Saturday, May 4, 2024

मारीच: (राम के पूर्वज 03) आचार्य डॉ. राधे श्याम द्विवेदी

[ प्रिय सुहृदय पाठक गण,
मैने आज से दो साल पहले "राम के पूर्वज" नामक एक नई श्रृंखला की शुरुआत 22 मार्च 2022 को स्वयंभुव मनु और शतरूपा की कहानी ( राम के पूर्वज -1 ) किया था।
इसके बाद 23 मार्च 2022 को प्रियव्रत - उत्तानपाद की कहानी( राम के पूर्वज - 2 ) से चलते - चलते 29 मार्च 2022 को सत्यवादी हरिश्चंद्र की कहानी (राम के पूर्वज 14), 29 मार्च 2022 को ही रोहताश्व की कहानी (राम के पूर्वज 15) और 31 मार्च 2022 को राजा हरिश चंद्र के कमजोर वंशज (राम के पूर्वज 16) नामक लगभग 16 कड़ियां जोड़ा था। फिर कुछ बाह्य विचारों के आवेग ने इस श्रृंखला को विराम लगा कर अन्य विषयों को आगे कर दिया। बाद में पुनः अवलोकन करने पर कुछ छूटी हुई अन्य कड़ियों को समेटने का विचारआया।
       स्वयंभुव मनु और शतरूपा से पूर्व सृष्टि की उत्पत्ति (राम के पूर्वज 01)से लेकर ब्रह्मा ( राम के पूर्वज 02), मरीचि(राम के पूर्वज 03 ), कश्यप ( राम के पूर्वज 04), विवस्वान स्वमभू मनु ( राम के पूर्वज 05) और विष्णु के सातवें अवतार भगवान राम के कुल और उनकी वंश परंपरा (राम के पूर्वज 06 ) की छूटी हुई कुछ महत्व पूर्ण कड़ियां जोड़ने की पहल होनी है। राजा हरिश चंद्र के कमजोर वंशज (राम के पूर्वज 16) के बाद 17वीं से अगली कड़ियां पुनःशुरु होगीं । ]

          मारीच के बारे में उपलब्ध जानकारी:- 

मरीचि एक ऋषि हैं। वे ब्रह्मा के मानस पुत्र तथा सप्तर्षियों में से एक हैं। ये ब्रह्मा जी के मन से उत्पन्न हुए थे। मरीचि का शाब्दिक अर्थ चंद्रमा या सूर्य से आने वाली प्रकाश की किरण है , और मरीचि को मरुतों ('चमकदार') का प्रमुख होना था। गीता के अनुसार मरीचि वायु है और कश्यप ऋषि के पिता हैं। इनका विवाह दक्ष प्रजापति की पुत्री सम्भूति के साथ हुआ था। इन्हें मरीचि या मारिषि के नाम से भी जाना जाता है। इनको ब्रह्मा के पुत्रों में से एक कहा जाता है। प्रकाश की किरण के संदर्भ में, ऋषि मरीचि को सप्तर्षियों में से एक माना जाता है, जिन्हें प्रथम मन्वंतर में सात महान ऋषियों के रूप में भी जाना जाता है। 

द्वितीय ब्रह्मा :

महर्षि मरीचि ब्रह्मा के अन्यतम एक प्रधान प्रजापति हैं। इन्हें द्वितीय ब्रह्मा ही कहा गया है। ऋषि मरीचि पहले मन्वंतर के पहले सप्तऋषियों की सूची के पहले ऋषि है। यह दक्ष के दामाद और शंकर के साढू भी थे। इनकी पत्नि दक्ष- कन्या संभूति थी। इनकी दो और पत्निनयां थी- कला और उर्णा। संभवत: उर्णा को ही धर्मव्रता भी कहा जाता है जो एक ब्राह्मण कन्या थी। दक्ष के यज्ञ में मरीचि ने भी शंकर जी का अपमान किया था। इस पर शंकर जी ने इन्हें भस्म कर डाला था।

चित्रशिखण्डी:- 

इन्होंने ही भृगु को दण्डनीति की शिक्षा दी है। ये सुमेरु के एक शिखर पर निवास करते हैं और महाभारत में इन्हें चित्रशिखण्डी कहा गया है। ब्रह्मा ने पुष्करक्षेत्र में जो यज्ञ किया था उसमें ये अच्छावाक् पद पर नियुक्त हुए थे। दस हजार श्लोकों से युक्त ब्रह्मपुराण का दान पहले-पहल ब्रह्मा ने इन्हीं को किया था। वेद और पुराणों में इनके चरित्र का चर्चा मिलती है।

 अन्य प्रमुख कार्य :- 

मारीचि का जीवन उनके वंशजों के विवरण से अधिक जाना जाता है, विशेष रूप से ऋषि कश्यप से। मारीचि का विवाह कला से हुआ और उन्होंने कश्यप को जन्म दिया था 
 कश्यप की माता 'कला' कर्दम ऋषि की पुत्री और ऋषि कपिल देव की बहन थी। कश्यप को कभी-कभी प्रजापति के रूप में भी स्वीकार किया जाता है, जिसे अपने पिता से सृजन का अधिकार विरासत में मिला था। माना जाता है कि वह हिंदू भगवान विष्णु की निरंतर ऊर्जा से बने हैं। माना जाता है कि उन्होंने ब्रह्मा की तपस्या पुष्कर में की थी। माना जाता है कि वे नारद मुनि के साथ, महाभारत के दौरान भीष्म को मिलने गए थे, जब वह तीर बिस्तर पर लेटे थे। मारीचि को तपस्या करने के लिए युवा महाराजा ध्रुव के सलाहकार के रूप में भी उद्धृत किया गया है। उनका नाम कई हिंदू धर्मग्रंथों जैसे ब्रह्मांड पुराण और वेदों में भी पाया जाता है।
                    आचार्य डा. राधे श्याम द्विवेदी 

लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल ,आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।) 


Friday, May 3, 2024

ब्रह्मा जी : (राम के पूर्वज 02) आचार्य डॉ. राधे श्याम द्विवेदी


[ प्रिय सुहृदय पाठक गण,
मैने आज से दो साल पहले "राम के पूर्वज" नामक एक नई श्रृंखला की शुरुआत 22 मार्च 2022 को स्वयंभुव मनु और शतरूपा की कहानी ( राम के पूर्वज -1 ) किया था।
इसके बाद 23 मार्च 2022 को प्रियव्रत - उत्तानपाद की कहानी( राम के पूर्वज - 2 ) से चलते - चलते 29 मार्च 2022 को सत्यवादी हरिश्चंद्र की कहानी (राम के पूर्वज 14), 29 मार्च 2022 को ही रोहताश्व की कहानी (राम के पूर्वज 15) और 31 मार्च 2022 को राजा हरिश चंद्र के कमजोर वंशज (राम के पूर्वज 16) नामक लगभग 16 कड़ियां जोड़ा था। फिर कुछ बाह्य विचारों के आवेग ने इस श्रृंखला को विराम लगा कर अन्य विषयों को आगे कर दिया। बाद में पुनः अवलोकन करने पर कुछ छूटी हुई अन्य कड़ियों को समेटने का विचारआया।
       स्वयंभुव मनु और शतरूपा से पूर्व सृष्टि की उत्पत्ति (राम के पूर्वज 01)से लेकर ब्रह्मा ( राम के पूर्वज 02), मरीचि(राम के पूर्वज 03 ), कश्यप ( राम के पूर्वज 04), विवस्वान स्वमभू मनु ( राम के पूर्वज 05) और विष्णु के सातवें अवतार भगवान राम के कुल और उनकी वंश परंपरा (राम के पूर्वज 06 ) की छूटी हुई कुछ महत्व पूर्ण कड़ियां जोड़ने की पहल होनी है। राजा हरिश चंद्र के कमजोर वंशज (राम के पूर्वज 16) के बाद 17वीं से अगली कड़ियां पुनःशुरु होगीं । ]


ब्रह्म देव जी की उत्पत्ति :- 

भारतीय दर्शन शास्त्र में ब्रह्मा जी का नाम के पीछे निर्गुण निराकार और सर्वव्यापी चेतन शक्ति के लिए ‘ब्रह्मा’ शब्द का प्रयोग बताया गया है। सभी गुणों से पूर्ण होने के कारण उन्हें ब्रह्मा नाम से पुकारा जाता है। शिवपुराण के अनुसार ब्रह्माजी अपने पुत्र नारदजी से कहते हैं कि विष्णु को उत्पन्न करने के बाद सदाशिव और शक्ति ने पूर्ववत प्रयत्न करके मुझे (ब्रह्माजी को) अपने दाहिने अंग से उत्पन्न किया और तुरंत ही मुझे विष्णु के नाभि कमल में डाल दिया। इस प्रकार उस कमल से पुत्र के रूप में मुझ हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा) का जन्म हुआ। इसी से माना जाने लगा कि सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी की उत्पत्ति नाभि से हुई थी। जब इनकी उत्पत्ति हुई को उन्होंने चारों ओर देखा जिसकी वजह से उनके चार मुख हो गए। ये चारो वेद के प्रतीक हैं।शुरू में उनके पांच सिर थे, जिनमें से एक को शिव जी ने क्रोध में आकर काट दिया था। पांचवा मुख भगवान शिव ने भैरव रूप में काट दिया क्योंकि ब्रह्मा जी द्वारा असत्य बोला गया था तब भैरव को ब्रह्महत्या का दोष भी लगा था यह मुख भैरव से काशी में गिरा और आज वहाँ कपाल मोचन भैरव का मंदिर है।
           ब्रह्मा ने सृजन के दौरान ही एक चौंकाने और बेहद ही सुंदर महिला को बनाया था। हालांकि, उनकी यह रचना इतनी सुंदर थी कि वे उसकी सुंदरता से मुग्ध हो गये और ब्र्ह्मा उसे अपनाने की कोशिश करने लगे। ब्रह्मा जी अपने द्वारा उत्पन्न सतरूपा के प्रति आकृष्ट हो गए तथा उन्हें टकटकी बांध कर निहारने लगे। सतरूपा ने ब्रह्मा की दृष्टि से बचने की हर कोशिश की किंतु असफल रहीं। कहा तो ये भी जाता है कि सतरूपा में हजारों जानवरों में बदल जाने की शक्ति थी और उन्होंने ब्रह्मा जी से बचने के लिए ऐसा किया भी, लेकिन ब्रह्मा जी ने जानवर रूप में भी उन्हें परेशान करना नहीं छोड़ा. इसके अलावा ब्रह्मा जी की नज़र से बचने के लिए सतरूपा ऊपर की ओर देखने लगीं, तो ब्रह्मा जी अपना एक सिर ऊपर की ओर विकसित कर दिया जिससे सतरूपा की हर कोशिश नाकाम हो गई। भगवान शिव ब्रह्मा जी की इस हरकत को देख रहे थे। शिव की दृष्टि में सतरूपा ब्रह्मा की पुत्री सदृश थीं, इसीलिए उन्हें यह घोर पाप लगा। इससे क्रुद्ध होकर शिव जी ने ब्रह्मा का सिर काट डाला ताकि सतरूपा को ब्रह्मा जी की कुदृष्टि से बचाया जा सके।

ब्रह्माजी द्वारा सृष्टि का विधान :- 

मेदिनी की सृष्टि :- 
भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञानुसार ब्रह्माजी ने सबसे पहले मधु और कैटभ के मेदे से मेदिनी की सृष्टि की। ब्रह्माजी ने आठ प्रधान पर्वत (सुमेरु, कैलास, मलय, हिमालय, उदयाचल, अस्ताचल, सुवेल और गन्धमादन) और अनेकों छोटे-छोटे पर्वत बनाए। फिर ब्रह्माजी ने सात समुद्रों (क्षारोद, इक्षुरसोद, सुरोद, घृत, दधि तथा सुस्वादु जल से भरे हुए समुद्र) की सृष्टि की व अनेकानेक नदियों, गांवों, नगरों व असंख्य वृक्षों की रचना की। सात समुद्रों से घिरे सात द्वीप (जम्बूद्वीप, शाकद्वीप, कुशद्वीप, प्लक्षद्वीप, क्रौंचद्वीप, न्यग्रोधद्वीप तथा पुष्करद्वीप) का निर्माण किया। इसमें उनचास उपद्वीप हैं।

चौदह भुवनों की रचना :- 

तदनन्तर ब्रह्माजी ने उस पर्वत के ऊपर सात स्वर्गों (भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपोलोक तथा सत्यलोक) की सृष्टि की। पृथ्वी के ऊपर भूर्लोक, उसके बाद भुवर्लोक, उसके ऊपर स्वर्लोक, तत्पश्चात् जनलोक, फिर तपोलोक और उसके आगे सत्यलोक है। मेरु के सबसे ऊपरी शिखर पर स्वर्ण की आभा वाला ब्रह्मलोक है, उससे ऊपर ध्रुवलोक है। मेरुपर्वत के नीचे सात पाताल (अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, पाताल तथा रसातल) हैं जो एक से दूसरे के नीचे स्थित हैं, सबसे नीचे रसातल है। सात द्वीप, सात स्वर्ग तथा सात पाताल सहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ब्रह्माजी के अधिकार में है। ऐसे-ऐसे असंख्य ब्रह्माण्ड हैं और वे महाविष्णु के रोमकूपों में स्थित हैं। श्रीकृष्ण की माया से प्रत्येक ब्रह्माण्ड में अलग-अलग दिक्पाल, ब्रह्मा, विष्णु व महेश, देवता, ग्रह, नक्षत्र, मनुष्य आदि स्थित हैं। पृथ्वी पर चार वर्ण के लोग और उसके नीचे पाताललोक में नाग रहते हैं। पाताल से ब्रह्मलोकपर्यन्त ब्रह्माण्ड कहा गया है। उसके ऊपर वैकुण्ठलोक है; वह ब्रह्माण्ड से बाहर है। उसके ऊपर पचास करोड़ योजन विस्तार वाला गोलोक है। कृत्रिम विश्व व उसके भीतर रहने वाली जो वस्तुएं हैं वे अनित्य हैं। वैकुण्ठ, शिवलोक और गोलोक ही नित्यधाम हैं।

मानवी-सृष्टि की रचना :- 

भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा लेकर ब्रह्माजी ने मानवी-सृष्टि की रचना की । ब्रह्मा जी ने आदि देव भगवान की खोज करने के लिए कमल की नाल के छिद्र में प्रवेश कर जल में अंत तक ढूंढा। परंतु भगवान उन्हें कहीं भी नहीं मिले। ब्रह्मा जी ने अपने अधिष्ठान भगवान को खोजने में सौ वर्ष व्यतीत कर दिये। अंत में ब्रह्मा जी ने समाधि ले ली। इस समाधि द्वारा उन्होंने अपने अधिष्ठान को अपने अंतःकरण में प्रकाशित होते देखा। शेष जी की शैय्या पर पुरुषोत्तम भगवान अकेले लेटे हुए दिखाई दिये। ब्रह्मा जी ने पुरुषो त्तम भगवान से सृष्टि रचना का आदेश प्राप्त किया और कमल के छिद्र से बाहर निकल कर कमल कोष पर विराजमान हो गये। इसके बाद संसार की रचना पर विचार करने लगे।

