स्वायम्भुव मनु और शतरूपा के पुत्र उत्तानपाद मनु के बाद सिंहासन पर विराजमान हुए। उत्तानपाद अपने पिता मनु के समान ही न्यायप्रिय और प्रजा पालक राजा थे। उत्तानपाद की दो रानियां थी। बड़ी का नाम सुनीति और छोटी का नाम सुरुचि था। सुनीति को एक पुत्र ध्रुव और सुरुचि को भी एक पुत्र था जिसका नाम उत्तम था। ध्रुव बड़ा होने के कारण राजगद्दी का स्वाभाविक उत्तराधिकारी था पर सुरुचि अपने पुत्र उत्तम को पिता के बाद राजा बनते देखना चाहती थी। इस कारण वो ध्रुव और उसकी माँ सुनीति से ईर्ष्या करने लगी और धीरे धीरे उत्तानपाद को अपने मोहमाया के जाल में बांधने लगी। इस प्रकार सुरुचि ने ध्रुव और सुनीति को उत्तानपाद से दूर कर दिया। उत्तानपाद भी सुरुचि के रूप पर मोहित होकर अपने पारिवारिक कर्तव्यों से विमुख हो गए और सुनीति की उपेक्षा करने लगे।
सुरुचि द्वारा भक्त ध्रुव का अपमान
एक दिन बालक ध्रुव पिता से मिलने की जिद करने लगा, माता ने तिरस्कार के भय से और बालक के कोमल मन को ठेस ना लगे इसलिए ध्रुव को बहलाने लगी पर ध्रुव अपनी जिद पर अड़ा रहा। अंत में माता ने हारकर उसे पिता के पास जाने की आज्ञा दे दी। ध्रुव की अवस्था अभी मात्र 5 वर्ष की है पिता का सुख क्या होता है यह वह नहीं जानता। कई बार अपने मित्रों से चर्चा करें तो मित्र ने कहा ध्रुव मेरी मां कहती थी कि तुम्हारे पिता तो यहां के राजा हैं। तुम उनसे मिलना चाहोगे?.. तो चलो हम आज ही तुम्हें मिलाते हैं। अब बाल मंडली के साथ महाराज ध्रुव चल पड़े अपने पिता के दर्शन करने, महाराज उत्तानपाद सिंहासन में विराजमान हैं। बालकों ने प्रणाम किया तो ध्रुव ने भी नमस्कार कर लिया। ध्रुव जी को देखते ही महाराज बड़े आकर्षित हुए, बेटा तुम्हारा नाम क्या है?..
ध्रुव बोले- महाराज लोग मुझे ध्रुव कहते हैं।
अच्छा बेटा! तुम्हारे मां बाप कौन है?..
ध्रुव ने कहा- मेरी मां का नाम है सुनीति और मेरे पिता का नाम श्री उत्तानपाद है।
क्या...? क्या.. कहा तुमने?
तुम सुनीति के पुत्र हो।
ऐसा कहते हुए उत्तानपाद सिंहासन से उतरकर दौड़े और ध्रुव को गले से लगा लिया राजा की आंखों में पनीरे बहने लगे। राजा ने ध्रुव को लेकर सिंहासन में अपने साथ बैठा लिया, यह देख कर ध्रुव बड़े प्रसन्न हुए ध्रुव ने कहा- राजा जी यह मेरा मित्र है। यह कहता था, कि आप मेरे पिता हैं। बोलो ना! क्या आप ही मेरे पिताजी हो?.. राजा ने कहा हां पुत्र मैं ही तुम्हारा पिता हूं।
पिता-पुत्र में वार्तालाप चल ही रहा था कि वहां पर सुरुचि अपने पुत्र उत्तम को साथ लिए आई। राजा ने कहा महारानी देखो तो आज कौन आया है! रानी ने पूछा कौन है यह?
