राजा हरिश्चंद्र अयोध्या के प्रसिद्ध इक्ष्वाकु सूर्यवंशी क्षत्रिय राजा थे जो त्रिशंकु के पुत्र थे। ये अपनी सत्यनिष्ठा के लिए अद्वितीय थे और इसके लिए इन्हें अनेक कष्ट सहने पड़े। अयोध्या के राजा हरीशचंद्र बहुत ही सत्यवादी और धर्मपरायण राजा थे। उनकी पत्नी का नाम तारामती था। उन्होंने गुरु वशिष्ठ को अपना राज गुरु बनाया और सत्य न्याय के साथ राज्य किया। उन्होंने 99 यज्ञ किए और सौवे यज्ञ की कामना की। तभी देवता और ऋषियों ने इनकी परीक्षा लेने की योजना बनाई और इसके कर्ण धार ऋषि विश्वामित्र को बनाया। ऋषि विश्वामित्र द्वारा राजा हरीशचंद्र के धर्म की परीक्षा लेने के लिए स्वप्न में उनसे दान में उनका संपूर्ण राज्य मांग लिया गया था।
राजा हरीशचंद्र भी अपने वचनों के पालन के लिए विश्वामित्र को संपूर्ण राज्य सौंप दिया था। दान में राज्य मांगने के बाद भी विश्वामित्र ने उनका पीछा नहीं छोड़ा । उन्होंने स्वपन में अपने राज्य को विश्वामित्र को दान कर दिया! सुबह दरबार में सच में ऋषि खड़े थे और दान के बाद की दक्षिणा मांग रहे थे!
राज्य पहले ही दान कर चुके थे ।
महाराजा हरिश्चन्द्र सोचने लगे. विश्वामित्र की बात में सच्चाई थी किन्तु उन्हें दक्षिणा देना भी आवश्यक था. वे यह सोच ही रहे थे कि विश्वामित्र बोल पड़े- तुम हमारा समय व्यर्थ ही नष्ट कर रहे हो. तुम्हे यदि दक्षिणा नहीं देनी है तो साफ – साफ कह दो, मैं दक्षिणा नहीं दे सकता. दान देकर दक्षिणा देने में आनाकानी करते हो. मैं तुम्हे शाप दे दूंगा.
हरिश्चन्द्र विश्वामित्र की बातें सुनकर दुखी हो गये. वे अधर्म से डरते थे. वे बोले- भगवन ! मैं ऐसा कैसे कर सकता हूँ ? आप जैसे महर्षि को दान देकर दक्षिणा कैसे रोकी जा सकती है ? राजमहल कोष सब आपका हो गया. आप मुझे थोडा समय दीजिये ताकि मैं आपकी दक्षिणा का प्रबंध कर सकूँ.
विश्वामित्र ने समय तो दे दिया किन्तु चेतावनी भी दी कि यदि समय पर दक्षिणा न मिली तो वे शाप देकर भस्म कर देंगे. राजा को भस्म होने का भय तो नहीं था किन्तु समय से दक्षिणा न चुका पाने पर अपने अपयश का भय अवश्य था.उनके पास अब एक मात्र उपाय था कि वे स्वयं को बेचकर दक्षिणा चुका दे. उन दिनों मनुष्यों को पशुओ की भांति बेचा – ख़रीदा जाता था. राजा ने स्वयं को काशी में बेचने का निश्चय किया. वे अपना राज्य विश्वामित्र को सौंप कर अपनी पत्नी व पुत्र को लेकर काशी चले आये.
काशी में राजा हरिश्चन्द्र ने कई स्थलों पर स्वयं को बेचने का प्रयत्न किया पर सफलता न मिली. सायं काल तक राजा को शमशान घाट के मालिक डोम ने ख़रीदा. राजा अपनी रानी व पुत्र से अलग हो गये. रानी तारामती को एक साहूकार के यहाँ घरेलु काम – काज करने को मिला और राजा को मरघट की रखवाली का काम. इस प्रकार राजा ने प्राप्त धन से विश्वामित्र की दक्षिणा चुका दी.
तारामती जो पहले महारानी थी, जिसके पास सैकड़ो दास दासियाँ थी, अब बर्तन माजने और चौका लगाने का कम करने लगी. स्वर्ण सिंहासन पर बैठने वाले राजा हरिश्चन्द्र शमशान पर पहरा देने लगे. जो लोग शव जलाने मरघट पर आते थे, उनसे कर वसूलने का कार्य राजा को दिया गया. अपने मालिक की डांट – फटकार सहते हुए भी नियम व ईमानदारी से अपना कार्य करते रहे. उन्होंने अपने कार्य में कभी भी कोई त्रुटी नहीं होने दी.
