मानस एक विश्वस्तरीय महाकाव्य है क्योंकि इसके केंद्र में लोकमंगल है। राम चरित मानस में ऐसा लोकमंगल जिसकी परिधि में राम राज्य की विराट संकल्पना समाहित है तथा जो समूचे विश्व द्वारा वंद्य और अनुकरणीय है। गोस्वामी तुलसी दास ने ‘रामचरित मानस’ में सुशासन का आदर्श ऐसे समय में स्थापित किया जब विदेशी आक्रान्ताओं की दमनकारी नीति चरम पर थी। भारतीय संस्कृति को विध्वंस करने का सिलसिला अनवरत जारी था। जन-मन आहत एवं राजतंत्र दिशाहीन था। धर्म दिग्भ्रमित व अर्थाभाव चतुर्दिक था। ऐसे परिदृश्य में स्वान्तः सुखाय की रघुनाथ गाथा लोकचेतना की संवाहक बनी। ‘मानस’ लोक के लिए मंत्र बन गया। जन आकांक्षा रामराज्य के अयोध्यावासियों-सी होने लगी। ‘मानस’ को पाकर ‘हर्षित भए गये सब सोका’ की स्थिति बनने लगी। निराशा में आकंठ डूबे समाज के लिए यह महाकाव्य ‘असरन सरन बना। राज्य के गठन के साथ ही राज्य के सर्वोच्च अधिकारी राजा का कर्तव्य प्रजा - हित में कार्य करना होता है। जो शासक अपनी प्रजा की रक्षा न कर सके , उसे अयोग्य माना जाता है। इतिहासकार रामशरण शर्मा लिखते हैं कि “ चूंकि प्राचीन परम्पराओं में शासक या दंड के अभाव को संपत्ति , परिवार और वर्णव्यवस्था के लिए बहुत बड़ा खतरा समझा गया है , इसलिए राज्य इनकी रक्षा के निमित्त ही उदित हुआ। ” वह उनकी रक्षा करता था तथा इसके बदले में वह प्रजा से कर (टैक्स) प्राप्त करता था। मानस के बालकाण्ड के प्रसंग में ऋषि विश्वामित्र जो राक्षसों के कारण यज्ञादि धर्मकार्य नहीं कर पा रहे थें , राजा दशरथ ने राम को मांगने आते हैं , ताकि वो उनकी रक्षा कर सकें। श्रीराम मुनि विश्वामित्र के साथ जाकर मारीचि आदि राक्षसों का नाश करते हैं और मुनियों से निडर होकर यज्ञादि करने को कहते हैं। स्वयं राम यज्ञ की रखवाली करते हैं। श्रीराम वनवास जाने के पश्चात् भरत भी राजपाठ का त्याग करने लगते हैं तब ऋषि वशिष्ट भरत को राजा का धर्म स्मरण कराते हुए कहते हैं कि आपको व्यर्थ चिंता करने की आवश्यकता नहीं है और किसी को दोष देने से कोई लाभ नहीं है अपितु ” चिंता वह राजा करें , जिसने नीति का पालन नहीं किया हो तथा जिसको प्रजा प्राणों के समान प्यारी न हों -
सोचिउ नृपति जो नीति न जाना।
जेहि न प्रजा प्रिय प्रान समाना। ’
अतः भरत प्रजा का पालन कर कुटुम्बियों का दुःख हरो। इसके बाद ही वैराग्य का ध्यान छोड़कर भरत अयोध्याजी का राजकाज सँभालते हैं। जिसके कारण अयोध्या के नगरवासी सुखपूर्वक रहने लगते हैं।
प्रजा को धर्मिक कार्यों में लगाना :-
राजा का कर्तव्य प्रजा की रक्षा करने के साथ ही उसे धर्म की ओर प्रेरित करना भी था। गोस्वामीजी ने अनेक बार उल्लेख किया है कि राजा के राज्य अथवा नगरी में सभी स्त्री - पुरूष धर्म का पालन करते हैं। उत्तर काण्ड में राम राज्य की स्थापना हो जाने के बाद ‘ सभी दम्भ रहित हो जाते हैं , धर्मपरायण और पुण्यात्मा हो जाते हैं। पुरूष और स्त्री सभी चतुर और गुणवान् हैं। सभी गुणों का आदर करने वाले और पण्डित हैं तथा सभी ज्ञानी हैं। सभी कृतज्ञ हैं , कपट - चतुराई ( धूर्तता ) किसी में नहीं है -
‘ सब निर्दंभ धर्मरत पुनी। नर अरु नारि चतुर सब गुनी।
सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी। सब कृतज्ञ नहिं कपट समानी।।
वास्तव में सम्पूर्ण ‘ मानस ’ से ही अयोध्या के राजा दशरथ व राम द्वारा जनता को धर्म हित के कार्यों को करने के लिए प्रेरित किया गया है।
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