक तालाब के सामने प्रतिष्ठित है। माता भक्ति उस दिन अपने कर्तव्यों में इतनी व्यस्त थीं कि वे अपने बच्चे को गोद में नहीं ले सकीं थीं । यद्यपि वह उनके लिए उनकी आत्मा से भी अधिक प्रिय था। उन्होंने अन्य छोटे बच्चों को अपने बच्चे की देखभाल करने दिया तथा अतिथि महिलाओं की यथायोग्य सेवा की। 

एक माह की उम्र पूरा होने पर 

प्रथम साल के एक माह की उम्र पूरा होने पर दूसरे महीने में बैसाख सुदी दशमी दिनांक 4 मई 1781 शुक्रवार को बाल प्रभु को जिह्वा मंजन, मेधा जनन और पय: पान आदि संस्कार संपन्न कराया गया था ।

तीन माह की उम्र में 

जब वे मात्र तीन माह बारह दिन के थे, तब आषाढ़ बदी सप्तमी दिनांक 13 जुलाई 1781 ई में हिमालय से मार्कंडेय मुनि नामक एक प्रसिद्ध ऋषि धर्मदेव के घर आए । पालने में योग निद्रा में बालक के हाथ में पद्म और पैर से बज्र, ऊर्ध्वरेखा तथा कमल का चिन्ह देखकर ज्योतिषि ने कह दिया कि यह बालक लाखों लोगों के जीवन को सच्चा मार्ग दिखाएगा। मुनि ने बताया कि घनश्याम पृथ्वी पर धर्म की स्थापना करेंगे। लोगों के जीवन से दुख और पीड़ा को दूर करेंगे। हर जगह प्रसिद्ध होंगे और लोगों को ईश्वर के मार्ग पर ले जाएंगे। ज्योतिषी के शब्दों के अनुसार, घनश्याम ने छोटी उम्र से ही ईश्वर और अध्यात्म के प्रति लगाव दिखाया। कहा जाता है कि उनके पैर में कमल का चिह्न देखकर ज्योतिषियों ने कहा था कि ये बालक लाखों लोगों के जीवन को सही दिशा देगा। उन्होने घन श्याम, कृष्ण, हरि कृष्ण आदि नाम सुझाए। 

भूमि-उपवेशन संस्कार पाँचवें महीने में

बालक के जन्म के पाँचवें महीने में, आषाढ़ संवत 1838, श्रावण मास सुदी पुत्रदा एकादशी दिनांक 31 जुलाई 1781 ई दिन मंगलवार को सूर्योदय से सातवें शुभ समय में, धर्मदेव  ने बालक को पहली बार भूमि पर गिराने का उपवेशन शास्त्रीय संस्कार किया। उस दिन धर्म ने शुभ वाद्यों तथा वैदिक मन्त्रों के उच्चारण के साथ, बड़े हर्ष के साथ वराह अवतार भगवान विष्णु तथा पृथ्वी की पूजा की थीं ।

अन्नप्राशन संस्कार छठे माह में 

छ्ठे मास आषाढ़ी संवत 1838,आश्विन मास में शुक्ल पक्ष द्वितीया दिनांक 19 सितंबर 1781 को बालक का अन्नप्राशन संस्कार हुआ था। बालक को तुला राशि के शुभ समय में धर्म ने पवित्र स्नान कराने के पश्चात् उसे प्रथम बार ठोस आहार (विशेष रूप से उबले चावल) (माँ के दूध के अतिरिक्त) खिलाने का अनुष्ठान सम्पन्न किया गया था। पवित्र अग्नि की स्थापना करके और चरु (आहुति) देकर  प्रक्रिया आरंभ करके , उन्होंने ब्रह्मा और अन्य देव देवताओं की पूजा की थीं।बच्चा मुस्कुराते हुए माता की गोद में सुशोभित हो रहा था। पिता ने शान्त भाव से हाथ में सोने का चम्मच लेकर उसे दही, घी और शहद से मिश्रित शुद्ध भोजन दिया था। 

वृत्ति परीक्षा में विलक्षण प्रतिभा दिखी 

बालक घनश्याम अभी रेंगना शुरू ही कर रहा था। एक बार धर्मदेव के मन में विचार आयाः "यह बालक पृथ्वी पर विजयी होगा, लेकिन यह कैसे होगा? क्या यह सम्राट बनेगा? क्या यह सभी देशों पर विजय प्राप्त करके संप्रभु बनेगा? क्या यह सबसे धनवान व्यक्ति बनेगा? क्या यह विदेशों में अग्रणी फर्मों का मालिक बनने वाला महान व्यापारी बनेगा? या यह पूरी दुनिया में ज्ञान का प्रसिद्ध व्यक्ति बनेगा?”

     बालक के व्यवसाय के प्रति भावी रुझान का मूल्यांकन करने के लिए, उनकी पहुंच और दृष्टि के क्षेत्र में सभी स्थानों पर विभिन्न वस्तुएं रख दी गईं। पिता धर्मदेव ने घनश्याम की प्रवृत्ति का परीक्षण करने का फैसला किया। उन्होंने घनश्याम को एक प्लेट के सामने रखा, जिसमें एक सोने का सिक्का, एक छोटा खंजर औरश्रीमद्भगवत गीता की एक प्रति रख दिया था। इनमें से प्रत्येक वस्तु किसी विशेष व्यापार या व्यवसाय का प्रतीक था। परंपरा के अनुसार, यदि वह सोने के सिक्के के लिए हाथ बढ़ाता, तो इसका मतलब था कि वह एक व्यापारी या उद्यमी बनने के लिए नियत था। तलवार एक योद्धा का प्रतिनिधित्व करती थी। शास्त्र धार्मिक विद्वान का प्रतिनिधित्व करता था। आकर्षक और चमकदार वस्तुओं को अनदेखा करते हुए, घनश्याम जी ने तुरंत शास्त्र के लिए हाथ बढ़ाया था ।       

        धर्मदेव ने बहुत प्रसन्नता व्यक्त की, क्योंकि बालक ने उन पुस्तकों को अपने अधिकार में ले लिया था। घनश्याम की पसंद का मतलब था कि वह अपनी बुद्धि से लाखों लोगों के दिलों -दिमागों को प्रभावित करेगा। बालक का बचपन माता पिता और भाई राम प्रताप भाभी सुवासिनी के सानिध्य में छपिया तर गांव बल्लम पधरी और अयोध्या में ही बीता था।

कर्णवेध संस्कार सातवें महीने में 

सातवें महीने में आषाढ़ी संवत 1838, अश्विन सुदी पूर्णिमा दिनांक 2 अक्टूबर 1781 को गुरुवार को शुभ घड़ी में धर्म ने कुलदेवता का सम्मान करते हुए अपने पुत्र के कान छेदने का संस्कार कराया था । कुशल दर्जी ने चांदी की सुई और दो तह वाले धागे से कुशलता पूर्वक छेदन कार्य किया, तथा पृष्ठभूमि में वैदिक मंत्रों की ध्वनि सुनाई दे रही थी। 

जन- जन द्वारा अनुरंजन

माता-पिता द्वारा अच्छी तरह से पाला गया बालक शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा के समान दिन प्रतिदिन बढ़ता गया। वह अपने सभ्य संकेतों और बाल-कला से दर्शकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता था। जब माता-पिता श्रीहरि को पुत्ररूप में पालने में लग गए, तब उनके दिन-रात क्षण भर में ही बीत गए। जो भी स्त्री-पुरुष बन्धु आत्मा थे, उन्हें देखकर उनका हृदय सांसारिक क्लेशों से मुक्त हो जाता था। वृद्ध और ज्ञानी पुरुष उसके प्रेम में पड़कर उसके साथ क्रीड़ा करते हुए अपनी आयु भी भूल जाते थे। शुभ अवतार भगवान ने उन्हें मुक्ति प्रदान करने के लिए उनके मन को अपने अन्दर समाहित कर लिया था।बच्चे को थपथपाने वाली सभी देखभाल करने वाली स्त्रियाँ 'मेरा-तेरा' का विचार किए बिना निष्पक्ष हो गईं थीं ।बड़े-बूढ़े उसे अपने बेटे के पास ले जाते थे। कुछ लोग अपने भाई के पास ले जाते थे। कुछ अपने परिवार की परवाह किए बिना सारा दिन उससे लिपटे रहते थे। बच्चे को दुलारने वाले आपस में इस बात पर छोटी-छोटी बहस करते थे कि बच्चा किसके हाथ में जाए? बच्चे के प्रति प्रेम के कारण वे बच्चे को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को और फिर से दूसरे व्यक्ति को सौंप देते थे। 

     माता भक्ति के पास अपने बेटे को गोद में लेने के लिए बहुत कम समय था, क्योंकि अन्य स्त्रियाँ कभी-कभी उसे गोद में लेने से मना कर देती थीं। जब बालक बड़बड़ाते हुए मीठी-मीठी बातें करने लगता तो आस-पास की स्त्रियाँ उससे मीठी-मीठी बातें करते हुए प्रायः 'अम्बा' (माँ) और 'ताता' (पिता) कहतीं। वह अपनी छोटी-छोटी बातों और हाव-भाव से उन महिलाओं को हंसाता था। एक साल पूरा होने से पहले ही उसने बोलना और चलना सीख लिया था। अपनी बाल - लीलाओं से आस-पास के लोगों को सुख प्रदान करते हुए, इच्छापूर्ण मानव-अवतार श्रीहरि ने एक वर्ष पूर्ण किया।

श्रीहरि का मुंडन समारोह

तीसरे साल ज्येष्ठ मास में कृष्ण पक्ष की पंचमी तिथि दिनांक 19 जून 1783 शुक्रवार धनिष्ठा नक्षत्र में बाल प्रभु तीन माह 12 दिन के होने पर तारे गांव में चौलकरन (मुण्डन संस्कार) पिता धर्मदेव ने छपिया के पवित्र नारायण सरोवर के किनारे सम्पन्न कराया था। कुछ ग्रंथ में मखौड़ा में मुंडन का जिक्र करते हैं ।चूंकि इसी दिन काली दत्त को मोक्ष भी नारायन सरोवर के निकट छपिया में मिला था। इसलिए मखौड़ा से 8 किमी.दूर एक ही दिन दो प्रमुख बाल लीलाओं की घटनाएं सम्भव प्रतीत नही हो सकती है।

     बाल प्रभु घनश्याम के परिवार और पास पड़ोस के लोग भी इसके साक्षी रहे। उस ब्राह्मण ने वैदिक विद्वानों को बुलाकर, नियमानुसार बालक का प्रथम बार मुंडन संस्कार कराया। 

   शुभ स्नान करके उसने सात मातृदेवियों का पूजन किया। धार्मिक अनुष्ठान प्रारम्भ किया। पितरों को तर्पण दिया तथा तत पश्चात शुद्धि संस्कार किया गया था। कर्मकाण्डी कुल-पुरोहितों के वचनों का पालन करते हुए, पवित्र अग्नि 'सभ्य' की स्थापना करके धर्म ने 'पात्र आसदनम्' का अनुष्ठान किया। उन्होंने पवित्र अग्नि के दाहिने भाग में कुशा की इक्कीस पत्तियां तथा बायीं ओर लाल गाय का सूखा कंडा अग्नि में आहुति दी। उन्होंने व्याहृतियों के उच्चारण द्वारा यज्ञ सम्पन्न करके, लोहे के छोटे से छुरे से अपने पुत्र के सिर पर एक जटा छोड़ कर, उसके मुंडन का अनुष्ठान किया। 

      पारिवारिक रीति-रिवाजों का पालन करते हुए उन्होंने अमई नामक नाई को यह शुभ काम सम्पन्न कराने का अवसर दिया था। नाई अपना उस्तरा लिए भक्ति देवी के गोद में बैठे बाल प्रभु का मुण्डन करने लगा। नाई से छुपा छिपी खेलते हुए उसे अपना दिव्य दर्शन भी दिए। बालक के सिर पर बालों का एक गुच्छा छोड़ दिया गया। इस प्रक्रिया में लोगों को गाय व अन्य वस्तुएं उपहार स्वरूप देना होता है।       

    तत्पश्चात् उन्होंने बड़ी प्रसन्नता से सैकड़ों ब्राह्मणों को भोजन कराया, जिसमें घी और चीनी मिला हुआ आम का रस भी था। तत्पश्चात् उन्होंने अपने सम्बन्धियों, नगरवासियों तथा अन्य लोगों को भी भोजन कराया। माता भक्ति उस दिन अपने कर्तव्यों में इतनी व्यस्त थीं कि वे अपने बच्चे को गोद में नहीं ले सकीं, यद्यपि वह उनके लिए उनकी आत्मा से भी अधिक प्रिय था। उन्होंने अन्य छोटे बच्चों को अपने बच्चे की देखभाल करने दिया तथा अतिथि महिलाओं की यथायोग्य सेवा की। इसी दिन हो काली दत्त राक्षस का उद्धार भी बाल प्रभु ने किया था।(बाल प्रभु का ननिहाल का उल्लेख बल्लम पधरी के रुप में भी मिलता है । इस पर इस पंथ के विद्वतवरों के मार्गदर्शन की आवश्यकता है।)

काली दत्त उद्धार लीला 

ज्येष्ठ मास में कृष्ण पक्ष की पंचमी तिथि दिनांक 19 जून 1783 शुक्रवार धनिष्ठा नक्षत्र में बाल प्रभु तीन माह 12 दिन के होने पर मखौड़ा धाम/ छपिया के नारायण सरोवर के तट पर चौलकरन (मुण्डन संस्कार) हुआ था। पिता जी ने एक अद्वितीय भोज का आयोजन किया था।

       दोपहर के भोजन के बाद खेलते हुए वे बच्चे, अपने उस प्रिय बच्चे को साथ लेकर शाम के समय पास के नगर के बगीचे में गए। वहां आमों का बगीचा देखकर, पेड़ से गिरे पके आमों को खाकर वे बहुत प्रसन्न हुए। वे एक वृक्ष के नीचे घन श्याम को रखा और जामुन की तलाश में और आगे बढ़ गए को कलिदत्त का इलाका था। इस अवसर की ताक में प्रभु का दूर का मामा कालीदत्त ने प्रभु की ईर्ष्या और द्वेष बस मारना चाहता था। वह प्रभु को वृक्ष के नीचे पकड़ने गया। वहां जाते ही जलने लगा। कालीदत्त को एक भयानक आग की तरह दिखाई दिया। इसलिए वह अपने प्रयास में पीछे हट गया। उसने अपने जादू और काली कला का उपयोग करने का फैसला किया। उसने अपने तंत्र के प्रयोग से आंधी और झंझावात फैलाया।बिजली चमक रही थी और भारी  मूसलाधार बारिश हो रही थी। कई पेड़ गिर गए। कई जीव-जंतु और पक्षी मर गए। वृक्ष और टहनियां टूट कर गिरने लगी। विजली चमकने लगी बारिश भी हूई। कालीदत्त प्रभु के समीप आया। मंद मुस्कान के साथ प्रभु ने तीव्र दृष्टिपात किया।

        चारों ओर घना अंधेरा था। कोई भी किसी का चेहरा नहीं देख सकता था।

बालक घनश्याम उस पेड़ के नीचे बैठा रहा, जहाँ वह खेल रहा था। अन्य बच्चे दूसरे पेड़ों के नीचे खड़े थे और डरे हुए थे। उन्हें नहीं पता था कि घनश्याम कहाँ है और कोई भी ऐसे तूफान में दूसरों के बारे में पूछने नहीं जा सकता था।

      कालीदत्त ने इस अवसर का लाभ उठाया। उसने ऐसी माया रची कि वह विशालकाय शरीर के साथ उस वृक्ष पर गिर पड़ा जिसके नीचे घनश्याम बैठा था। वह आम का वृक्ष घनश्याम पर गिर पड़ा। वह गिरा तो, पर कालीदत्त जैसा दुष्ट नहीं था। वृक्ष घनश्याम पर गिर पड़ा और उसे छतरी की तरह सुरक्षित ढक लिया। अब घनश्याम को तूफान और वर्षा से पूरी सुरक्षा मिल गई थी। कालीदत्त स्तब्ध रह गया। वह उसे पकड़ने के लिए फिर दौड़ा, जब उसने देखा कि घनश्याम जीवित है। पर जैसे ही उसकी नजर घनश्याम से मिली, वह भूत-प्रेत से ग्रस्त व्यक्ति की तरह इधर-उधर भागने लगा।असुर अपना मान भान खोकर वृक्ष से टकरा कर गिर गया। धरा कांपने लगी। उसके दोनों नेत्रों से खून की धारा निकलने लगी। मुख से भी खून की उल्टी करने लगा। चक्रवात में गिर रहे एक वृक्ष के नीचे वह छटपटा कर दबकर मर गया।

     तूफान और वर्षा बंद हो गई। इस बीच माता-पिता अपने बच्चों की तलाश में बाहर आ गए। सभी माता-पिता लालटेन और मशालें लेकर बाहर आ गए। उन्होंने अपने बच्चों के नाम पुकारे। धर्मदेव और भक्तिमाता भी घनश्याम की तलाश में बाहर आ गए थे। घनश्याम की बुआ सुन्दरीबाई, जो घनश्याम से बहुत प्रेम करती थीं, भी घनश्याम की खोज में निकली थीं। घनश्याम के सबसे बड़े भाई रामप्रतापभाई भी अपने छोटे भाई घनश्याम की खोज में निकले थे। गाँव के अन्य बच्चे मिल गये, परन्तु घनश्याम नहीं दिखा। बच्चों ने अपने माता-पिता को बताया कि उन्होंने घनश्याम को आम के पेड़ के नीचे देखा था, और उसके बाद क्या हुआ, उन्हें नहीं मालूम।

        यह सुनकर सुन्दरीबाई बहुत डर गयीं। वे दौड़कर आम के पेड़ के पास पहुँचीं। उन्होंने देखा कि बालक घनश्याम इस प्रकार खेल रहा था, मानो कुछ हुआ ही न हो। "हरि मिल गया। हरि मिल गया।" बुआ सुन्दरीबाई चिल्लायीं। भक्ति माता और अन्य लोग वहाँ दौड़े। बुआ सुन्दरीबाई ने बालक घनश्याम को उठाकर भक्तिमाता की गोद में रख दिया। माता की खुशी का ठिकाना न रहा। उन्होंने एक बहुमूल्य हार उतारकर सुन्दरीबाई को दे दिया। घनश्याम को पा लेने की खुशी से बढ़कर कोई चीज अनमोल नहीं है। कलीदत्त को मृतक तथा घन श्याम को मंद मुसकान बिखेरते सकुशल पाकर वे प्रभु को उठाकर अपने घर ले आए।