अनेक ऋषियों महर्षियों का निर्माण :- 2

ब्रह्मा जी ने उस कमल कोष के तीन विभाग भूः भुवः स्वः किये। ब्रह्मा जी ने सृष्टि रचने का दृढ़ संकल्प लिया और उनके मन से मरीचि, नेत्रों से अत्रि, मुख से अंगिरा, कान से, पुलस्त्य, नाभि से पुलह, हाथ से कृतु, त्वचा से भृगु, प्राण से वशिष्ठ, अंगूठे से दक्ष तथा गोद से नारद उत्पन्न हुये। इसी प्रकार उनके दायें स्तन से धर्म, पीठ से अधर्म, हृदय से काम, दोनों भौंहों से क्रोध, मुख से सरस्वती, नीचे के ओंठ से लोभ, लिंग से समुद्र तथा छाया से कर्दम ऋषि प्रकट हुये। इस प्रकार यह सम्पूर्ण जगत ब्रह्मा जी के मन और शरीर से उत्पन्न हुये। एक बार ब्रह्मा जी ने एक घटना से लज्जित होकर अपना शरीर त्याग दिया। उनके उस त्यागे हुये शरीर को दिशाओं ने कुहरा और अन्धकार के रूप में ग्रहण कर लिया।

वेद उपवेदो का विधान:- 

इसके बाद ब्रह्मा जी के पूर्व वाले मुख से ऋग्वेद, दक्षिण वाले मुख से यजुर्वेद, पश्चिम वाले मुख से सामवेद और उत्तर वाले मुख से अथर्ववेद की ऋचाएँ निकलीं। तत्पश्चात ब्रह्मा जी ने आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्ववेद और स्थापत्व आदि उप-वेदों की रचना की। उन्होंने अपने मुख से इतिहास पुराण उत्पन्न किया और फिर योग विद्या, दान, तप, सत्य, धर्म आदि की रचना की। उनके हृदय से ओंकार, अन्य अंगों से वर्ण, स्वर, छन्द आदि तथा क्रीड़ा से सात सुर प्रकट हुये।

कायिक सृष्टि का विधान:- 

पुराणों में ब्रह्मा-पुत्रों को 'ब्रह्म आत्मा वै जायते पुत्र:' ही कहा गया है। ब्रह्मा ने सर्वप्रथम जिन चार-सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार पुत्रों का सृजन किया उनकी सृष्टि रचना के कार्य में कोई रुचि नहीं थी वे ब्रह्मचर्य रहकर ब्रह्म तत्व को जानने में ही मगन रहते थे। इन वीतराग पुत्रों के इस निरपेक्ष व्यवहार पर ब्रह्मा को महान क्रोध उत्पन्न हुआ। ब्रह्मा के उस क्रोध से एक प्रचंड ज्योति ने जन्म लिया। उस समय क्रोध से जलते ब्रह्मा के मस्तक से अर्धनारीश्वर रुद्र उत्पन्न हुआ। ब्रह्मा ने उस अर्ध-नारीश्वर रुद्र को स्त्री और पुरुष दो भागों में विभक्त कर दिया। पुरुष का नाम 'का' और स्त्री का नाम 'या' रखा। उन्हीं दो भागों में से एक से पुरुष तथा दूसरे से स्त्री की उत्पत्ति हुई। पुरुष का नाम मनु और स्त्री का नाम शतरूपा था। मनु और शतरूपा ने मानव संसार की शुरुआत की।

               आचार्य डा. राधे श्याम द्विवेदी 

लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल ,आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।) 


Thursday, May 2, 2024

सृष्टि की रचना (राम के पूर्वज 01) आचार्य डॉ. राधे श्याम द्विवेदी


[ प्रिय सुहृदय पाठक गण,
मैने आज से दो साल पहले "राम के पूर्वज" नामक एक नई श्रृंखला की शुरुआत 22 मार्च 2022 को स्वयंभुव मनु और शतरूपा की कहानी ( राम के पूर्वज -1 ) किया था।
इसके बाद 23 मार्च 2022 को प्रियव्रत - उत्तानपाद की कहानी( राम के पूर्वज - 2 ) से चलते - चलते 29 मार्च 2022 को सत्यवादी हरिश्चंद्र की कहानी (राम के पूर्वज 14), 29 मार्च 2022 को ही रोहताश्व की कहानी (राम के पूर्वज 15) और 31 मार्च 2022 को राजा हरिश चंद्र के कमजोर वंशज (राम के पूर्वज 16) नामक लगभग 16 कड़ियां जोड़ा था। फिर कुछ बाह्य विचारों के आवेग ने इस श्रृंखला को विराम लगा कर अन्य विषयों को आगे कर दिया। बाद में पुनः अवलोकन करने पर कुछ छूटी हुई अन्य कड़ियों को समेटने का विचारआया।
       स्वयंभुव मनु और शतरूपा से पूर्व सृष्टि की उत्पत्ति (राम के पूर्वज 01)से लेकर ब्रह्मा ( राम के पूर्वज 02), मरीचि(राम के पूर्वज 03 ), कश्यप ( राम के पूर्वज 04), विवस्वान स्वमभू मनु ( राम के पूर्वज 05) और विष्णु के सातवें अवतार भगवान राम के कुल और उनकी वंश परंपरा (राम के पूर्वज 06 ) की छूटी हुई कुछ महत्व पूर्ण कड़ियां जोड़ने की पहल होनी है। राजा हरिश चंद्र के कमजोर वंशज (राम के पूर्वज 16) के बाद 17वीं से अगली कड़ियां पुनःशुरु होगीं । ]

सृष्टि की रचना कब और कैसे हुई थी:- 

सृष्टि की रचना का सर्वाधिक प्राचीन विवरण ऋग्वेद के दसवें मंडल में १२९ वां नासदीय सुक्त के रूप में मिलता है यथा:
नासदासीन्नो सदासात्तदानीं ,
नासिद्रोजो नोव्योमा परोव्यत्।
किमावरिव: कुहकस्य शर्मनम्भः
किमासद् गहनंगभीरम्।।

         सृष्टि की उत्पत्ति से पहले सत् तत्व भी नहीं था और असत् भी नहीं। अर्थात भाव भी नहीं था और अभाव भी नहीं था। न अंतरीक्ष, आकाश, त्रिलोक कुछ भी नहीं था। न मृत्यु थी ना अमरत्व था, न दिन था न रात्रि थी। उस समय केवल ब्रह्म ही था,वो भी सुप्तावस्था में था। माया भी उसमें ही विलीन थी। उस ब्रह्म के मन में एक से अनेक होने का भाव उत्पन्न हुआ- 
"एको अहं बहुस्याम"।
"स: अकामयत प्रजायेय बहुस्याम इति"। 
(तैत्तिरीय आरण्यक।)

सृष्टि की रचना करने का मुख्य कारण 'सृष्टा' का "एकाकीपन" ही था। सर्वप्रथम सृष्टिकर्ता के मन में 'काम' की उत्पत्ति हुई। यदि सृष्टा भी एकाकीपन से ग्रस्त हो सकता है तो हम तो मानव मात्र हैं। यदि सृष्टिकर्ता भी काम की कामना कर सकता है तो हम तो साधारण मनुष्य ही हैं।

"कामस्तेदग्रे समवर्ततेताधि मनसो रेत: प्रथमं यदासीत्"।
सतोबन्धुमसति निरविंदन्हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा।।४।। (ऋग्वेद नास. सुक्त)

सबसे पहले सृष्टा को 'कामना' हुई सृष्टि की रचना की,जो कि सृष्टि की उत्पत्ति का पहला बीज था। इस तरह रचियता ने विचार कर सत् और असत् अस्तित्व और अनस्तित्व के भेद को समाप्त किया।

"को अद्धा वेद क इह प्र च वोच्तकुत आजाता कुत इयं विसृष्टि।
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव।।६।।

अभी कौन निश्चित तौर पर कह सकता है कि कब और कैसे सृष्टि की रचना हुई? क्योंकि देवता भी सृष्टि के उत्पत्ति के बाद आये है। अतः ये देवगण भी सृष्टि के बारे में निश्चित तौर पर कुछ नहीं कह सकते हैं। 
यो अस्याध्यक्ष: परमे व्योमन्त्सो अंग वेद यदि वा न वेद ।।७।।
वह परमात्मा ही इस विषय को जानता है उसके अतिरिक्त और⁸ कोई नहीं जानता।
एको अहं बहुस्याम। 

ब्रह्म,जीव और माया अनादि काल से अस्तित्व में :- 

ऋग्वेद कहता है कि तीन चीजें सदा से हैं— ब्रह्म,जीव और माया अर्थात कोई किसी का रचयिता नही है, यह तीनों अनादि हैं। उसका कारण यह है कि तीनों एक ही हैं। परमात्मा का प्रकट रूप माया अर्थात सृष्टि है और सृष्टि का अदृश्य रूप परमात्मा है। वही परमात्मा कहीं आकार है, कहीं आकाश की तरह निराकार है और कहीं आकार और निराकार दोनों के मिलन से जीवन के रूप में प्रकट है। सरल शब्दों में इस अस्तित्व के अलावा कोई परमात्मा नही है। यह स्वयं चैतन्य है, स्वयं परमात्मा है।

सृष्टि की क्रमिक रचना :- 

पृथ्वी की उत्पत्ति के बाद और इसमें जीवन मिलने के बाद सर्वप्रथम समुद्री जीव ने जन्म लिया यह देश विदेश के वैज्ञानिकों के द्वारा प्रमाणित है और सनातन शास्त्रों में भगवान विष्णु के 10 मुख्य अवतार बताए गए हैं जिस विषय में एक श्लोक आता हैः-

मत्स्य कूर्मो वराहश्च नारसिंहोऽथ वामनः।
रामो रामश्च कृष्णश्च बुद्धः कल्किश्च ते दशा:॥

इस श्लोक के माध्यम से बताया गया है कि भगवान का सबसे पहला अवतार मत्स्य अर्थात् मछली के रूप में हुआ था और दूसरा कछुआ, तीसरा सुवर, चौथा नरसिंह, पांचवा वामन, छठा परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध और कल्कि (जो कि भविष्य के अवतार हैं।)।   
       अधिकतर लोग ये तो जानते हैं कि भगवान अवतार सृष्टि की उत्पत्ति और उसमें हमेसा धर्म, सत्य की स्थापना के लिए लेते हैं। कुछ दार्शनिकों का मानना ये भी है कि समस्त ज्ञान भगवान से ही उद्धृत हुआ है तो उनके अवतारों में छिपे ज्ञान को और सृष्टि उत्पत्ति के विषय को समझना होगा।

मछली से चला जीवन :- 

सर्वप्रथम तो हम इस बात पर जोर देते हुए समझते हैं कि आज के विज्ञान का मानना है कि जगत का पहला जीव समुद्र या पानी में पैदा हुआ, तो भगवान विष्णु का सबसे प्रथम अवतार मछली के रूप में हुआ और मछली के रूप में अवतार लेकर सृष्टि के उद्भव का आरंभ हुआ। अर्थात् सनातन ग्रंथों के आधार पर वैज्ञानिकों की आज की खोज को भी पीछे ले जाया जा सकता है। अतः मछली के रूप में सृष्टि के उद्भव का आरंभ हुआ। जब केवल जल ही था तो भगवान ने मछली का अवतार लिया और जब धीरे-धीरे जल की मात्रा कम होने लगी और भूमी बढ़ने लगी तो भगवान ने जल और भूमि दोनो में रहने वाले कछुआ का अवतार लिया और जल भूमि के मिश्रण से कीचड़ आदि होने पर भगवान विष्णु ने सुवर का अवतार लेकर सृष्टि को अनुकूल स्थिति के अनुसार रहना सिखाया। और सांसारिकता के समझ का स्तर बढ़ाने के लिए सृष्टि में विकास के लिए अवतार लिया।

मनुष्य और जानवरो के रूप में अवतार:- 

इसके बाद भगवान ने मनुष्य और जानवरो के रूप में अवतार लेना शुरु कर दिया ताकि सृष्टि का संतुलन बना रहे, यहीं तक थी सृष्टि की उत्पत्ति विषयक विकास की कहानी लेकिन उसके बाद भगवान ने सृष्टि में विकास के लिए अवतार लिया और उसका सबसे बड़ा उदाहरण है वामन अवतार जिसमें भगवान ने मनुष्य की शारीरिक स्थिति को निश्चित कर दिया और जीवन जीने की परंपरा में दान की परंपरा को भी विकसित किया।
   उसके बाद भगवान ने मनुष्य का विकास करते हुए अपने अवतार को आधार बनाकर मनुष्य को जंगल से समतल भूमि की ओर लेकर आए जो कि भगवान परशुराम ने किया। भगवान ने अपने इन अवतारों से सृष्टि का संतुलन बना दिया था अब समस्त सृष्टि को अनुशासन, प्रेम, मर्यादा, संस्कार और परंपरा तथा धर्म की शिक्षा संसार तक पहुंचाने के लिए भगवान ने मर्यादा पुरुषोत्तम राम के रुप में अवतार लिया और समस्त सृष्टि में केवल प्रेम और मर्यादा ही बची तब भगवान ने श्रीकृष्ण अवतार लेकर कूटनीति और जैसे को तैसा व्यवहार भी संसार को सिखाया।
          तैत्तिरीयोपनिषद् (२।६) में कहा गया है कि उस परमेश्वर ने विचार किया कि मैं प्रकट हो जाऊँ (अनेक नाम-रूप धारणकर बहुत हो जाऊँ), इस स्थिति में एक ही परमात्मा अनेक नाम-रूप धारणकर सृष्टि की रचना करते हैं। श्रीमद्भागवत (४।७।५०) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं–’मैं ही सम्पूर्ण सृष्टि की रचना करता हूँ। मैं ही उसका मूल कारण हूँ।’ मैं यहां आपको ब्रह्मवैवर्तपुराण में दिए गए सृष्टि रचना के प्रसंग का वर्णन कर रही हूँ—

सृष्टि के बीजरूप परमात्मा श्रीकृष्ण:- 

ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त समस्त चराचर जगत–जो प्राकृतिक सृष्टि है, वह सब नश्वर है। तीनों लोकों के ऊपर जो गोलोकधाम है, वह नित्य है। गोलोक में अन्दर अत्यन्त मनोहर ज्योति है। वह ज्योति ही परात्पर ब्रह्म है। वे परमब्रह्म अपनी इच्छाशक्ति से सम्पन्न होने के कारण साकार और निराकार दोनों रूपों में अवस्थित रहते हैं। परमात्मा श्रीकृष्ण ही सर्वप्रपंच के स्त्रष्टा तथा सृष्टि के एकमात्र बीजस्वरूप हैं।

परमात्मा श्रीकृष्ण से नारायण, शिव, ब्रह्मा, धर्म, सरस्वती आदि देवी-देवताओं का प्रादुर्भाव:- 