यह हमारा बड़ा पुत्र ध्रुव है यह सुनते ही सुरुचि की आंखें फट गई अच्छा तो यह है मेरी सौत का बेटा और इसे इस सिंहासन पर बैठने का अधिकार किसने दिया। यह कहते ही कहते सुरुचि ध्रुव का हाथ पकड़ कर नीचे उतार दिया और सिंहासन पर उत्तम को बैठा दिया ध्रुव ने कहा मां मैं भी तो आपका पुत्र हूं यह भी तो मेरे पिता हैं फिर मुझे आपने इस सिंहासन से क्यों उतार दिया। उस सिंहासन पर इन पिता पर मेरा भी तो अधिकार है अच्छा तू मुझे अधिकार का पाठ सिखाएगा नादान बालक तेरी इतनी हिम्मत कि इस सिंहासन को अपना अधिकार बताएं ध्रुव जी ने हाथ जोड़कर कहा- माता मेरा अनुज मेरा भाई उत्तम जब महाराज की गोद में बैठ सकता है, सिंहासन पर बैठ सकता है तो मैं क्यों नहीं मुझ में भला कौन सी कमी है।
सुरुचि ने कहा- अच्छा तो तू उत्तम की बराबरी करेगा अपनी औकात देखी है, सिंहासन में बैठने के लिए राजा का पुत्र होना जरूरी नहीं, जितना मेरा पुत्र होना जरूरी है। तूने तो एक अभागन मां के गर्भ से जन्म लिया है पिता के साथ साथ मां का स्थान भी तो ऊंचा होना चाहिए। ध्रुवजी को यह शब्द बाण की तरह शुभ रहे थे, मेरी मां को यह अभागन कह रही है। क्रोध में आंखें लाल हो गई।
महाराज ध्रुवजी पूछने लगे! अच्छा इस सिंहासन पर मैं यदि बैठना चाहूं! तो मुझे क्या करना पड़ेगा?. यह सुन सुरुचि हंसने लगी। अच्छा तो तू सिंघासन पर बैठना चाहता है। बेटा पहले तो तू तपस्या कर-
तपसाsराध्य पुरुषं तस्यैवानुग्रहेण मे।
गर्भे त्वं साधयात्मानं यदीच्छसि नृपासनम।।
महाराज के सिंहासन पर यदि बैठना चाहता है, तो जा... तपस्या कर! भगवान प्रकट हो तो उनसे वरदान मांगना। कि हे भगवान! मेरा जन्म सुरुचि के गर्भ से हो फिर इस शरीर को त्याग कर मुझसे जन्म लेना। तब तुम्हें इस सिंहासन पर बैठने का पूर्ण अधिकार मिलेगा सुरुचि के इन शब्दों से भक्त और भगवान दोनों का अपमान हुआ।
सुनीति द्वारा भक्त ध्रुव को उपदेश
अपनी विमाता का ऐसा कथन सुनकर ध्रुव कुपित होकर पिता को छोड़कर अपनी माता के महल को चल दिया। उस समय क्रोध से ध्रुव के होंठ कांप रहे थे और वो जोरों से सिसकियाँ ले रहा था। अपने पुत्र को इस प्रकार अत्यंत क्रोधित और खिन्न देखकर सुनीति ने ध्रुव को प्रेमपूर्वक अपनी गोद में बिठाकर पूछा – बेटा, तेरे क्रोध का क्या कारण है। किसने तेरा निरादर करके तेरे पिता का अपमान करने का साहस किया है। ये सुनकर ध्रुव ने अपनी माता को रोते हुए वह सब बात बताई जो उसकी विमाता ने पिता के सामने कही थी। अपने पुत्र से सारी बात सुनकर सुनीति अत्यंत दुखी होकर बोली –
” बेटा, सुरुचि ने ठीक ही कहा है, तू अवश्य ही मन्दभाग्य है जो मेरे गर्भ से जन्म लिया। पुण्यवानों से उसके विपक्षी भी ऐसी बात नहीं कह सकते। पूर्वजन्मों में तूने जो कुछ भी किया है उसे कौन दूर कर सकता है और जो नहीं किया है उसे तुझे कौन दिला सकता है। इसलिए तुझे अपनी विमाता की बातों को भूल जाना चाहिए। हे वत्स, पुण्यवानों को ही राजपद, घोड़े, हाथी आदि प्राप्त होते हैं, ऐसा जानकर तू शांत हो जा।यदि सुरुचि के वाक्यों से तुझे अत्यंत दुःख हुआ है तो सर्वफल दायी पुण्य के संग्रह करने का प्रयत्न कर। तू सुशील, पुण्यात्मा और समस्त प्राणियों का हितैषी बन क्योंकि जिस प्रकार नीची भूमि की ओर ढलकता हुआ जल अपने आप ही जलाशयों में एकत्र हो जाता है। उसी प्रकार सत्पात्र मनुष्य के पास समस्त सम्पत्तियाँ अपने आप ही आ जाती हैं। “