तीन वर्ष की उम्र में ध्यान में घनश्याम का चमत्कारिक प्रभाव परिलक्षित 

अयोध्या सरयू स्नान कर लौटकर बालक अपने पिता की भांति छपिया में पूजा अर्चना शुरू कर दिया था। पिता जी को बालक द्वारा क्षण भर में तुलसी दल  उपलब्ध कराया गया था। इसी समय देवों द्वारा तुलसी कुमकुम अबीर गुलाल से बाल प्रभु ने अपनी पूजा भी करवा लिया था। उनके पिता जी बाल मुकुंद की मूर्ति की पूजा करते थे। घन श्याम उस मूर्ति में अपनी छवि उतार कर पिता जी को आश्चर्य में डाल दिए थे। पिता जी ने बाल मुकुंद से क्षमा याचना की, कि आज ना जानें क्यों प्रभु की छवि में परिवार की छवि बार बार उलझन बढ़ा रही है।

पांच वर्ष की उम्र में विद्यारंभ

पांच वर्ष की अवस्था में बालक ने पढ़ना- लिखना शुरू किया । घनश्याम पांडे जब 5 साल के थे, तब उनका परिवार छपिया गांव छोड़कर अयोध्या के बरहटा गांव में रहने आ गया था। अयोध्या धाम और भगवान घनश्याम महराज की जन्मस्थली स्वामिनारायण मंदिर का अटूट संबंध है। यहां भगवान घनश्याम महराज कई वर्षों तक रहे और तपस्या की थी। उन्होंने तप करते हुए अनेक प्रकार लीलाएं की थी।


बालक घनश्याम ने बहुत छोटी उम्र में ही पढ़ना शुरू कर दिया था।  घनश्याम ने कहा, "पिताजी, आप ही मुझे सिखाइए।" यह सुनकर पिता प्रसन्न हुए। उन्होंने घनश्याम को कुछ श्लोक सिखाए। घन श्याम उनकी बातें बहुत ध्यान से सुनता और जो कुछ भी सुनता, उसे अपने दिमाग में बसाए रखने की कोशिश करता।

      आषाढी सम्बत 1842 चैत सुदी द्वितीया के दिन से जब स्वामी नारायण पांच वर्ष के थे, तब उनके पिता धर्मदेव ने उन्हें पढ़ाना शुरू किया। उनके गुरु हृदयराम थे जिनसे अत्यल्प समय में वे शिक्षा से परिपूर्ण हो गए थे। अपने पिता से बाल घनश्याम को चार वेद, रामायण, महाभारत, श्रीमद्भागवत,पुराण, रामनुजाचार्य प्रणीत श्री भाष्य, याज्ञवल्क्य स्मृति आदि की शिक्षा मिली थी । उन्होंने इन सभी ग्रंथों का सार संग्रहित किया, अपने लिए एक संग्रह भी बनाया था।


सातवें साल आषाढी सम्वत 1843 में एक साथ कई स्थलों पर उपस्थित दिखे

सातवें साल आषाढी सम्वत 1843 में एक साथ कई स्थलों पर उपस्थित दिखे।एक बार, घनश्याम अयोध्या के अपने बचपन के घर के पास एक मंदिर में गए थे। घनश्याम अयोध्या के सभी मंदिरों में जाते थे, सुबह नाश्ते से पहले और शाम को खाने से पहले भी। आध्यात्मिक प्रवचनों में वे इतने मग्न हो गए कि उन्हें समय का पता ही नहीं चला और वे घर वापस नहीं लौटे। यह महसूस करते हुए कि घनश्याम आस-पास के कई मंदिरों में से किसी एक में होंगे, घनश्याम के बड़े भाई रामप्रताप भाई उन्हें खोजने निकल पड़े।

      घनश्याम ने अपना ज़्यादातर समय राम जन्म भूमि (राम भगवान की जन्म स्थली) और हनुमानगढ़ी में बिताया। वह चुपचाप बैठकर ध्यान से कथा सुनते और भक्ति कीर्तन गाते थे।

     एक शाम, घनश्याम हनुमानगढ़ी में दर्शन के लिए गए जहाँ रामायण का पाठ हो रहा था। अपने विचारों में पूरी तरह डूबे रहने के कारण, घनश्याम को समय का पता ही नहीं चला और वह रात के खाने के लिए सामान्य समय पर घर नहीं लौट पाया। 

     इस समय तक भक्तिमाता बहुत चिंतित हो गई थीं क्योंकि घनश्याम आमतौर पर समय के बहुत पाबंद थे। इसलिए उन्होंने रामप्रतापभाई को घनश्याम को वापस घर लाने के लिए खोज में भेजा।

     रामप्रतापभाई ने मन ही मन सोचा कि घनश्याम उनके पसंदीदा मंदिरों में से एक में अवश्य होंगे, इसलिए वे पहले हनुमान गढ़ी के लिए निकल पड़े। रामप्रतापभाई ने दर्शन किए और फिर देखा कि घनश्याम सभा में बैठे हैं। वे चुपचाप घनश्याम के पास गए और उनके कान में फुसफुसाए, " घर चलते हैं, माँ इंतज़ार कर रही हैं।"     

       घनश्याम जाने के लिए अनिच्छुक लग रहे थे और उन्होंने उत्तर दिया, "मुझे कथा के अंत तक बैठने दो और इस बीच, तुम जाकर अन्य मंदिरों के दर्शन कर लो।" रामप्रतापभाई सहमत हो गए और अगले मंदिर में जाने का फैसला किया जहाँ भगवत गीता का पाठ किया जा रहा था। रामप्रतापभाई ने दर्शन किए, पीछे मुड़े और अचानक आश्चर्य से रुक गए क्योंकि उन्होंने सभा में बैठे घनश्याम को कथा सुनते देखा।         

     रामप्रतापभाई भ्रमित हो गए और उन्होंने मन ही मन सोचा, "घनश्याम मुझसे पहले यहाँ कैसे आ सकते हैं? मैंने उन्हें हनुमानगढ़ी में बैठा छोड़ दिया और वे रास्ते में मेरे पास से नहीं गुजरे!" वह घनश्याम के पास गया और फिर फुसफुसाया, " चलो घर चलते हैं।"   

      घनश्याम ने एक बार फिर उत्तर दिया, "मुझे इस कथा का बाकी हिस्सा सुनने दो, फिर हम चलेंगे।" 

    "ठीक है," रामप्रतापभाई ने कहा, "इससे मुझे शिव मंदिर के दर्शन करने का समय मिल जाएगा और मैं वापस आकर आपसे मिलूंगा।" शिवपुराण का पाठ करते समय रामप्रतापभाई ने शिव के दर्शन किए। 

    रामप्रतापभाई जाने वाले थे, उन्होंने देखा कि घनश्याम फिर से सभा में बैठा है। उन्होंने अविश्वास में अपनी आँखें रगड़ी, यह देखने के लिए कि क्या यह वास्तव में वही है और फिर से आश्चर्य हुआ कि घनश्याम भी वहाँ कैसे आ गया। फिर से वह थका हुआ घनश्याम की ओर चला गया और उससे अपने साथ घर चलने का अनुरोध किया।     

      "रामप्रतापभाई" घनश्याम ने कहा, "कृपया हनुमानगढ़ी जाएँ और मैं जल्द ही वहाँ पहुँच जाऊँगा।" रामप्रतापभाई सहमत हो गए। हालाँकि, इस बार, रामप्रतापभाई घनश्याम के वहाँ पहुँचने से पहले हनुमानगढ़ी पहुँचने के लिए दृढ़ थे। उन्होंने जल्दी से जल्दी चलने का निश्चय किया। रामप्रतापभाई मंदिर की ओर दौड़े, जहाँ रामायण का पाठ समाप्त होने वाला था। खीझते हुए रामप्रतापभाई ने मन ही मन कहा, "आहा! अब मैं घनश्याम से पहले पहुँच गया हूँ!" उन्होंने सभा की ओर देखा और अचानक अविश्वास में वहीं जड़वत हो गए। घनश्याम वहाँ बैठे थे, जहाँ उन्होंने उन्हें छोड़ा था, मानो वे हिले ही नहीं। 

     रामप्रतापभाई ने सोचा, घनश्याम राम मंदिर में भी हैं, शिव मंदिर में भी हैं और यहाँ हनुमानगढ़ी में भी हैं; इनमें से कौन सच्चा घनश्याम है? रामप्रताप भाई अयोध्या के सभी मंदिरों में गए और घनश्याम को हर एक में उपस्थित देखकर आश्चर्यचकित हुए। 

      कथा समाप्त हुई और घनश्याम उठे और शांति से फुसफुसाए, "रामप्रतापभाई, चलो घर चलते हैं।”

जनेऊ (यज्ञोपवीत) संस्कार आठवें साल 

घनश्याम अब सात साल का हो गया है और उसे 'जनोऊ' (पवित्र धागा) या यज्ञोपवीत देने का समय आ गया है। धर्मदेव ने शुभ दिन (मुहूर्त) खोजने के लिए एक विद्वान ब्राह्मण को बुलाया और सोमवार अहगन सुदी 10 , सम्वत 1845 को चुना गया। धर्मदेव ने इस समारोह की तैयारियाँ शुरू कर दीं। अयोध्या के बरहटा में उपनयन का मंडप सजा हुआ था। (avadhkiaavaj.com में श्री अनिल कुमार सिंह के दिनांक 20 मई 2020 के विवरण के अनुसार बाल प्रभु के ननिहाल तरगांव में जनेऊ का विवरण मिलता है)।          यह एक ब्राह्मण के जीवन का बहुत महत्वपूर्ण दिन है क्योंकि वह एक द्विज (ब्राह्मण - दो बार जन्मा) बन जाएगा। अयोध्या के सभी ब्राह्मणों, उनके रिश्तेदारों, दोस्तों और साधुओं को निमंत्रण भेजे जाते हैं। सड़क को सजाया जाता है और सुंदर सुगंधित फूलों से एक मंडप बनाया जाता है।

    दूसरे दिन ब्राह्मणों ने स्तोत्र (श्लोक) पढ़े, महिलाओं ने धार्मिक गीत गाए और हवन किया गया। घनश्याम का सिर मुंडाया गया और फिर उन्होंने स्नान किया। उन्होंने पीताम्बर (पीले रेशम की धोती) पहनी और फिर समारोह शुरू होने के लिए अपने माता-पिता के साथ मंडप के नीचे खड़े हो गए। जब समारोह हो रहा था, तब ब्रह्मा, विष्णु और शिव सहित देवता दर्शन देने आए। धर्मदेव ने अपना दाहिना हाथ घनश्याम के सिर पर रखकर उन्हें आशीर्वाद दिया और उन्हें एक गुरु मंत्र दिया, 'श्री कृष्ण शरणम मम' (हे भगवान श्री कृष्ण, मुझे अपनी सुरक्षा में ले लो। मैं तुम्हारे पास आया हूँ।) धर्मदेव ने कहा, "मेरे गुरु रामानंद स्वामी ने मुझे प्रयाग में यह मंत्र दिया था, मैं इसे अब आपको देता हूं।" 

    घनश्याम प्रसन्न हुए और अपने पिता को आदरपूर्वक प्रणाम किया। फिर घनश्याम ने तपस्वी वस्त्र, कमरबंद पहना और हाथ में मूंज की घास पकड़ी। उन्होंने 'पलाश' के पेड़ से बनी एक छड़ी और एक भिक्षापात्र भी पकड़ रखा था। 

    भक्तिमाता घनश्याम को 'भिक्षा' देने वाली पहली व्यक्ति थीं और फिर अन्य लोगों ने भी ऐसा ही किया। समारोह के बाद, धर्मदेव ने ब्राह्मणों को उपहार दिए और उपस्थित सभी लोगों को भोजन कराया।

     यह एक प्रथा और समारोह का हिस्सा बन गया है कि युवा द्विज अपने गुरु के पास भागने की कोशिश करते हैं और उनकी माँ उन्हें वापस लाने के लिए उनके पीछे दौड़ती हैं। इस प्रथा का पालन करते हुए, घनश्याम अपने विश्राम मामा द्वारा पीछा किए जाने के बाद औपचारिक दौड़ में निकल पड़े, लेकिन उनका वापस लौटने या अपने गुरु से मिलने का कोई इरादा नहीं था। वह हिमालय से आगे बढ़ना चाहते थे, जहाँ से वह धर्म का प्रसार करने के अपने लक्ष्य की शुरुआत करेंगे। विश्राम मामा के पास घनश्याम को पकड़ने की कोई संभावना नहीं थी, जो एक पल में हिमालय पहुँच सकता था। हालाँकि, घनश्याम को लगा कि भागकर वह अपने माता-पिता को बहुत परेशान करेगा। इसलिए उसने अपनी थकी हुई माँ को उसे पकड़ने देने के लिए अपनी गति धीमी कर दी। वे दोनों घर लौट आए, घनश्याम अपनी माँ के कंधों पर बैठे थे, और जनेऊ समारोह पूरा हुआ।

भाभी की अंगूठी गिरवी रखना

आठवें साल आषाढी सम्वत 1844/ 1788 ई में भाभी की अंगूठी गिरवी रख तर गांव के हलवाई से भरपेट (दस मन) मिठाई खाने और अंगूठी वापस लेने की लीला दिखाई थी। उसकी सारी मिठाई खाई भी गई और दुबारा जस का तस मिठाई को दुकान में सजा भी दिया।

आध्यात्मिकता और उच्च आदर्शों की प्रवृति, हिंदू सनातन आदर्शों को स्थापित करना उद्देश्य

आध्यात्मिक प्रवचनों के प्रति घनश्याम का प्रेम बचपन से ही स्पष्ट था, जैसा कि उनकी आध्यात्मिक शक्ति थी।अपनी अनेक दिव्य घटनाओं के माध्यम से, घनश्याम ने यह प्रकट किया कि उनके अवतार का उद्देश्य हिंदू सनातन धर्म के आदर्शों को पुनः स्थापित करना था। 

पीपल के पेड़ से दिव्य अवलोकन 

यह घटना बाल प्रभु के आठ वर्ष के उम्र की संबत 1845 की है। एक बार, लुका-छिपी के खेल के बीच में, घन श्याम एक पीपल के पेड़ पर चढ़ गया और पश्चिम दिशा की ओर देखने लगा। खेल लगभग ख़त्म ही होने वाला था कि उनके एक दोस्त ने उन्हें दूर से पेड़ पर बुलाया, गहरे विचारों में खोए हुए देखा। उन्होंने उन्हें नीचे बुलाया और उनकी स्थिर दृष्टि का कारण पूछा। गहराई के गहन उत्तर ने उनके अवतार के उद्देश्य को चिन्हित रूप से समेटा। उन्होंने कहा, "मैं पश्चिम की ओर देख रहा था, जहां हजारों भक्त मेरे आगमन की प्रतीक्षा कर रहे हैं। वे मेरे आने और एकांतिक धर्म की स्थापना की प्रतीक्षा कर रहे हैं। वे अपने मोक्ष की प्रतीक्षा कर रहे हैं।" 

ककड़ी के पेड़ उखाड़ने की लीला 

आठवें साल आषाढी सम्वत 1845/ 1788 ई में भाभी के मायके तरगांव में ककड़ी की निराई में सारी लताएं उखाड़ने की लीला करने पर भाई राम प्रताप के गुस्से का शिकार होकर चाटा भी खाया और बाद में ककड़ी के बेल भी ज्यों का त्यों लोगों को दिखाने की लीला कर पश्ताप भी कराया।उनकी तर गांव की लीला ककड़ी के पेड़ उखाड़ने की लीला बहुत ही अद्भुत रही।

मीन सरोवर में मछुवे को दर्शन देने की लीला 

स्वामीनारायण ने समाज को भक्ति के माध्यम से मोक्ष और परम ज्ञान की प्राप्ति के बारे में मछुवे समाज को सिखाया। उन्होंने समाज में दलितों के उत्थान के लिए काम किया।

     तरगांव निवास करते हुए आस पास के दर्जनों स्थलों को पावन करते हुए लीला दिखाई थी। सम्वत 1845 में मीन सरोवर पर ये लीला रची गई थी। मीन सरोवर एक झील है जो गर्मियों में सूख जाती है जहाँ स्वामी नारायण ने मछुआरों कोआजीविका के लिए मछलियाँ न मारने की शिक्षा दी थी। यह स्वामी नारायण मंदिर से दो बीघा दक्षिण की तरफ़ स्थित है। ब्रह्मा जी इसी सरोवर में मछली का रूप धारण करके घनश्याम महराज से प्रसादी लेने आए थे।

     एक बार, घनश्याम अपने मित्रों के साथ मीन झील में तैर रहे थे, जब उन्होंने एक मछुआरे को अपनी पकड़ी हुई मछलियाँ टोकरी में खाली करते देखा। मीन सरोवर के इस छोटी झील में  घनश्याम मृत मछलियों को छटपटाते नही देख पाये। अहिंसा के प्रबल समर्थक, घनश्याम को मछलियों को अपने जीवन के लिए छटपटाते देखकर बहुत दुख हुआ। वे मछलियो को मार कर ढेर लगाते जा रहे थे। घन श्याम महराज के रोंगटे खड़े हो गए। उन्होंने दया और संकल्प पूर्वक मृत मछलियों की ओर देखा, तो वे तुरंत जीवित होकर कूद कूद कर सरोवर में चली गईं। मछुवारे देखे तो उन्हें ज्ञान हो गया कि इसे घनश्याम महाराज ने किया है। उनका श्रम बेकार हो गया । वे क्रोधित हो गये और अपना जाल लेकर घनश्याम पर झपटे। घनश्याम महराज यमराज सा अपना विकराल स्वरूप धारण कर लिया। भयंकर दांत, भयंकर मुंह, अट्ठार हाथ काले रंग का शरीर देख मछुवारे डर गए। वे इन लोगों को पकड़ कर यम पुरी ले गए।

    इतने पर वह नहीं माना और अपनी उँगलियों के इशारे से, घनश्याम ने मछुआरे को मीन सरोवर में दर्शन देने की लीला दिखाई गई थी। मृत्यु के देवता यम, मछुआरे के सामने प्रकट हुए और उसे दिखाया कि निर्दोष लोगों की जान लेने के उसके पाप पूर्ण कार्य का फल उसे नरक में कष्ट भोगना पड़ेगा। यम लोक में तरह तरह के दंड प्राणियों को दिए जा रहे थे। उसे भी दंड भुगतना पड़ा था। उसे जब दण्ड दिया जाने लगा तो उसकी काया उछलने लगी थी ।    