प्रलयकाल में भगवान श्रीकृष्ण ने दिशाओं, आकाश के साथ सम्पूर्ण जगत को शून्यमय देखा। न कहीं जल, न वायु, न ही कोई जीव-जन्तु, न वृक्ष, न पर्वत, न समुद्र, बस घोर अन्धकार ही अन्धकार। सारा आकाश वायु से रहित और घोर अंधकार से भरा विकृताकार दिखाई दे रहा था। वे भगवान श्रीकृष्ण अकेले थे। तब उन स्वेच्छामय प्रभु में सृष्टि की इच्छा हुई और उन्होंने स्वेच्छा से ही सृष्टिरचना आरम्भ की। सबसे पहले परम पुरुष श्रीकृष्ण के दक्षिणभाग से जगत के कारण रूप तीन गुण प्रकट हुए। उन गुणों से महतत्त्व, अंहकार, पांच तन्मात्राएं, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द प्रकट हुए। इसके बाद श्रीकृष्ण से साक्षात् भगवान नारायण का प्रदुर्भाव हुआ जो शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी चतुर्भुज, वनमाला से विभूषित व पीताम्बरधारी थे। इसके बाद श्रीकृष्ण के वामभाग से स्फटिक के समान अंगकान्ति वाले, पंचमुखी, त्रिनेत्रवाले, जटाजूटधारी, हाथों में त्रिशूल व जपमाला लिए व बाघम्बर पहने भगवान शिव प्रकट हुए। श्रीकृष्ण के नाभिकमल से ब्रह्माजी प्रकट हुए। उनके श्वेत वस्त्र व केश थे, कमण्डलुधारी, चार मुख वाले, वेदों को धारण व प्रकट करने वाले हैं। वे ही स्त्रष्टा व विधाता हैं। इसके बाद परमात्मा श्रीकृष्ण के वक्ष:स्थल से श्वेत वर्ण के जटाधारी ‘धर्म’ प्रकट हुए। वह सबके साक्षी व सबके समस्त कर्मों के दृष्टा थे। फिर धर्म के ही वामभाग से ‘मूर्ति’ नामक कन्या प्रकट हुई।
       तदनन्तर परमात्मा श्रीकृष्ण के मुख से शुक्लवर्णा, वीणा-पुस्तकधारिणी, वाणी की अधिष्ठात्री, कवियों की इष्टदेवी, शान्तरूपिणी सरस्वती प्रकट हुईं। फिर परमात्मा श्रीकृष्ण के मन से गौरवर्णा, सम्पूर्ण ऐश्वर्यों की अधिष्ठात्री, फलरूप से सम्पूर्ण सम्पत्तियां प्रदान करने वाली स्वर्गलक्ष्मी प्रकट हुईं। वे राजाओं में राजलक्ष्मी, गृहस्थ मनुष्यों में गृहलक्ष्मी और सभी प्राणियों तथा पदार्थों में शोभारूप से विराजमान रहती हैं।
        तदनन्तर परमात्मा श्रीकृष्ण की बुद्धि से मूल प्रकृति का प्रादुर्भाव हुआ। वे लाल रंग की साड़ी पहने हुए थीं व रत्नाभरण से भूषित व सहस्त्रों भुजाओं वाली थीं। वे निद्रा, तृष्णा, क्षुधा-पिपासा (भूख-प्यास), दया, श्रद्धा, बुद्धि, लज्जा, तुष्टि, पुष्टि, भ्रान्ति, कान्ति और क्षमा आदि देवियों की व समस्त शक्तियों की अधिष्ठात्री देवी हैं। उन्हीं को दुर्गा कहा गया है।
       भगवान श्रीकृष्ण की जिह्वा के अग्रभाग से स्फटिक के समान वर्ण वाली, सफेद साड़ी व आभूषण पहने, हाथ में जपमाला लिए सावित्री देवी प्रकट हुईं। फिर श्रीकृष्ण के मानस से सुवर्ण के समान कांतिमान, पुष्पमय धनुष व पांच बाण लिए कामियों के मन को मथने वाले मन्मथ(कामदेव) प्रकट हुए। कामदेव के पांच बाण हैं–मारण, स्तम्भन, जृम्भन, शोषण और उन्मादन। कामदेव के वामभाग से परम सुन्दरी ‘रति’ प्रकट हुईं।
       कामदेव के बाणों से ब्रह्माजी की कामाग्नि प्रदीप्त हो गयी जिससे अग्नि प्रकट हुई। उस अग्नि को शान्त करने के लिए भगवान ने ‘जल’ की रचना की और अपने मुख से जल की एक-एक बूंद गिराने लगे। तभी से जल के द्वारा आग बुझने लगी। उस बिन्दुमात्र जल से सारे जगत में जल प्रकट हो गया और उसी से जल के व सभी जल-जन्तुओं के देवता ‘वरुण देव’ प्रकट हुए और अग्नि से ‘अग्निदेव’ प्रकट हुए। अग्निदेव के वामभाग से उनकी पत्नी ‘स्वाहा’ प्रकट हुईं। वरुणदेव के वामभाग से ‘वरुणानी’ प्रकट हुईं। भगवान श्रीकृष्ण की नि:श्वास वायु से ‘पवन’ का प्रादुर्भाव हुआ जो सभी मनुष्यों के प्राण हैं। वायुदेव के वामभाग से उनकी पत्नी ‘वायवी’प्रकट हुईं।     
         इन सबकी सृष्टि करके भगवान सभी देवी-देवताओं के साथ रासमण्डल में आए। उस रासमण्डल का दर्शन कर सभी लोग आश्चर्यचकित हो गए। वहां श्रीकृष्ण के वामभाग से कन्या प्रकट हुई, जिसने दौड़कर फूल ले आकर भगवान के चरणों में अर्घ्य प्रदान किया। क्योंकि ये रासमण्डल में धावन कर (दौड़कर) पहुंचीं अत: इनका नाम ‘राधा’ हुआ। उन किशोरी के रोमकूपों से लाखों गोपांगनाओं का आविर्भाव हुआ जो रूप और वेष में उन्हीं के समान थीं तथा गोलोक में उनकी प्रिय दासियों के रूप में रहती थी। फिर श्रीकृष्ण के रोमकूपों से तीस करोड़ गोपगणों का आविर्भाव हुआ जो रूप और वेष में उन्हीं के समान थे। वे सभी परमेश्वर श्रीकृष्ण के प्राणों के समान प्रिय पार्षद बन गए। फिर श्रीकृष्ण के रोमकूपों से गौएं, बलीवर्द (सांड़), बछड़े व कामधेनु प्रकट हुईं।
        भगवान श्रीकृष्ण के गुह्यदेश से ‘कुबेर’ व ‘गुह्यक’ प्रकट हुए। कुबेर के वामभाग से उनकी पत्नी प्रकट हुईं। भगवान के गुह्यदेश से ही भूत, प्रेत, पिशाच, कूष्माण्ड, ब्रह्मराक्षस आदि प्रकट हुए। तदनन्तर भगवान के मुख से शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी पार्षद प्रकट हुए जिन्हें उन्होंने नारायण को सौंप दिया। गुह्यकों को उनके स्वामी कुबेर को और भूत-प्रेत आदि भगवान शंकर को अर्पित कर दिए। तदनन्तर श्रीकृष्ण के चरणारविन्दों से हाथों में जपमाला लिए पार्षद प्रकट हुए। श्रीकृष्ण ने उन्हें दास्यकर्ममें लगा दिया। वे सभी श्रीकृष्णपरायण ‘वैष्णव’ थे।
    इसके बाद भगवान के दाहिने नेत्र से तीन नेत्रों वाले, विशालकाय, दिगम्बर, हाथों में त्रिशूल और पट्टिश लिए, भयंकर गण प्रकट हुए जो ‘भैरव’ कहलाए। परमात्मा श्रीकृष्ण के बांये नेत्र से दिक्पालों के स्वामी ‘ईशान’ प्रकट हुए। इसके बाद श्रीकृष्ण की नासिका के छिद्र से डाकिनियां, योगिनियां, क्षेत्रपाल व पृष्ठदेश (पीठ) से विभिन्न देवताओं का प्रादुर्भाव हुआ।

                     आचार्य डॉ राधे श्याम द्विवेदी 

लेखक परिचय:-

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल ,आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।) 







Tuesday, April 30, 2024

पंडित मोहन प्यारे द्विवेदी 'मोहन' द्वारा "मोहन मोहनी" से संकलित कुछ चुनिंदा भजन

आशुकवि आचार्य पंडित मोहन प्यारे द्विवेदी का संक्षिप्त परिचय :
आशुकवि आचार्य पंडित मोहन प्यारे द्विवेदी का जन्म 1 अप्रैल 1909 में बस्ती जिले दुबौली दूबे नामक गांव में हुआ था। उन्होंने समाज में शिक्षा के प्रति जागरुकता के लिए आजीवन प्राइमरी विद्यालय करचोलिया का प्रधानाचार्य पद निभाया था। सेवानिवृत्त लेने बाद लगभग दो दशक वे नौमिषारण्य में भगवत भजन में लीन रहे। उनकी मुख्य रचनाएँ : नौमिषारण्य का दृश्य, कवित्त, मांगलिक श्लोक, मोहनशतक आदि है। वे दिनांक 15 अप्रॅल 1989 को 80 वर्ष की अवस्था में अपने मातृभूमि में अंतिम सासें लेकर परमतत्व में समाहित हो गये l अप्रैल में ही पण्डित जी का जन्म और स्वर्गारोहण दोनों तिथियां पड़ती हैं। इसलिए उनके संकलन से निकली ये उपलब्धि उनके शुभ चिंतकों को स्मरण स्वरूप सादर निवेदित कर रहा हूं --
( संपादक प्रस्तुति कर्ता आचार्य डा राधे श्याम द्विवेदी)

पूरा नाम : पं. मोहन प्यारे द्विवेदी
अन्य नाम : पंडित जी, प्यारे मोहन
जन्म : 1 अप्रॅल, 1909
जन्मभूमि : बस्ती ज़िला, उत्तर प्रदेश
मृत्यु : 15 अप्रॅल, 1989
मृत्यु स्थान : बस्ती ज़िला, उत्तर प्रदेश
कर्म भूमि : भारतीय
कर्म- क्षेत्र : शिक्षण, कृषि, साहित्य, देशाटन एवं धार्मिक यात्रा, रामायण तथा श्रीमद्भागवत और अध्यात्म के   
            चिन्तक                         
मुख्य रचनाएँ : नौमिषारण्य पचीसी ,कवित्त, मांगलिक श्लोक, और मोहन शतक आदि।
नागरिकता : भारतीय

      राम भक्ति की साकार प्रतिमूर्ति थे गोस्वामी बिन्दुजी
गोस्वामी बिन्दु जी का संक्षिप्त परिचय:- 

बिंदु महाराज राम भक्ति की साकार प्रतिमूर्ति थे। उनका संपूर्ण जीवन भगवान राम की सेवा के लिए समर्थित रहा। उन्होंने अपनी कथाओं के माध्यम से संपूर्ण भारत में राम भक्ति का प्रचार प्रसार किया। स्वामी गोविंदानंद तीर्थ ने कहा कि गोस्वामी बिंदु महाराज ने न केवल अपनी साहित्यिक रचनाओं से रामभक्ति की ऐसी अलख जगाई कि आज वर्षों बाद भी उनकी रामभक्ति से ओतप्रोत साहित्यिक रचनाओं से भावी पीढ़ी को भी रामभक्ति के पथ पर आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त हो रहा है। 

गोस्वामी बिन्दु जी का जन्म 1893
 निधन 01 दिसम्बर 1964
 जन्म स्थान अयोध्या, उत्तर प्रदेश
 कुछ प्रमुख कृतियाँ
मोहन मोहनी, मानस माधुरी, राम राज्य, कीर्तन मंजरी, राम गीता
 विविध उपलब्धि:- वृंदावन स्थित प्रेम धाम आश्रम के संस्थापक
 
मोहन मोहिनी संपूर्ण 12 भाग बिंदु जी के पद भारतीय भाषा कविता कलाकार व्याख्यान वादी साहित्य रत्न श्रीमान हंस शिरोमणि आदि अनेक उपाधियों से विभूषित गोस्वामी श्री बिंदु जी महाराज के द्वारा लिखित मोहन मोहिनी।

पंडित मोहन प्यारे द्विवेदी "मोहन" द्वारा चयनित मोहन मोहनी के कुछ चुनिंदा भजन :- 

1.
सीता-राम, सीता-राम, सीता-राम कहिये
जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये।

मुख में हो राम नाम, राम सेवा हाथ में
मुख में हो राम नाम, राम सेवा हाथ में
नहीं तू अकेला प्यारे राम तेरे साथ में
विधि का विधान जान, हानि-लाभ सहिये
जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये
सीता-राम, सीता-राम, सीता-राम कहिये
जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये

(सीता-राम, सीता-राम, सीता-राम कहिये)
(जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये)

किया अभिमान तो फिर मान नहीं पाएगा
होगा प्यारे वही जो श्री राम जी को भाएगा
फल, आशा त्याग सुभ काम करते रहिये
जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये
सीता-राम, सीता-राम, सीता-राम कहिये
जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये

(सीता-राम, सीता-राम, सीता-राम कहिये)
(जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये)

जीवन की डोर सौंप हाथ दीनानाथ के
महलों मे राखे चाहे झोंपड़ी में वास दे
धन्यवाद निर्विवाद राम-राम कहिये
जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये
सीता-राम, सीता-राम, सीता-राम कहिये
जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये

(सीता-राम, सीता-राम, सीता-राम कहिये)
(जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये)

आशा एक राम जी से दूजी आशा छोड़ दे
आशा एक राम जी से दूजी आशा छोड़ दे
नाता एक राम जी से दूजा नाता तोड़ दे
साधु संग राम रंग, अंग-अंग रंगिये
जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये।

सीता-राम, सीता-राम, सीता-राम कहिये
जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये।।

2.
जिसने मुख से राम कहा उस जन का बेड़ा पार है- 

इस अपार संसार सिन्धु में राम का नाम ही आधार है ।
जिसने मुख से राम कहा उस जन का बेड़ा पार है।

इस भवसागर में तृष्णा नीर भरा है।
फिर कामादि जल-जीवों का पहरा है॥
यदि कहीं-कहीं पर भक्ति सीप होती है।
तो उसके अंदर राम-नाम मोती है॥
इन्हीं मोतियों से नर-देही का सुंदर श्रृंगार है।
जिसने मुख से राम कहा उस जन को बेड़ा पार है॥
कलिकाल महानद आगम विषय जलधारा।
इसमें जब नर हरिनाम नाव पाता है।
तो पल भर में ही पार उतर जाता है॥

राम नाम रस ‘बिन्दु’ कुशल केवट ही खेवनहार है।
जिसने मुख से राम कहा उस जन को बेड़ा पार है॥

3.
कन्हैया तुझे एक नज़र देखना है।
जिधर तुम छुपे हो उधर देखना है॥

अगर तुम हो दोनों की आहों के आशिक।
तो आहों को अपना असर देखना है॥
सँवारा था जिस हाथ से गीध गज को,
उसी हाथ का अब हुनर देखना है॥
बिदुर भीलनी के जो घर तुमने देखे।
तो हमको तुम्हारा भी घर देखना है॥
टपकते हैं दृग ‘बिन्दु’ तुझे ये कहकर।
तुम्हें अपनी उल्फ़त में डर देखना है॥

 4.
गजब की बाँसुरी बजती 

गजब की बाँसुरी बजती थी वृन्दावन बसैया की,
करूँ तारीफ़ मुरली कि या मुरलीधर कन्हैया की।
जहाँ चलता था न कुछ काम तीरों से कमानों से,
विजय नटवर की होती थी वहां बंसी की तानों से।।

5.
मुरलीवाले मुरलिया बजा दे जरा,
उससे गीता का ज्ञान सिखा दे जरा।

तेरी बंसी में भरा है वेद मन्त्रों का प्रचार।
फिर वही बंसी बजाकर कर दो भारत का सुधार।
तनपै हो काली कमलिया गले में गुंजों का हार।
इस मनोहर वेश में आ जा सांवलिया एक बार॥
ब्रज कि गलियों में गोरस लुटा दे जरा।
मुरली वाले मुरलिया बजा दे जरा॥
सत्यता के हों स्वर जिसमें और उल्फ़त की हो लय।
एकता की रागिनी हो वह जो करती है विजय॥
जिसके एक लहजे में तीनों लोक का दिल हिल उठे।
तेरे भक्तों को अब जरूरत उसी मुरली की है॥

ऐसी मुरली कि तान सुना दे जरा।
मुरलीवाले मुरलिया बजा दे जरा॥

6.
फिर से जीवन कि ज्योति जगा दे जरा॥

कर्म यमुना ‘बिन्दु’ हो और धर्म का आकाश हो।
चाह की हो चाँदनी साहस का चंद्र विकास हो॥
फिर से वृदावन हो भारत, प्रेम का हास-विलास हो,
मिलकर सब आपस में नाचें, इस तरह का रास हो॥
फिर से जीवन कि ज्योति जगा दे जरा॥

7.
प्रभो मुझको सेवक बनाना पड़ेगा।
कुटिल पर कृपा भाव लाना पड़ेगा।

जिन-जिन का कष्ट तुमने प्रभो दूर कर दिया,
उन सब ने जहाँ में तुम्हें मशहूर कर दिया।
सोहरत सुनी तो दास भी दरबार में आया,
कुल दीन-दशाओं को भी नजराने में लाया।
बुरा हूँ भला हूँ या जैसा हूँ मैं,
गुलामी के पद पर बिठाना पड़ेगा॥ प्रभो...
चला भी मैं जाऊँ तो कुछ गम ना रहेगा,
कानून कृपामय का इसी से बदल गया,
जब दीनबंधु का दिवाला निकल गया।
जो है लाज रखनी तो दृग ‘बिन्दु’ पर ही,
दया का खजाना लुटाना पड़ेगा॥ प्रभो...

