गुरुरेव परंब्रह्म तस्मै श्री गरुवेनमः।।
हिन्दू धर्मानुसार दिशाहीन जीवन को दिशा देना ही दीक्षा है।किसी भी व्यक्ति के जीवन में गुरु का स्थान बहुत ही महत्वपूर्ण है। जन्म देने वाली माता और पालन करने वाले पिता के बाद सुसंस्कृत बनाने वाले गुरु का ही स्थान है। शास्त्रों में बताया गया है कि प्रत्येक व्यक्ति में आत्मशक्ति के रूप में पराशक्ति विद्यमान रहती है। जो जन्म-जन्मान्तरों से निष्क्रिय तथा सुषुप्त अवस्था में रहती है। जब सद्गुरू द्वारा दीक्षा संस्कार सम्पन्न किया जाता है तो शिष्य को अन्तर्निहित दिव्य-शक्ति का आभास हो जाता है। दीक्षा एक शपथ, एक अनुबंध और एक संकल्प है।धर्म के मोक्ष मार्ग पर चलने को दीक्षा कहते हैं। अक्सर लोग वानप्रस्थ काल में दीक्षा लेते हैं। दीक्षा देना और लेना एक बहुत ही पवित्र कार्य है। इसकी गंभीरता को समझना चाहिए। 13 अखाड़ों में सिमटा हिंदू संत समाज पांच भागों में विभाजित है और इस विभाजन का कारण आस्था और साधना पद्धतियां हैं, लेकिन पांचों ही सम्प्रदाय वेद और वेदांत पर एकमत है। यह पांच सम्प्रदाय है-1.वैष्णव 2.शैव, 3.स्मार्त, 4.वैदिक और पांचवां संतमत।
वैष्णवों के अंतर्गत अनेक उप संप्रदाय है जैसे वल्लभ, रामानंद आदि। शैव के अंतर्गत भी कई उप संप्रदाय हैं जैसे दसनामी, नाथ, शाक्त आदि। शैव संप्रदाय से जगद्गुरु पद पर विराजमान करते समय शंकराचार्य और वैष्वणव मत पर विराजमान करते समय रामानंदाचार्य की पदवी दी जाती है।
दीक्षा के प्रकार
हिन्दू धर्म में 64 प्रकार से दीक्षा दी जाती है। जैसे, समय दीक्षा, मार्ग दीक्षा, शाम्भवी दीक्षा, चक्र जागरण दीक्षा, विद्या दीक्षा, पूर्णाभिषेक दीक्षा, उपनयन दीक्षा, मंत्र दीक्षा, जिज्ञासु दीक्षा, कर्म संन्यास दीक्षा, पूर्ण संन्यास दीक्षा आदि। शास्त्राधारित गुरु दीक्षा के तीन प्रकार के भेद वर्णित है।
1. ब्रह्म दीक्षा 2. शक्ति दीक्षा और 3. मंत्र दीक्षा।
1- ब्रह्म दीक्षा : –
इसमें गुरु साधक को दिशा निर्देश व सहायता कर उसकी कुंडलिनी को प्रेरित कर जाग्रत करता है। ब्रह्म नाड़ी के माध्यम से परमशिव में आत्मसात करा देता है। इसी दीक्षा को ब्रह्म दीक्षा या ब्राह्मी दीक्षा कहते है।
2- शक्ति दीक्षा : –
सामर्थ्यवान गुरु साधक की भक्ति श्रद्धा व सेवा से प्रसन्न होकर अपनी भावना व संकल्प के द्वारा द्रष्टि या स्पर्श से अपने ही समान कर देता है। इसे शक्ति दीक्षा, वर दीक्षा या कृपा दीक्षा भी कहते हैं।
3- मंत्र दीक्षा : –