      वह घन श्याम प्रभु को कातर ध्वनि में पुकारा और घनश्याम से क्षमा माँगी। यह देखकर कि मछुआरे को मछली मारने का पूरा पश्चाताप हो रहा है। मछुआरे को घनश्याम की महानता का एहसास हुआ, उसने उनके चरणों में सिर झुकाया और फिर कभी मछली न मारने की कसम खाई। उन्होने मछूवे से कहा, भाई ये सृष्टि भगवान के द्धारा निर्मित है। हम किसी प्राणी को ना तो मार सकते हैं और ना ही उन्हे किसी तरह का कष्ट ही पहुंचा सकते हैं। हर प्राणी को अपने कर्म का फल भोगना ही पड़ता है। पाप कर्म का फल तुरंत भले ही ना मिले परन्तु उसे नर्क का वास जरूर मिलता है। यह अवस्था कुछ ही देर रही। प्रभु अपने मूल रूप में आ गए। मछुबारों को जब होश आया तो देखा कि मीन सरोवर के पास वे खड़े हुए हैं। वे घनश्याम महराज से क्षमा याचना करने लगे।अब जीवन में एसा कुछ भी नहीं करेंगे। इस प्रकार उन लोगों ने प्रतिज्ञा की।

      घनश्याम ने दया करके मछुआरे को उसकी समाधि से बाहर निकाला। वह नरक यातना का वर्णन करके प्रभु को कभी पाप ना करने का बचन दिया।

       प्रभु ने अपने चमत्कारों से उन जीवो को जीवित कर दिया और मछुआरे को निर्देश दिया कि वह जीविका के लिए मछलियों को न मारे। इसलिए तालाब को मीन सरोवर के नाम से जाना जाता है।स्वामीनारायण ने समाज को भक्ति के माध्यम से मोक्ष और परम ज्ञान की प्राप्ति के बारे में मछुवे समाज को सिखाया।   

      स्वामी नारायण ने समाज को भक्ति के माध्यम से मोक्ष और परम ज्ञान की प्राप्ति के बारे में सिखाया। उन्होंने समाज में दलितों के उत्थान के लिए काम किया। घनश्याम ने छोटी उम्र से ही ऐसे कई हिंदू आदर्श और मूल्य स्थापित किए।                    उन्होने मछूवे से कहा, भाई ये सृष्टि भगवान के द्धारा निर्मित है।हम किसी प्राणी को ना तो मार सकते हैं और ना ही उन्हे किसी तरह का कष्ट ही पहुंचा सकते हैं। हर प्राणी को अपने कर्म का फल भोगना ही पड़ता है। पाप कर्म का फल तुरंत भले ही ना मिले परन्तु उसे नर्क का वास जरूर मिलता है। 

ठूठ तलैया पर जामुन के ठूठ से जख्म

तरगांव के नैरित्य कोण पर एक तालाब के तट हरिदास जी की परम कुटी में राम कथा होती थी। धनश्याम वहां तरह - तरह की लीला करते रहते थे। गोपालों को बाल कृष्ण जैसे दर्शन और लीला दिखाते थे। वे जामुन के वृक्ष पर चढ़ गए थे। आषाढी सम्वत 1845 में उनकी जांघ में जामुन का ठूठ घुस गया जिससे वे जख्मी हुए थे। अश्विनी कुमार को याद करके उन्होंने जांघ में जामुन का ठूंठ घुसने का उपचार कर तनिक देर में ठीक करा लिया था। उन्होने सामान्य चोट के निशान की लीला दिखाई थी।

चिड़ियों को अचेत कर खेत की रक्षा

सम्वत 1845 सन 1789 में मां बाप के साथ वे अयोध्या से छपिया आए हुए थे।शालिधान के फसल को घर लाना था। खेत की रखवाली घन श्याम को सौंपा गया था। वे बाल सखा के साथ खेल में गए और मस्त हों जाते।खेत में जो चिड़िया आती बह अचेत हो जाती । वे पारलौकिक आनन्द पाती।बाद में संकेत कर चिड़ियों को अचेतता दूर कर देते थे। वे विचित्र तरीके से खेत की रखवाली किए थे। बाद में शालि धान की फसल खलिहाल में लाया गया। उसको साफ कर बैलगाड़ी में लाद कर सभी अयोध्या चले आए।

भक्ति माता को दिव्य समाधि दर्शन 

संवत 1847 एक बार बालक को स्नान कराते हुए भक्ति देवी ने राम के बाल रूप की भावना में खो गई थी। अन्तरयामी प्रभु मां की भावना समझ कर मां को समाधि सुख का बोध कराया था। खाट पर लेटी लेटी मां की आत्मा पुत्र के पीछे पीछे चल रही थी।

      ब्रह्मांड,धाम, धामों की सीमा, माया का विस्तार और अंधकार आदि को मां ने करीब से देखा और समझा। उन्होंने अनंत को देखा। बाद में उस दिव्य अनुभव को विस्मृत कराया था। वे तो पुत्र रूप में मां को आनन्द देने के लिए प्रकट हुए थे 

आषाढी सम्वत 1848 में दस साल की उम्र में शास्त्रार्थ के निर्णायक बने 

भगवान श्री स्वामिनारायण जब दस वर्ष के थे तब पिता धर्मदेव के साथ काशी आये थे और यहाँ के मणिकार्डिका स्थित प्रसिद्ध गौमठ  में ठहरे थे । इस प्रतिभा शाली बालक ने वैदिक शास्त्रों में महारत हासिल कर ली थी। इसी अवधि के दौरान, वे धर्मदेव के साथ गए, जिन्हें भारत में ज्ञान के प्रसिद्ध केंद्र बनारस में एक विद्वत्तापूर्ण शास्त्रार्थ की अध्यक्षता करनी थी। घनश्याम को वैदिक शास्त्रों में इतनी महारत हासिल कर ली थी कि कई लोग अपने पूरे जीवन में इसके लिए प्रयास करते हैं। 

     वे वरिष्ठ अद्वैत और वैष्णव विद्वानों के बीच की खाई को तोड़ने के लिए एक स्पष्ट और विस्तृत व्याख्या देने में सक्षमएकमात्र व्यक्ति थे। रामानुजाचार्य के विशिष्टाद्वैत दर्शन के गुणों पर उनके प्रभावशाली भाषण ने उपस्थित सभी विद्वानों का मन मोह लिया। घनश्याम ने धर्म, भक्ति, ज्ञान, आश्रय और शरणागति की भक्ति संप्रदाय परंपराओं का समर्थन किया। भगवान स्वामीनारायण इस धरती पर एकान्तिक धर्म की स्थापना करने और असंख्य आत्माओं को माया के चंगुल से मुक्त करने के उद्देश्य से आए।

    जब एक बार मतभेद उत्पन्न हुआ, तो घनश्याम ने धर्मदेव की अनुमति से एक शानदार व्याख्या दी, जिससे विद्वानों को विशिष्टाद्वैत दर्शन (योग्य अद्वैतवाद) की वैधता का विश्वास हो गया।

     यहॉ विद्वानों की सभा हुई  जिसमे बालक घनश्याम की विदत्ता देख कर सभी विद्वान अत्यंत प्रभावित हुवे थे | तत्पश्चात भगवान श्री स्वामिनारायण ने अपने पिता के साथ काशी के प्रसिद्द  मत्स्योदरी तीर्थ एवं गायधाट पर स्नान  किया । इसी पुण्य स्मृति में यह दिब्य मंदिर बना है।इस मंदिर का प्रमुख उद्देश्य भगवान स्वामीनारायण की काशी यात्रा की पुण्य - स्मृति का संरक्षण करना, यात्रियों की सेवा करना एवं भगवत अनुष्ठार्थि व तीर्थवास कर सके तथा संत , विद्यार्थियों की ब्यवस्था  द्वारा  सद विद्या का प्रचार करना है । 

भक्तिमाता की समाधि और मुक्ति

बनारस से लौटने के उपरान्त उनकी प्रतिभा अयोध्या में भी चमक गई। वे अपने पांडित्य को छिपा कर आनन्द लेते थे। धर्मदेव अपने परिवार के साथ अयोध्यापुरी में रह रहे थे। जब बाल प्रभु 10 साल के थे तो उनके अयोध्या प्रवास के दौरान भक्तिमाता बीमार पड़ गईं थीं। उन्होंने कहा, "मुझे वापस छप्पैया ले चलो।" भक्तिमाता को लेकर सभी लोग छप्पैया वापस आ गए। उन्होंने बालक घनश्याम से कहा, " मेरा शरीर स्त्री का है। आगम निगम मेरे समझ से बाहर के हैं। तुम्हारे चरणों में भक्ति बढ़े, माया टल जाए, इसका सरलतम उपाय मैं तुम्हारे मुख से  सुनकर अपना शरीर छोड़ना चाहती हूँ। हे प्रभु ! मुझे ज्ञान और भक्ति के बारे में बताओ।”

      घनश्याम ने कहा, “मां तुम्हारे लिए तो मैं हूं। अन्य को मेरे पास आने के लिए, मेरे स्वरुप को समझने के लिए धर्म ज्ञान वैराग्य और भक्ति आदि गुणों  को पाने के लिए मेरे एकांतिक साधु का सत्संग ही एक मात्र उपाय है।”

     मां ने साधु को परखने के लक्षण पूछे तो घन श्याम प्रभु ने उसे विस्तार से बताया। ऐसे लक्षण वाले साधु को मेरे हृदय समान मानना चाहिए। उसके चरणो में सारे तीरथ समाये होते हैं। उसकी देह में सारे देवता विद्यमान रहते हैं। यज्ञयाग ,  तीर्थाटन, भगवन मूर्ति के दर्शन पूजन बहुत लम्बा समय बीत जाने के बाद फल देता है। ये गुनातीत संत मेरी आत्मा हैं। इनके द्वारा जीव माया बंधन से मुक्त होकर अक्षर धाम में मेरी सेवा में अखण्ड रहता है।

     एकांतिक साधु के लक्षण सुनकर मां हर्ष विभोर हो गई। यह वही घन श्याम है जिसका दिव्य स्वरुप अक्षर धाम में देखा था। माता उसमे लौ लगा ली। वह अक्षर धाम की इस समाधि वाली मूर्ति में खोकर परम मूर्ति में समा गई। घनश्याम ने अपनी माता की आत्मा को दिव्य भगवती का शरीर दिया और दिव्य विमान में सवार होकर अक्षर धाम ले गए। वह तिथि थी कार्तिक सुदी दशमी, दिनाक 5 नवम्बर 1791 ई।

मल्लों के अखाड़े से भी चमत्कार

स्वामी नारायण सनातन वैदिक धर्म के परिपालन में एकांतिक तप ध्यान और ब्रह्मचर्य पक्ष को बहुत अहमियत देते थे। स्वस्थ शरीर में स्वस्थ आत्मा निवास करती है।वे खुद एक मजे हुए पहलवान थे और इस प्रकार के लोगों को संरक्षण भी देते थे। अयोध्या में दीना सिंह और भुवान दीन दो मल्ल युद्ध के पारंगत पहलवान उनके सम्पर्क में थे। एक ईर्ष्यालु भारी भरकम मल्ल बाल प्रभु को चुनौती देकर उनके हाथ पैर तोड़ना चाह रहा था। परंतु इसका उल्टा हुआ। मरणासन्न इस मल्ल को प्रभु ने जीवन दान भी दिया।

पिता जी को निज स्वरूप का दर्शन और मोक्ष 

भक्ति माता का समाधि लेने के सात माह बाद आषाढी सम्वत 1848, जेठ बदी तृतीया दिनांक 7 जून 1792 ई. गुरुवार को धर्म पिता को हल्का बुखार आ गया था। वे शय्या पर लेटे हुए थे। उन्हे घन श्याम श्रीमद् भागवत के दशम स्कंध की कथा सुनाने लगे। वे कृष्णा चरित में लीन हो गए। शाम को पिता जी को अक्षर धाम का दर्शन कराया। स्थूल पञ्च शरीर से भिन्न दिव्य देह धारण करके वे ऊर्ध्व की ओर सैर करने लगे। उन्होने पूरा ब्रह्माण्ड,देवता किन्नर आदि के स्थान को देखकर विराट ब्रह्म का दर्शन किया । अनन्त कोटि अरबों खरबों विराट ब्रह्म अक्षर ब्रह्म के एक रोम में जल के एक बुलबुले की भांति क्षण क्षण में उपजते हुए तुरन्त नाश होते दिखाई दे रहे हैं। भगवान पुरुषोत्तम का वह धाम है। पुरुषोत्तम के दाद रुप होकर नित्य दिव्य शरीर धारण करते हुए उनकी सेवा में वे रहते हैं। अन्य सभी लोक मायाधीन हैं – ये सब धर्म पिता ने करीब से देखा। लाडले घनश्याम को धर्म पिता ने पहचान लिया । उनकी आत्मा नाचने लगी वे गदगद भाव से स्तुति करने लगे। समाधि से उठ कर वे अपने दिव्य अनुभव सुनाने लगे। घन श्याम सरयू स्नान करके लौटे तो पिता उनके चरणों में गिर कर कहे, “हमें अब अक्षर धाम की प्राप्ति कराओ । वे उन्हें दिव्य विमान पर बैठवाकर आषाढी सम्वत 1848, जेठ बदी चतुर्थी दिनांक 8 जून 1792 ई. शुक्रवार को अपने अक्षर धाम ले गए।

     इस प्रकार अपने प्राकट्य का एक हेतु – माता पिता को अपने स्वरुप का बोध करा कर, अक्षर धाम की दिव्य गति प्रदान करना – श्री हरि ने पूर्ण किया।

शादी की चर्चा से घर त्यागा

माता पिता की सुगति देने के बाद घन श्याम को किसी से प्रीति नहीं रही। अनन्त जीवों के उद्धार के लिए वे गृह त्यागने का मन बना लिए थे। वे आप में ही निमग्न रहा करते थे। भैया भाभी ने समझा कि माता पिता के अक्षर धाम में जानें से वे उदास हो गए हैं। खान पान खेल कूद से उनकी रुचि जाती रही। वह प्रतिदिन सरयू स्नान के बाद घर ना आकर घण्टों मंदिरों में जाकर बैठजाया करते थे। एकांत पद्मासन में ध्यानस्थ रहने लगे। कई कई दिनों तक घर नहीं आते । नदी किनारे ही समय व्यतीत करते तप करते। भाई के टोकने पर कहते भैया अब संसार में मेरी प्रीति नहीं रही है।

      भैया भाभी उनकी शादी के बारे में बात करते तो वे मौन ही रहते। उनके घर खमहरिया से श्री निहाल मिश्र अपनी बेटी चन्द्रकला के रिश्ते लेकर आए थे। अब वह पुरी तरह घर छोड़ने का मन बना चुके थे।

हिमालय को प्रस्थान घर छोड़ना 

इसके बाद घनश्याम 29 जून 1792 (आषाढ़ सूद 10, संवत 1849) को अयोध्या छोड़कर हिमालय चले गए, ताकि वे एकांत धर्म की स्थापना का अपना जीवन कार्य शुरू कर सकें। उस समय उनकी उम्र केवल ग्यारह वर्ष थी। घनश्याम महाराज ने 11 वर्ष, 3 महीने और 1 दिन की छोटी सी उम्र में आषाढ़ सुद 10 1849 को घर छोड़ दिया। सोई रात के अंतिम पहर में वह सरयू की धारा में कूदकर बहते गए और अयोध्या से दूर होते गए।

     घनश्याम महाराज सुबह सामान्य से पहले उठ गए ताकि उन्हें जाते समय कोई न देख सके। अपनी पूजा पूरी करने के बाद, उन्होंने अपने साथ ले जाने के लिए आवश्यक निम्न सामान एकत्र किया।
कोपीन - अधोवस्त्र के समान,उथुरिया - छोटा शेर का कपड़ा,ढांड - पलाश के पेड़ से बनी छड़ी, जनेऊ- कंधे से कमर तक पहना जाने वाला पवित्र धागा,तुलसी की बेवड़ी कंठी,कुम कुम सहित उर्ध्वपुंड तिलक, जटा - चोटी में बंधे बाल, मूंज की कटि मेखर्रा - कमर के चारों ओर पहनी जाने वाली मूंज घास,जप मर्रा - माला कमंडल - पानी का बर्तन, भिक्षापात्र, जलगरनु - पानी छानने के लिए सूती कपड़ा, सालिग्राम - श्री नारायण का प्रतीक पत्थर,बाल मुकुंद की दवार्री - एक बॉक्स में युवा कृष्ण की मूर्ति चार शत्र का सरणो और गुटको को कंधे पर रखे जाने वाले वस्तु आदि।

घर से प्रस्थान होने पर खोज जारी 

नंगे पांव जब  घनश्याम घर से निकला तो उसके मित्र उसे बुलाने घर आए। घर पर घनश्याम को न पाकर वे उसे खोजने नदी के किनारे गए। उन्होंने अयोध्या में घनश्याम के आने-जाने के स्थानों की भी खोज की। हर जगह खोजने के बाद वे निराश होकर रामप्रतापजी के पास लौटे और पूछा कि घनश्याम कहाँ हैं?उन्होंने यह भी बताया कि उन्होंने उन्हें पूरी अयोध्या में ढूँढ़ लिया है, लेकिन वे नहीं मिले।   

     यह सुनकर रामप्रतापभाई को बड़ा सदमा लगा और उन्होंने तथा उनके रिश्तेदारों ने भगवान को अयोध्या के मंदिरों, जंगलों और अन्य सभी स्थानों पर खोजना शुरू कर दिया, लेकिन वे उन्हें नहीं ढूंढ़ पाए। दुखी होकर, राम प्रताप भाई रोने लगे और घनश्याम के घर आने के लिए प्रार्थना करने लगे। सुवासिनी भाभी भी रोने लगीं और घनश्याम के लिए प्रार्थना करने लगीं। हम घनश्याम का चेहरा कब देखेंगे? उसके खाने का समय हो गया है, उन्होंने कहा। आंखों में आंसू लिए दिन बीतने लगे। छोटा भाई इच्छाराम भी भाई घनश्याम के बिना दुखी था। घनश्याम के बिना हर दिन दु:ख और शोक से भरा हुआ था। अपने परिवार के दु:ख को जानकर, भगवान की कृपा से, हनुमानजी ने अपने दिव्य रूप में उन सभी को सांत्वना दी।

     उनके भिक्षुक वेश में केवल एक लंगोटी थी। वे बाल मुकुंद (भगवान) की एक प्रतिमा और अपनी छोटी डायरी रखते थे जिसमें धर्मदेव के साथ उनके अध्ययन का परिणाम, शास्त्रों का सार था।

अखण्ड भारत की परिक्रमा

बहुत कम उम्र में ही उन्‍होंने शास्‍त्रों की शिक्षा ले ली थी।कुछ ही समय में वे घर छोड़कर निकले और पूरे देश की परिक्रमा कर ली। तब तक उनकी बहुत ख्याति हो चुकी थी। और लोग उन्हें नीलकंठवर्णी कहने लगे थे।