8.
यदि नाथ का नाम दयानिधि है तो दया भी करेंगें-
 कभी न कभी।
दुखहारी हरि, दुखिया जन के, दुःख क्लेश हरेंगे।
कभी न कभी।

जिस अंग की शोभा सुहावनि है,
जिस श्यामल रंग में मोहनि है।
उस रूप सुधा के सनेहियों के दृग प्याले भरेंगे।
कभी न कभी।

करुणानिधि नाम सुनाया जिन्हें,
चरणामृत पान कराया जिन्हें,
सरकार अदालत में गवाह सभी गुजरेंगे।
कभी न कभी।

हम द्वार पै आपके आके पड़े,
मुद्दत से इसी जिद पर हैं अड़े।
भव-सिन्धु तरे जो बड़े तो बड़े ‘बिन्दु’ तरेंगे-
कभी न कभी।।

9.
घनश्याम तुझे ढूँढने जायें कहाँ-कहाँ।
अपने विरह कि याद दिलायें कहाँ-कहाँ॥

तेरी नज़र में बुला ले मुस्कान मधुर में।
उलझा है सबमें दिल वो छुड़ाए कहाँ-कहाँ॥
चरणों में खाकसार में ख़ुद खाक बन गए।
अब खाक पै हम खाक रचायें कहाँ-कहाँ।
दिन रत अणु बिन्दु बरसाते तो हैं मगर।
अब तन में लगी आग बुझायें कहाँ-कहाँ॥

10.
अब मन भज श्री रघुपति राम।

पल छिन सुमिरन कर तेरो जगत जलधि को,
भरमत फिरत कहे माया के फंदन में।
तजो कपट छल काम॥ मन अब...
सदा कहो सुखकर दुखहर म्नुध्र प्रहरी,
अमित अधम जिन तारे भक्त रखवारे दीन के सहारे।
‘बिन्दु’ बिन गुण ग्राम॥ मन अब...।।

11.
रे मन! ये दो दिन का मेला रहेगा।
कायम न जग का झमेला रहेगा॥

किस काम ऊँचा जो महल तू बनाएगा।
किस काम का लाखों जो तोड़ा कमाएगा॥
रथ-हाथियों का झुण्ड भी किस काम आएगा।
तू जैसा यहाँ आया था वैसा हीं जाएगा॥
तेरे हीं सफ़र में सवारी की खातिर।
कन्धों पै गठरी का मैला रहेगा॥

12.
जग में सुंदर है दो नाम, चाहे कृष्ण कहो या राम।

एक हृदय में प्रेम बढ़ावे, एक पाप के ताप हटावै।
दोनों सुख के सागर हैं दोनों ही हैं पूरण काम।
चाहे कृष्ण कहो या राम।

माखन ब्रज में एक चुरावै, एक बेर सबरी घर खाबे।
प्रेम भाव से भरे अनोखे, दोनों के हैं काम॥
चाहे कृष्ण कहो या राम।

एक कंस पापी सँहारे, एक दुष्ट रावण को मारे।
दोनों हैं अधीन दुखहर्ता दोनों बल के धाम॥
चाहे कृष्ण कहो या राम।

एक राधिका के संग राजे, एक जानकी संग बिराजै।
चाहे राधे श्याम कहो या बोलो सीता राम॥
चाहे कृष्ण कहो या राम।

दोनों हैं घट घट के वासी, दोनों हैं आनन्द प्रकाशी।
'बिन्दु' सदा गोविन्द भजन में मिलता है विश्राम॥
चाहे कृष्ण कहो या राम।।

13.
प्रभो अपने दरबार से अब न टालो।
गुलामी का इकरार मुझसे लिखा लो॥

दीनानाथ अनाथ का भला मिला संयोग।
यदि तारोगे नहीं तो हँसी करेंगे लोग॥
है बेहतर कि दुनिया की बदनामियों से।
बचो आप ख़ुद और मुझको बचा लो॥
पशु निषाद खल भीलनी नीच जाति कुल कुल नाम।
बिना योग जप तप किए गए तुम्हारे धाम॥
ये जिस प्रेम के सिन्धु में जा रहे हैं।
उसी सिन्धु में ‘बिन्दु’ को भी मिला लो॥

14.
क्यों ये कहते हो घनश्याम आते नहीं।
सच्चे दिल से उन्हें तुम बुलाते नहीं॥

क्यों ये कहते हो कुछ भोग खाते नहीं,
भीलनी भाव से तुम खिलाते नहीं॥
क्यों ये कहते हो गीता सुनाते नहीं।
पार्थ सी धारणा तुम दिखाते नहीं॥
क्यों ये कहते हो लज्जा बचाते नहीं।
द्रौपदी सी विनय तुम सुनाते नहीं॥
क्यों ये कहते हो नर मन बनाते नहीं।
प्रेम ‘बिन्दु’ के दृग से गिराते नहीं॥

15.
कृष्ण प्यारे को तूने नहीं जाना रे!
रहा दुनिया में हरदम दीवाना रे!!

झूठ कपट व्यवहार में किया सबेरा शाम।
एक बार भी प्रेम से लिया न हरि का नाम॥
इसमें भी करता है लाख बहाना रे!
कृष्ण प्यारे को तूने नहीं जाना रे!
धन दौलत से एकदिन ख़ाली होगा हाथ।
अंत समय भगवान का नाम ही होगा साथ॥
हरि भक्ति का दिल से खजाना रे!
कृष्ण प्यारे को तूने नहीं जाना रे!
जो करना है जल्द कर क्यों बैठा है मौन।
पल-पल में तो प्रलय है कल को जाने कौन॥
व्यर्थ अब तो न जीवन गंवाना रे!
कृष्ण प्यारे को तूने नहीं जाना रे!
कहीं न उसको ढूंढ तू कर ले यह विश्वास।
प्रेम ‘बिन्दु’ को देखकर आता है प्रभु पास॥
इससे बढ़कर है क्या समझाना रे!
कृष्ण प्यारे को तूने नहीं जाना रे!।

16.
है प्रेम जगत में सार और सार कुछ नहीं।

कहा घनश्याम में उधौ कि वृन्दावन जरा जाना,
वहाँ की गोपियों को ज्ञान का तत्व समझाना।
विरह की वेदना में वे सदा बेचैन रहती हैं,
तड़पकर आह भर कर और रो-रोकर ये कहती है।
है प्रेम जगत में सार और सार कुछ नहीं॥1।।

कहा हँसकर उधौ ने, अभी जाता हूँ वृन्दावन।
जरा देखूँ कि कैसा है कठिन अनुराग का बंधन,
हैं कैसी गोपियाँ जो ज्ञान बल को कम बताती हैं।
निरर्थक लोकलीला का यही गुणगान गातीं हैं,
है प्रेम जगत में सार और सार कुछ नहीं॥2॥

चले मथुरा से दूर कुछ जब दूर वृन्दावन नज़र आया,
वहीं से प्रेम ने अपना अनोखा रंग दिखलाया,
उलझकर वस्त्र में काँटें लगे उधौ को समझाने,
तुम्हारे ज्ञान का पर्दा फाड़ देंगे यहाँ दीवाने।
है प्रेम जगत में सार और सार कुछ नहीं॥3॥

विटप झुककर ये कहते थे इधर आओ इधर आओ,
पपीहा कह रहा था पी कहाँ यह भी तो बतलाओ,
नदी यमुना की धारा शब्द हरि-हरि का सुनाती थी,
भ्रमर गुंजार से भी यही मधुर आवाज़ आती थी,
है प्रेम जगत में सार और सार कुछ नहीं॥4॥

गरज पहुँचे वहाँ था गोपियों का जिस जगह मण्डल,
वहाँ थी शांत पृथ्वी, वायु धीमी, व्योम था निर्मल,
सहस्रों गोपियों के बीच बैठीं थी श्री राधा रानी,
सभी के मुख से रह रह कर निकलती थी यही वाणी,
है प्रेम जगत में सार और सार कुछ नहीं॥5॥

17.
भजन श्यामसुंदर का करते रहोगे।
तो संसार सागर से तरते रहोगे॥

कृपानाथ बेशक मिलेंगे किसी दिन।
तो सत्संग पथ से गुजरते रहोगे॥
चढोगे हृदय पर सभी के सदा तुम।
जो अभिमान गिरि से उतरते रहोगे॥
न होगा कभी क्लेश मन को तुम्हारे।
जो अपनी बड़ाई से डरते रहोगे॥
छलक हीं पड़ेगा दयासिन्धु का दिल।
जो दृग ‘बिन्दु’ से रोज भरते रहोगे॥

18.
जीवन को मैंने सौंप दिया अब सब भार तुम्हारे हाथों में,
उद्धार पतन अब सब मेरा है सरकार तुम्हारे हाथों में।

हम तुमको कभी नहीं भजते फिर भी तुम हमको नहींतजते,
अपकार हमारे हाथों में उपकार तुम्हारे हाथों में।
हम में तुम में भेद यही हम नर हैं तुम नारायण हो,
हम हैं संसार के हाथों में संसार तुम्हारे हाथों में।
कल्पना बनाया करती है इस सेतु विरह के सागर पर,
जिससे हम पहुँचा करते हैं उस पार तुम्हारे हाथों में।
दृग ‘बिन्दु’ कर रहे हैं भगवन दृग नाव विरह सागर में है,
मंझधार बीच फँसे हैं हम और है पतवार तुम्हारे हाथों में॥

19.
हरि बोल मेरी रसना घड़ी-घड़ी।

व्यर्थ बीताती है क्यों जीवन मुख मन्दिर में पड़ी-पड़ी॥
नित्य निकाल गोविन्द नाम की श्वास-श्वास से लड़ी-लड़ी।
जाग उठे तेरी ध्वनि सुनकर इस काया की कड़ी-कड़ी।
बरसा दे प्रभु नाम, सुधा रस ‘बिन्दु’ से झड़ी-झड़ी॥

20.
सदा श्याम-श्यामा पुकारा करेंगे।
नवल रूप निशि दिन निहारा करेंगे।

यमुना तट लता कुञ्ज ब्रज बीथियों में,
विचर कर ये जीवन गुजारा करेंगे।
मिलेगी जो रसिया की जूठन प्रसादी,
वही जीविका का सहारा करेंगे।
बसेंगे करीलों में काँटों में हरदम,
जरात कंटकों से किनारा करेंगे।
जो दृग ‘बिन्दु’ से पाँव धोया करेंगे,
तो पलकों से पथ को बुहारा करेंगे।

21.
यही नाम मुख में हो हरदम हमारे।
हरे कृष्ण गोविन्द मोहन मुरारे।

लिया हाथ में दैत्य ने जब कि खंजर।
कहा पुत्र से कहाँ तेरा ईश्वर।
तो प्रहलाद ने याद की आह भरकर।
दिखाई पड़ा उसको खम्भे के अंदर।
है नरसिंह के रूप में राम प्यारे।
हरे कृष्ण गोविन्द मोहन मुरारे।
सरोवर में गज-ग्राह की थी लड़ाई।
न गजराज की शक्ति कुछ काम आई।
कहीं से मदद उसने जब कुछ न पाई।
दुखी हो के आवाज हरि की लगाई।
गरुड़ छोड़ नंगे ही पाँवों पधारे।
हरे कृष्ण गोविन्द मोहन मुरारे।
अजामिल अधम में न थी क्या बुराई।
मगर आपने उसकी बिगड़ी बनाई।
घड़ी मौत की सिर पै जब उसके आई।
तो बेटे नारायण की थी रट लगाई।
तुरत खुल गये उनके बैकुंठ द्वारे।
हरे कृष्ण गोविन्द मोहन मुरारे।
दुशासन जब हाथ अपने बढायें।
तो दृग ‘बिन्दु’ थे द्रौपदी ने गिराये।
न की देर कुछ द्वारिका से सिधाये।
अमित रूप ये बनके साड़ी में आये।
कि हर तार थे आपका रूप धारे।
हरे कृष्ण गोविन्द मोहन मुरारे।

22.
सदा अपनी रसना को रसमय बनाकर,
हरि हर, हरि हर, हरि हर जपाकर।

इसी जप से कष्टों का कम भार होगा,
इसी जप से पापों का प्रतिकार होगा।
इसी जप से नर तन का श्रृंगार होगा,
इसी जप से तू प्रभु को स्वीकार होगा।
ये स्वासों की दिन रात माला बनाकर,
हरि हर, हरि हर, हरि हर जपाकर।
इसी तप से तू आत्म बलवान होगा,
इसी जप से तू कर्तव्य का ध्यान होगा,
इसी जप से संतुष्ट भगवान होगा,
अकेले ही या साथ सबको मिलाकर,
हरि हर, हरि हर, हरि हर जपाकर।
जो श्रद्धा से इस जप को रोज़ गाता,
तो उसका यही जप है जीवन विधाता,
यही जप पिता है यही जप है माता,
यही जप है इस जग में कल्याण दाता,
हरि का कोई रूप मन में बिठाकर,
हरि हर, हरि हर, हरि हर जपाकर।
ये जप जब तेरे मन को ललचा रहा हो,
वो रसिकों के रस पथ पर जा रहा हो,
मज़ा श्री हरि नाम का आ रहा हो,
हरि ही हरि हर तरफ़ छा रहा हो,
तो कुछ प्रेम ‘बिन्दु’ दृग से बहाकर,
हरि हर, हरि हर, हरि हर जपाकर।

23.
जीवन का मैंने सौंप दिया ..

जीवन का मैंने सौंप दिया,सब भार तुम्हारे हाथों में
उद्धार पतन अब मेरा है , सरकार तुम्हारे हाथों में
हम उनको कभी नहीं भजते, वो हमको कभी नहीं तजते
अपकार हमारे हाथों में, उपकार तुम्हारे हाथों में
जीवन का मैंने सौंप दिया, सब भार तुम्हारे हाथों में
हम पतित हैं तुम पतित पावन, हम नर हैं तुम नारायण हो
हम हैं संसार के हाथों में, संसार तुम्हारे हाथों में
जीवन का मैंने सौंप दिया ,सब भार तुम्हारे हाथों में।।

24.
हमें निज धर्म पर चलना बताती रोज रामायण।
सदा शुभ आचरण करना सिखाती रोज रामायण॥

जिन्हें संसार सागर से उतर कर पार जाना है।
उन्हें सुख से किनारे पर लगाती रोज रामायण॥
कहीं छवि विष्णु की बाकी, कहीं शंकर की है झाँकी।
हृदय आनंद झूले पर झुलाती रोज रामायण॥
सरल कविता की कुंजों में बना मंदिर है हिंदी का।
जहाँ प्रभु प्रेम का दर्शन कराती रोज रामायण॥
कभी वेदों के सागर में कभी गीता की गंगा में।
सभी रस ‘बिन्दु’ में मन को दबाती रोज रामायण॥

25
मन! अब तो सुमिर ले राधेश्याम ।
राधेश्याम मन! सीताराम।

अबतक तो जग में भरमाया।
उचित मार्ग पर कभी न आया॥
अब भज ले हरिनाम॥ मन अब तो...