माता की बात सुनकर ध्रुव ने कहा – ” माँ, अब मैं वही प्रयत्न करूँगा जिससे सम्पूर्ण लोकों में आदरणीय सर्वश्रेष्ठ पद को प्राप्त कर सकूँ। अब मुझे पिता का सिंघासन नहीं चाहिए वह मेरे भाई उत्तम को ही मिले। मैं किसी दुसरे के दिए हुए पद का इक्षुक नहीं हूँ, मैं तो अपने पुरुषार्थ से ही उस परम पद को पाना चाहता हूँ जिसको पिताजी ने भी नहीं प्राप्त किया है। ”
ध्रुव का वन गमन
अपनी माता से इस प्रकार कहकर ध्रुव सुनीति के महल से निकल पड़ा और नगर से बाहर वन में पहुँचा। वहाँ ध्रुव ने पहले से ही आये हुए सात मुनीश्वरों ( सप्तर्षियों ) को मृग चर्म के आसन पर बैठे देखा। ध्रुव ने उन सबको प्रणाम करके उनका उचित अभिवादन किया और नम्रतापूर्वक कहा – ” हे महात्माओं, मैं सुनीति और राजा उत्तानपाद का पुत्र ध्रुव हूँ। मैं आत्मग्लानि के कारण आपके पास आया हूँ। “
यह सुनकर ऋषि बोले – ” राजकुमार, अभी तो तू सिर्फ चार-पाँच वर्ष का बालक जान पड़ता है।
तेरे चिंता का कोई कारण भी दिखाई नहीं देता है क्योंकि अभी तो तेरे पिता जीवित हैं फिर तेरी ग्लानि का क्या कारण है ? ”
तब ध्रुव ने ऋषियों को वह सब बात बताई जो सुरुचि ने उसे कहे थे। ये सुनकर ऋषिगण आपस में कहने लगे – ” अहो, क्षात्रतेज कैसा प्रबल है, जिससे इस नन्हे बालक के ह्रदय से भी अपनी विमाता के दुर्वचन नहीं टलते। “
ऋषि बोले – ” हे क्षत्रियकुमार, तूने जरूर कुछ निश्चय किया है, अगर तेरा मन करे तो वह हमें बता। हे तेजस्वी, हमें यह भी बता कि हम तेरी क्या सहायता करें। “
ध्रुव ने कहा – ” हे मुनिगण, मुझे न तो धन की इक्षा है और ना ही राज्य की। मैं तो केवल एक उसी स्थान को चाहता हूँ जिसको पहले किसी ने न भोगा हो।
हे मुनिश्रेष्ठ, आप लोग बस मुझे यह बता दें कि क्या करने से मुझे वह श्रेष्ठ स्थान प्राप्त हो सकता है। “
ध्रुव के इस प्रकार से पूछने पर सभी ऋषिगण एक एक करके ध्रुव को उपदेश देने लगे।
सप्तर्षियों द्वारा ध्रुव को उपदेश
मरीचि बोले – ” हे राजपुत्र, बिना नारायण की आराधना किये मनुष्य को वह श्रेष्ठ स्थान नहीं मिल सकता अतः तू उनकी ही आराधना कर। “
अत्रि बोले – ” जो परा प्रकृति से भी परे हैं वे परमपुरुष नारायण जिससे संतुष्ट होते हैं उसी को वह अक्षय पद प्राप्त होता है, यह मैं एकदम सच कहता हूँ। “
अंगिरा बोले – ” यदि तू अग्रस्थान का इक्षुक है तो जिस सर्वव्यापक नारायण से यह सारा जगत व्याप्त है, तू उसी नारायण की आराधना कर। “
पुलस्त्य बोले – ” जो परब्रह्म, परमधाम और परस्वरूप हैं उन नारायण की आराधना करने से मनुष्य अति दुर्लभ मोक्षपद को भी प्राप्त कर लेता है। “
पुलह बोले – ” हे सुव्रत, जिन जगत्पति की आराधना से इन्द्र ने इन्द्रपद प्राप्त किया है तू उन यज्ञपति भगवान विष्णु की आराधना कर। “
