"चरैवेति चरैवेति चरैवेति, शक्त शक्ता: अत्येति।
अंतर्ज्योति अंतरेण न,अमित विक्रम अभिजायते।।
अतीव सुंदर अभ्यसि, अम्भुरूहं अति शोभते।
शुचौः शान्त आनंद अविरल,आत्मयोगात् प्रवाहिते।।"
( अर्थ - चलते रहो, विचरण करो, बढ़ते रहो। यही मजबूत और सक्षम बनने का मंत्र है। आंतरिक लक्ष्य एवं प्रेरणा के बिना असीमित बल प्रकट नहीं होता है। जैसे कमल का फूल पानी पर खिला हुआ अत्यंत सुंदर दिखता है। उसी प्रकार पवित्र, शांत एवं सतत् आनंद आंतरिक शक्ति के जल में ही अविरल रूप से प्रवाहित हो सकता है।)
इन्द्र द्वारा दिए गए “चरैवेति” के उपदेश में उद्यमशीलता का संदेश है। "चरैवेति चरैवेति” का अर्थ है, चलते रहो, चलते रहो, ज्ञान प्राप्त होगा या अनुभव से ही सही ज्ञान प्राप्त होता है।
“चरैवेति” श्लोकों की व्याख्या ऐतरेय ब्राह्मण ग्रंथ के सायण-भाष्य पर आधारित है । एतरेय ब्राह्मण ऋग्वेद की ऋचाओं पर आधारित वैदिक कर्मकांडों से संबंधित ग्रंथ है ।
इस ग्रंथ के पांच श्लोक बहुत ही उत्कृष्ट हैं।इसकी जानकारी हर सनातनी को होना ही चाहिए।प्रसंग तब का है जब बहुत मिन्नतें करने पर राजा हरिशचंद को रोहित नामक पुत्र हुआ जिसे राजा बरूण देव को देने के लिए वचन बद्ध थे पर मोह और ममता बस उसे जंगल में छिपवा दिया था।ये महत्त्व पूर्ण श्लोक निम्न हैं।
नानाश्रान्ताय श्रीरस्तीति रोहित शुश्रुम ।
पापो नृषद्वरो जन इन्द्र इच्चरतः सखा चरैवेति ॥1।।
अर्थ – हे रोहित, परिश्रम से थकने वाले व्यक्ति को भांति-भांति की श्री यानी वैभव/संपदा प्राप्त होती हैं ऐसा हमने ज्ञानी जनों से सुना है । एक ही स्थान पर निष्क्रिय बैठे रहने वाले विद्वान व्यक्ति तक को लोग तुच्छ मानते हैं । विचरण में लगे जन का इन्द्र यानी ईश्वर साथी होता है । अतः तुम चलते ही रहो (विचरण ही करते रहो, चर एव) ।
पुष्पिण्यौ चरतो जङ्घे भूष्णुरात्मा फलग्रहिः ।
शेरेऽस्य सर्वे पाप्मानः श्रमेण प्रपथे हतश्चरैवेति ॥2।।
अर्थ – निरंतर चलने वाले की जंघाएं पुष्पित होती हैं, अर्थात उस वृक्ष की शाखाओं-उपशाखाओं की भांति होती है जिन पर सुगंधित एवं फलीभूत होने वाले फूल लगते हैं, और जिसका शरीर बढ़ते हुए वृक्ष की भांति फलों से पूरित होता है, अर्थात वह भी फलग्रहण करता है । प्रकृष्ट मार्गों पर श्रम के साथ चलते हुए उसके समस्त पाप नष्ट होकर सो जाते हैं, अर्थात निष्प्रभावी हो जाते हैं।अतः तुम चलते ही रहो (विचरण ही करते रहो, चर एव)।
आस्ते भग आसीनस्योर्ध्वस्तिष्ठति तिष्ठतः ।
शेते निपद्यमानस्य चराति चरतो भगश्चरैवेति ॥3।।
अर्थ – जो मनुष्य बैठा रहता है, उसका सौभाग्य (भग) भी रुका रहता है । जो उठ खड़ा होता है उसका सौभाग्य भी उसी प्रकार उठता है । जो पड़ा या लेटा रहता है उसका सौभाग्य भी सो जाता है । और जो विचरण में लगता है उसका सौभाग्य भी चलने लगता है । इसलिए तुम विचरण ही करते रहो (चर एव) ।
कलिः शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापरः ।
उत्तिष्ठस्त्रेता भवति कृतं संपाद्यते चरंश्चरैवेति ॥ 4।।
अर्थ – शयन की अवस्था कलियुग के समान है, जगकर सचेत होना द्वापर के समान है, उठ खड़ा होना त्रेता सदृश है और उद्यम में संलग्न एवं चलनशील होना कृतयुग (सत्ययुग) के समान है । अतः तुम चलते ही रहो (चर एव) ।
इस श्लोक में मनुष्य की चार अवस्थाओं की तुलना चार युगों से क्रमशः की गई है । ये अवस्थाएं हैं (1) मनुष्य के निद्रामग्न एवं निष्क्रिय होने की अवस्था, (2) जागृति किंतु आलस्य में पड़े रहने की अवस्था, (3) आलस्य त्याग उठ खड़ा होकर कार्य के लिए उद्यत होने की अवस्था, और (4) कार्य- संपादन में लगते हुए चलायमान होना ।
चरन् वै मधु विन्दति चरन् स्वादुमुदुम्बरम् ।
सूर्यस्य पश्य श्रेमाणं यो न तन्द्रयते चरंश्चरैवेति ॥ 5 ।।
अर्थ – इतस्ततः भ्रमण करते हुए मनुष्य को मधु (शहद) प्राप्त होता है, उसे उदुम्बर (गूलर, अंजीर) सरीखे सुस्वादु फल मिलते हैं । सूर्य की श्रेष्ठता को तो देखो जो विचरणरत रहते हुए आलस्य नहीं करता है । उसी प्रकार तुम भी चलते रहो (चर एव) ।
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