मंत्र के रूप में जो ज्ञान दीक्षा अथवा गुरु मंत्र प्राप्त होता है उसे मंत्र दीक्षा कहते हैं। गुरु सर्वप्रथम साधक को मंत्र दीक्षा से ही दीक्षित करते हैं। इसके बाद शिष्य अर्थात् साधक की ग्राह्न क्षमता, योग्यता श्रद्धा भक्ति आदि के निर्णय के बाद ही ब्रह्म दीक्षा व शक्तिदीक्षा से दीक्षित करते हैं। इसलिए यह प्रायः देखा जाता है कि एक ही गुरु के कई शिष्य होते है परन्तु सभी एक स्तर के न होकर भिन्न स्तर के होते है। कई एक साधक मंत्र दीक्षा तक ही सीमित रह जाते हैं। वैसे गुरु साधक को सर्वगुण संपन्न समझ कर जो कि एक साधक को होना चाहिए ।बिना मंत्र दीक्षा दिए भी प्रसन्न होकर कृपा करके ब्रह्म दीक्षा तथा शक्ति दीक्षा दे सकते हैं।
जन्म से लेकर अनवरत गुरु की महिमा जारी:-
मनुष्य जब से जन्म लेता है तभी से उसे गुरु की आवश्यकता होती है। उस समय माता-पिता उसके गुरु बन कर उसका पालन-पोषण करते है, उसे बोलना चलना, खाना-पीना सिखाते हैं, उसे नीति, धर्म, ज्ञान, विज्ञान की भी थोड़ी-बहुत शिक्षा देते हैं। जब मनुष्य किसी व्यवसाय में लगता है तब उसका स्वामी उसका गुरु बनता है। अथवा यदि वह कोई नौकरी करता है तो उसके ऊपर वाले अफसर उसके गुरु बनते हैं। इस प्रकार प्रत्येक साँसारिक और व्यवहारिक कामों में मनुष्य का कोई न कोई गुरु होता है। फिर अध्यात्मज्ञान और ब्रह्म विद्या जैसी महान चीजों के लिये तो गुरु का होना स्वाभाविक ही है। सद्गुरु की आवश्यकता तो संसार की उत्पत्ति के समय से ही होती आई है। सद्गुरु के प्रति शिष्य भगवान की भावना रखे, गुरुदेव के प्रति उसमें अचल भक्ति और श्रद्धा हो, और वह गुरु के वाक्यों को ईश्वर का आदेश समझे, तभी वह अपना समस्त जीवन सुख-शान्तिपूर्वक व्यतीत करके जन्म-मरण से मुक्त हो सकता है। जिस प्रकार गंगा अपना समस्त जल लेकर समुद्र से मिलती है, अथवा श्रुति जिस प्रकार सर्वज्ञान सहित ब्रह्म पद में प्रविष्ट होती है, अथवा पतिव्रता स्त्री जिस प्रकार अपना जीवन और गुण अवगुण सब कुछ अपने प्रिय पति को अर्पण करती है, उसी प्रकार शिष्य अपना सर्वस्व गुरु कुल को अर्पण करता है। जिस प्रकार विरहिनी पतिव्रता निरंतर पति का ही चिन्तन करती है, उसी प्रकार जिस स्थान में गुरु का निवास हो वहीं पर जिसका मन लगा रहता है, उस दिशा में से आने वाले पवन को भी जो सम्मुख खड़ा होकर नमस्कार करता है, सच्चे प्रेम से पागल बन कर जिस दिशा में गुरु रहते हों, उस दिशा से भी वार्तालाप करता है वही सच्चा शिष्य है। जिस प्रकार बछड़ा अलग खूंटे से बँधा होने के कारण ही गाय से पृथक रहता है, पर उसका ध्यान पूर्णतया अपनी माता की तरफ लगा रहता है, उसी प्रकार सच्चा शिष्य केवल गुरु की आज्ञा के कारण ही दूरवर्ती ग्राम में रहता है, और सदा यही विचार करता है कि कब गुरु की अनुमति मिले और मैं उनसे भेंट करूं। जिसे गुरु