क्रतु बोले – ” जो परमपुरुष यज्ञपुरुष, यज्ञ और योगेश्वर हैं, उन जनार्दन के संतुष्ट होने पर कौन सी वस्तु दुर्लभ रह जाती है। “
वसिष्ठ बोले – ” हे वत्स, विष्णु भगवान की आराधना करने पर तू अपने मन से जो कुछ चाहेगा वही प्राप्त कर लेगा, फिर त्रिलोकी के श्रेष्ठ स्थान की तो बात ही क्या है। “
ध्रुव ने कहा – ” हे महर्षिगण, आपलोगों ने मुझे आराध्यदेव तो बता दिया। अब कृपा करके मुझे यह भी बता दीजिये कि मैं किस प्रकार उनकी आराधना करूँ। “
ऋषिगण बोले – ” हे राजकुमार, तू समस्त बाह्य विषयों से चित्त को हटा कर उस एकमात्र नारायण में अपने मन को लगा दे और एकाग्रचित्त होकर ‘ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ‘ इस मंत्र का निरंतर जाप करते हुए उनको प्रसन्न कर। “
ध्रुव की तपस्या
यह सब सुनकर ध्रुव उन ऋषियों को प्रणाम करके वहां से चल दिया और यमुना के तट पर अति पवित्र मधु नामक वन ( मधुवन ) में पहुँचा। जिस मधुवन में नित्य श्रीहरि का सानिध्य रहता है उसी सर्वपापहारी तीर्थ में ध्रुव कठोर तपस्या करने लगा। इस प्रकार दीर्घ काल तक कठिन तपस्या करने से ध्रुव के तपोबल से नदी, समुद्र और पर्वतों सहित समस्त भूमण्डल अत्यंत क्षुब्ध हो गए और उनके क्षुब्ध होने से देवताओं में खलबली मच गयी। तब देवताओं ने अत्यंत व्याकुल होकर इन्द्र के साथ परामर्श करके ध्रुव का ध्यान भंग करने का आयोजन किया। देवताओं ने माया से कभी हिंसक जंगली पशुओं के द्वारा तो कभी राक्षसों के द्वारा ध्रुव के मन में भय उत्पन्न करने की कोशिश की परन्तु विफल रहने पर ध्रुव की माता के रूप में भी उसका ध्यान भंग करने का प्रयत्न किया। ध्रुव एकाग्रचित्त होकर सिर्फ भगवान विष्णु के ध्यान में ही लगा रहा और किसी की ओर देखा तक नहीं। जब सब प्रकार के प्रयत्न विफल हो गए तब देवताओं को बड़ा भय हुआ और सब मिलकर श्रीहरि की शरण में गए।
देवता बोले – ” हे जनार्दन, हम उत्तानपाद के पुत्र की तपस्या से भयभीत होकर आपकी शरण में आये हैं। हम नहीं जानते कि वह इन्द्रपद चाहता है या उसे सूर्य, वरुण या चन्द्रमा के पद की अभिलाषा है। आप हमपर प्रसन्न होइए और उसे तप से निवृत्त कीजिये। “
श्री भगवान बोले – ” हे देवगण, उसे इन्द्र, सूर्य, वरूण, कुबेर आदि किसी पद की अभिलाषा नहीं है। आप सबलोग निश्चिंत होकर अपने स्थान को जाएँ। मैं तपस्या में लगे हुए उस बालक की इच्छा को पूर्ण करके उसे तपस्या से निवृत्त करूँगा। ”श्रीहरि के ऐसा कहने पर देवतागण उन्हें प्रणाम करके अपने स्थान को चले गए।
भगवान विष्णु द्वारा ध्रुव को वर प्रदान
भगवान विष्णु अपने भक्त ध्रुव की कठिन तपस्या से संतुष्ट होकर उसके सामने प्रकट हो गए। श्री भगवान बोले – ” हे उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव, तेरा कल्याण हो। मैं तेरी तपस्या से प्रसन्न होकर तुझे वर देने के लिए प्रकट हुआ हूँ। मैं तुझसे अति संतुष्ट हूँ अब तू अपनी इच्छानुसार वर माँग। “