नीलकंठ वर्णी नाम धारण करके उन्होंने हिमालय में कठिन तपस्या और भारत के समस्त तीर्थो की यात्रा की थी।  11 साल की उम्र में उन्‍होंने भारत में अपनी 7 साल की तीर्थ यात्रा शुरू की। 

गुजरात से आध्यात्मिक लक्ष्य पूरा किया

देशाटन के बाद में उन्होंने गुजरात के रामानंद स्वामी से दीक्षा धारण कर उन्हे अपना गुरु बनाया। रामानंद स्वामी के देहांत के बाद उन्होंने स्वामी नारायण सम्प्रदाय की स्थापना और प्रचार किया। उन्होंने अस्पृश्यता, अंधविश्वास, सती प्रथा, बलि प्रथा का अंत किया था। तथा धर्म, ज्ञान, वैराग्य सदाचार जैसे वैदिक मूल्यों को समाज में पुनः स्थापित किया। उनके ऐसे ही महान कार्यों के कारण जन समुदाय में वे श्रीजी महाराज के नाम से प्रसिद्ध हुए। कुछ  वर्षों में, घनश्याम भारत भर के हजारों साधकों की आध्यात्मिक प्यास को संतुष्ट करने के लिए घर छोड़ दिए बाद में अपने जीवन के उत्तरार्ध में गुजरात में बस गए । नीलकंठ के रूप में वे हिमालय चीन तिब्बत कैलाश मानसरोवर से लेकर दक्षिण के रामेश्वरम और कन्याकुमारी और द्वारका से जगन्नाथ पुरी तक की पैदल यात्रा की थी।

अहमदाबाद और वडताल की गद्दी भतीजों को दिया

अपनी मृत्यु से पहले, स्वामीनारायण ने अपने उत्तराधिकारियों के रूप में आचार्यों या उपदेशकों की एक पंक्ति स्थापित करने का फैसला किया। उन्होंने दो गदियों (नेतृत्व की सीटें) की स्थापना की। एक सीट अहमदाबाद ( नर नारायण देव गदी ) में और दूसरी वडताल ( लक्ष्मी नारायण देव गदी ) में 21 नवंबर 1825 को स्थापित की गई थी। स्वामीनारायण ने अपना संदेश दूसरों तक पहुंचाने और अपने साथी, स्वामीनारायण संप्रदाय को संरक्षित करने के लिए प्रत्येक गदी में एक आचार्य नियुक्त किया। उत्तर प्रदेश में प्रतिनिधियों को खोजने के लिए भेजने के बाद ये आचार्य उनके तत्काल परिवार से आए थे । उन्होंने औपचारिक रूप से अपने दो भाइयों में से प्रत्येक के एक पुत्र को गोद लिया और उन्हें आचार्य के पद पर नियुक्त किया। स्वामीनारायण के बड़े भाई रामप्रताप के पुत्र अयोध्याप्रसाद और उनके छोटे भाई इच्छाराम के पुत्र रघुवीर को क्रमशः अहमदाबाद गदी और वडताल गदी का आचार्य नियुक्त किया गया ।  

     स्वामीनारायण ने आदेश दिया कि यह पद वंशानुगत होना चाहिए ताकि आचार्य अपने परिवार से रक्त वंश की सीधी रेखा बनाए रखें। उनके अनुयायियों के दो क्षेत्रीय सूबाओं में प्रशासनिक विभाजन को स्वामीनारायण द्वारा लिखे गए एक दस्तावेज़ में विस्तार से बताया गया है जिसे देश विभाग लेख कहा जाता है ।  स्वामीनारायण ने सभी भक्तों और संतों से कहा कि वे दोनों आचार्यों और गोपालानंद स्वामी का पालन करें जिन्हें संप्रदाय के लिए मुख्य स्तंभ और मुख्य तपस्वी माना जाता था। 



लेखक परिचय:-


(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं। किसी भी पूछताछ और सुझाव के लिए मोबाइल नम्बर +91 8630778321 और वर्ड्सएप नंबर +91 9412300183 पर सम्पर्क किया जा सकता है।)



Monday, September 23, 2024

वक्फ बोर्ड के माध्यम से भारत को एक इस्लाम राष्ट्र बनाने का प्रयास हो रहा है आचार्य डॉ.राधेश्याम द्विवेदी


 

इस्लाम को फैलाने के लिए गजवा-ए-हिंद की योजना

भारत को मुस्लिम बहुल राष्ट्र बनाने की योजना साजिसन बहुत दिनों से लगातार चल रही है. मोटे तौर पर गजवा-ए- हिंद के मायने भारत में जंग के जरिये इस्लाम की स्थापना करने से है. इसका मतलब भारतीय उपमहाद्वीप में रहने वाले काफिरों को जीतकर उन्‍हें मुस्लिम बनाने और जंग में भारत को जीतकर इसका इस्लामी करण करने से है. इस्‍लाम के कुछ विद्वानों का मानना है कि भारत में पहले किए गए हमलों से गजवा-ए-हिंद पूरा हो चुका है. वहीं, कुछ मुस्लिम विद्वानों का मत है कि ये अभी 50 फीसदी ही पूरा हुआ है. 50 प्रतिशत पूरा करने के लिए कांग्रेस और अन्य कुछ दल अभी भी जुटे हुए हैं.

गांधी जी को गलत सोच

गांधीजी की सोच थी कि मुस्लिम हिंदुस्तान छोड़कर न जाएं , और पाकिस्तान से आए हिंदू सिख वापस चले जाएं, पहले विभाजन धार्मिक आधार पर होने दिया और जब हिंदू सिखों को पाकिस्तान में मारा जाने लगा , तभी वे हिंदुस्तान भागकर आए अपनी जान बचाकर आए। उन्हें पागलपन सवार नहीं था अपनी जायदाद रोजगार छोड़कर आने का. एक तरह से गांधी ढोंगी था. तभी आंबेडकर ने गांधी को दूरदर्शिता से शून्य बताया था. भारत में मुसलमानों को एक साजिश के तहत रोका गया था नहीं तो जब धर्म के आधार पर देश का बंटवारा हुआ तो उन्हें पूरे मुसलमान को पाकिस्तान भेज देना चाहिए था. यह सोची समझी साजिश के तहत जवाहरलाल नेहरू और महात्मा गांधी के पूर्वाग्रह के साथ किया था जो सर्वथा गलत एवं निंदनीय है और उसका खामियाजा आगे आने वाली पीढ़ियां को भुगतना पड़ेगा.

जवाहर लाल नेहरू का उल्टा रोल

जवाहर लाल नेहरू को गयासुद्दीन भी कहा जाता है.वे अपने को कश्मीरी पंडित कहते थे. उनके पूर्वज कश्मीर से थे. विदेशी शिक्षा के प्रभाव में वह खुद को एक्सीडेंटल हिन्दू कहते थे और पश्चिमी सभ्यता से अत्यधिक प्रभावित थे . वे इस्लामी संस्कृति और मुगलिया सल्तनत के शाशन काल कों पसन्द करते थे.उन्होने देश आजादी के बाद जो कानून सबसे पहले बनाएं वे हिन्दुओं की संख्या कम करने वाले थे. जैसे परिवार नियोजन कार्यक्रम सन् 1952 में , हिन्दू विवाह अधिनियम सन् 1955 में बना . सन् 1974 में संविधान में 42वां संशोधन किया गया जिससे देश को तथाकथित सेकुलर बना दिया गया.बाबा साहेब ने जो संविधान बनाया था, उसकी हत्या कर दी गई. इंदिरा जी भी पारसी धर्म की अनुवाई होने के कारण उनका झुकाव गैर हिंदू हो रहा. राजीव गांधी, श्रीमती सोनिया गांधी, श्री राहुल गांधी और श्रीमती प्रियंका गांधी बढ़ोरा सब के सब ईसाई ही हैं. श्रीमती सोनिया गांधी, देश को ईसाई बनाने के लिए How to convert India into Christianity जैसे पुस्तकें पसन्द और प्रकाशित करती देखी गई है.

भारत में एक बहुत ताकत वाला है वक्फ बोर्ड

भारत के वक्फ बोर्ड के पास दुनिया के और तमाम देशों के वक्फ बोर्ड से कई गुना ज्यादा संपत्ति है. हमारा वक्फ बोर्ड काफी ताकतवर है. मौजूदा वक्फ बोर्ड एक्ट के मुताबिक, एक बार जब कोई जमीन वक्फ के पास चली जाती है तो उसे वापस नहीं किया जा सकता. इसी वजह से देश में मौजूद सुन्नी वक्फ बोर्ड और शिया वक्फ बोर्ड दोनों की कुल संपत्ति लगातार बढ़ रही है.  वक्फ बोर्ड के पास देश में रेलवे, डिफेंस और कैथोलिक चर्च के बाद सबसे ज्यादा जमीन है.देश में सेना और रेलवे के बाद सबसे ज्यादा संपत्ति वक्फ के पास है.इसकी संपत्तियां आठ लाख एकड़ से ज्यादा जमीन पर फैली हैं. पिछले 13 साल में वक्फ की संपत्ति करीब दोगुनी हो गई है। ऐसे कई तथ्य हैं, जो इस व्यवस्था पर सवाल खड़ा करते हैं. जब यह कानून बना था, तब इसे लेकर भले ही कुछ तार्किक कारण रहे हों, लेकिन आज यह पूरी तरह से कब्जे और वसूली का माध्यम बनता दिख रहा है। ऐसे में वर्तमान देश-काल और परिस्थिति में वक्फ कानून और उसके अधिकारों की सामयिकता और संवैधानिकता की पड़ताल आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है। वक्फ बोर्ड्स की कुल संपत्तियों की कीमत 1 लाख 20 हजार करोड़ से ज्यादा है. मनमोहन सरकार ने मार्च 2014 में दिल्ली में सरकारी संपत्तियों को वक्फ को ट्रांसफर किया है.

45 देशों के क्षेत्रफल से भी ज्यादा भारत के वक्फ बोर्ड की जमीन

हमारे देश में वक्फ बोर्ड के पास करीब 3804 वर्ग किलोमीटर संपत्ति जमीन है. यह दुनिया के लगभग 45 देशों के क्षेत्रफल से भी ज्यादा है. यह क्षेत्रफल समोआ, मॉरीशस, हांगकांग, बहरीन और सिंगापुर जैसे देशों से भी ज्यादा है. वर्तमान समय में वक्फ बोर्ड देश भर में 9 दशमलव 4 लाख एकड़ में फैली 8 लाख 72, 328  अचल संपत्तियां पंजीकृत हैं। जिसका अनुमानित मूल्य 1 लाख बीस हज़ार करोड़ रुपये है। भारत में दुनिया की सबसे बड़ी वक्फ संपत्ति है.इनमें सबसे ज्यादा संपत्ति उत्तर प्रदेश में हैं. यूपी में वक्फ बोर्ड के पास कुल 2 लाख 14 हजार 707 संपत्तियां हैं. इसमें से 1 लाख 99 हजार 701 सुन्नी और 15006 शिया वक्फ की हैं. इसके बाद पश्चिम बंगाल का नंबर है, जहां वक्फ के पास 80 हजार 480 संपत्तियां है. इसी तरह तमिलनाडु में वक्फ की 60 हजार 223 संपत्तियां हैं.

वक्फ संपत्ति का इस्तेमाल किस रूप में 

कोई भी ऐसी चल या अचल संपत्ति वक्फ की हो सकती है, जिसे इस्लाम को मानने वाला कोई भी व्यक्ति धार्मिक कार्यों के लिए दान कर दे. वक्फ संपत्ति का इस्तेमाल कब्रिस्तान, सामाजिक कल्याण, स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, डिस्पेंसरी और मुसाफिर खानों के लिए होता है. देशभर में बने सभी कब्रिस्तान वक्फ भूमि का हिस्सा हैं. देश के सभी कब्रिस्तान का रखरखाव वक्फ बोर्ड ही करता है.देशभर में वक्फ की संपत्तियों को संभालने के लिए एक केंद्रीय और 32 स्टेट वक्फ बोर्ड कार्यरत हैं. 

1995 में मिले असीमित अधिकार

देश में वक्फ की संपत्तियों के लिए कानून बनाने की शुरुआत 1954 में हुई थी. इसके बाद से समय-समय पर कई संशोधन हो चुके हैं. साल 1995 में केंद्र की पीवी नरसिम्हा राव की सरकार ने वक्फ बोर्ड की शक्तियां बढ़ाकर उसे कानूनन अधिकार दिए कि वह मुस्लिम द्वारा दिए गए दान के नाम पर संपत्तियों पर दावा कर सकता है. उन्होंने वक्फ बोर्ड एक्ट में बदलाव किए और जमीन अधिग्रहण करने के लिए असीमित अधिकार दे दिए. 1995 का वक्फ कानून कहता है कि यदि वक्फ बोर्ड किसी संपत्ति पर अपना दावा कर दे, तो उसे उसकी संपत्ति माना जाएगा। यदि दावा गलत है तो संपत्ति के मालिक को इसे सिद्ध करना होगा.

वक्फ एक्ट 1995 की प्रमुख धाराएं 

वक्फ एक्ट 1995 का सेक्शन 3(आर) के मुताबिक, अगर कोई संपत्ति, किसी भी उद्देश्य के लिए मुस्लिम कानून के मुताबिक पाक (पवित्र), मजहबी (धार्मिक) या (चेरिटेबल) परोपकारी मान लिया जाए तो वह वक्फ की संपत्ति हो जाएगी। वक्फ एक्ट 1995 का आर्टिकल 40 कहता है कि यह जमीन किसकी है, यह वक्फ का सर्वेयर और वक्फ बोर्ड तय करेगा.बाद में वर्ष 2013 में संशोधन पेश किए गए, जिससे वक्फ को इससे संबंधित मामलों में असीमित और पूर्ण स्वायत्तता प्राप्त हुई.

वक्फ बोर्ड को मिली हैं ये शक्तियां

अगर आपकी संपत्ति को वक्फ की संपत्ति बता दी गई तो आप उसके खिलाफ कोर्ट नहीं जा सकते.आपको वक्फ बोर्ड से ही गुहार लगानी होगी। वक्फ बोर्ड का फैसला आपके खिलाफ आया, तब भी आप कोर्ट नहीं जा सकते. तब आप वक्फ ट्राइब्यूनल में जा सकते हैं. इस ट्राइब्यूनल में प्रशासनिक अधिकारी होते हैं.उसमें गैर-मुस्लिम भी हो सकते हैं.वक्फ एक्ट का सेक्शन 85 कहता है कि ट्राइब्यूनल के फैसले को हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में भी चुनौती नहीं दी जा सकती है .

पंथनिरपेक्षता, एकता और अखंडता की भावना के विपरीत है वक्फ बोर्ड 

यह अधिनियम धार्मिक आधार पर भेदभाव करता है. वक्फ संपत्तियों के रखरखाव के लिए जिस तरह की कानूनी व्यवस्था की गई, वैसी व्यवस्था हिंदू, जैन, बौद्ध, सिख, ईसाई या अन्य किसी पंथ के अनुयायियों के लिए नहीं है. यह पंथनिरपेक्षता, एकता एवं अखंडता की भावना के विपरीत है.

धार्मिक स्वतंत्रता के विपरीत

यह 1995 का अधिनियम संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 के अनुरूप धार्मिक स्वतंत्रता के संरक्षण की बात करता है, इसमें अनुच्छेद 14 और 15 के अनुरूप सभी धर्मों एवं संप्रदायों के लोगों के लिए समानता होनी चाहिए, किंतु यह केवल मुस्लिम समुदाय के लिए है. यह अधिनियम अनुच्छेद 29 व 30 के तहत अल्पसंख्यकों के हित की रक्षा की बात करता है, इसमें जैन, बौद्ध, ईसाई व अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के लोगों को भी शामिल किया जाना चाहिए था, किंतु ऐसा नहीं है.  

संविधान द्वारा प्रदत्त न्याय की व्यवस्था के विरुद्ध

संविधान ने तीन तरह के न्यायालयों की व्यवस्था की है- 

1. अनुच्छेद 124-146 के तहत संघीय न्यायपालिका,

2.अनुच्छेद 214-231 के तहत हाई कोर्ट और

3.अनुच्छेद 233-237 के तहत अधीनस्थ न्यायालय.

       संविधान निर्माताओं की मंशा थी कि सभी तरह के नागरिक विवाद संविधान के तहत बनी न्यायपालिकाओं में ही सुलझाए जाएं. ऐसे में वक्फ ट्रिब्यूनल को लेकर इस अधिनियम में की गई व्यवस्था संविधान द्वारा प्रदत्त न्याय व्यवस्था के विरुद्ध है.यह भारतीय संविधान के धार्मिकऔर आर्थिक प्रावधानों का खुलम खुला उलंघन है.   

अनुच्छेद 27 का स्पष्ट उल्लंघन

वक्फ बोर्ड में मुस्लिम विधायक, मुस्लिम सांसद, मुस्लिम आइएएस अधिकारी, मुस्लिम टाउन प्लानर, मुस्लिम अधिवक्ता, मुस्लिम बुद्धिजीवी और मुतावल्ली होते हैं. इन सभी को सरकारी कोष से भुगतान किया जाता है, जबकि केंद्र या राज्य सरकारें किसी मस्जिद, मजार या दरगाह की आय से एक भी रुपया नहीं लेती हैं.

      दूसरी ओर, केंद्र व राज्य सरकारें देश के चार लाख मंदिरों से करीब एक लाख करोड़ रुपये लेती हैं, लेकिन उनके संरक्षण के लिए ऐसा कोई अधिनियम नहीं बना है.

यह अनुच्छेद 27 का स्पष्ट रूप से उल्लंघन है, जिसमें व्यवस्था दी गई है कि किसी व्यक्ति को ऐसा कोई कर चुकाने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है, जिसका प्रयोग किसी विशिष्ट धर्म या धार्मिक संप्रदाय की अभिवृद्धि के लिए हो.

वक्फ बोर्ड के मिले हैं असीमित अधिकार

वक्फ अधिनियम, 1955 की धाराओं 4, 5, 6, 7, 8, 9 और 14 में वक्फ संपत्तियों को विशेष दर्जा दिया गया है, जो किसी ट्रस्ट आदि से ऊपर है. हिंदू, जैन, बौद्ध, सिख, ईसाई व अन्य समुदायों के पास सुरक्षा का कोई विकल्प नहीं है, जिससे वे अपनी संपत्तियों को वक्फ बोर्ड की संपत्ति में शामिल होने से बचा सकें, जो एक बार फिर समानता को लेकर संविधान के अनुच्छेद 14, 15 का उल्लंघन है.