अब तक तो भटकता था जग के व्यर्थ जालों में,
मगर अब सोचकर कुछ चल जरा सच्चे खयालों में।
जो तेरे पास हरि सुमिरन का सच्चा पास होवेगा,
तो कर विश्वास तेरा स्वर्ग ही में वास होवेगा।
कृष्ण लिखा हो जब इस तन में,
गम के फंदे कटे सब क्षण में।
कृष्ण नाम सुखधाम॥ मन अब तो...

जिसे तू मेरी कहता है वो अंतिम दिन नहीं होगा,
तू जिस माया में भटका है वो कुछ तेरा नहीं होगा।
जो धन-दौलत कमाया है यहाँ ही सब धरा होगा।
भजन हरि का किया है जो वही साथी तेरा होगा।
पाप ‘बिन्दु’ का घड़ा फोड़ दे।
व्यर्थ वासना डोर तोड़ दे।
कर ले कुछ विश्राम॥ मन अब तो...

             ( प्रस्तुति: आचार्य डा.राधे श्याम द्विवेदी)


आचार्य डा. राधे श्याम द्विवेदी

प्रस्तुत कर्ता परिचय:-
(प्रस्तुत कर्ता भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल ,आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं । )








 


Thursday, April 25, 2024

प्रेम, भक्ति और करुणा की देवी राधा आचार्य डा.राधे श्याम द्विवेदी

  
राधा रानी जी श्रीकृष्ण जी से ग्यारह माह बड़ी थीं। लेकिन श्री वृषभानु जी और कीर्ति देवी को ये बात जल्द ही पता चल गई कि श्री किशोरी जी ने अपने प्राकट्य से ही अपनी आंखे नहीं खोली है। इस बात से उनके माता-पिता बहुत दुःखी रहते थे। कुछ समय पश्चात जब नन्द महाराज कि पत्नी यशोदा जी गोकुल से अपने लाडले के साथ वृषभानु जी के घर आती है तब वृषभानु जी और कीर्ति जी उनका स्वागत करती है। यशोदा जी कान्हा को गोद में लिए राधा जी के पास आती है। जैसे ही श्री कृष्ण और राधा आमने-सामने आते है। तब राधा जी पहली बार अपनी आंखे खोलती है। अपने प्राण प्रिय श्री कृष्ण को देखने के लिए, वे एक टक कृष्ण जी को देखती है, अपनी प्राण प्रिय को अपने सामने एक सुन्दर-सी बालिका के रूप में देखकर कृष्ण जी स्वयं बहुत आनंदित होते है। जिनके दर्शन बड़े बड़े देवताओं के लिए भी दुर्लभ है तत्वज्ञ मनुष्य सैकड़ो जन्मों तक तप करने पर भी जिनकी झांकी नहीं पाते, वे ही श्री राधिका जी जब वृषभानु के यहां साकार रूप से प्रकट हुई।

        राधा और कृष्ण की प्रेम कहानी सदियों बाद भी लोगों के दिलो दिमाग में ताजा है। यह एक ऐसा प्रेम है जिसमें किसी ने कृष्ण भक्ति की राह देखी, तो किसी ने इस कहानी को विरह का गीत समझकर गुनगुनाया है तो किसी ने इसे त्याग के चरमोत्कर्ष पर पहुंचाया है। कृष्ण और राधा का प्रेम जितना चंचल और निर्मल रहा, उतना ही जटिल और निर्मम भी। सदियों से भले ही कृष्ण के साथ राधा का नाम लिया जाता रहा है, लेकिन प्रेम की ये कहानी कभी पूरी नहीं हो पाई है। एक तरह से आधी अधूरी सी फिर भी स्थाई ही रही है ये।

       आज भी ये प्रश्न उठता है कि राधा और कृष्ण का प्रेम कभी शादी के बंधन में क्यों नहीं बंध पाया ? जिस अंतरंगता से कृष्ण और राधा ने एक दूसरे को चाहा, वो रिश्ता विवाह तक क्यों नहीं पहुंचा? क्यों संसार की सबसे बड़ी प्रेम कहानी विरह का गीत बनकर रह गई? क्या वजह है कि राधा से सच्चे प्रेम के बावजूद कृष्ण ने रुकमणी को अपना जीवनसाथी चुना था? जब कृष्ण और राधा शाश्वत प्रेम में थे, तो कृष्ण ने रुक्मिणी से विवाह क्यों किया, राधा से नहीं ? क्योंकि राधा और रुक्मिणी एक ही हैं इसलिए कृष्ण ने रुक्मिणी से विवाह किया था।

          उनकी कुल 8 पत्नियों का जिक्र मिलता है, लेकिन उनमें राधा का नाम नहीं है। इतना ही नहीं कृष्ण के साथ तमाम पुराणों में राधा का नाम नहीं मिलता है। यद्यपि मन्दिरों में इसी युगल की लोग पूजा और आराधना करते चले आ रहे हैं।शास्त्रों के अनुसार ब्रह्माजी ने वृन्दावन में श्री कृष्ण के साथ साक्षात श्री राधा का विधि पूर्वक विवाह भांडीरवन मे संपन्न कराया था। इस विवाह का उल्लेख ब्रह्मवैवर्त पुराण और गर्ग संहिता में भी मिलता है। बृज में आज भी माना जाता है कि राधा के बिना कृष्ण अधूरे हैं और कृष्ण बिना श्री राधा। धार्मिक पुराणों के अनुसार राधा और कृष्ण की ही पूजा का विधान है। भारत के धार्मिक सम्प्रदाय - निम्बार्क संप्रदाय, गौड़ीय वैष्णववाद, पुष्टिमार्ग, राधावल्लभ संप्रदाय, स्वामीनारायण संप्रदाय, प्रणामी संप्रदाय, हरिदासी संप्रदाय और वैष्णव सहिज्य संप्रदाय में राधा को कृष्ण के साथ पूजा जाता है।

भगवत गीता से महाभारत तक कहीं नहीं है राधा जी का नाम:- 

शुकदेव जी को साक्षात् श्रीकृष्ण से मिलाने वाली राधा है और शुकदेव जी उन्हें अपना गुरु मानते हैं। इस कारण राधा एक
का जिक्र नही किया है ।
         राधा का अंतिम समय कहां बीता और किन हालात में राधा ने जीवन के अंतिम क्षण बिताए। जिस राधा को कृष्ण की परछाई समझा जाता था, उसका क्या हुआ? ये सब एक रहस्य बन चुका है। राधा का नाम भगवत गीता से लेकर महाभारत तक कहीं नहीं मिलता है । राधा के बिना जिस कृष्ण को अधूरा माना गया है, उनकी कथाओं में राधा का नाम तक नहीं है। इस रहस्य को समझने के लिए उनके धरती पर उतरने की वजहों को जानना होगा।

       ऐसा कहा जाता है कि राधा धरती पर कृष्ण की इच्छा से ही आई थीं। भादो के महीने में शुक्ल पक्ष की अष्टमी के अनुराधा नक्षत्र में रावल गांव के एक मंदिर में राधा ने जन्म लिया था। यह दिन राधाष्टमी के नाम से मनाया जाता है। कहते हैं कि जन्म के 11 महीनों तक राधा ने अपनी आंखें नहीं खोली थी। कुछ दिन बाद वो बरसाने चली गईं। जहां पर आज भी राधा-रानी का महल मौजूद है।
        राधा और कृष्ण की पहली मुलाकात भांडिरवन में हुई थी। नंद बाबा यहां गाय चराते हुए कान्हा को गोद में लेकर पहुंचे थे। कृष्ण की लीलाओं ने राधा के मन में ऐसी छाप छोड़ी कि राधा का तन-मन श्याम रंग में रंग गया। कृष्ण-राधा की नजरों से ओझल क्या होते, वो बेचैन हो जाती। वो राधा के लिए उस प्राण वायु की तरह थे जिसके बिना जीवन की कल्पना करना मुश्किल था।

सुदामा ने दिया था राधा को श्राप :- 

     कहते हैं कि राधा को कृष्ण से विरह का श्राप किसी और से नहीं बल्कि श्री कृष्ण के परम मित्र सुदामा से मिला था। वही सुदामा जो कृष्ण के सबसे प्रिय मित्र थे। सुदामा के इस श्राप के चलते ही 11 साल की उम्र में कृष्ण को वृन्दावन छोड़कर मथुरा जाना पड़ा था। श्रीकृष्ण और राधा गोलोक एक साथ निवास करते थे।एक बार राधा की अनुपस्थिति में कृष्ण विरजा नामक की एक गोपिका से विहार कर रहे थे। तभी वहां राधा आ पहुंची और उन्होंने कृष्ण और विरजा को अपमानित किया।
      इसके बाद राधा ने विरजा को धरती पर दरिद्र ब्राह्मण होकर दुख भोगने का श्राप दे दिया। वहां मौजूद सुदामा ये बर्दाश्त नहीं कर पाए और उन्होंने उसी वक्त राधा को कृष्ण से बरसों तक विरह का श्राप दे दिया था। 100 साल बाद जब वे लौटे तब बाल रूप में राधा कृष्ण ने यशोदा के घर में प्रवेश किया, वहां रहे और बाद में सबको मोक्ष देकर खुद भी गोलोक लौट गए।

श्रीकृष्ण ने क्यों नहीं किया राधा से विवाह?

राधा रानी ही कृष्ण हैं और कृष्ण ही राधा हैं। दोनों में कोई फर्क नहीं है। कृष्ण की होकर भी उनकी न हो पाने का मलाल राधा को हमेशा रहा।अंतिम समय में जब राधा ने खुद को अपनी अर्धांगनी न बनाने का कारण कृष्ण पूछा तो कृष्ण वहां से बिना कुछ कहे चल पड़े। राधा क्रोधित हो गईं और चिल्लाकर ये सवाल दोबारा किया। राधा के क्रोध को देख कृष्ण मुड़े तो राधा भी हैरान रह गईं। कृष्ण राधा के रूप में थे। राधा समझ गईं कि वो भी कृष्ण ही हैं और कृष्ण ही राधा है। दोनों में कोई फर्क नहीं है। कृष्ण अपने निज आनंद को प्रेम विग्रह राधा के रूप में प्रकट करते हैं। और उस आनंद के रस का आस्वादन करते रहते हैं। राधा कृष्ण की प्रिय शक्ति है, जो स्त्री रूप मे प्रभु के लीलाओं मे प्रकट होती हैं । "गोपाल सहस्रनाम" के 19वें श्लोक मे वर्णित है कि महादेव जी द्वारा जगत देवी पार्वती जी को बताया गया है कि एक ही शक्ति के दो रूप है राधा और माधव (श्री कृष्ण) तथा ये रहस्य स्वयं श्री कृष्ण द्वारा राधा रानी को बताया गया है।अर्थात राधा ही कृष्ण हैं और कृष्ण ही राधा हैं।
              राधा रानी जी श्रीकृष्ण जी से ग्यारह माह बड़ी थीं। लेकिन श्री वृषभानु जी और कीर्ति देवी को ये बात जल्द ही पता चल गई कि श्री किशोरी जी ने अपने प्राकट्य से ही अपनी आंखे नहीं खोली है। इस बात से उनके माता-पिता बहुत दुःखी रहते थे। कुछ समय पश्चात जब नन्द महाराज कि पत्नी यशोदा जी गोकुल से अपने लाडले के साथ वृषभानु जी के घर आती है तब वृषभानु जी और कीर्ति जी उनका स्वागत करती है यशोदा जी कान्हा को गोद में लिए राधा जी के पास आती है। जैसे ही श्री कृष्ण और राधा आमने-सामने आते है। तब राधा जी पहली बार अपनी आंखे खोलती है। अपने प्राण प्रिय श्री कृष्ण को देखने के लिए, वे एक टक कृष्ण जी को देखती है, अपनी प्राण प्रिय को अपने सामने एक सुन्दर-सी बालिका के रूप में देखकर कृष्ण जी स्वयं बहुत आनंदित होते है। जिनके दर्शन बड़े बड़े देवताओं के लिए भी दुर्लभ है तत्वज्ञ मनुष्य सैकड़ो जन्मों तक तप करने पर भी जिनकी झांकी नहीं पाते, वे ही श्री राधिका जी जब वृषभानु के यहां साकार रूप से प्रकट हुई।
         शास्त्रों के अनुसार ब्रह्माजी ने वृन्दावन में श्री कृष्ण के साथ साक्षात श्री राधा का विधि पूर्वक विवाह भांडीरवन मे संपन्न कराया था। इस विवाह का उल्लेख ब्रह्मवैवर्त पुराण और गर्ग संहिता में भी मिलता है। बृज में आज भी माना जाता है कि राधा के बिना कृष्ण अधूरे हैं और कृष्ण बिना श्री राधा। धार्मिक पुराणों के अनुसार राधा और कृष्ण की ही पूजा का विधान है। राधा कृष्ण की न होकर आज भी उनके साथ पूजनीय हैं. राधा-कृष्ण के प्रेम की ये कहानी आधीअधूरी होकर भी अमर है।

निष्कर्ष:- 
राधा एक भाव है जो भक्ति मार्ग की साधना में एक विकल्प है। नवधा भक्ति में ये एक मात्र ऐसा भक्ति भाव है जिसमें मैं तुम का द्वैत भाव नहीं होता। इसलिए यह भक्ति मार्ग की पराकाष्ठा है। स्वामी सेवक मित्र आदि भावों में दो की स्वतंत्र सत्ता होती है चाहे उनमें कितनी भी निकटता क्यों न हो। यह राधा भाव ही कान्ता भाव माधुर्य भाव या दाम्पत्य भाव है पर इसमें मिलन नहीं , मिलन की व्याकुलता, विरह भाव की ही प्रधानता है।
       वैष्णवों ने इस माधुर्य भाव की प्रतीक राधा को आरंभिक साधना की दृष्टि से सगुण रूप दिया है अतएव राधा का ऐतिहासिक प्रमाण माँगना ,भक्ति के मूल तत्व की और साहित्य की अनदेखी करना है।
       जिन भक्तों के लिए सगुण साकार रूप में श्री राधा माधव हॄदय में विराजते हैं , उनके लिए तो दोनों ही नित्य प्रत्यक्ष और सच्चिदानन्द रूप है।
                आचार्य पंडित मोहन प्यारे द्विवेदी 

    आचार्य पंडित मोहन प्यारे द्विवेदी 'मोहन' ने अपने "मोहन शतक" में राधा कृष्ण के दिव्य स्वरूप को इन शब्दो में व्यक्त किया गया है-- 

        कभी भोली राधिका उठा तू गोद लेते थे।

नंदजी को नंदित किए हो खेल बार-बार, 
अम्ब जसुदा को तू कन्हैया मोद देते थे।
कुंजन में कुंजते खगों के बीच प्यार भरे, 
हिय में दुलार ले उन्हें विनोद देते थे।
देते थे हुलास ब्रज वीथिन में घूम- घूम
मोहन अधर चूमि तू प्रमोद देते थे।
नाचते कभी थे ग्वाल- ग्वालिनों के संग,
कभी भोली राधिका उठा तू गोद लेते थे।।

                      आचार्य डा.राधेश्याम द्विवेदी 

लेखक परिचय:-

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल ,आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों, साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।) 