भगवान विष्णु के ऐसे वचन सुनकर बालक ध्रुव ने आँखें खोलीं और ध्यानावस्था में देखे हुए भगवान को शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये हुए साक्षात अपने सामने खड़े देखा। तब उसने भगवान को साष्टांग प्रणाम किया और सहसा रोमांचित तथा परम भयभीत होकर भगवान की स्तुति करने की इच्छा की। पर इनकी किस प्रकार स्तुति करूँ, ये सोचकर ध्रुव का मन व्याकुल हो गया।
ध्रुव ने कहा – ” भगवन, मैं आपकी स्तुति करना चाहता हूँ पर अपने अज्ञानवश कुछ कह नहीं पा रहा अतः आप मुझे इसके लिए बुद्धि प्रदान कीजिये। “तब भगवान विष्णु ने अपने शंख से ध्रुव का स्पर्श किया। इसके बाद क्षण मात्र में ध्रुव भगवान की उत्तम प्रकार से स्तुति करने लगा। जब ध्रुव की स्तुति समाप्त हुई तब भगवान बोले –
” हे ध्रुव, तुमको मेरा साक्षात् दर्शन हुआ है इससे निश्चित ही तेरी तपस्या सफल हो गयी है पर मेरा दर्शन तो कभी निष्फल नहीं होता इसलिए तुझे जिस वर की इक्षा हो वह मांग ले। “
ध्रुव बोला – ” हे भगवन, आपसे इस संसार में क्या छिपा हुआ है। मैं मेरी सौतेली माता के गर्वीले वचनों से आहत होकर आपकी तपस्या में प्रवृत्त हुआ हूँ जिन्होंने कहा था कि मैं अपने पिता के राजसिंहासन के योग्य नहीं हूँ।
अतः हे संसार को रचने वाले परमेश्वर, मैं आपकी कृपा से वह स्थान चाहता हूँ जो आजतक इस संसार में किसी को भी प्राप्त न हुआ हो। “
श्री भगवान बोले – ” वत्स, तूने अपने पूर्व जन्म में भी मुझे संतुष्ट किया था इसलिए तू जिस स्थान की इक्षा करता है वह तुझे अवश्य प्राप्त होगा। पूर्वजन्म में तू एक ब्राह्मण था और मुझमें निरंतर एकाग्रचित्त रहने वाला, माता पिता का सेवक तथा स्वधर्म का पालन करने वाला था। बाद में एक राजपुत्र से तेरी मित्रता हो गयी। उसके वैभव को देखकर तेरी इच्छा हुई कि ‘ मैं भी राजपुत्र होऊँ ‘ अतः हे ध्रुव, तुझको अपनी मनोवांछित इक्षा प्राप्त हुई ।
जिस स्वायम्भुव मनु के कुल में किसी को स्थान मिलना अति दुर्लभ है उन्हीं के घर में तूने उत्तानपाद के यहाँ जन्म लिया।
जिसने मुझे संतुष्ट किया है उसके लिए इस संसार में कुछ भी असंभव नहीं है। मेरी कृपा से तू निश्चय ही उस स्थान को प्राप्त करेगा जो त्रिलोकी में सबसे उत्कृष्ट है और समस्त ग्रहों और तारामंडल का आश्रय है।
मेरे प्रिय भक्त ध्रुव, मैं तुझे वह निश्चल ( ध्रुव ) स्थान देता हूँ जो सूर्य, चंद्र आदि ग्रहों, सभी नक्षत्रों और सप्तर्षियों से भी ऊपर है।
तेरी माता सुनीति भी वहाँ तेरे साथ निवास करेगी और जो लोग प्रातःकाल और संध्याकाल तेरा गुणगान करेंगे उन्हें महान पुण्य प्राप्त होगा। “धन्य है ध्रुव की माता सुनीति जिसने अपने हितकर वचनों से ध्रुव के साथ साथ स्वयं भी उस सर्वश्रेष्ठ स्थान को प्राप्त कर लिया। ध्रुव के नाम से ही उस दिव्य लोक को संसार में ध्रुव तारा के नाम से जाना जाता है। ध्रुव का मतलब होता है स्थिर, दृढ़, अपने स्थान से विचलित न होने वाला जिसे भक्त ध्रुव ने सत्य साबित कर दिया। भक्त ध्रुव की कहानी से हमें ये शिक्षा मिलती है कि जिसके मन में दृढ निश्चय और ह्रदय में आत्मविश्वास हो वह कठोर पुरुषार्थ के द्वारा इस संसार में असंभव को भी संभव कर सकता है।
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