संपत्ति का अधिकार भी सुरक्षित नहीं

अधिनियम की धारा 40 में वक्फ बोर्ड को अधिकार दिया गया है कि वह किसी भी संपत्ति के बारे में यह जांच कर सकता है कि वह वक्फ की संपत्ति है या नही. यदि बोर्ड को लगता है कि किसी ट्रस्ट, मुत्त, अखरा या सोसायटी की कोई संपत्ति वक्फ संपत्ति है, तो वह संबंधित ट्रस्ट या सोसायटी को नोटिस जारी कर पूछ सकता है कि क्यों न उस संपत्ति को वक्फ संपत्ति में शामिल कर लिया जाए? यानी संपत्ति का भाग्य वक्फ बोर्ड या उसके अधीनस्थों पर निर्भर करता है. यह अनुच्छेद 14, 15, 26, 27, 300-ए का उल्लंघन है.

लिमिटेशन एक्ट से भी छूट

वक्फ के रूप में दर्ज संपत्ति को रिकवर करने के लिए लिमिटेशन एक्ट के तहत भी कार्रवाई नहीं की जा सकती है.धारा 107 में वक्फ की संपत्तियों को इससे छूट दी गई है.इस तरह की छूट हिंदू या अन्य किसी भी संप्रदाय से जुड़े ट्रस्ट की संपत्तियों के मामले में नहीं है.

दीवानी अदालतों की सीमा से भी बाहर

धारा 83 के तहत ट्रिब्यूनल का गठन करते हुए विवादों की सुनवाई के मामले में दीवानी अदालतों का अधिकार छीन लिया गया है. संसद के पास ऐसा अधिकार नहीं है जिसके तहत वह ऐसा ट्रिब्यूनल गठित कर दे, जिससे न्याय व्यवस्था को लेकर संविधान के अनुच्छेद 323-ए का उल्लंघन होता हो. वक्फ बोर्ड को कई ऐसे अधिकार दिए गए हैं, जो इसी तरह के अन्य ट्रस्ट या सोसायटी के पास नहीं है.

भारत भी एक मुस्लिम राष्ट्र की तरफ़ अग्रसर 

इस एक्ट से बहुत ही दूरगामी दुष्परिणाम पड़ेगा.भारत की अखंडता अक्षुण्य नही रह सकती है. पूरे देश में वक्फ प्रापर्टी का बोलबाला हो जाएगा. यहां के मूल निवासियों की स्थिति दोयम नंबर की हो जायेगी और की पारसी देश ईरान की भांति भारत भी एक मुस्लिम राष्ट्र बन जायेगा. 

       वक्फ बोर्ड के विशेषाधिकार

वक्फ एक्ट 1995 का सेक्शन 40 

अगर वक्फ बोर्ड को लगता है कि कोई संपत्ति उसकी है तो वो उसकी जांच कर सकता है और अगर बोर्ड ये मान ले कि ये संपत्ति उसकी है तो वो उस संपत्ति को वक्फ की संपत्ति घोषित कर सकता है .

वक्फ एक्ट 1995 का सेक्शन 54

वक्फ बोर्ड सिर्फ किसी संपत्ति को वक्फ संपत्ति ही नहीं घोषित कर सकता बल्कि वो उस संपत्ति पर कब्जे को हटाने के लिए डीएम को भी कह सकता है.डीएम को ऐसी संपत्ति को खाली करवाना होगा.

वक्फ एक्ट 1995 का सेक्शन 85

इसके तहत अगर कोई मामला वक्फ से जुड़ा हुआ है तो उसे किसी सिविल, राजस्व कोर्ट या किसी अन्य प्राधिकरण में चैलेंज नहीं कर सकते.

वक्फ एक्ट 1995 का सेक्शन 83

इस सेक्शन में साफ लिखा है कि वक्फ ट्रिब्यूनल के पास वैसे ही पावर होंगी जैसे सिविल कोर्ट के पास होती है. ट्रिब्यूनल का फैसला फाइनल होगा.उसे सभी पक्षों को मानना होगा. ट्रिब्यूनल के फैसले के खिलाफ कोई अपील नहीं की जा सकती. सिर्फ हाईकोर्ट के पास ये पावर होगी कि अगर कोई अपील करे या खुद से वो ट्रिब्यूनल के फैसले की वैधानिकता की जांच (Legality check)कर सकता है.

दिल्ली हाईकोर्ट में चुनौती

दिल्ली हाईकोर्ट में वक्फ एक्ट 1995 को चुनौती दी गई है.बीजेपी नेता एडवोकेट अश्विनी उपाध्याय ने दिल्ली हाई कोर्ट में जनहित याचिका दायर की है, जिसमें वक्फ कानून के प्रावधानों को चुनौती दी गई है. इस मामले में अब जमीयत उलेमा-ए-हिंद की ओर से अदालत में अर्जी दायर की गई है, जिसमें मांग की गई है कि याचिकाकर्ता पर जुर्माना लगाते हुए याचिका को खारिज कर दिया जाए.

न्यायालय से मात खाने के बावजूद हठधर्मिता जारी


ताज महल के मामले में मात खाया है वक्फ बोर्ड 

1998 में, यूपी के फिरोजाबाद के एक व्यापारी इरफ़ान बेदार ने यूपी सेंट्रल सुन्नी वक्फ बोर्ड से गुजारिश की थी कि ताजमहल को वक्फ की संपत्ति घोषित कर बोर्ड उन्हें वहां का मुतवल्ली या केयर टेकर बना दे.इलाहबाद हाई कोर्ट ने सुन्नी वक्फ बोर्ड को ही इस अपील पर विचार करने को कहा जिसके बाद 2005 में यूपी सेंट्रल सुन्नी वक्फ बोर्ड ने ताज को वक्फ संपत्ति के रूप में पंजीकृत करने का निर्णय ले लिया. 

     इसे एएसआई ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी.जिसे माननीय न्यायालय स्वीकार कर वक्फ बोर्ड के दावे को खारिज कर दिया था.बादशाह शाहजहां के द्वारा वक्फ के सबूत ना दे पाने के कारण बाद में यूपी वक्फ बोर्ड ने खुद ही ताजमहल से अपना दावा वापस लेना पड़ा था. ताज महल पर एएसआई का दावा पक्का माना गया था.


आगरा की जामा मस्जिद अपना अलग ही अलाप 

आगरा की जामा मस्जिद की अगर बात करें, जिसका निर्माण मुग़ल बादशाह शाहजहां ने करवाया था. उन्होंने इस मस्जिद को अपनी बेटी जहां आरा बेगम को समर्पित किया था. उत्तर प्रदेश केंद्रीय सुन्नी वक्फ बोर्ड को इस मस्जिद का नियंत्रण मिला था. इसके परिसर में 82 दुकानें हैं, जहां से बोर्ड हर महीने 17,000 रुपये का किराया वसूलता था. मनमानी खर्च करता है. लेकिन यह एएसआई ही है जो अपने संसाधनों से इस इमारत का रखरखाव कर रहा है .

दिल्ली की जामा मस्जिद के लिए एक बड़ा खेल रचा गया

जामा मस्जिद को वर्ष 1656 में शाहजहां ने बनवाया था. ये मस्जिद करीब 368 वर्ष पुरानी है. ऐसे में ASI को उसे अपने संरक्षण में लेना चाहिए था. लेकिन जामा मस्जिद को ऐतिहासिक धरोहर बनने से रोकने के लिए एक बड़ी साजिश की गई थी.  इस इमारत को देश की सबसे बड़ी मस्जिद का तमगा हासिल है. जब इसको राष्ट्रीय धरोहर बनाने का वक्त आया, तो एक बड़ा खेल रचा गया. इस खेल में मौलाना, पूर्व प्रधानमंत्री और एएसआई तीनों शामिल थे.ये मुगलकालीन इमारत शाही इमामों की प्राइवेट प्रॉपर्टी बन गई है. इसीलिए जामा मस्जिद को ऐतिहासिक धरोहर घोषित करने की कवायद, कई वर्षो से चल रही है. पत्रों के माध्यम से मौलाना सैयद अहमद शाह बुखारी और पीएम मनमोहन सिंह की बातचीत हुई है. जामा मस्जिद को एएसआई संरक्षण से दूर रखने की साजिश की पहल मौलाना बुखारी ने ही की थी.

        10 अगस्त 2004 को ये पत्र सैयद अहमद बुखारी ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लिखा था. इसमें उन्होंने जामा मस्जिद के रखरखाव के लिए एएसआई को निर्देश देने की अपील की थी. इसके अलावा उन्होंने लगभग चेतावनी भरे लहजे में कहा था, कि अगर जामा मस्जिद को एएसआई के संरक्षण में दिया गया, तो देश में बवाल खड़ा हो जाएगा. इस पत्र के जरिए मौलाना बुखारी, देश के पूर्व प्रधानमंत्री को धमकी देते हुए नजर आए.

        बुखारी साहब ने, इस पत्र के जरिए ये भी कहा,कि जामा मस्जिद के रख रखाव का खर्चा वो सरकार से ही लेंगे, लेकिन जामा मस्जिद को राष्ट्रीय धरोहर नहीं बनने देंगे. पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इसको लेकर एएसआई को एक पत्र लिखा. जिसके बाद, उन्होंने बुखारी को उनके पत्र का जवाब दिया.

       20 अक्टूबर 2004 को लिखे गए इस पत्र में मनमोहन सिंह ने बुखारी से कहा, कि उन्होंने एएसआई 

को जामा मस्जिद के रिपेयर वर्क के लिए कह दिया है. और ये भी तय कर दिया गया है कि जामा मस्जिद को संरक्षित इमारत घोषित नहीं किया जाएगा. 

       यदि जामा मस्जिद संरक्षित इमारत घोषित कर दी गई, तो कई लोगों की राजनीतिक दुकानें बंद हो जाएंगी. यही नहीं जामा मस्जिद को निजी संपत्ति समझने वाले शाही इमामों की दुकानें भी बंद हो जाएंगी. एएसआई के संरक्षण के बाद जामा मस्जिद एक धार्मिक इमारत बनकर रहेगी जहां प्राइवेट और राजनीति तकरीरें बंद हो जाएंगी. 

2018 में दायर की गई थी याचिका

दिल्ली हाईकोर्ट उन याचिकाओं पर सुनवाई कर रही जिसमें मांग की गई है कि जामा मस्जिद को संरक्षित इमारत घोषित किया जाए और उसके आसपास अतिक्रमण को हटाने का आदेश दिया जाए. याचिका मार्च 2018 में सुहैल अहमद खान ने दायर की थी. याचिका में कहा गया था कि जामा मस्जिद के आसपास के पार्कों पर अवैध कब्जा है और अतिक्रमण किया गया है एएसआई ने कहा था हमारे दायरे में नहीं है. सुनवाई के दौरान एएसआई की ओर से कहा गया था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने शाही इमाम को ये आश्वस्त किया था कि जामा मस्जिद को संरक्षित इमारत घोषित नहीं किया जाएगा. एएसआई ने कहा था कि जामा मस्जिद केंद्र सरकार की ओर से संरक्षित इमारत नहीं है, इसलिए वो एएसआई के अधिकार क्षेत्र के तहत नहीं आता है.

2004 में भी उठा था संरक्षित घोषित करने का मामला

एएसआई ने हाईकोर्ट में दाखिल अपने हलफनामे में कहा था कि 2004 में जामा मस्जिद को संरक्षित इमारत घोषित करने का मामला उठा था. हालांकि, तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 20 अक्टूबर 2004 को शाही इमाम को लिखे अपने पत्र में कहा था कि जामा मस्जिद को केंद्र सरकार संरक्षित इमारत घोषित नहीं करेगी.

    दिल्ली उच्च न्यायालय ने अभी हाल ही में केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को ऐतिहासिक जामा मस्जिद के संबंध में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा लिए गए निर्णय से संबंधित दस्तावेज प्रस्तुत करने का आदेश दिया है। इस निर्णय में कहा गया है कि मुगलकालीन मस्जिद को संरक्षित स्मारक घोषित नहीं किया जाना चाहिए.न्यायालय की ओर से यह निर्देश बुधवार, 28 अगस्त 2024 को जारी किया गया, जब ऐसी खबरें आईं कि यह महत्वपूर्ण दस्तावेज अब गायब है.


भाजपा सरकार ने जामा मस्जिद के संरक्षण पर खर्च किए ₹52 लाख

भारत सरकार बिना संरक्षित इस स्मारक पर नियम विरुद्ध पहले भी पैसा खर्च करता आया है और आज भी कर रहा है.भाजपा सरकार जामा मस्जिद के संरक्षण का काम की है, जिसमें मस्जिद के कुछ हिस्सों में 52 लाख रुपये से अधिक खर्च किए गए हैं. लोकसभा सदस्य साजदा अहमद ने  संस्कृति, पर्यटन और पर्यटन क्षेत्र विकास मंत्री जी से एक प्रश्न के उत्तर में पूछा था। किशन रेड्डी ने कहा कि भारतीय पुरातत्ववेत्ता ने जामा मस्जिद का प्रालेखी करण और शास्त्र चित्रण का काम शुरू कर दिया है. आवश्यक है भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित कार्य नियमित रूप से किया जाना.मंत्री ने कहा कि जब भी जरूरत पड़ी, जामा मस्जिद के संरक्षण के लिए धनराशि उपलब्ध करायी गयी.

     पिछले तीन प्रचलित सत्रों में जामा मस्जिद की सुरक्षा पर कुल 52.80 लाख रुपये खर्च हुए हैं. खर्च के हिसाब से साल 2018-19 में 13.90 लाख रुपये, 2019-20 में 13.92 लाख रुपये और 2020-21 में 25.00 लाख रुपये खर्च किए गए हैं.

2024 में भाजपा सरकार द्वारा दो विधेयक पेश

लोकसभा में 8 अगस्त 2024 को दो विधेयक वक्फ (संशोधन) विधेयक 2024 और मुसलमान वक्फ (निरसन) विधेयक 2024 पेश किए गए, जिनका उद्देश्य वक्फ बोर्ड के कामकाज को सुव्यवस्थित करना और वक्फ संपत्तियों का कुशल प्रबंधन सुनिश्चित करना है.

जनहित का प्रश्न अंतर्निहित 

1. क्या वक्फ एक्ट 1995, देश के सेकुलर ढांचे के खिलाफ है?

2. क्या सरकारी संपत्तियों को वक्फ को देने का मनमोहन सरकार का फैसला खतरनाक था?

3. हिंदुस्तान में जो अधिकार किसी दूसरे धर्म के पास नहीं, वो वक्फ के पास क्यों?

पुरातत्त्व अधिनियम से टकराव

वक्फ अधिनियम 1995 वक्फ बोर्ड को दान के नाम पर किसी भी संपत्ति या इमारत को वक्फ संपत्ति घोषित करने का अधिकार देता है .इस अधिकार का उपयोग करते हुए वक्फ बोर्ड ने संरक्षित स्मारकों को वक्फ संपत्ति घोषित करने के लिए अधिसूचनाएँ जारी की हैं, जिसके परिणाम स्वरूप प्राचीन स्मारक और पुरातत्व स्थल और अवशेष अधिनियम 1958 के तहत दिए गए अधिकारों के साथ टकराव हो जाता है.

जेपीसी की बैठकों में मुद्दे बढ़ रहे हैं 

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने जेपीसी की बैठक में संरक्षित स्मारकों और स्थलों में वक्फ से जुड़े मुद्दों पर विस्तृत प्रस्तुति दी और बताया कि इतने सारे ऐतिहासिक स्मारकों के साथ उन्हें क्या- क्या समस्याएं आ रही हैं.उन्होंने इस बात पर भी चर्चा की है कि वक्फ बोर्ड संशोधन विधेयक क्यों जरूरी है?

आधी- अधूरी सूची ही पेश कर पाया एएसआई 

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) ने वक्फ़ संशोधन विधेयक-2024 के समर्थन में वक्फ़ बोर्ड से जुड़ी कुछ बातें बताई हैं. एएसआई ने अभी तक अपने 24 जोन में से सिर्फ 9 जोन की जानकारी ही सौंपी है. दिल्ली जोन की सूची, जो कि काफी महत्वपूर्ण है, अभी तक नहीं सौंपी गई है. उम्मीद है कि एएसआई जल्द ही बाकी जोन की जानकारी उपलब्ध करा देगा, ताकि वक्फ संपत्तियों को लेकर स्थिति और स्पष्ट हो सके. एएसआई के अधिकारियों ने बैठक में बताया कि वक्फ बोर्ड के साथ देश भर में अद्यतन कथित 132 या 120 संपत्तियों को लेकर उनका विवाद है।इन स्मारकों पर वक्फ़ बोर्ड दावा कर रहा है, 

     एएसआई संस्कृति मंत्रालय के अधीन काम करता है। एएसआई ने अपनी प्रस्तुति में 53 स्मारकों की सूची दी, जिन पर वक्फ अपना दावा करता है। इनमें से कुछ को देश की आजादी से पहले का इतिहास रखने वाले एएसआई द्वारा संरक्षित स्मारक घोषित किए जाने के लगभग एक सदी बाद वक्फ की संपत्ति घोषित किया गया।एएसआई अधिकारियों ने कहा कि इस तरह के "दोहरे अधिकार" टकराव पैदा करते हैं.उन्होंने रेखांकित किया कि इनमें से कई संपत्तियों को वक्फ के रूप में तभी वर्गीकृत किया गया है, जब उन्हें संरक्षित स्थल घोषित किया गया था.


जेपीसी की बैठकों में विपक्ष का अपना निजी स्वार्थ

जेपीसी की बैठकों में विपक्ष की ओर से एआईएमआईएम नेता असदुद्दीन ओवैसी ने केवल दिल्ली की ही 172 वक्फ संपत्तियों की सूची सौंपी जो उनके अनुसार एएसआइ के अनधिकृत कब्जे में हैं. सूत्रों के अनुसार ओवैसी खुद 3000 करोड की वक्फ की जमीन कब्जा किए बैठे हैं. कांग्रेस के समय की कर्नाटक मैनार्टी कमेटी को रिपोर्ट के अनुसार 120 एकड़ जमीन को कमर्शियल कनवरजन करा लिया है. ये 8 रुपए की किरायेदारी पर है। इसे 30 साल से ज्यादा कोई नहीं रख सकता फिर भी ओवैसी इस पर कुण्डली मार कर बैठे हैं.