से दूर रहने से एक-एक क्षण युग के समान भारी जान पड़ता है, अगर गुरु के ग्राम से कोई आया हो अथवा गुरु ने ही किसी को भेजा हो, तो जो ऐसा प्रसन्न हो जाता है कि मानो जीवन रहित को नवीन आयुष मिल गया हो, अथवा सूखते हुये अंकुर पर अमृत की धार पड़ गई हो, अथवा मछली किसी गड्ढ़े से निकल कर समुद्र में पहुँच गई हो, अथवा किसी कंगाल मनुष्य को धन का खजाना मिल गया हो, अथवा जन्माँध को एक दृष्टि प्राप्त हो गई हो, अथवा भिखारी को इन्द्र पद मिल गया हो। गुरु के प्रति ऐसी प्रीति रखने वाला कोई मनुष्य अगर तुमको मिले तो ऐसा समझ लेना कि उसके मन में गुरु के प्रति सचमुच सेवक की भावना मौजूद है। ऐसा व्यक्ति अन्तःकरण में अत्यन्त प्रेम युक्त होकर गुरु की मूर्ति का ध्यान करता है, अपने शुद्ध हृदय रूपी मंदिर में गुरु की स्थापना करके भावना रूपी मंदिर में गुरु की स्थापना करके भावना रूपी सामग्री से उनकी पूजा करता है, अथवा ज्ञानरूपी किले में आनंदरूपी देवालय बनाकर उसमें श्री गुरु रूपी शिवलिंग की स्थापना करके उस पर ध्यानरूपी अमृत से अभिषेक करता है। जिसे इस गुरु भक्ति की इच्छा होगी, और जिसे इस गुरुभक्ति पर प्रेम होगा, उसे गुरु सेवा के सिवाय और कोई चीज कभी प्रिय न लगेगी।”
गुरु से मंत्र की दीक्षा ग्रहण करना अनिवार्य :-
इस विषय में वेद-शास्त्र में लिखा है- "गुरु से दीक्षा लिये बिना जप, पूजा वगैरह सब निष्फल जाता है, इसलिये साधना में सबसे पहले दीक्षा ही लेनी चाहिये। दीक्षा का अर्थ यह है कि यह मनुष्य को दिव्य ज्ञान प्रदान कर उसके समस्त पाप पुँज का नाश कर देती है।, इसी कारण ऋषि-मुनियों ने इसका नामकरण दीक्षा किया। ब्रह्मचर्य आदि प्रत्येक आश्रम के व्यक्ति के लिये दीक्षा ग्रहण करना आवश्यक है। इस संसार में सब कुछ दीक्षा मूलक है, बिना दीक्षा के जगत का कोई भी सुसम्पन्न नहीं हो सकता। जप, तपस्या आदि सबका आधार इसी पर है। दीक्षा प्राप्त कर लेने पर मनुष्य चाहे जिस आश्रम में रहे, तो भी उसके सब काम सिद्ध हो जाते हैं और दीक्षा प्राप्त किये बिना जो मनुष्य जप, पूजन आदि कार्य करता है वे सब कर्म पत्थर में बोये हुये बीज के समान निष्फल सिद्ध होते हैं। बिना दीक्षा वाले मनुष्य को सिद्ध अथवा सद्गति नहीं मिलती। इससे सब तरह से प्रयत्न करके सद्गुरु देव द्वारा अवश्य मंत्र दीक्षा ग्रहण करनी चाहिये।” गुरु की सहायता से शिष्य को अध्यात्म मार्ग में अग्रसर होने में निस्संदेह बड़ी सहायता मिलती है और सब सद्गुरु कम योग्यता और अधिकार वाले शिष्यों को भी अपनी शक्ति द्वारा अग्रसर कराके मुक्ति का पथिक बना देते हैं।
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