Wednesday, April 24, 2024

लुंबनी परिक्षेत्र के प्रमुख बौद्ध मठ,मन्दिर और स्मारक डॉ. राधे श्याम द्विवेदी


अवस्थिति:-

शाक्य गणराज्य की राजधानी कपिलवस्तु के निकट उत्तर प्रदेश के ककरहवा नामक ग्राम से 14 मील और नेपाल-भारत सीमा से कुछ दूर पर नेपाल के अन्दर रुमिनोदेई नामक ग्राम ही लुम्बनीग्राम है, जो गौतम बुद्ध के जन्म स्थान के रूप में जगत प्रसिद्ध है। 
जानें टैक्स के रेट
नेपाली करेंसी के हिसाब से अगर भारत के लोग दोपहिया वाहन से एंट्री लेते हैं तो 200 रुपये, चार पहिया वाहन से एंट्री लेते हैं तो 600 रुपये, ट्रक पिकअप मिनी ट्रक से एंट्री लेते है तो 9600 रुपये, ऑटो एंट्री लेट है तो 400 रुपये देने होंगे. वहीं केवल ट्रैक्टर जाता है तो 500 रुपये, टाली ट्रैक्टर जाएगा तो 800 रुपये टैक्स के रूप में देने होंगे यह र्सिफ एक दिन का टैक्स है. ज्यादातर एक दिन का भंडार बनता है। यदि 24 घण्टे में वापसी नहीं हुई तो दुबारा भंसार भर कर ही अपने देश में इंट्री हो सकेगी। नेपाल में पासपोर्ट और वीजा का खा झंझट नहीं होता है।
        शाक्य राजकुमार सिद्धार्थ गौतम, जो बुद्ध के नाम से प्रसिद्ध हैं, उनका जन्म 623 ईसा पूर्व में बैसाख की पूर्णिमा के दिन लुम्बिनी में हुआ था। भगवान बुद्ध के पिता, राजा शुद्धोदन, शाक्य वंश के शासक थे, जिनकी राजधानी कपिलवस्तु में थी। उनकी माता रानी मायादेवी (महामाया) ने अपने पैतृक घर की यात्रा के दौरान उन्हें जन्म दिया था। लुंबिनी में चीन, ताइवान, थाईलैंड, जापान, श्रीलंका, म्यांमार, जर्मनी, फ्रांस , कम्बोडिया, कोरिया, मनांग,वियतनाम, जर्मनी का ग्रेट ड्रिगुंग लोटस स्तूप,थ्रांगु वज्र विद्या मठ, और अन्य देशों के लगभग दो दर्जन मठ मंदिर और अन्य स्मारक हैं। पास ही में कपिलवस्तु क्षेत्र की वास्तविक राजधानी तिलौरा - कोट , बुद्ध का ननिहाल कोल राजधानी देवदह और करकुच्छंद नामक पूर्व बुद्ध का स्तूप गोटीहवा नामक पुरातात्विक साइट भी दर्शनीय है। यह परिक्षेत्र कुल लगभग चौसठ धार्मिक, ऐतिहासिक और पुरातात्विक स्थलो से यह अपनी आभा बिखेर रहा हैं।
बौद्ध धर्म में मूर्ति पूजा वर्जित फिर भी प्रचलन में:-

प्राचीन बुद्ध के समय के मनुष्य की एकाग्रता इतनी होती थी कि उन्हें किसी का अवलंबन का सहारा नही लेना पड़ता था। वे बिना मूर्ति के ही भगवान् का ध्यान कर लेते थे । किन्तु बाद में उसकी शक्ति कम होने लगी। उसका ध्यान भटकने लगा तो मूर्ति का अवलंबन लेकर ध्यान और पूजा का प्रचलन बौद्घ और जैन धर्म में शुरू हो गया।भगवान बुद्ध का जन्म 623 ईसापूर्व हुआ था। जबकि भारत में भगवान की मूर्तियां पहली शताब्दी में पहली वार कनिष्क ने ही वनवाई थी। 

यूनेस्को का विश्व धरोहर:-

लुम्बिनी में सबसे प्राचीन बौद्ध मंदिरों में से एक, जो यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल भी है, माया देवी मंदिर सबसे प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है जिसे गौतम बुद्ध के जन्मस्थान के रूप में जाना जाता है। यह मंदिर लुंबिनी विकास क्षेत्र नामक पार्क मैदान के बीच में स्थित है, इसका निरंतर विकास इसे एक अवश्य देखने योग्य आकर्षण बनाता है। माया देवी मंदिर, पुष्करिणी नामक पवित्र तालाब और एक पवित्र उद्यान के ठीक बगल में स्थित है। यह मंदिर उस स्थान को चिह्नित करता है जहां माया देवी ने गौतम बुद्ध को जन्म दिया था और इस स्थान के पुरातात्विक अवशेष लगभग तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व अशोक के समय के हैं।

लुंबिनी परिसर क्षेत्रीय विभाजन:- 

हिमालय की तलहटी में बसा लुम्बिनी नेपाल के सीमावर्ती क्षेत्र में है। लुंबिनी की लंबाई 4.8 किमी (3 मील) और चौड़ाई 1.6 किमी (1.0 मील) है। लुंबिनी परिसर को तीन क्षेत्रों में विभाजित किया गया है: 

1.पवित्र उद्यान:- 

पवित्र उद्यान लुम्बिनी क्षेत्र का केंद्र बना हुआ है और इसमें बुद्ध का जन्मस्थान और पुरातात्विक और आध्यात्मिक महत्व के अन्य स्मारक जैसे मायादेवी मंदिर , अशोक स्तंभ , मार्कर स्टोन, नैटिविटी मूर्तिकला, पुस्कारिनी पवित्र तालाब और अन्य संरचनात्मक खंडहर शामिल हैं। 
       लुम्बिनी विकास न्यास ने एक महायोजना तैयार की है जिसके तहत इसे विश्वस्तरीय पर्यटन स्थल बनाने की योजना है। इस महायोजना का प्रभाव पूरे शहर में दिखाई पड़ता है। यह योजना इस परिसर को एक नहर द्वारा मध्य से दो भागों में बांटती है, जिसके एक ओर मायादेवी का मंदिर है तो दूसरी ओर एक विशाल श्वेत रंग का विश्वशांति शिवालय देखा जा सकता है। इस नहर के पश्चिम में महायान बोद्ध देशों से सम्बंधित मंदिर स्थित है, जैसे कोरिया, चीन, जर्मनी, कनाडा, ऑस्ट्रिया, वियतनाम, लद्धाख और बेशक नेपाल। पूर्व की ओर थेरवाद बोद्ध धर्म का पालन करने वालों से सम्बंधित मंदिर स्थित हैं, जैसे थाईलैंड, म्यांमार, कम्बोडिया, भारत का महाबोध समाज, कोलकता, नेपाल का गौतमी जनाना मठ। इन दोनों के मध्य वज्रयान बोध धर्म की भी झलक मिलती है। दोनों ओर के संगठनों के अपने भिन्न भिन्न ध्यान केंद्र हैं जहाँ पूर्वनिर्धारित कर ध्यान का अभ्यास किया जा सकता है।

2. मठ क्षेत्र :- 

बौद्ध स्तूपों और विहारों का. 1 वर्ग मील के क्षेत्र में फैले मठ क्षेत्र को दो क्षेत्रों में विभाजित किया गया है: पूर्वी मठ क्षेत्र जो बौद्ध धर्म के थेरवाद स्कूल का प्रतिनिधित्व करता है और पश्चिमी मठ क्षेत्र जो बौद्ध धर्म के महायान और वज्रयान स्कूल का प्रतिनिधित्व करता है, जिसके दोनों ओर उनके संबंधित मठ हैं। एक लंबा पैदल पथ और नहर। मठ स्थल को एक पवित्र तीर्थ स्थल के रूप में चिह्नित करते हुए, कई देशों ने अपने अद्वितीय ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक डिजाइनों के साथ मठ क्षेत्र में बौद्ध स्तूप और मठ स्थापित किए हैं। 
     लुंबिनी मठ स्थल एक जटिल आवास है जिसमें गौतम बुद्ध के जीवन के बारे में जानकारी देने, बौद्ध धर्म के महत्व, इसके प्रचार-प्रसार, विकास और विश्वास प्रणाली को समझने में मदद करने के लिए विभिन्न मंदिर और मठ बनाए गए हैं जो सामंजस्यपूर्ण संघों को बनाए रखने में मदद करने के लिए एक सामान्य स्ट्रिंग के रूप में कार्य करता है। मठ स्थल को एक जल नहर द्वारा दो खंडों में विभाजित किया गया है जिसका उपयोग अक्सर पर्यटक मोटर नौकाओं पर घूमने के लिए करते हैं। पूर्व की ओर वाले भाग को पूर्वी मठ क्षेत्र कहा जाता है, जहां थेरवाद बौद्ध धर्म प्रचलित है, और पश्चिम की ओर वाले क्षेत्र को पश्चिम मठ क्षेत्र कहा जाता है, जहां वज्रयान और महायान प्रमुख हैं। एक बार अंदर जाने के बाद, व्यक्ति केवल संस्कृति, परंपराओं और बौद्ध धर्म के इतिहास के संपर्क में रहता है।

3 .सांस्कृतिक केंद्र और न्यू लुंबिनी गांव:- 

सांस्कृतिक केंद्र और न्यू लुंबिनी गांव में लुंबिनी संग्रहालय, लुंबिनी अंतर्राष्ट्रीय अनुसंधान संस्थान, जापान का विश्व शांति पैगोडा, लुंबिनी क्रेन अभयारण्य और अन्य प्रशासनिक कार्यालय शामिल हैं। 

 4. भारत सरकार का बौद्ध मठ प्रस्तावित :-

भगवान बुद्ध के जन्मस्थली लुम्बिनी में भारत सरकार एक अरब रुपए की लागत से बौद्ध मठ का निर्माण कराएगी। 16 मई 2022 को लुम्बिनी दौरे पर पीएम मोदी इसका शिलान्यास किए हैं। भारत लुंबिनी मठ क्षेत्र में 14 अन्य देशों में शामिल हो जाएगा, क्योंकि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने नेपाल में बौद्ध धर्म के लिए एक अंतरराष्ट्रीय केंद्र की आधारशिला रखी है। यह बौद्ध मठ लुम्बिनी में बने अन्य देश के मठ की तुलना में सबसे बड़ा व सबसे अधिक लागत वाला होगा। भारत सरकार के अधीन संस्था अंतर्राष्ट्रीय बौद्ध परिसंघ इस मठ का निर्माण करा रहा है। परिसंघ ने लुम्बिनी विकास कोष से जमीन ली है। जिस मठ का शिलान्यास हुआ है उस मठ मे बुद्ध का मंदिर, बौद्ध गुरुओं के ठहरे की व्यवस्था, चिकित्सा, ध्यान हाल का निर्माण हो रहा है ।
      6 अगस्त 2023 को नेपाल में बौद्ध भिक्षुओं के विशेष मंत्रोच्चारण के साथ भूमि पूजन महोत्सव के बाद लुंबिनी में भारतीय अंतर्राष्ट्रीय बौद्ध संस्कृति और विरासत केंद्र के निर्माण का शुभारंभ हुआ।1.60 अरब रुपये की लागत से बनने वाला हेरिटेज सेंटर कमल के आकार का होने की उम्मीद है। इसे जीरो-नेट तकनीक में बनाया जाएगा और करीब-करीब वर्ष में पूरा किया जाएगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और नेपाल के प्रधान मंत्री शेर बहादुर देउबा ने 2022 में मोदी की लुंबिनी यात्रा के दौरान संयुक्त रूप से इसकी रैली निकाली थी।भारत और नेपाल की सांस्कृतिक विरासतें साझा की जा रही हैं, और अंतरराष्ट्रीय मानकों पर एक मठ का निर्माण किया जा रहा है।

5. लुंबिनी संग्रहालय:- 

लुंबिनी संग्रहालय मौर्य और कुशान काल की कलाकृतियों को प्रदर्शित करता है। संग्रहालय में लुम्बिनी को चित्रित करने वाली दुनिया भर से धार्मिक पांडुलिपियों, धातु मूर्तियों और टिकटें हैं। लुंबिनी इंटरनेशनल रिसर्च इंस्टीट्यूट लुंबिनी संग्रहालय के सामने स्थित है, सामान्य रूप से बौद्ध धर्म और धर्म के अध्ययन के लिए अनुसंधान सुविधाएं प्रदान करता है। इस संग्रहालय की वास्तुकला में ताइवान का प्रभाव नजर आएगा। यहां लगभग 12000 कलाकृतियों को प्रदर्शित किया गया है। यहां प्राचीन सिक्के, पांडुलिपियां, टिकटें, टेराकोटा मूर्तियां देखने को मिलेंगी। यह संग्रहालय 1970 के दशक में बनाया गया था और अब इसे ताइवान के वास्तुकार क्रिस याओ और उनकी टीम द्वारा फिर से तैयार किया गया है।

 6.माया देवी का पावन मन्दिर:-

मायादेवी मंदिर इस क्षेत्र का सबसे महत्वपूर्ण और पवित्र स्थल है – यह वह वास्तविक स्थान है जहां भगवान बुद्ध का जन्म कपिलवस्तु के राजा शुद्धोधन की पत्नी रानी मायादेवी के घर हुआ था । यह जगह बहुत शांतिपूर्ण है और लोग आम तौर पर वहां ध्यान करते हैं। हाल ही में हुई खुदाई के नतीजों से पता चला है कि मंदिर का यह ढांचा मायादेवी मंदिर के भीतर बना था। यह सम्राट अशोक के इस क्षेत्र में पहुंचने से पहले की घटना है। माना जाता था कि लुम्बिनी और यह मंदिर सम्राट अशोक के कार्यकाल में तीसरी शताब्दी में बनाया गया था। इस खुदाई मिशन में शामिल अनुसंधानकर्ताओं ने सम्राट अशोक के समय से पहले के एक मंदिर का पता लगाया है जो कि ईंट से बना हुआ था।

7. बौद्धों और हिंदुओं दोनों के लिए पवित्र स्थल :-

बौद्धों और हिंदुओं दोनों के लिए पवित्र मायादेवी मंदिर, माना जाता है कि इसे पांचवीं शताब्दी के मंदिर के ऊपर बनाया गया था, जो संभवतः अशोक के मंदिर के ऊपर बनाया गया था। मंदिर में बुद्ध के जन्म की एक पत्थर की आधार-राहत है। एक छोटे शिवालय जैसी संरचना में संरक्षित, यह छवि भगवान की मां मायादेवी को अपने दाहिने हाथ से साल के पेड़ की एक शाखा को पकड़कर सहारा देती हुई दिखाई देती है। नवजात बुद्ध को अंडाकार प्रभामंडल वाले कमल के मंच पर सीधे खड़े देखा जाता है। पवित्र पुष्करिणी कुंड महादेवी मंदिर के दक्षिण में स्थित है जहाँ मायादेवी ने भावी बुद्ध को जन्म देने से पहले स्नान किया था। यहीं पर सिद्धार्थ को पहला औपचारिक शुद्धिकरण स्नान भी कराया गया था। सनातन हिंदू बुद्ध को हिंदू भगवान विष्णु का 10वां अवतार मानते हैं और बैसाख (अप्रैल-मई) की पूर्णिमा के दिन हजारों नेपाली हिंदू भक्त माया देवी से प्रार्थना करने के लिए यहां आते हैं, जिन्हें स्थानीय लोग रूपा देवी " लुम्बिनी की देवी माँ" कहते हैं। 