संरक्षण में बाधा 

इन स्मारकों पर वक्फ़ बोर्ड का दावा करने की वजह से संरक्षण और देखरेख प्रभावित होता रहता है. संरक्षण कार्य में बाधा उत्पन्न हुई है और वक्फ संपत्तियों में अनधिकृत परिवर्तन कर लिए जाते हैं. इनके मुतलवी एएसआई के अधिकारी वा कर्मचारी को स्मारक में प्रवेश ,निरीक्षण,रेखाचित्र और छायाचित्र करने नही देते हैं. अनेक बार तो हाई लेवल अधिकारी को लिखकर पुलिस संरक्षण में स्मारक में प्रवेश करने दिया जाता है.

ये राजनीतिक बल का प्रयोग कर सरकारी विभाग पर दबाव डलवाते हैं.बिना किसी देरी के आनन फानन में स्मारक का मनमानी संरक्षण अनुरक्षण और छोटा मोटा निर्माण भी करवा लेते हैं.

संरक्षण प्रतिबंधित'

सूत्रों के अनुसार, एएसआई ने शिकायत की है कि उसके कर्मचारियों को ऐसे स्मारकों में “संरक्षण” कार्य करने से प्रतिबंधित किया गया है। एएसआई अधिकारियों ने बोर्ड पर इन संरक्षित स्मारकों की मूल संरचना में “कई जोड़ और परिवर्तन” करने का भी आरोप लगाया, जिससे ऐसी संरचनाओं की “प्रामाणिकता और अखंडता” बाधित हो रही है.

वक्फ बोर्ड और एएसआई के मध्य कुछ विवाद वाले मामले

एएसआई द्धारा प्रदत्त सूची में महाराष्ट्र के अहमदनगर स्थित निजाम शासक अहमद शाह की कब्र को शामिल किया गया। इसे एएसआई ने 1909 में संरक्षित स्मारक घोषित किया था, जबकि 2006 में इसे वक्फ संपत्ति घोषित कर दिया गया.

इसी प्रकार, बेलगाम की सफा मस्जिद, जिसे 1909 में संरक्षित स्मारक घोषित किया गया था, को 2005 में वक्फ के रूप में वर्गीकृत किया गया.

महाराष्ट्र के संभाजीनगर (औरंगाबाद) में औरंगजेब का मकबरा, पर विवाद होता रहता है.

आगरा की जामा मस्जिद, पर विवाद होता रहता है।

कर्नाटक का बीदर किला पर विवाद होता रहता है.और 

औरंगाबाद के पास प्रसिद्ध दौलताबाद किला पर भी विवाद होता रहता है.

आगरा में फतेहपुर सीकरी और जौनपुर में अटाला मस्जिद का उदाहरण देते हुए एएसआई ने बताया कि संरक्षित स्मारकों को वक्फ संपत्ति के रूप में अधिसूचित किए जाने से टकराव की स्थिति पैदा होती है.

उत्तर प्रदेश सुन्नी वक्फ बोर्ड

उत्तर प्रदेश सुन्नी वक्फ बोर्ड के पास संपत्तियों की संख्या : 1,17,161 है। प्रमुख निम्न लिखित हैं ,जिन पर एएसआई से विवाद होता रहता है.

टीले वाली मस्जिद, लखनऊ

जामा मस्जिद, लखनऊ

नादान महल मकबरा, लखनऊ

शाही अटाला मस्जिद जौनपुर

दरगाह सैयद सालार मसूद गाजी, बहराइच

सलीम चिश्ती का मकबरा, फतेहपुर सीकरी, आगरा 

धरहरा मस्जिद, वाराणसी

उत्तर प्रदेश शिया वक्फ बोर्ड

उत्तर प्रदेश शिया वक्फ बोर्ड के पास संपत्तियों की संख्या : 15,386 संपत्तियां है.प्रमुख निम्न लिखित हैं ,जिन पर एएसआई से विवाद होता रहता है.

बड़ा इमामबाड़ा लखनऊ

छोटा इमामबाड़ा लखनऊ

इमामबाड़ा किला-ए-मुअल्ला, रामपुर

मकबरा जनाब-ए-आलिया, रामपुर

इमामबाड़ा खासबाग, रामपुर

बहू बेगम का मकबरा, फैजाबाद

दरगाहे आलिया नजफ-ए-हिंद, बिजनौर

मजार शहीद-ए-सालिस, आगरा.

संयुक्त संसदीय समिति को करीब 96 लाख से अधिक आपत्तियां और सुझाव

वक्फ संशोधन बिल को लेकर संयुक्त संसदीय समिति को करीब 96 लाख से ज्यादा ईमेल मिले हैं. इस बीच एक रिपोर्ट में कहा गया है कि इन ईमेल में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस वाले रिएक्शन का हिस्सा काफी बड़ा है. वक्फ संशोधन बिल पर टिप्पणियां दर्ज करने की समय सीमा बीती 15 सितंबर को खत्म हो चुकी है. अब संयुक्त संसदीय समिति का पैनल अलग-अलग राज्यों का दौरा करेगा. इसके साथ ही स्टेट वक्फ बोर्ड और राज्य अल्पसंख्यक आयोगों से मुलाकात करेगा.


     आचार्य डा. राधे श्याम द्विवेदी 

लेखक परिचय


(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं. वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं.मोबाइल नंबर +91 8630778321, वर्डसैप्प नम्बर+ 91 9412300183)

Saturday, September 14, 2024

द्वारिका से भी पुराना है अरब सागर का भेंट द्वारिका द्वीप, श्रीकृष्ण जी की आमोद- प्रमोद नगरी : आचार्य डॉ.राधेश्याम द्विवेदी



        आवो अपनी विरासत जाने

द्वारका धाम राजधानी बेट द्वारका पुरी रनिवास महल

द्वारिका तीन हैं- गोमती द्वारिका, बेट द्वारिका और समुद्र में डूबी द्वारिका । गोमती द्वारिका धाम है, बेट द्वारिका पुरी है। समुद्र में डूबी द्वारिका भी गोमती द्वारिका के पास ही है। बेट द्वारिका के लिए समुद्र मार्ग से पहले जाना पड़ता था।भारत के गुजरात राज्य के पश्चिमी सिरे पर समुद्र के किनारे स्थित 4 धामों में से 1 धाम और 7 पवित्र पुरियों में से एक पुरी है द्वारिका। यहां पर श्रीकृष्ण का एक प्राचीन मंदिर है और समुद्र में डूबी हुई द्वारिका नगरी। गोमती तट पर स्थित द्वारका वह स्थान है जहां से भगवान श्रीकृष्ण राजकाज किया करते थे और बेट द्वारका वह स्थान है जहां भगवान का निवास स्थान था। इस स्थान का नाम भेंट द्वारिका है जिसे गुजराती में बेट द्वारका कहते हैं ।

श्रीकृष्ण का दरबार द्वारका

श्रीकृष्ण का दरबार (राजधानी) वर्तमान द्वारका के आस पास हुआ करता था जो अब समुद्र में विलीन हो चुका है और सातवीं बार नए कलेवर में गोमती के तट पर लोगों द्वारा पूजा जाता है। गोमती तट स्थित द्वारका सुनियोजित, सुव्यवस्थित, आवासीय और वाणिज्यिक शहर था, जिसमे सोने, चांदी और अन्य कीमती पत्थरों से बने महल, सुंदर उद्यान और झीलें भी थीं। द्वारका को स्वर्ण का शहर कहा जाने लगा और भगवान श्री कृष्ण द्वारकाधीश के नाम से विश्व में पूजे गये। कालांतर में इस द्वीप का अधिकांश भाग समुद्र में समा गया। अभी जो भाग बचा है, उस भाग का क्षेत्रफल लगभग तेरह किलोमीटर है। 

बज्रनाभ द्वारा निर्मित द्वारकाधीश मंदिर

श्री कृष्ण के स्व धाम गमन के बाद श्री द्वारकाधीश जी का मंदिर उनके पोते बज्रनाभ नें बनवाया था। द्वारका में गोमती नदी का अरब सागर में मिलन स्थल पर वर्तमान द्वारका है।

श्री कृष्ण का निवास भेंट द्वारका

द्वारका से लगभग 30 किलोमीटर दूर ओखा के निकट बेट द्वारका अविकसित सुविधा विहीन अवव्यस्थित नगर है। यहाँ कभी भगवान श्रीकृष्णजी निवास करते थे। यादव वंशी श्री कृष्ण ने वर्तमान में ओखा के निकट बारह योजन की भूमि पर (बेट द्वारका) पर अपना राज्य स्थापित किया था। बेट द्वारका के कुछ अन्य नाम हैं – रमणद्वीप अर्थात रमणीय द्वीप, कृष्ण विलास नगरी अर्थात कृष्ण की आमोद नगरी, कलारकोट इत्यादि।

बेट द्वारका का नामकरण 

भगवान श्रीकृष्ण और उनके बचपन के मित्र सुदामा जी से भेंट होने के कारण भी इसे बेट (भेंट)द्वारका कहा जाता है। कहते है कि समुद्र में पूरी द्वारका नगरी डूब गई थी, पर बेट द्वारका एक टापू के रूप में आज भी बची है। भगवान कृष्ण इस बेट-द्वारका नाम के टापू पर अपने घरवालों के साथ सैर करने आया करते थे। वेट-द्वारका ही वह जगह है, जहां भगवान कृष्ण ने अपने प्यारे भगत नरसी की हुण्डी भरी थी।

उपहार और मुलाकात हुआ था 

बेट द्वारका में 

भेट का मतलब मुलाकात और उपहार दोनो होता है। इस नगरी का नाम इन्हीं दो बातों के कारण भेट पड़ा। दर असल ऐसी मान्यता है कि इसी स्थान पर भगवान श्रीकृष्ण की अपने मित्र सुदामा से भेट हुई थी। गोमती द्वारका से यह स्थान 35 किलोमीटर दूर स्थित है। इस मंदिर में कृष्‍ण और सुदामा की प्रतिमाओं की पूजा होती है। मान्यता है कि द्वारका यात्रा का पूरा फल तभी मिलता है जब आप भेट द्वारका की यात्रा करते हैं।

      द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्‍ण का महल यहीं पर हुआ करता था। द्वारका के न्‍यायाधीश भगवान कृष्‍ण ही थे। माना जाता है कि आज भी द्वारका नगरी इन्‍हीं के  नियंत्रण में है। इसलिए भगवान कृष्‍ण को यहां भक्‍तजन द्वारका - धीश के नाम से पुकारते हैं। सुदामा जी जब अपने मित्र से भेंट करने यहां आए थे तो एक छोटी सी पोटली में चावल भी लाए थे। इन्‍हीं चावलों को खाकर भगवान कृष्‍ण ने अपने मित्र की दरिद्रता दूर कर दी थी। इसलिए यहां आज भी चावल दान करने की परंपरा है। मंदिर में चावल दान देने से भक्‍त कई जन्मों तक गरीब नहीं होते।

     भेंट द्वारका ही वह स्‍थान है जहां भगवान कृष्‍ण ने अपने परम भक्‍त नरसी की हुंडी भरी थी। पहले के जमाने में यह चलन था कि लोग पैदल यात्रा में अधिक धन अपने साथ नहीं ले जाते थे। इस डर से कि कोई चोर न चुरा ले। धन साथ ले जाने की बजाए वे किसी विश्वस्त और प्रसिद्ध व्यक्ति के पास रुपया जमा करके उससे दूसरे शहर के व्यक्ति के नाम हुंडी (धनादेश) लिखवा लेते थे। नरसिंह मेहता की गरीबी का उपहास करने के लिए कुछ शरारती लोगों ने द्वारका जाने वाले तीर्थ यात्रियों से उनके नाम हुंडी लिखवा ली, पर जब यात्री द्वारका पहुंचे तो भगवान कृष्ण ने नरसिंह की लाज रखने के लिए श्यामल शाह सेठ का रूप धारण किया और नरसिंह की हुंडी को भर दिया। इस हुंडी का धन तीर्थयात्रियों को दे दिया गया और इस तरह नरसिंह का यश बढ़ गया।

द्वारका कई बार डूबी, बेट द्वारका एक बार भी नहीं 

एक बार संपूर्ण द्वारका नगरी समुद्र में डूब गई थी, लेकिन भेंट द्वारका बची रही। उसके कुछ ही अंश डूबे हैं। द्वारका का यह हिस्सा एक टापू के रूप में आज भी मौजूद है। इसी द्वारका में बाद में राधा रानी जी भी आ गयीं थीं । माँ मीरा बाई भी अपने अंतिम समय में बेट द्वारका में थीं आई थी। जहां वे रहती थीं वो मंदिर आज भी बेट द्वारका में ही मौजूद है।    

द्वारिका और बेट द्वारिका में अंतर 

भगवान श्री कृष्ण जी नें 10 वर्ष 5 महीने और 6 दिन की आयु में वृंदावन को छोड़ दिया था क्योंकि वे जरासंध से युद्ध नहीं करना चाहते थे. ज्ञात हो वृंदावन उस समय पूरे बृज धाम को कहा जाता था ये आजकल का वृंदावन उस पुराने वृंदावन का केवल एक भाग मात्र है सांदीपनि आश्रम।वृंदावन छोड़ने के बाद वे उज्जैन में सांदीपनि आश्रम में गये और वंहा ऋषि सांदीपनि जी से 16 कलाओं की शिक्षा प्राप्त की और उसके बाद गुजरात के सौराष्ट्र में द्वारकापुरी में चले गये थे। जरासंध से युद्ध को छोड़ देने के कारण वंहा उन्हें रणछोड़ भी कहा जाता है।उस समय द्वारका बहुत विस्तृत शहर था जो अरब सागर के किनारे द्वारका से लेकर पोरबंदर तक फैला हुआ था।

गोमती तट स्थित द्वारकाधीश मंदिर 

वर्तमान गोमती तट स्थित द्वारकाधीश मंदिर आठ पटरानियों से सुशोभित है, पर राधा रानी इसमें शामिल नहीं हैं। आज जहां श्री द्वारकाधीश जी का मंदिर है वंहा उनका सिंहासन हुआ करता था , जिस पर वे अपनी प्रजा को समस्याओं को हल किया करते थे और इस कार्य में उनकी रानी श्री रुक्मणी माँ जो की स्वयम महालक्ष्मी जी थीं और बाकी की सात पटरानियाँ मदद करती थीं। इस द्वारका में श्रीमती राधा रानी जी का नाम नहीं लिया जाता क्योंकि वंहा श्री रुक्मणी कृष्ण का नाम लिया जाता है।

बेट द्वारका में होता था 

श्रीकृष्ण का रात्रि विश्राम 

दिन भर द्वारका का राजकाज देखकर भगवान श्री कृष्ण रात्रि को विश्राम करने अपने शयनकक्ष में जाते थे । आमोद प्रमोद होता था। इसे आज बेट द्वारका कहा जाता है। उस समय ये स्थान भी पूरी द्वारका का ही हिस्सा हुआ करता था परंतु श्री कृष्ण जी नें जब देह त्यागी तब पूरी द्वारका नगरी समुन्द्र में डूब गयी थी । केवल एक टापू जो बिल्कुल समुन्द्र के बीच में है वो बच गया।वह ही स्थान है बेट द्वारका है। स्कंद पुराण और महाभारत में बेट द्वारका का प्रमुखता से उल्लेख किया गया है। इतिहासकारों और विद्वानों ने बेट द्वारका को उस स्थान के रूप में पहचाना है जहाँ यादव वंश के सदस्य नावों से यात्रा करते हैं। 

शंखोद्धार नाम का रहस्य 

बेट द्वारका को भारतीय महाकाव्य महाभारत और स्कंद पुराण में प्राचीन शहर माना गया है। बेट द्वारका को शंखोद्धार भी कहा जाता है। यहाँ भगवान विष्णु ने राक्षस शंखासुर को संहार किया था। शंखोद्धार नाम के पीछे का दूसरा विचार इस द्वीप पर पाए जाने वाले शंख के बड़े स्रोतों के कारण भी है। हमारे प्राचीन महाकाव्य, 'महाभारत' में हम अक्सर बेट द्वारका का उल्लेख 'अंतरद्वीप' के नाम से जानते हैं, जहाँ यादव वंश के लोग नाव से यात्रा करते थे। इस द्वीप को शंखोधर के नाम से भी जाना जाता है। इसका कारण यह है कि यह शंखों की एक बड़ी संख्या और विविधता से भरा हुआ है।

बड़ौदा के गायकवाड़ वंश के आधीन भी रहा यह क्षेत्र

574 ई. के सिंहादित्य के शिलालेख में भी द्वारका का उल्लेख है। यह क्षेत्र पहले बड़ौदा राज्य के गायकवाड़ वंश के प्रशासन के अधीन था। 1857 के विद्रोह के दौरान, वाघेरों ने इस क्षेत्र पर हमला किया और इस पर कब्ज़ा कर लिया। 1859 के आसपास विद्रोहियों को उखाड़ फेंका गया और इस क्षेत्र को इसके वास्तविक शासकों ने वापस ले लिया। स्वतंत्रता के बाद, यह क्षेत्र सौराष्ट्र राज्य का हिस्सा बन गया, जो बाद में बॉम्बे राज्य में विलय हो गया। जब गुजरात राज्य को बॉम्बे राज्य से अलग किया गया, तो बेट द्वारका को गुजरात के जामनगर जिले के हिस्से के रूप में शामिल किया गया।

पुरातत्त्व के भरपूर प्रमाण 

बेट द्वारका ने हमेशा पुरातत्वविदों की जिज्ञासा को जगाया है, शायद इसलिए क्योंकि पौराणिक दावा है कि यह स्थान वास्तव में पुराने समय में भगवान कृष्ण का मूल घर था। यह भी माना जाता है कि बेट द्वारका की भूमि का एक बड़ा हिस्सा अब लगातार तटीय कटाव के कारण समुद्र में डूब गया है। इसलिए पुरातत्वविदों ने द्वीप पर और द्वीप के आस-पास के समुद्र में कई खोजबीन की है ताकि इन दावों की प्रभावशीलता के बारे में कुछ सुराग मिल सके। राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान के समुद्री पुरातत्व केंद्र ने 1981-1994 के आसपास बेट द्वारका तट और अंतरज्वारीय क्षेत्र में कई खोजबीन की थी। इन खोजबीन के परिणामस्वरूप, मिट्टी के बर्तन आदि जैसी कई कलाकृतियों के अवशेष मिले और ये अवशेष हड़प्पा युग के प्रतीत होते हैं। 