इधर रानी के साथ एक ह्रदय विदारक घटना घटी. उनके साथ पुत्र रोहिताश्व भी रहता था. एक दिन खेलते – खेलते उसे सांप ने डंस लिया. उसकी मृत्यु हो गयी. वह यह भी नहीं जानती थी कि उसके पति कहाँ रहते है. पहले से ही विपत्ति झेलती हुई तारामती पर यह दुःख वज्र की भांति आ गिरा. उनके पास कफ़न तक के लिए पैसे नहीं थे. वह रोटी – बिलखती किसी प्रकार अपने पुत्र के शव को गोद में उठा कर अंतिम संस्कार के लिए शमशान ले गयी |
रात का समय था. सारा श्मशान सन्नाटे में डूबा था. एक दो शव जल रहे थे. इसी समय पुत्र का शव लिए रानी भी शमशान पर पहुंची. हरिश्चन्द्र ने तारामती से श्मशान का कर माँगा. उनके अनुनय – विनय करने पर तथा उनकी बातो से वे रानी तथा अपने पुत्र को पहचान गये, किन्तु उन्होंने नियमो में ढील नहीं दी. उन्होंने अपने मालिक की आज्ञा के विरुद्ध कुछ भी नहीं किया.
महाराजा हरिश्चन्द्र और तारामती
उन्होंने तारामती से कहा- शमशान का कर तो तुम्हे देना ही होगा. उससे कोई मुक्त नहीं हो सकता. अगर मैं किसी को छोड़ दूँ तो यह अपने मालिक के प्रति विश्वासघात होगा.
उन्होंने तारामती से कहा- अगर तुम्हारे पास और कुछ नहीं है तो अपनी साड़ी का आधा भाग फाड़ कर दे दो, मैं उसे ही कर में ले लूँगा. तारामती विवश थी. उसने ज्यो ही साड़ी को फाड़ना आरम्भ किया, आकाश में गंभीर गर्जना हुई. विश्वामित्र प्रकट हो गये. उन्होंने रोहिताश्व को भी जीवित कर दिया.
विश्वामित्र ने हरिश्चन्द्र को आशीर्वाद देते हुए कहा- तुम्हारी परीक्षा हो रही थी कि तुम किस सीमा तक सत्य एवं धर्म का पालन कर सकते हो. यह कहते हुए विश्वामित्र ने उन्हें उनका राज्य ज्यो का त्यों लौटा दिया.
महाराज हरिश्चन्द्र ने स्वयं को बेचकर भी सत्यव्रत का पालन किया. यह सत्य एवं धर्म के पालन का एक बेमिसाल उदाहरण है. आज भी महाराजा हरिश्चन्द्र का नाम श्रद्धा और आदर के साथ लिया जाता है.
राजा हरीशचंद्र ने अपनी पत्नी, बच्चों सहित स्वयं को बेचने का निश्चय किया और वे काशी चले गए, जहां पत्नी व बच्चों को एक ब्राह्मण को बेचा व स्वयं को चांडाल के यहां बेचकर मुनि की दक्षिणा पूरी की। राजा हरिश्चन्द्र ने सत्य के मार्ग पर चलने के लिये अपनी पत्नी और पुत्र के साथ खुद को बेच दिया था। कहा जाता है-
चन्द्र टरै सूरज टरै, टरै जगत व्यवहार,
पै दृढ श्री हरिश्चन्द्र का टरै न सत्य विचार।
राजा हरिश्चंद्र की पत्नी का नाम तारा था और पुत्र का नाम रोहिताश था। इन्होंने अपने दानी स्वभाव के कारण महर्षि विश्वामित्र जी को अपने सम्पूर्ण राज्य को दान कर दिया था, लेकिन दान के बाद की दक्षिणा के लिये साठ भर सोने में खुद तीनो प्राणी बिके थे और अपनी मर्यादा को निभाया था।
इसी दौरान हरीशचंद्र श्मशान में कर वसूली का काम करने लगे थे। इसी बीच पुत्र रोहित की सर्पदंश से मौत हो जाती है। पत्नी श्मशान पहुंचती है, जहां कर चुकाने के लिए उसके पास एक फूटी कौड़ी भी नहीं रहती। तारा अपने पुत्र को शमशान में अन्तिम क्रिया के लिये ले गयी। वहाँ पर राजा खुद एक डोम के यहाँ नौकरी कर रहे थे और शमशान का कर लेकर उस डोम को देते थे। उन्होने रानी को भी कर के लिये आदेश दिया, तभी रानी तारा ने अपनी साडी को फाड़कर कर चुकाना चाहा, उसी समय आकाशवाणी हुयी और राजा की ली जाने वाली दान वाली परीक्षा तथा कर्तव्यों के प्रति जिम्मेदारी की जीत बतायी गयीं। इन सब कष्टों और परीक्षाओं के पीछे शनिदेव का प्रकोप माना जाता है।