8 माया देवी का वर्तमान मंदिर :-

साइट पर पुरातात्विक अवशेष पहले तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व अशोक द्वारा निर्मित ईंट की इमारतों के थे । छठी शताब्दी ईसा पूर्व का लकड़ी का मंदिर 2013 में खोजा गया था। 1992 में की गई खुदाई से कम से कम 2200 साल पुराने खंडहरों का पता चला, जिसमें एक ईंट के चबूतरे पर एक स्मारक पत्थर भी शामिल था, जो तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में सम्राट अशोक द्वारा रखे गए पत्थर के विवरण से मेल खाता था। इस स्थल पर एक भव्य स्मारक बनाने की योजना है, लेकिन अभी एक मजबूत ईंट मंडप मंदिर के खंडहरों की सुरक्षा करता है।आप ऊंचे बोर्ड वॉक पर खंडहरों के चारों ओर घूम सकते हैं। तीर्थयात्रियों के लिए केंद्र बिंदु बुद्ध के जन्म की एक बलुआ पत्थर की नक्काशी है, जिसे 14 वीं शताब्दी में मल्ल राजा, रिपु मल्ला द्वारा यहां छोड़ा गया था, जब माया देवी को हिंदू मातृ देवी के अवतार के रूप में पूजा जाता था। सदियों से चली आ रही पूजा के कारण यह नक्काशी लगभग सपाट हो गई है, लेकिन अब माया देवी की आकृति को देखा जा सकता है। जो एक पेड़ की शाखा को पकड़ रही है और बुद्ध को जन्म दे रही है, जबकि इंद्र और ब्रह्मा देख रहे हैं। इसके ठीक नीचे बुलेटप्रूफ शीशे के अंदर एक मार्कर पत्थर लगा हुआ है, जो उस स्थान को इंगित करता है जहां बुद्ध का जन्म हुआ था। प्राचीन माया देवी मंदिर का निर्माण सम्राट अशोक की लुम्बिनी यात्रा के दौरान लगभग 249 ईसा पूर्व में किया गया था , जिसमें मार्कर पत्थर और जन्म मूर्तिकला की सुरक्षा के लिए पकी हुई ईंटों का उपयोग किया गया था। आसपास की मिट्टी से पोस्टहोल संरेखण की रेडियोकार्बन डेटिंग से संकेत मिलता है कि पवित्र स्थान था पहली बार छठी शताब्दी ईसा पूर्व में माया देवी मंदिर के भीतर चित्रित किया गया था। 

9. जन्मस्थान का गर्भगृह :-

लुंबिनी (और संपूर्ण बौद्ध जगत का) का सबसे महत्वपूर्ण और पवित्र स्थान वह पत्थर की पटिया है जो सटीक स्थान बताती है जहां बुद्ध का जन्म हुआ था। यह गर्भगृह के अंदर गहराई में स्थित है और प्रसिद्ध मायादेवी मंदिर के पुराने स्थल पर खंडहरों की तीन परतों के नीचे की गई बहुत कठिन और श्रमसाध्य खुदाई के बाद पाया गया है ।

10. मायादेवी का पवित्र तालाब लुम्बिनी :- 

मायादेवी तालाब, माया देवी मंदिर परिसर के अंदर स्थित, वह जगह है जहां बुद्ध की मां उसे जन्म देने से पहले स्नान करती थीं। यह भी माना जाता है कि सिद्धार्थ गौतम का पहला स्नान भी यहां हुआ था। माया देवी मंदिर के ठीक सामने स्थित, माया देवी तालाब एक चौकोर आकार की संरचना है जिसमें जल स्तर तक चढ़ने के लिए चारों ओर सीढ़ियाँ हैं। इसे पुष्करिणी के नाम से भी जाना जाता है, यह वह जगह है जहां गौतम बुद्ध की मां – माया देवी – स्नान करती थीं। दरअसल भगवान बुद्ध का प्रथम स्नान इसी तालाब में हुआ था। तालाब के एक तरफ हरे-भरे झाड़ियों से घिरा ऊंचे पेड़ों वाला एक अच्छी तरह से रखा हुआ बगीचा है और दूसरी तरफ प्राचीन खंडहर हैं जो तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के हैं। माना जाता है कि ये खंडहर ईंट के मंडपों से संरक्षित प्राचीन मंदिरों और स्तूपों के अवशेष है। यहां माया देवी ने बुद्ध को जन्म देने से पहले स्नान किया था। मैदान के चारों ओर दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर 9वीं शताब्दी ईस्वी तक के कई ईंट स्तूपों और मठों की खंडहर नींवें बिखरी हुई हैं।

11. बोधि वृक्ष :- 

लुम्बिनी में बोधि वृक्ष शांत माया देवी तालाब के तट पर मंदिर के ठीक बगल में माया देवी मंदिर परिसर में स्थित है। इस पेड़ के नीचे ही भगवान बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त किया था। इस पेड़ को बहुत पवित्र माना जाता है। गौतम बुद्ध ने इस वृक्ष के नीचे ध्यान करके क्रोध, भ्रम, भोग और विलासिता से भरे अपने जीवन से मुक्ति प्राप्त की थी। इस पेड़ के करीब जाकर आपको अहसास होगा कि जीवन में भौतिक सुख के अलावा और भी बहुत कुछ है। यह पेड़ एक सदियों पुराना पीपल का पेड़ या फिकस रिलिजियोसा है जो रंग-बिरंगे प्रार्थना झंडों से सुसज्जित है, स्थानीय लोगों का मानना है कि रंग-बिरंगे प्रार्थना झंडों को बांधते समय मांगी गई इच्छाएं अक्सर पूरी होती हैं।

12. अशोक स्‍तंभ :- 

यूं तो दुनिया में कई अशोक स्‍तंभ हैं, लेकिन लुम्बिनी में बना अशोक स्‍तंभ सबसे प्रसिद्ध है। तीसरी शताब्दी में बनी यह प्राचीन संरचना माया देवी मंदिर के परिसर के अंदर स्थित है। कहते हैं कि राजा अशोक ने भगवान बुद्ध को श्रद्धांजलि देने के लिए इस स्तंभ का निर्माण करवाया था। इसकी ऊंचाई 6 मीटर है, इसलिए आप इसे दूर से ही देख पाएंगे। अगर आप लुंबिनी गए हैं, तो आपको अशोक स्‍तंभ को देखने जरूर जाना चाहिए।

13. विश्व शांति (जापान का )पगोडा लुंबिनी :- 

जापान शांति स्तूप, जिसे विश्व शांति पैगोडा के नाम से भी जाना जाता है, 21वीं सदी का प्रारंभिक स्मारक है – शांति का प्रतीक और लुंबिनी में एक प्रसिद्ध पर्यटक आकर्षण।
मुख्य परिसर के बाहर स्थित, संरचना पारंपरिक पगोडा शैली की वास्तुकला के साथ एक शानदार स्तूप है। जापानी बौद्ध द्वारा 1 मिलियन अमेरिकी डॉलर की लागत से निर्मित, यह स्मारक सुनहरे बुद्ध की मूर्ति के साथ सफेद रंग में रंगा गया है। राजसी संरचना के केंद्र में एक गुंबद है जिस तक पहुंचने के लिए दो सीढ़ियों में से एक पर चढ़कर पहुंचा जा सकता है। दूसरे स्तर पर, गुंबद को घेरने वाला एक गलियारा है।

14. ताइवान का संग्रहालय लुंबिनी :- 

पवित्र उद्यान क्षेत्र के यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल के अंदर स्थित, लुंबिनी संग्रहालय में धार्मिक पांडुलिपियों, धातु की मूर्तियां, टेरा कोटा, मौर्य और खुसना राजवंश के सिक्के और लुंबिनी को चित्रित करने वाले दुनिया भर के टिकटों सहित लगभग 12000 कलाकृतियां प्रदर्शित हैं।

15. रॉयल थाई बौद्ध मठ लुंबिनी:- 

लुंबिनी में रॉयल थाई मठ बौद्ध प्रथाओं को समर्पित एक भव्य और आश्चर्यजनक वाट-शैली (थाई मठ शैली) मठ है। चमचमाती इमारत सफेद संगमरमर से बनी है और पास में ही नीली छत वाला ध्यान केंद्र उत्कृष्ट स्थापत्य शैली का उदाहरण है।मंदिर की दीवार पर सुंदर डिजाइन और नक्काशी इस जगह को अवश्य देखने लायक बनाती है।

16.धर्म स्वामी महाराजा बुद्ध विहार, लुंबिनी :

धर्म स्वामी महाराजा बुद्ध विहार शाक्यपा संप्रदाय से संबंधित एक बौद्ध गोम्पा है। इसकी स्थापना महामहिम चोग्या त्रिचेन रिनपोछे ने की थी। इस स्थल की असीम शांति इसे ध्यान और शांत आत्मनिरीक्षण के लिए एक आदर्श स्थान बनाती है। मठ में रहने वाले 600 भिक्षुओं द्वारा प्रतिदिन तारा पूजा की जाती है।

17.श्रीलंकाई मठ, लुम्बिनी :- 

श्रीलंका मंदिर के रूप में भी जाना जाने वाला यह मठ एक सुंदर श्रीलंकाई बौद्ध प्रतिष्ठान है जो गौतम बुद्ध के जीवन और क्षेत्र में इसके महत्व के बारे में जानकारी देता है। 
 ये उत्सव, कार्यक्रम और त्यौहार लुंबिनी के एक प्राचीन मठ में मनाए जाने वाले उत्सवों से थोड़े अलग लग सकते हैं। यह गौतम बुद्ध के जीवन की एक झलक भी प्रदान करता है और पूरे समय में इसके विकास पर जोर देता है। यह मठ श्रीलंका को समर्पित एक थेरवाद बौद्ध प्रतिष्ठान है। यह लुंबिनी के पूर्वी मठ क्षेत्र में स्थित एक आकर्षक मठ है, जिसके शीर्ष पर एक पारंपरिक शिवालय के साथ एक गोलाकार ऊंचा मंच है। शिवालय के नीचे, भगवान बुद्ध की एक सुंदर सुनहरी मूर्ति है जो ध्यान मुद्रा में बैठी हुई दिखाई देती है। इस व्यवस्था में एक मार्ग है जो संरचना को घेरता है और परिक्रमा के लिए एक क्षेत्र प्रदान करता है। यह स्थल बेहद अच्छी तरह से बनाए रखा गया है और इतना शांतिपूर्ण है कि पर्यटक एक पल के लिए एकांत में बैठ सकते है

18.कम्बोडियन मठ, लुम्बिनी :- 

लुम्बिनी में सबसे आकर्षक पर्यटक स्‍थल है कंबोडिया मठ है। इस जगह की वास्तुकला कंबोडिया में अंगकोर वाट के जैसी है। इस संरचना के भीतर आपको कई रंगों में ड्रेगन, सांपों और फूलों की सुंदर नक्काशी देखने को मिलेगी। इस मंदिर के अंदर हरे रंग के सापों की नक्काशी बनी हुई है। इन सापों की लंबाई 50 मीटर से ज्‍यादा बताई जाती है। इस मठ में जाकर, कंबोडियन बौद्ध धर्म की एक झलक देखने को मिलेगी। कंबोडियन मठ रंगीन कल्पना और आध्यात्मिक शक्तियों का मिश्रण है जो इसे क्षेत्र के सबसे आकर्षक मंदिरों में से एक बनाता है। प्रसिद्ध अंगकोर वाट से मेल खाते वास्तुशिल्प डिजाइन में निर्मित, आकर्षक मठ एक चौकोर रेलिंग से घिरा हुआ है, प्रत्येक में चार 50 मीटर हरे सांप हैं। बड़े परिसर की बाहरी दीवार सुंदर और जटिल डिजाइनों से ढकी हुई है।

19.म्यांमार बर्मी स्वर्ण मंदिर, लुम्बिनी :- 

लुंबिनी में म्यांमार स्वर्ण मंदिर शहर की सबसे पुरानी संरचना है। बर्मी वास्तुकला शैली में निर्मित यह मंदिर भगवान बुद्ध को समर्पित है। बागान के मंदिरों की तर्ज पर बनाया गया मक्के के भुट्टे के आकार का प्रभावशाली शिखर पूरी संरचना को एक राजसी रूप देता है। इमारत के अंदर तीन प्रार्थना कक्ष और एक लोकमणि पुला पगोडा हैं।

20.चीन मंदिर, लुम्बिनी:- 

झोंग हुआ चीनी बौद्ध मठ, जिसे चीन मंदिर के नाम से जाना जाता है, लुंबिनी में एक सुंदर बौद्ध मठ है। यह प्रभावशाली संरचना पगोडा-शैली की वास्तुकला में बनाई गई है और चीन के प्रसिद्ध निषिद्ध शहर की तरह दिखती है। जैसे ही कोई प्रवेश करता है, पूरी तरह से सुसज्जित आंतरिक आंगन दिल को शांति और आनंद से भर देता है।

21.कोरियाई मंदिर, लुंबिनी :- 

डे सुंग शाक्य सा, जिसे कोरियाई मंदिर के नाम से जाना जाता है, लुंबिनी में एक बौद्ध मठ है। यह प्रभावशाली संरचना कोरियाई वास्तुकला शैली में बनाई गई है और इसकी छत पर रंगीन भित्ति चित्र हैं।भिक्षुओं और तीर्थ यात्रियों से भरे प्रांगण में ध्यान करना एक शांतिपूर्ण और ताज़ा अनुभव है।

22.मनांग समाज स्तूप, लुम्बिनी :- 

उत्तरी नेपाल में मनांग के बौद्धों द्वारा बनाया गया एक चोर्टेन, मनांग समाज स्तूप नेपाल के सबसे पुराने स्तूपों में से एक माना जाता है, जो 600 ईसा पूर्व में गौतम बुद्ध के जन्म के समय का है। इस इमारत के मध्य में एक सुनहरी बुद्ध प्रतिमा है और यह रंगीन भित्तिचित्रों से घिरी हुई है। वर्तमान में, इस आकर्षण का मानना है कि यह जल्द ही नवीकरण के अधीन हो जाएगा।

23.वियतनाम फ़ैट क्वोक तू मंदिर, लुम्बिनी :

वियतनाम के लुंबिनी में स्थित फाट क्वोक तू मंदिर उन कुछ आकर्षणों में से एक है जो वियतनाम और नेपाल के बीच संबंधों का प्रतिनिधित्व करता है। गौतम बुद्ध की तीर्थयात्रा के हिस्से के रूप में कई लोग इस मंदिर में आते हैं। कृत्रिम पहाड़ों और एक भव्य छत से घिरा इसका अग्रभाग है ।

24.ग्रेट ड्रिगुंग लोटस स्तूप, लुम्बिनी:- 

ग्रेट ड्रिगुंग लोटस स्तूप लुंबिनी में धार्मिक रूप से सबसे महत्वपूर्ण स्तूपों में से एक है और इसका निर्माण जर्मन तारा फाउंडेशन द्वारा किया गया था। इमारत में एक खोखला मुकुट है जो आंशिक रूप से कांच से ढका हुआ है जिससे अंदर बुद्ध की मूर्ति का पता चलता है। इस इमारत का ऐतिहासिक महत्व सदियों पुराना है जब इस इमारत का निर्माण रिनपोचेस की देखरेख और मार्गदर्शन में हुआ था। लुम्बिनी में यह स्तूप निश्चित रूप से देखने लायक है। स्तूप की गुंबददार छत बौद्ध भित्ति चित्रों से ढकी हुई है। सोना, लकड़ी और नक्काशी बुद्ध की मान्यताओं और शिक्षाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं जो शांति और अहिंसा का संदेश फैलाते हैं।