1980 के दशक में जांच के दौरान, सिदी बावा पीर दरगाह के पास मिट्टी के बर्तनों और हड़प्पा काल की अन्य कलाकृतियों के अवशेष पाए गए। 1982 में, 1500 ईसा पूर्व की 580 मीटर लंबी सुरक्षा दीवार मिली थी, जिसके बारे में माना जाता है कि यह समुद्री तूफ़ान के कारण क्षतिग्रस्त हो गई थी और जलमग्न हो गई थी। बरामद कलाकृतियों में एक स्वर्गीय हड़प्पा मुहर, एक खुदा हुआ जार और ताम्रकार का सांचा, एक तांबे का मछली का कांटा शामिल है। खुदाई के दौरान मिले जहाजों के टुकड़े और पत्थर के लंगर रोमनों के साथ ऐतिहासिक व्यापार संबंध का सुझाव देते हैं। द्वीप पर वर्तमान मंदिर अठारहवीं शताब्दी के अंत के आसपास बनाए गए हैं। 

पहले नाव और 

अब सड़क मार्ग से आवागमन 

समुद्र के कुछ किलोमीटर अन्दर एक छोटे से द्वीप पर स्थित बेट द्वारका पहुँचने के लिए छोटा जहाज या नाव की सहायता लेनी पड़ती थी। पहले नाव में बैठने के बाद खुले आकाश के नीचे सुहाने सफ़र का आनंद लेते हुए लगभग आधे घंटे में बेट द्वारका पहुँच जाते थे। अब स्थिति बदल गई है। अब सुदर्शन सेतु की सहायता से एक अलग ही अंदाज में बेट द्वारिका की यात्रा सुगमता पूर्वक की जा सकती है। इस सेतु का उदघाटन 25 फरवरी 2024 को हुआ है। ये पुल ओखा शहर को बेट द्वारका से जोड़ता है, इसकी लंबाई 2.3 किलोमीटर है. ये एक केबल स्टेड ब्रिज है जो यहां का बेहतरीन टूरिस्ट स्पॉट बन गया है।   

सुदर्शन सेतु की निराली छटा  

प्रधानमंत्री श्रीनरेंद्र मोदी ने इस ड्रीम प्रोजेक्ट की नींव अक्टूबर, 2017 में रखी थी। इस ब्रिज का निर्माण 962 करोड़ रुपये की लागत से हुआ है। इस ब्रिज पर गीता के श्लोक लिखे गए हैं और ब्रिज के पिलर पर भगवान कृष्ण के माथे पर बने मोर के पंख को उकेरा गया है। जो काफी दूर से दिखाई देता है । द्वारका पहुंचने वाले टूरिस्ट को एक अलग रोमांच का मजा मिलता है। वे न सिर्फ नीले समुद्र के ऊपर से फर्राटा भरते हैं , बल्कि रात के दौरान रंग बिरंगी लाइटों में अदुभुत सौंदर्य को निहार ते भी है। इस ब्रिज पर 12 टूरिस्ट गैलरी भी बनाई गई हैं। जहां पर वे कुछ देर रुककर कच्छ की खाड़ी के समुद्र को देख सकते हैं। इतना ही नहीं टूरिस्ट डूबते हुए सूर्य को भी निहार सकते हैं। 

सौर ऊर्जा के पैनल से जुड़ा सेतु

इस ब्रिज पर ऊपर सौर ऊर्जा के पैनल लगाकर बिजली का उत्पादन किया जा रहा है । इसी बिजली से यह ब्रिज रात में रंगीन रोशनी में जगमग होता है। सोलर पैनल से करीब 1 मेगवाॅट बिजली बनती है। शेष बची हुई बिजली ओखा टाउन को दी जा रही है। 

   बेट द्वारका के प्रमुख आकर्षण

द्वारकाधीश सहित पांच महल 

बेट द्वारका पहुचने के बाद एक पतली सड़क से भगवान श्री कृष्ण के मुख्य मंदिर (जो एक समय भगवान कृष्ण और उनके परिवार का निवास था,) की ओर जाना जाता है। आगे बढ़ने पर गोमती-द्वारका की तरह ही एक बहुत बड़ी चहारदीवारी के घेरे के भीतर पांच बड़े-बड़े महल है जो दुमंजिले और तिमंजले है।इन पांचों महलों की सजावट ऐसी है कि आंखें चकाचौंध हो जाती हैं। इन मन्दिरों के किबाड़ों और चौखटों पर चांदी के पतरे चढ़े हैं। भगवान कृष्ण और उनकी मूर्ति चारों रानियों के सिंहासनों पर भी चांदी मढ़ी है। मूर्तियों का सिंगार बड़ा ही कीमती है। हीरे, मोती और सोने के गहने उनको पहनाये गए हैं। सच्ची जरी के कपड़ों से उनको सजाया गया है। 

श्री वल्लभाचार्य जी द्वारा स्थापित द्वारिका धीश का मुख्य मंदिर

द्वारका द्वीप पर भगवान कृष्ण के निवास स्थान पर ही है, मंदिर में श्री कृष्ण की मूल मूर्ति उनकी पत्नी देवी रुक्मनि द्वारा स्थापित की गई है।

 मंदिर की वर्तमान संरचना 500 वर्ष पहले श्री वल्लभाचार्य जी द्वारा स्थापित की गई है। यह भी माना जाता है कि, श्री कृष्ण और उनके मित्र सुदामा इस जगह पर ही मिले थे और उन्होंने श्री कृष्ण को उपहार स्वरूप चावल भेंट किए। अतः अपनी द्वारका धाम यात्रा के दौरान, भक्तों द्वारा ब्राह्मणों को चावल दान करने की महिमा है। यहां द्वारकाधीश मंदिर और केशव जी मंदिर जैसे कई खूबसूरत मंदिर हैं। बेट द्वारकाधीश मंदिर में भक्तों की अपार आस्था है। यहां भगवान विष्णु की मछली, रुक्मिणी, त्रिविक्रम, देवी, राधा, लक्ष्मी, सत्यभामा, जाम्बवती, लक्ष्मी नारायण और अन्य देवताओं के स्वरूप विराजमान हैं। नाथद्वारा मंदिर की तरह बेट द्वारका के इस श्री कृष्ण मंदिर में भी शिखर नहीं है। अन्य घरों की तरह इसकी छत भी सामान्य रूप से सपाट है। यह इसलिए  है कि द्वारकाधीश मंदिर परिभाषिक रूप से मंदिर है किन्तु वास्तव में यह कृष्ण का निवास स्थान था जहां वे अपने परिवार संग निवास करते थे।

बेट द्वारका के द्वारकाधीश मंदिर परिसर के भीतर कृष्ण के साथ साथ उनके परिवार के सदस्यों के भी मंदिर हैं। वे इस प्रकार हैं-

प्रमुख श्री कृष्ण जी का महल 

प्रथम महल श्री कृष्ण का सबसे बड़ा महल है। इसमें कृष्ण जी की मूर्ति का निर्माण रुक्मिणी जी ने कराया था।उन्होंने यह प्रतिमा श्री कृष्ण द्वारा देह त्यागने के  समय अर्थात आज से लगभग 5244 वर्षों पहले स्थापित की थी। हम भगवान कृष्ण को एक तेजस्वी राजा के रूप में देखते हैं जो ब्रह्मांड पर शासन करते हैं।उनकी मूर्ति को देख आपका मन प्रसन्न हो जाएगा। सम्पूर्ण दिवस उन्हें भिन्न भिन्न श्रृंगार में सज्जित किया जाता है। यदि आप यहाँ जन्माष्टमी के दिन आयें तो आप इस श्रृंगार की चरम सीमा के दर्शन कर सकते हैं। कृष्ण मंदिर के रजत द्वार पर आप सूर्य, चन्द्रमा, शंख, चक्र, गदा तथा पद्म देख सकते हैं। द्वार के निचले भाग में श्री कृष्ण ग्वाले के रूप में उत्कीर्णित (तराशे) हैं जो गौमाता के साथ खड़े अपनी बांसुरी बजा रहे हैं।

कृष्ण की रानियों के महल

कृष्ण की 1000 से ज़्यादा पत्नियाँ थीं। वर्तमान मंदिर परिसर में उनकी तीन सबसे महत्वपूर्ण रानियों - रुक्मिणी, जाम्बवती और सत्यभामा के महल/मंदिर हैं । 

सत्यभामा का महल

श्री कृष्ण जी के महल से दक्षिण दिशा में रानी सत्यभामा का महल है।सत्यभामा सत्राजित की कन्या और कृष्ण की चार मुख्य स्त्रियों में से एक और भूदेवी की अवतार हैं। इनसे कृष्ण को दस पुत्र हुए जिनके नाम भानु, सुभानु, स्वरभानु आदि थे। सूर्य ने जो स्यमंतक मणि सत्यभामा के पिता को दी थी उसे शतधन्वन ने सत्राजित की हत्या करके छीन लिया।

जाम्बवती की के महल

इस श्री कृष्ण जी के महल से दक्षिण में जाम्बवती की के महल बने है। द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण ने जामवंत को उनके घर जाकर दर्शन दिया था।स्यमंतक मणि की खोज में वे जामवंत के घर गए थे. यहां मणि देने के लिए मना करते हुए जामवंत ने पहले तो उनसे युद्ध किया, फिर जब हारने लगा तो श्रीराम को पुकारा। तब भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें राम रूप में दर्शन दिए।इसके बाद स्यमंतक मणि के साथ जामवंत ने अपनी कन्या जामवंती भी श्रीकृष्ण को समर्पित कर उनका ससुर बनने का सौभाग्य प्राप्त किया।


रूक्मिणी का महल 

भगवान कृष्ण और देवी रुकमणि की एक गलती और दुर्वासा ऋषि शाप के कारण रुकमणी को गोमती तट स्थित द्वारकाधीश मंदिर में स्थान नहीं दिया गया है। पर भेट द्वारिका में ऐसा नहीं है। यहां श्री कृष्ण के महल के उत्तर दिशा में उन्हे प्रतिष्ठित किया गया है।

राधा रानी (गोलोक माता) का महल 

श्री कृष्ण की मुख्य रानियों के अलावा, राधा को समर्पित एक अलग संरचना और मंदिर भी है जो उत्तर दिशा में है। राधा मंदिर को गोलोक माता मंदिर कहा जाता है। हालांकि वह वास्तव में कभी रानी नहीं थीं - उन्हें हमेशा रानी की तरह ही पूजा जाता है। मंदिर मुख्य कृष्ण मंदिर के मंदिरों के घेरे के बाहर है। यह दर्शाता है कि वह भगवान कृष्ण के लिए कितनी महत्वपूर्ण रहीं। वह कभी उनके साथ नहीं रहीं।राधा को द्वारका में गोलोक की महारानी के नाम से जानते हैं। राधा को समर्पित इस मंदिर के लकड़ी के द्वार बने हुए है। इसके नक्काशीदार कोष्ठक इस मंदिर की सुन्दरता में चार चाँद लगा रहे थे। जहां कृष्ण होंगे वहां राधा अवश्य होगी। किन्तु राधाजी कृष्ण की प्रिय सखी होते हुए भी यहाँ उनका मंदिर मुख्य मंदिर परिसर के बाहर स्थित है। परिसर के भीतर केवल श्री कृष्ण, उनके भ्राताओं, उनके पुत्रों तथा उनकी पत्नियों के मंदिर हैं।

     इस मंदिर में राधाजी की उत्सव मूर्ति है अर्थात् मूर्ति अचल नहीं है। इसका अर्थ यह है कि उनकी मूर्ति सतत यहाँ स्थापित नहीं रहती बल्कि उन्हें विशेष रूप से यहाँ लाया व ले जाया जाता है। राधाजी की मूर्ति को आप देखना चाहें तो आपको यहाँ श्रावण मास में आना होगा। श्रावण मास में ही उनकी मूर्ति को एक मास के लिए बाहर निकाला जाता है। उनकी मूर्ति को शरद पूर्णिमा के दिन भी बाहर लाया जाता है।

चित्र विचित्र नक्काशिया 

 इन पांचों महलों की सजावट ऐसी है कि आंखें चकाचौंध हो जाती हैं। इन मन्दिरों के किबाड़ों और चौखटों पर चांदी के पतरे चढ़े हैं। भगवान कृष्ण और उनकी मूर्ति चारों रानियों के सिंहासनों पर भी चांदी मढ़ी है। मूर्तियों का सिंगार बड़ा ही कीमती है। हीरे, मोती और सोने के गहने उनको पहनाये गए हैं। सच्ची जरी के कपड़ों से उनको सजाया गया है।

भीति चित्र और चित्रांकन 

भित्तियों पर कृष्णलीला के दृश्यउत्कीर्णित थे। हांडी से माखन चुराते बालकृष्ण, कदम्ब वन में बांसुरी बजाते कृष्ण, गोवर्धन पर्वत को अपनी कनिष्ठा में उठाये गोवर्धनधारी, गज को पूंछ से उठाये कृष्ण इत्यादि उनमें से मुख्य हैं। मेरे विचार से अन्य कई प्रमुख दृश्य भी चित्रित किये जा सकते थे। भित्तियों के अन्य रिक्त स्थान ज्यामितीय तथा पुष्पों के आकारों से उत्कीर्णित हैं।

रणछोड़ जी मंदिर

रणछोड़ जी के मन्दिर की ऊपरी मंजिलें देखने योग्य है। यहां भगवान की सेज है। झूलने के लिए झूला है। खेलने के लिए चौपड़ है। दीवारों में बड़े-बड़े शीशे लगे हैं। इन पांचों मन्दिरों के अपने-अलग भण्डारे है। 

सुदामा महाराज की गद्दी

मुख्य मंदिर के पीछे सुदामा महाराज की गद्दी स्थित है, जहां ऐसी धारणा है कि अगर कोई पैसे दान करता है और उनके बैठने की जगह से चावल लेता है। कहा जाता है कि गद्दी और इसे अपने घर के चावल भंडार में जोड़ दें तो सुदामा महाराज की तरह उनके घर में कभी भी भोजन की कमी नहीं होगी।

बलराम जी (त्रिविक्रम ) का मंदिर 

श्री कृष्ण के ज्येष्ठ भ्राता बलराम को यहाँ त्रिविक्रम रूप में दर्शाया गया है। चार भुजाधारी त्रिविक्रम की काले पत्थर की मूर्ति प्राचीन प्रतीत हो रही है। उन्हें भी विष्णू कृष्ण के विस्तार के रुप में माना जाता है।

प्रद्युमन जी का मंदिर 

प्रद्युमन का अर्थ सबसे शक्ति शाली होता है। भेट द्वारका में प्रद्युमन कल्याण राय के रूप में दर्शाए गए हैं। प्रद्युम्न भी हिन्दू भगवान विष्णु का एक अन्य नाम है, जिसे 24 केशव नामों में से एक बताया गया है।प्रद्युम्न कृष्ण के पुत्र और आदिनारायण के इकसठवें पोते थे। उनकी माँ रुक्मिणी थीं, जिनके अनुरोध पर कृष्ण ने विदर्भ से उनके स्वयंवर के दौरान उनसे विवाह किया था। प्रद्युम्न का जन्म द्वारका में हुआ था और वे कामदेव के पुनर्जन्म थे , जो शिव के क्रोध से भस्म हो गए थे ।

पुरुषोत्तम राय(श्री हरि)का मंदिर 

पुरुषोत्तम भगवान विष्णु का ही एक नाम है। इस अधि मास में श्री हरि की पूजा होती है और श्रीमद् भागवत कथा व शिवपुराण सुनने के साथ मथुरा वृंदावन और द्वारिका का विशेष महत्व है।भूरे बलुआ पत्थर में बनी पुरुषोत्तम राय की मूर्ति के बाजू उनकी चारपाई रखी हुई है।

देवकी मंदिर

बेट द्वारका के कृष्ण मंदिर में एक महत्वपूर्ण मंदिर उनकी जन्मदात्री माँ को समर्पित है। यह मुख्य कृष्ण मंदिर के ठीक सामने है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि भगवान कृष्ण को सुबह अपनी आँखें खोलकर अपनी माँ को देखना पसंद था।देवकी को समर्पित मंदिर आपने कहीं नहीं देखा होगा। कृष्ण की मूर्ति जिस आँगन में है वहीं भूरे बलुआ पत्थर में बनी देवकी की भी प्रतिमा स्थापित है। आप यहाँ एक आश्चर्यजनक दृश्य देखेंगे। द्वारका में माता यशोदा का कहीं भी उल्लेख नहीं है। कृष्ण को समर्पित मंदिर के भीतर उनकी माता के रूप में देवकी ही विराजमान रहती हैं।

अम्बा माता मंदिर

अम्बा माता शाही यादवों की कुलदेवी या पारिवारिक देवी थीं। श्री कृष्ण और उनके परिवार द्वारा उनकी पूजा की जाती थी। उनका मंदिर परिसर में एक छोटा सा प्रांगण है और यहीं पर आप चावल दान के लिए कर सकते हैं। मंदिर का यह हिस्सा बेट द्वारका मंदिर का सबसे पुराना मूल हिस्सा है।

कई अन्य मंदिर 

इन विशेष मन्दिरों के सिवा और भी बहुत-से मन्दिर इस चहारदीवारी के अन्दर है। बेट द्वारका में कई छोटे मंदिर हैं जो हिंदू देवताओं के कई देवी-देवताओं को समर्पित हैं जैसे कि  लक्ष्मी, भगवान विष्णु का मत्स्य रूप । टीकमजी, माधवजी और गरूड़ के मन्दिर है। इनके सिवाय साक्षी- गोपाल, लक्ष्मी नारायण और गोवर्धन नाथजी के मन्दिर है। ये सब मन्दिर भी खूब सजे- सजाये हैं। इनमें भी सोने-चांदी का काम बहुत है। कृष्ण के परिवार को समर्पित कई अन्य मंदिर हैं, जैसे बलराम - उनके सबसे बड़े भाई का है। द्वारका और बेट द्वारका की कहानी में उन्हें एक महत्वपूर्ण तरीके से शामिल किया गया है। 

मुख्य प्रांगण की परिक्रमा करने पर अन्य कई मंदिर देखें जा सकते हैं । 

   ये मंदिर क्रमवार कुछ इस प्रकार हैं-


महालक्ष्मी मंदिर 

 कृष्ण मंदिर के भीतर महालक्ष्मी का मंदिर है । यहाँ रुक्मिणी को महालक्ष्मी का अवतार माना जाता है। अतः महा लक्ष्मी को कृष्ण की पटरानी के रूप में स्थापित किया गया है। यहाँ उनका अपना मंदिर है जहां काले पत्थर में उनकी प्रतिमा स्थापित की गयी है।