हरीशचंद्र अपने धर्म पालन करते हुए कर की मांग करते हैं। इस विषम परिस्थिति में भी राजा का धर्म-पथ नहीं डगमगाया। विश्वामित्र अपनी अंतिम चाल चलते हुए हरीशचंद्र की पत्नी को डायन का आरोप लगाकर उसे मरवाने के लिए हरीशचंद्र को काम सौंपते हैं।
इस पर हरीशचंद्र आंखों पर पट्टी बांधकर जैसे ही वार करते हैं, स्वयं सत्यदेव प्रकट होकर उसे बचाते हैं। वहीं विश्वामित्र भी हरीशचंद्र के सत्य पालन धर्म से प्रसन्न होकर सारा साम्राज्य वापस कर देते हैं। हरीशचंद्र के शासन में जनता सभी प्रकार से सुखी और शांतिपूर्ण थी।
ये बहुत दिनों तक पुत्रहीन रहे पर अंत में अपने कुलगुरु महर्षि वशिष्ठ के उपदेश से इन्होंने वरुणदेव की उपासना की तो इस शर्त पर पुत्र जन्मा कि उसे राजा हरिश्चंद्र यज्ञ में बलि दे दें। पुत्र का नाम रोहिताश्व रखा गया और जब राजा ने वरुण के कई बार आने पर भी अपनी प्रतिज्ञा पूरी न की तो उन्होंने राजा हरिश्चंद्र को जलोदर रोग होने का श्राप दे दिया।
रोग से छुटकारा पाने और वरुणदेव को फिर प्रसन्न करने के लिए राजा महर्षि वशिष्ठ जी के पास पहुँचे। इधर इंद्र देव ने रोहिताश्व को वन में भगा दिया। राजा ने महर्षि वशिष्ठ जी की सम्मति से अजीगर्त नामक एक दरिद्र ब्राह्मण के बालक शुन:शेप को खरीदकर यज्ञ की तैयारी की। परंतु बलि देने के समय शमिता ने कहा कि मैं पशु की बलि देता हूँ, मनुष्य की नहीं। जब शमिता चला गया तो महर्षि विश्वामित्र ने आकर शुन:शेप को एक मंत्र बतलाया और उसे जपने के लिए कहा। इस मंत्र का जप कने पर वरुणदेव स्वयं प्रकट हुए और बोले - हरिश्चंद्र, तुम्हारा यज्ञ पूरा हो गया। इस ब्राह्मण कुमार को छोड़ दो। तुम्हें मैं जलोदर से भी मुक्त करता हूँ।
यज्ञ की समाप्ति सुनकर रोहिताश भी वन से लौट आया और शुन:शेप महर्षि विश्वामित्र का पुत्र बन गया। महर्षि विश्वामित्र के कोप से हरिश्चंद्र तथा उनकी रानी शैव्या को अनेक कष्ट उठाने पड़े। उन्हें काशी जाकर श्वपच के हाथ बिकना पड़ा, पर अंत में रोहिताश की असमय मृत्यु से देवगण द्रवित होकर पुष्पवर्षा करते हैं और राजकुमार जीवित हो उठता है। महर्षि विश्वामित्र के कहने पर अपना सब कुछ दान देने के पश्चात दक्षिणा देने हेतु पहले अपने पत्नी को पांच सौ स्वर्ण मुद्रा व पुत्र रोहिताश को सौ स्वर्ण मुद्रा मे बेचने के पश्चात स्वयं को भी पांच सौ स्वर्ण मुद्रा में बेच दिया था। तब ग्यारह सौ स्वर्ण मुद्रा एकत्रित किए थे।
अंत में भगवान शिव ब्रह्मा इन्द्र और सभी ऋषियों के दर्शन किए और शिव प्रेरणा से नारायण दर्शन हेतु अपने पुत्र रोहित को राज्य भार देकर तपस्या के लिए चले गए। नारायण ने उनको दर्शन देकर अट्ठारहवें मन्वन्तर में इन्द्र के पद का वरदान दिया।
No comments:
Post a Comment