25.थ्रांगु वज्र विद्या मठ, लुम्बिनी :- 

थ्रांगु वज्र विद्या मठ लुम्बिनी में एक मठ है जो थ्रांगु रिनपोछे को समर्पित है। वह शांति, ज्ञान और एकता पर अपने सिद्धांतों का निर्माण करते हुए बुद्ध की शिक्षाओं में विश्वास करते थे। बहुत कम उम्र से, थ्रांगु रिनपोछे ने बौद्ध अध्ययन के लिए संस्थानों की स्थापना शुरू कर दी थी। आज, इस मठ में कई छात्र हैं जो महत्वाकांक्षी भिक्षु हैं। मठ में कई कार्यक्रम भी होते हैं जहां नियमित आधार पर सेमिनार, भाषण और समारोह आयोजित किए जाते हैं। उन्होंने यहां कई संस्थान भी स्थापित किए हैं जो इंग्लैंड, अमेरिका और कनाडा जैसे विभिन्न देशों में स्थित हैं। थरांगु वज्र विद्या मठ, थरागु रिनपोछे का एक स्मारक है और लुंबिनी में एक बड़ा आकर्षण है।

26.विश्व शांति पैगोडा :- 

पीस पैगोडा शांति को प्रेरित करने वाला एक स्मारक है जिसे सभी जातियों और पंथ के लोगों को एकजुट करने तथा विश्व शांति की उनकी खोज में मदद के लिए डिजाइन किया गया है। इसे निप्पोनज़न पीस पैगोडा भी कहा जाता है । इसे लगभग दस लाख अमेरिकी डॉलर की लागत से जापानी बौद्धों द्वारा डिजाइन और निर्मित किया गया था। पैगोडा लुंबिनी मास्टर प्लान की केंद्रीय धुरी पर शुरुआती बिंदु के रूप में कार्य करता है , दूसरा छोर मायादेवी मंदिर है । शिवालय से मंदिर की दूरी लगभग 3.2 किमी है। स्तूप की सीढ़ियाँ तीन अलग-अलग स्तरों तक ले जाती हैं। स्तूप को सफेद किया गया है और फर्श पर पत्थर लगाया गया है। इसमें बुद्ध की चार बड़ी सुनहरी मूर्तियाँ हैं जो चार दिशाओं की ओर मुख किये हुए हैं।स्तूप के आधार के पास एक जापानी भिक्षु (उनाताका नवतामे) की कब्र है, जिसे भारत के लुटेरों ने पास ही गोली मार दी थी। स्तूप के उत्तर का क्षेत्र मुख्य रूप से सारस क्रेन के पक्षियों के आवास के लिए भी संरक्षित है । 


                     आचार्य डा. राधे श्याम द्विवेदी 
लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल ,आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं लेखक को अभी हाल ही में इस पावन स्थल को देखने का अवसर मिला था।) 



Saturday, April 20, 2024

मोहन प्यारे द्विवेदी द्वारा संकलित प्रिय भजन आचार्य पंडित मोहन प्यारे द्विवेदी "मोहन "


             आचार्य पंडित मोहन प्यारे द्विवेदी "मोहन "

            ये भजन प्रायः पण्डित मोहन प्यारे द्विवेदी अपने दैनिक जीवन में दुहराते रहते थे। इनमें कुछ तो उनके द्वारा स्वयं लिखे हुए हैं, कुछ उन्हें पसन्द आने पर संकलित किए हुए हैं। वे सूर कबीर तुलसी दास जी मीरा रैदास और नानक जी के प्रिय भजन भी गाते थे। उन्हें जिस किसी भी स्रोत से यह मिला, यह उन्हे पसन्द आए और वे इसे अपनी जीवन चर्या का अंग बना लिए थे। आइए इन पर एक नजर डालें।

1 . मन की तरंग मार लो बस हो गय भजन (कबीरदास)

मन की तरंग मार लो बस हो गय भजन ।
आदत बुरी सुधार लो बस हो गया भजन ॥

आऐ हो तुम कहाँ से जाओगे तुम कहाँ ।
इतना सा बस विचार लो बस हो गया भजन ॥

कोई तुमहे बुरा कहे तुम सुन करो क्षमा ।
वाणी का स्वर संभार लो बस हो गया भजन ॥

नेकी सबही के साथ में बन जाये तो करो ।
मत सिर बदी का भार लो बस हो गया भजन ॥

कहना है साफ साफ ये सदगुरु कबीर का ।
निज दोष को निहार लो बस हो गया भजन ॥

2. पितु मातु सहायक स्वामी सखा 

( परम्परागत , स्वर : स्व.मुकेश कुमार)

पितु मातु सहायक स्वामी सखा तुमही एक नाथ हमारे हो.
जिनके कछु और आधार नहीं तिन्ह के तुमही रखवारे हो.
सब भांति सदा सुखदायक हो दुःख दुर्गुण नाशनहारे हो.
प्रतिपाल करो सिगरे जग को अतिशय करुणा उरधारे हो.
भुलिहै हम ही तुमको तुम तो हमरी सुधि नाहिं बिसारे हो.
उपकारन को कछु अंत नही छिन ही छिन जो विस्तारे हो.
महाराज! महा महिमा तुम्हरी समुझे बिरले बुधवारे हो.
शुभ शांति निकेतन प्रेम निधे मनमंदिर के उजियारे हो.
यह जीवन के तुम्ह जीवन हो इन प्राणन के तुम प्यारे हो.
तुम सों प्रभु पाइ प्रताप हरि केहि के अब और सहारे हो।।
 
3. तूने रात गँवायी सोय के (कबीरदास )
 
तूने रात गँवायी सोय के दिवस गँवाया खाय के।
हीरा जनम अमोल था कौड़ी बदले जाय रे।
सुमिरन लगन लगाय के मुख से कछु ना बोल रे।
बाहर का पट बंद कर ले अंतर का पट खोल रे।
माला फेरत जुग हुआ गया ना मन का फेर रे.।
 गया ना मन का फेर रे ।

मनका मनका छँड़ि दे मनका मनका फेर रे ।
दुख में सुमिरन सब करें सुख में करे न कोय रे ।
जो सुख में सुमिरन करे तो दुख काहे को होय रे ।
सुख में सुमिरन ना किया दुख में करता याद रे।
दुख में करता याद रे ।
कहे कबीर उस दास की कौन सुने फ़रियाद रे।।

4. हे गोविन्द राखो शरन ( सूरदास)

हे गोविन्द राखो शरन अब तो जीवन हारे।
नीर पिवन हेत गयो सिन्धु के किनारे।
सिन्धु बीच बसत ग्राह चरण धरि पछारे।
चार प्रहर युद्ध भयो ले गयो मझधारे।
नाक कान डूबन लागे कृष्ण को पुकारे।
 द्वारका मे सबद दयो शोर भयो द्वारे।
शन्ख चक्र गदा पद्म गरूड तजि सिधारे।
 सूर कहे श्याम सुनो शरण हम तिहारे।
अबकी बेर पार करो नन्द के दुलारे।।

5. मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में (कबीर दास)

मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में।
जो सुख पाऊ राम भजन में 
सो सुख नाहिं अमीरी में।
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में।
भला बुरा सब का सुन लीजै, 
कर गुजरान गरीबी में।
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में।
आखिर यह तन छार मिलेगा।
कहाँ फिरत मग़रूरी में।
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में।
प्रेम नगर में रहनी हमारी।
साहिब मिले सबूरी में।
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में।
कहत कबीर सुनो भयी साधो,
साहिब मिले सबूरी में।
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में।।

6.भोली राधिका उठा तू गोद लेते थे।
(मोहन शतक से)

नंदजी को नंदित किए हो खेल बार-बार, 
अम्ब जसुदा को तू कन्हैया मोद देते थे।
कुंजन में कुंजते खगों के बीच प्यार भरे, 
हिय में दुलार ले उन्हें विनोद देते थे।
देते थे हुलास ब्रज वीथिन में घूम- घूम
मोहन अधर चूमि तू प्रमोद देते थे।
नाचते कभी थे ग्वाल ग्वालिनों के संग कभी, 
 भोली राधिका उठा तू गोद लेते थे।।

7 . स्वरचित कवित्त: -गाते रहो गुण ईश्वर के 
          ( ''नवसृजन'' अप्रैल-जून 1979 )

गाते रहो गुण ईश्वर के 
जगदीश को शीश झुकाते रहो।
छवि 'मोहन' की रक्खी नैनन में, 
नित प्रेम की अश्रु बहाते रहो।
नारायण स्वरूप धरो मन में, 
मन से मन को समझाते रहो।
करुणा करि के करुणानिधि को, 
करुणा के गीत सुनाते रहो।। 

8. स्वरचित कवित्त्त ; रही अंत समय मन में मनकी।

जग में जनमें जब बाल भये, 
तब एक रही सुधि भोजन की।
कुछ और बड़े जब हुए तभी 
तन तरूणी की रही कामना तन की।
जब वृद्ध भयो मन तृष्णा ना गई 
सब लोग कहते हैं सनकी सनकी।
सुख! 'मोहन' नहीं मिल्यो कबहूँ, 
रही अंत समय मन में मनकी।। 

9. स्वरचित भजन
प्रेम रस भीगे सने मुक्ति को पा जाते हैं। 

भागवत वेदान्त का सार कहा जाता है,
रसामृत पान से तृप्ति मिल जाती है।
सेवन,आस्वादन भागवत वाक्य कान में 
जीव को हरी का गोलोक मिल जाती हैं।
तेज जल स्थल जाग्रत और स्वप्न में 
सुषुप्ति सृष्टि मिथ्या सत्य हो जाती है।
स्वयं प्रकाश माया कार्य से मुक्त होते 
सत्य स्वरूप चित्त ध्यानस्थ हो जाती हैं।
उनकी प्रतिष्ठा से सुख गति मिलता है 
मित्र प्रेम भाव से अनन्यता मिल जाती है।
उनकी ही आस ले यह द्विज मोहन प्यारे 
प्रेम रस भीगे सने मुक्ति को पा जाती है।।


10 .स्वरचित भजन
हरि नाम जपो हरि नाम जपो 

हरि नाम बड़ा अलबेला है , 
लगता नहीं पैसा अधेला है 
यह जीते जी का मेला है  
हरि नाम जपो हरि नाम जपो ।

जो जन हरि को नहीं ध्यता है, 
वो लाखों कष्ट उठाता है।
 शिर धुनि कर पछताते है, 
हरि नाम जपो हरि नाम जपो ।

जो कल करना हो सो आज कर लो 
जो आज करना है सो अब कर लो ।
मत एक क्षण का विश्वास करो, 
हरि नाम जपो हरि नाम जपो ।

हरि का भजना सुख दाता है 
 हरि का रसना सुख दाता है 
हरि भक्त हरी को पाता है 
,हरि नाम जपो हरि नाम जपो ।।

11. स्वरचित भजन
 हरि नाम जपो नहीं कोई अपना.

हरि नाम जपो ,नहीं कोई अपना 
हरि नाम राम रटले रसना ।
हरि नाम जपो हरि नाम जपो
निस्सार जगत में और हैं कुछ ना।
यह सोच राम भज रेन दिना,
हरि नाम जपो नहीं कोई अपना ।

जो भव सागर चाहो तरना ,
एक राम नाम चित्त में धरना ।
अनमोल स्वास न कभी खोना ,
हरि नाम जपो नहीं कोई अपना ।

इन तन का मोह नहीं करना ,
यह एक दिन रज में मिलना ।
चित्त में हरि चरण ध्यान धरना ,
हरि नाम जपो नहीं कोई अपना।

बस चार दिन जग में रहना ,
फिर अपने निजी देश चलना ।
अब वाद - विवाद नहीं करना ।
हरि नाम जपो नहीं कोई अपना।

सब कर्म - अकर्म तो कुछ करना ,
सब अपने प्रभु को भेंट करना ।
फिर यम के त्रास से नहीं डरना ,
हरि नाम जपो कोई नहीं अपना।

सुखदायक हैं तो ये श्री चरना ,
फलदायक हैं तो ये श्री चरणा 
कर जोड़ के विनती करूँ कृष्णा ,
हरि नाम जपो नहीं कोई अपना .।।

12. नानक देव जी का प्रिय भजन :-

सुमिरन कर ले मेरे मना, तेरी बीती उमर हरिनाम बिना
कूप नीर बिनुं, धेनुं छीर बिनुं, धरती मेह बिना।
जैसे तरुवर फल बिन हीना, तैसे प्रानी हरिनाम बिना।
देह नैन बिन, रैन चंद बिना, मंदिर दीप बिना।
जैसे पंडित बेद बिहीना, तैसे प्रानी हरिनाम बिना।
काम क्रोध मद लोभ निहारो, छांड दे अब संतजना।
कहे नानकशा सुन भगवंता, या जगमें नहीं कोई अपना।।

13.मांगलिक श्लोकः- 

उन दिनों तीन दिनों की शादी बारात जाती थी। पहले दिन शादी दूसरे दिन बड़हार और शिष्टाचार होता था। इसमें विद्वत जन बर बधू और दोनो पक्ष को मंगल श्लोक तथा आशीर्वाद देते थे। ऐसे अवसर पर पंडितजी इस प्रकार की मांगलिक शब्दावली का प्रयोग करते थे-

अहि यतिरहि लोके, शारदा साऽपि दूरे।
बसति विबुध वन्द्यः, शक्र गेहे सर्वदा।
निवसति शिवपुर्यम्, षण्मुखोऽसौकुमारः।
तवगुण महिमानम्, को वदेदात्र श्रीमान्।।

अर्थ :- 
 बिना किसी रुकावट के सांप के लोक में जो शिव जी रहते हैं उनकी महिमा का गुणगान कौन कर सकता है क्योंकि सरस्वती जी भी उनसे दूर रहती हैं। जो इंद्र के घर सदा अपने बंधु बांधवों के साथ रहते हैं । जिनके पुत्र कार्तिकेय के छ: मुख हैं और जो शिव लोक में निवास करते हैं। श्री मान आपके गुणों की महिमा आज कौन कर सकता है। अर्थात आपके महान गुणों का बखान कोई नही कर सकता है।

अजब गजब/चित्र विचित्र अर्थ वाला मंगल श्लोक 

नन्वासस्यां समाजयां ये ये चन्द्राः पण्डिताः, वैकणाः, नैयायिकाः वेदान्तज्ञदयो वर्तन्ते, तं तं सर्वान् प्रति अस्य श्लोकस्यार्थस्य कथनार्थम् निवेदयामि। सोऽयं श्लोकः-

 इस समाज में उपस्थित जो जो पण्डित व्याकरण ज्ञाता न्याय शास्त्र के ज्ञाता वेदान्त के ज्ञाता उपस्थित हैं, उन उन सबसे निवेदन है कि इस श्लोक का अर्थ बतलाने की कृपा करें।

''ति गौ ति ग ति वा ति त्वं प री प न प नि प पं
मा प धा प र प द्या अंतु उ ति रा सु ति ति वि ते।''


 ( प्रस्तुति: आचार्य डा.राधे श्याम द्विवेदी)


कवि परिचय :- 

(आशुकवि आचार्य पंडित मोहन प्यारे द्विवेदी का जन्म 1 अप्रैल 1909 में बस्ती जिले दुबौली दूबे नामक गांव में हुआ था। उन्होंने समाज में शिक्षा के प्रति जागरुकता के लिए आजीवन प्राइमरी विद्यालय करचोलिया का प्रधानाचार्य पद निभाया था। सेवानिवृत्त लेने बाद लगभग दो दशक वे नौमिषारण्य में भगवत भजन में लीन रहे। उनकी मुख्य रचनाएँ : नौमिषारण्य का दृश्य, कवित्त, मांगलिक श्लोक, मोहन शतक आदि है। वे दिनांक 15 अप्रॅल 1989 को 80 वर्ष की अवस्था में अपने मातृभूमि में अंतिम सासें लेकर परमतत्व में समाहित हो गये l )