माधव राय जी का मंदिर 

माधव राय कृष्ण के काका थे। प्रयाग में आयोजित होने वाले कुम्भ मेले के वे पीठासीन देव रहे हैं।माधव राय जी का एक और प्रसिद्ध प्राचीन मंदिर है जो भगवान कृष्ण की रुक्मिणी जी से विवाह की लीला की याद में बनाया गया है। मंदिर में भगवान माधव राय और उनके भाई भगवान त्रिकम राय (बलराम) के सबसे उत्तम विग्रह हैं और यह इस गांव के मध्य में स्थित है। हर साल राम नवमी के दिन से शुरू होने वाले इस लीला का उत्सव माधवपुर घेड में पांच दिनों तक सांस्कृतिक मेले - श्री ठाकोरजी के विवाह उत्सव में विवाह विधि और रथयात्रा के प्रदर्शन के साथ मनाया जाता है। वहां से आगे जाने पर गोवर्धन मंदिर का दर्शन किया जा सकता है।

शेषावतार मंदिर

बेट द्वारिका क्षेत्र में आगे शेषावतार मंदिर में शेषावतार की प्रतिमा थी जिस के ऊपर शेषनाग की छत्री थी।

सत्यनारायण मंदिर 

परिसर में कलियुग के देव सत्यनारायण भगवान् का भी मंदिर देखा जा सकता है। मंदिर के भीतर जाकर संगमरमर में बनी उनकी सुन्दर मूर्ति देखी जा सकती है।

साक्षी गोपाल मंदिर

साक्षी गोपाल एक उत्सव मूर्ति है जो बेट द्वारका के द्वारकाधीशजी की अचल मूर्ति की एवज में यात्रा करती है। इन्हें द्वारका धाम की तीर्थ यात्रा का देव माना जाता है। अतः जब भी आप द्वारका धाम की तीर्थ यात्रा पर यहाँ आयें, साक्षी गोपाल आपकी यात्रा के दर्शन करेंगे तथा आपका संरक्षण भी करेंगे।

लक्ष्मी नारायण मंदिर

लक्ष्मी नारायण, अर्थात् शक्ति समेत विष्णु। बेट द्वारका के द्वारकाधीश मंदिर में लक्ष्मीनारायण की जोड़ी की मूर्ति भी प्रतिष्ठापित है जो काले पत्थर से निर्मित है।

अनिरुद्ध का मंदिर

यहाँ कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध के मंदिर भी हैं ।अनिरुद्ध का अर्थ 'अजेय'होता है। हिंदू पौराणिक कथाओं में एक पात्र है, जो प्रद्युम्न और रुक्मवती का पुत्र और कृष्ण और रुक्मिणी का पोता है।

ऋषि दुर्वासा का मंदिर

कृष्ण के कुलगुरु अर्थात् ऋषि दुर्वासा को समर्पित भी यहाँ एक मंदिर स्थापित है।ऋषी के शाप से द्वारका में कृष्ण मंदिर में रुक्मणि को स्थान नहीं मिल पाया है।

गरुड़ मंदिर 

गरुड़ जी का भी द्वारकाधीश मंदिर के भीतर यथोचित स्थान है। विष्णु अर्थात कृष्ण का वाहन गरुड़, भगवान् कृष्ण को प्रत्येक दिवस प्रातः अपनी पीठ पर बिठाकर उनकी राजधानी गोमती द्वारका ले जाते थे तथा सांझ होते ही उन्हें बेट द्वारका में उनके महल में ले आते थे।

गणेश मंदिर 

द्वारकाधीश मंदिर परिसर के भीतर प्रवेश करते से ही जो प्रथम देव के आप दर्शन करेंगे वे हैं गणेशजी। इस गणेश मंदिर में गणेशजी की खड़ी प्रतिमा स्थापित है।

मीरा का समाधि स्थल  

मीराबाई मंदिर बेट द्वारका की गलियों के किनारे है। मीराबाई समाधि जोधपुर की राजकुमारी को समर्पित है, जिनके बारे में माना जाता है कि वे भगवान कृष्ण में विलीन हो गई थीं। उनका एकमात्र अवशेष उनकी साड़ी का एक हिस्सा था। माँ मीरा जी का अंतिम समय का बेट द्वारका में बीता जो अब भी है। मान्यताओं के अनुसार वर्ष 1547 में बेट द्वारका में वो कृष्ण भक्ति करते-करते श्रीकृष्ण की मूर्ति में समां गईं थी। मान्यता है कि मीरा पूर्व-जन्म में वृंदावन की एक गोपी थीं और उन दिनों वह राधा की सहेली थीं। वे मन ही मन भगवान श्रीकृष्ण से प्रेम करती थीं।मीराबाई ने अपने जीवन के अंतिम समय में द्वारका में भगवान कृष्ण के मंदिर में समाधि ली थी। उन्होंने रणछोड़जी (कृष्ण) के मंदिर में रात बिताने की अनुमति मांगी और अगली सुबह उन्हें गायब पाया गया। लोकप्रिय मान्यता के अनुसार, वह चमत्कारिक रूप से रणछोड़जी की छवि में विलीन हो गईं।यह कहा जाता है कि वे भगवान कृष्ण की मूर्ति में समा गईं, अर्थात उनकी मृत्यु आत्मसमर्पण और भक्ति के उच्चतम स्तर पर हुई।

बेट द्वारका के तालाब और सरोवर

बेट द्वारका में रणछोड़ तालाब, रत्न तालाब, कचौरी तालाब और शंख तालाब आदि कई तालाब बने है। जगह जगह नहाने के लिए घाट बने हैं। लोग इन तालाबों में स्नान करते हैं और मन्दिर में फूल आदि चढ़ाते हैं।

तालाबों के आस-पास के मन्दिर

इन तालाबों के आस-पास बहुत-से मन्दिर हैं। इनमें 'मुरली मनोहर', 'नीलकण्ठ महादेव', 'रामचन्द्रजी' और 'शंख-नारायण' के मन्दिर प्रमुख हैं।

शंख तालाब और शंख नारायण मंदिर 

रणछोड़ के मन्दिर से डेढ़ मील चलकर शंख-तालाब आता है। इस जगह भगवान कृष्ण ने शंख नामक राक्षस को मारा था। इसके किनारे पर शंख नारायण का मन्दिर है। शंख-तालाब में नहाकर शंख नारायण के दर्शन करने से बड़ा पुण्य होता है। शंख सरोवर तदनुसार विशाल प्रतीत होता है। इसके चारों ओर घाट तथा पौड़ियाँ बाँधी हुई हैं। जल वहां उड़ते पक्षियों की प्यास बुझाता रहा है। सरोवर के प्रवेश द्वार के समीप ही नीलकंठ का छोटा सा मंदिर था। इसका एक भाग प्राचीन तथा दूसरा भाग अपेक्षाकृत नवीन व जागृत था।

रणछोड़ तलाव

नकाशीदार प्रवेश पथ युक्त यह सरोवर भी छोटा नहीं था। इसकी निर्मिती, इस क्षेत्र के शासक अर्थात् बरोडा के गायकवाड वंश ने की थी।

सोना नी द्वारका (स्वर्ण द्वारका)

हाल ही में निर्मित सोना नी द्वारका (स्वर्ण द्वारका) बेट द्वारका के गौरवशाली अतीत को दर्शाता है। कहा जाता है कि इस पौराणिक शहर में खूबसूरत महल हैं जो आश्चर्यजनक उद्यानों और चौड़ी खुली सड़कों से अलग हैं जो उन्हें जोड़ती हैं। संग्रहालय उस समय के जीवन को दर्शाने का प्रयास करता है। महाभारत और भगवान कृष्ण के जीवन से दृश्यों का पुनर्निर्माण किया गया है।


हनुमान दंडी मंदिर

बेट द्वारका द्वीप पर पिता और पुत्र के मिलन को दर्शाता एक छोटा सा मंदिर मौजूद है। मंदिर के चारों ओर कई यज्ञ कुंड हैं और मंदिर के अंदर आपको पिता और पुत्र दोनों की मूर्तियाँ मिलेंगी।बेट द्वारका के हनुमान दंडी मंदिर में भगवान हनुमान और मकरध्वज की मूर्तियाँ स्थापित हैं; मकरध्वज हनुमान के पुत्र हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार, हनुमान जी के शरीर से पसीने की एक बूंद एक मछली ने पी ली थी, जिसने बाद में एक पुत्र को जन्म दिया जिसे मकरध्वज नाम दिया गया।सनातन धर्म में आस्था रखने वाले लोगों के लिए दांडी हनुमान मंदिर एक दर्शनीय स्थल है।यह बेट द्वारका के मुख्य श्री कृष्ण मंदिर से महज 5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। बेट- द्वारका के टापू का पूरब की तरफ ऊंचे टीले को हनुमानजी का टीला कहते है। परिसर में ही नारियल चढ़ाने और धूप द्वीप जलाने की भी व्यस्था है।इस मंदिर को कोई भी राजकीय संरक्षण प्राप्त नहीं है। बल्कि यह सदैव पूर्ण रूप से जनता का मंदिर रहा है। मंदिर के चारों ओर एक धर्मशाला अवश्य बाँध दी गयी है। मंदिर का भीतरी भाग अत्यंत छोटा है। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो यह कोई छोटा सा गुफा मंदिर हो। भीतर दो मूर्तियाँ दिखीं। एक मूर्ति हनुमानजी की थी जो धरती में समाती हुई प्रतीत होती है। दूसरी मूर्ति हनुमाजी के पुत्र मकरध्वज की है। अतः इसे पिता पुत्र का मंदिर कहा जाता है। यहाँ के निवासियों की मान्यता है कि यदि आप इस मंदिर में वास करते हनुमानजी को सुपारी अर्पण करें तो वे आपकी सर्व इच्छा पूर्ण करेंगे।

हनुमान दांडी समुद्र तट

हनुमान दंडी मंदिर के पास ही एक सुंदर समुद्र तट है जिसे हनुमान दांडी समुद्र तट कहा जाता है। मंदिर जाते समय आप इसे भी देख सकते हैं।यहां समंदर की लहरों और रेत का लुत्फ उठाया जा सकता है।  

चौरासी धुना 

भेंट द्वारका टापू में भगवान द्वारकाधीश के मंदिर से 7 कि॰मी॰ की दूरी पर और हनुमानजी महाराज से और आगे समुद्र तट पर चौरासी धुना नामक एक प्राचीन एवं एतिहासिक तीर्थ स्थल है। उदासीन संप्रदाय के सुप्रसिद्ध संत और प्रख्यात इतिहास लेखक, निर्वाण थडा तीर्थ, श्री पंचयाती अखाडा बड़ा उदासीन के पीठाधीश्वर श्री महंत रघुमुनी जी के अनुसार ब्रह्माजी के चारों मानसिक पुत्रो सनक, सनंदन, सनतकुमार और सनातन ने ब्रह्माजी की श्रृष्टि-संरचना की आज्ञा को न मानकर उदासीन संप्रदाय की स्थापना की और मृत्यु-लोक में विविध स्थानों पर भ्रमण करते हुए भेंट द्वारका में भी आये। उनके साथ उनके अनुयायियों के रूप में अस्सी (80)अन्य संत भी साथ थें। इस प्रकार चार सनतकुमार और 80 अनुयायी उदासीन संतो को जोड़कर 84 की संख्या पूर्ण होती है। इन्ही 84 आदि दिव्य उदासीन संतो ने यहाँ पर चौरासी धुने स्थापित कर साधना और तपस्चर्या की और ब्रह्माजी को एक एक धुने की एक लाख महिमा को बताया, तथा चौरासी धुनो के प्रति स्वरुप चौरासी लाख योनिया निर्मित करने का सांकेतिक उपदेश दिया। इस कारण से यह स्थान चौरासी धुना के नाम से जग में ख्यात हुआ।

      कालांतर में उदासीन संप्रदाय के अंतिम आचार्य जगतगुरु उदासिनाचार्य श्री चन्द्र भगवान इस स्थान पर आये और पुनः सनकादिक ऋषियों के द्वारा स्थापित चौरासी धुनो को जागृत कर पुनःप्रज्वलित किया और उदासीन संप्रदाय के एक तीर्थ के रूप में इसे महिमामंडित किया। यह स्थान आज भी उदासीन संप्रदाय के अधीन है और वहां पर उदासी संत निवास करते हैं। आने वाले यात्रियों, भक्तों एवं संतों की निवास, भोजन आदि की व्यवस्था भी निःशुल्क रूप से चौरासी धुना उदासीन आश्रम के द्वारा की जाती है। ऐसी अवधारणा है कि चौरासी धुनो के दर्शन करने से मनुष्य की लाख चौरासी कट जाती है, अर्थात उसे चौरासी लाख योनियों में भटकना नहीं पड़ता और वह मुक्त हो जाता है।

स्वामीनारायण मंदिर हनुमान डांडी, मीरा बाई चौक

स्वामीनारायण मंदिर बेट द्वारका में आवास प्रदान करता है। इस गेस्ट हाउस में एक बगीचा और निःशुल्क निजी पार्किंग है। निजी बाथरूम की सुविधा के साथ, गेस्ट हाउस की इकाइयों में निःशुल्क वाईफ़ाई भी है, जबकि चयनित कमरों में छत भी है।


केशवराईजी मंदिर निकट शंख सरोवर 

श्री केशवराईजी मंदिर भारत के गुजरात में बेट द्वारका द्वीप पर स्थित है। यह भगवान कृष्ण को समर्पित एक प्राचीन मंदिर है जिसे पुष्करना ब्राह्मण समुदाय द्वारा बनाया गया था। यह पवित्र झील "शंख सरोवर" के पास स्थित है जो बेट जेट्टी और द्वारकाधीश मंदिर से 1 किमी दूर है।यह बेट द्वारका में भगवान कृष्ण का मंदिर है। माना जाता है कि इस मंदिर की स्थापना वल्लभाचार्य ने की थी और यह लगभग 500 साल पुराना है। कहा जाता है कि यह मंदिर भगवान कृष्ण के बेट द्वारका स्थित निवास स्थान पर स्थित है और मंदिर की मूल मूर्ति भगवान कृष्ण की पत्नी देवी रुक्मणी द्वारा स्थापित की गई थी। यह मूर्ति द्वारकाधीश मंदिर की मूर्ति से काफी मिलती जुलती है । फर्क सिर्फ इतना है कि इस मंदिर में मूर्ति शंख को तिरछी स्थिति में पकड़े हुए है। इस मंदिर में चढ़ाया जाने वाला मुख्य प्रसाद 'चावल' है और यह निश्चित रूप से उस पौराणिक कथा की याद दिलाता है जिसमें बताया गया है कि कैसे सुदामा; भगवान कृष्ण के मित्र ने उन्हें उपहार के रूप में 'चावल' लाए थे।

जैन मंदिर

बेट द्वारका में जैन मंदिरों का एक समूह भी है, जहां 24 प्रसिद्ध जैन तीर्थंकरों को श्रद्धांजलि अर्पित की जा सकती है।


गुरुद्वारा भाई मोहाकम सिंहजी 

बेट द्वारका गुरुद्वारा की स्थापना भाई मोहकम सिंह ने की थी , जिनका जन्म यहीं हुआ था। संत गुरु गोविंद सिंह के पंच प्यारे में से एक थे और इसलिए, इस गुरुद्वारे को सिखों द्वारा बहुत पवित्र माना जाता है। यह सिख धर्म का पूजा स्थल है जो बेट द्वारका के बुधिया इलाके में स्थित है. इसका निर्माण साल 1999 में कराया गया था. हालांकि यहां सिखों की आबादी काफी कम है, फिर भी इस गुरुद्वारे की अहमियत काफी ज्यादा है।

फेरी राइड (नौका विहार)

जब भी आप बेट द्वारका आएं तो एक बार लोकल फेरी राइड जरूर लें, इसके जरिए आप कच्छ की खाड़ी में घूमने का लुत्फ उठा सकते हैं. अगर चाहें तो प्राइवेट बोट लेकर भी  समंदर घूम सकते हैं।

डनी प्वाइंट 

बेट के सबसे दक्षिण-पूर्वी छोर को डनी पॉइंट के नाम से जाना जाता है जो तीन तरफ से समुद्र से घिरा हुआ है। डन्नी पॉइंट भूमि की एक संकरी पट्टी है। यह समुद्र तट प्राचीन है और इसकी सतह से ही समुद्री जीवन को देखने के लिए एक आदर्श स्थान है।यह गुजरात में इकोटूरिज्म के लिए विकसित किया गया पहला स्थान है।डनी प्वाइंट बेट द्वारका का एक छिपा हुआ खजाना है, ये सी बीच नेचर लवर्स के लिए एक बेहतरीन जगह है जहां समंदर की लहरों की आवाज आपको बेहद सुकून देगी. बिना यहां आए इस आइलैंड का सफर अधूरा है।

अभय माता जी मंदिर बेट द्वारका 

यह बेट द्वारका द्वीप के सुदूर दक्षिणी कोने पर स्थित एक छोटा सा मंदिर है और यह देवी अभय माता का है।अभय माता मंदिर समुद्र तटों के करीब है ।

दरगाह

बेट द्वारका क्षेत्र में इस्लामी आस्था को दर्शाने वाली दो महत्वपूर्ण दरगाहें भी हैं। सिदी बावा पीर दरगाह और हाजी किरमई दरगाह बेट द्वारका में मुसलमानों के लिए दो पवित्र तीर्थस्थल है।

अन्य आकर्षण स्थलो की सूची 

ऊपर वर्णित स्थलों का अवलोकन करने के उपरान्त यादि समय हो तो इन धर्म स्थलों का भी अवलोकन किया जा सकता है- 

करोड़पति महादेव मन्दिर बेट द्वारका 

श्री मोमी माताजी मंदिरवेट द्वारका, 

रंडल माताजी मंदिर  द्वारकाधीश रोड, वेट द्वारका

आवड माताजी मंदिर वेट द्वारका 

गत्राद माता जी मंदिर बेट द्वारका 

जय भैरो नाथ मंदिर भेंट द्वारिकाधीश मंदिर रोड़, वेट द्वारका

श्री गोल्डन द्वारिका होली प्लेस

यह मुख्य द्वारकाधीष मंदिर से थोड़ी दूर पर स्थित है।

ढिंगेश्वर महादेव मन्दिर

 करोड़ पति महादेव मन्दिर से ऊपर की ओर,बेट द्वारका 

महादेव मंदिर, वेट द्वारका, गुजरात 

श्री हनुमान टेकरी, वेट द्वारका 

भूत्रय महादेव मंदिर

वेट द्वारका, गुजरात 

अभ्याय माता टेंपल,आराम्भादा मीठापुर ,बेट द्वारका

श्री महाप्रभुजी बैठक, वेट द्वारका, गुजरात 

क्योरिया राम जानकी मंदिर, रामानुज कोट वेट द्वारका 

आशापुरा माता मंदिर, वेट द्वारका, गुजरात 

घधेची माताजी मंदिर,ओखा, वेट द्वारका, गुजरात 

हनुमान-चट्टी, वेट द्वारका, गुजरात 


      आचार्य डा राधे श्याम द्विवेदी 

लेखक परिचय:-


(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।)