Sunday, March 20, 2022

राम चरित मानस में पुरूषार्थ का विशेष विधान डा. राधे श्याम द्विवेदी

            भारतीय जीवन - दर्शन   में भौतिक   तथा  आध्यात्मिक   सुख   दोनों   का   महत्त्व   है   तथा   दोनों   के   समन्वित   रूप   से   ही   व्यक्ति   तथा   समाज   का   उत्कर्ष   सम्भव   है।   हिन्दू धर्मशास्त्रों   में   इसी   कारण   ‘ आश्रम - व्यवस्था'     निर्मित   की   गई   थी   जिसमें   लौकिक   तथा   पारलौकिक   लक्ष्य   की   प्राप्ति   हेतु   ‘ पुरूषार्थ ’  को   आधार   माना   गया   है।   आश्रम - व्यवस्था   में   वह   भौतिक   पदार्थों ,  सुखों   व   भोग   करते   हुए   अन्त   में   ‘ परमात्मा   प्राप्ति ’  की   ओर   उन्मुख   होता   है।   यह   चार   पुरूषार्थ   ‘ धर्म ’, ‘ अर्थ ’, ‘ काम ’  और   ‘ मोक्ष ’  हैं।   इन्हें   ‘ चतुर्वर्ग ’  कहते   हैं।   पुरुषार्थ से तात्पर्य मानव के लक्ष्य या उद्देश्य से है ('पुरुषैर्थ्यते इति पुरुषार्थः')। पुरुषार्थ = पुरुष+अर्थ =पुरुष का तात्पर्य विवेक संपन्न मनुष्य से है अर्थात विवेक शील मनुष्यों के लक्ष्यों की प्राप्ति ही पुरुषार्थ है। प्रायः मनुष्य के लिये वेदों में चार पुरुषार्थों का नाम लिया गया है - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इसलिए इन्हें 'पुरुषार्थचतुष्टय' भी कहते हैं। महर्षि मनु पुरुषार्थ चतुष्टय के प्रतिपादक हैं। बाद   में   मोक्ष   को   अंतिम   व आध्यात्मिक पुरुषार्थ मानकर   प्रथम तीन   लौकिक पुरूषार्थ   ‘ धर्म ;  अर्थ ; ‘ काम ’  पर   विशेष   बल   दिया   गया।   जिसे   ही   ‘ त्रिवर्ग ’  कहा   गया।   इस   प्रकार   मनुष्य   धर्म ,  अर्थ ,  काम   का   अनुसरण   करता   है ;  जिससे   एक   ‘ आदर्श   समाज ’ का निर्माण होता है।  तुलसीदास   बालकाण्ड   में   इसे  इस तरह वर्णित   किया   है   - - 
“ अरथ धरम कामादिक चारी। कहब ग्यान बिग्यान बिचारी।।
नव   रस जय जोग बिरागा।  ते सब जलचर चारू तड़ागा।। ”
    अर्थात्   धर्म ,  अर्थ ,  काम ,  मोक्ष - ये   चारों ,  ज्ञान -  विज्ञान   का   विचार   के   कहना ,  काव्य   के   नौ   रस ,  जप ,  तप ,  योग   और   वैराग्य   के   प्रसंग - ये   सब   इस   सरोवर   के   सुन्दर   जलचर   जीव   हैं।   तुलसीदास   ने   मनुष्य   जीवन   में   ही   ‘ पुरूषार्थ ’  के   महत्त्व   को   अंकित   नहीं   किया   बल्कि   यह   भी   बताया   कि   काव्य   को   भी   इनका  ( पुरूषार्थ )  अनुसरण   करने   वाला   तथा   इनकी   ओर   प्रेरित   किए   जाने   वाला   होना   चाहिए।  तुलसीदास   अपनी   श्रीराम   के   प्रति   भक्ति - भावना   का   वर्णन   करते   हुए   कहते   हैं   कि   श्रीराम   के   प्रभाव   से   चारों   पदार्थ  ( धर्म ,  अर्थ ,  काम ,  मोक्ष )  भी   मुट्ठी   में   आ   जाते   हैं।   राज्य   का   भी   यह   कर्तव्य   होता   है   कि   इन   चारों   को   प्राप्त   करने   में   प्रजा   की   सहायता   करें।   गोस्वामी   जी   कहते   हैं   कि   राजा   के   पास   चारों   पुत्र   ऐसी   शोभा   पा   रहे   हैं   मानो   अर्थ ,  धर्म ,  काम   और   मोक्ष   शरीर   धारण   किए   हों।   राजा   के   लिए   भी   धर्म ,  अर्थ ,  काम ,  मोक्ष   अत्यन्त   आवश्यक   माना   गया   है।   अतः   तुलसीदास   भी   ‘ मानस ’  में   चित्रित   करते   हैं   कि   ‘ श्रीराम - सीता   के   विवाह   के   पश्चात्   सब   पुत्रों   को   बहुओं   सहित   देखकर   अवधेश   नरेश   दशरथजी   ऐसे   आनन्दित   हैं ,  मानो   वे   राजाओं   के   शिरोमणि   क्रियाओें   साहित   चारों   फल  ( धर्म ,  अर्थ ,  काम ,  मोक्ष )  पा   गए   हों - 
‘ मुदित अवधपति   सकल ’  सुत  बधुन्ह  समेत  निहारि।
जनु   पाए   महिपाल   मनि  कृयन  सहित  फल  चारि।। ’
        हिन्दू   धर्म   में   मानव - जीवन   का  पुरूषार्थ   ही   उद्देश्य   अथवा   लक्ष्य   माना   जाता   है।   ‘ तुलसीदास ’  भी   पुरूषार्थ  ( चतुर्वर्ग )  अथवा   त्रिवर्ग   को   अनेक   स्थानों   पर   सम्पादित   होते   हुए   अभिव्यक्त   किया   है   और   अंत   में   ‘ श्रीराम ’  के   चरणों   में   ही   मोक्ष   या   परमानंद   की   अवस्था   मानी   है।


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