राम राज बैठे त्रैलोका। हरषित भए गए सब सोका।।
बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप विषमता खोई।।
दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा।।
अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा। सब सुंदर सब बिरुज सरीरा।।
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना।।
सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी। सब कृतग्य नहिं कपट सयानी।।
राम राज नभगेस सुनु सचराचर जग माहिं।
काल कर्म सुभाव गुन कृत दुख काहुहि नाहिं।।
वाल्मीकि रामायण में भरत जी रामराज्य के विलक्षण प्रभाव का उल्लेख करते हुए कहते हैं, "राघव! आपके राज्य पर अभिषिक्त हुए एक मास से अधिक समय हो गया। तब से सभी लोग निरोग दिखाई देते हैं। बूढ़े प्राणियों के पास भी मृत्यु नहीं फटकती है। स्त्रियां बिना कष्ट के प्रसव करती हैं। सभी मनुष्यों के शरीर हृष्ट–पुष्ट दिखाई देते हैं। राजन! पुरवासियों में बड़ा हर्ष छा रहा है। मेघ अमृत के समान जल गिराते हुए समय पर वर्षा करते हैं। हवा ऐसी चलती है कि इसका स्पर्श शीतल एवं सुखद जान पड़ता है। राजन नगर तथा जनपद के लोग इस पुरी में कहते हैं कि हमारे लिए चिरकाल तक ऐसे ही प्रभावशाली राजा रहें।"
धर्म भारत की आत्मा:-
भारतवर्ष अत्यन्त प्राचीन समय से ही धर्म - प्रधान देश रहा है। यहाँ धर्म की अत्यन्त व्यापक एवं विशद व्याख्या की गई है ।धर्म लगभग जीवन के हर एक कार्यों में समाविष्ट है। “ धर्म भारतीय जीवन के प्रत्येक स्फुरण में इतना घुल मिल गया है कि दोनों के बीच कोई विभाजन सम्भव ही नही है। भारतीय दृष्टि में धर्म जीवन का आदर्श है और जीवन धर्म का व्यवहार। ” धर्म के माध्यम से सत् - असत् के भेद , न्यायिक क्रियाओं , नैतिक सिद्धान्तों को समझकर उसे अपने जीवन में लागू किया जा सकता है। महाभारत में ‘ धर्म ’ के विषय में बताते हुए यह कहा गया है कि धर्म वही है जिससे किसी दूसरे को कष्ट न पहुँचे बल्कि लाभ हो। जो धर्म का मात्र अपने लिए ही अंधानुकरण करता है , वह अंधे के समान सूर्य की प्रभा से अछूता रहता है। राम चरित मानस में पुरूषार्थ का विशेष विधान के अर्थ में प्रयोग नहीं मिलता है। एक पुत्र के राम चरित मानस में पुरूषार्थ का विशेष विधान उसके माता - पिता की आज्ञा का पालन करना ही ‘ धर्म ’ है। अयोध्याकाण्ड में कौशल्या श्रीराम के लिए कहती हैं -
‘ सरल सुभाउ राम महतारी।
बोली बचन धीर धरि आरी।
तात जाऊँ बलि कीन्हेहु नीका।
पितु आयसु सब धरम के टीका।। ’
अर्थात् हे माता ! मैं बलिहारी जाती हूँ , तुमने अच्छा किया। पिता की आज्ञा का पालन करना ही सब धर्मों में शिरोमणि धर्म है और जिसको माता - पिता प्राणों के समान प्रिय हैं , चारों पदार्थ ( धर्म , अर्थ , काम , मोक्ष ) उसके मुट्ठी में रहते हैं -
‘ चारि पदारथ करतल ताकें।
प्रिय पितु मातु प्रान सम जाकें।। ’
दान की महिमा:-भारत तथा हिन्दू धर्म में ‘ दान ’ की बड़ी महत्ता है। ‘ दान ’ का अर्थ है कि जब आप अन्य प्राणियों को अपनी सुखी से अन्न - धन - वस्त्र आदि देते हैं। हिन्दू धर्म में प्रत्येक शुभ कार्य पर दान देने की प्रथा है। ‘ दान ’ की परम्परा के पीछे यह तथ्य है कि हम इस मायारूपी संसार में आकर अन्न - धन - राज्य - संपत्ति इन सबसे लोभ व मोह करते हुए , इनका संग्रह कर देना प्रारम्भ कर देते हैं , किन्तु हम भूल जाते हैं कि वास्तव में संसार से परे जो चीज या वस्तु जा सकती है , वह यह भौतिक वस्तुयें नहीं है। अतः ‘ दान ’ कर हम दूसरों के साथ परोपकार करने के साथ ही अपना उस संपत्ति के प्रति मोह का भी त्याग करते हैं। जिससे जीवन का चरम लक्ष्य ‘ मोक्ष ’ प्राप्त किया जा सकता है। ‘ मानस ’ में गोस्वामीजी ने भी हर एक शुभ कार्य करने के बाद विशेष रूप से ब्राह्मणों , मुनियों को राजा द्वारा दान देने की परम्परा को वर्णित किया है। श्रीराम व तीनों कुमारों के जन्म पर , राम के विवाह की सूचना पर , श्रीराम के विवाह के पश्चात् दशरथ व कौशल्या द्वारा , श्रीराम को युवराज पद मिलने पर कौशल्या द्वारा , राजा दशरथ की मृत्यु पर भरत द्वारा आदि अनेक प्रसंगों में गोस्वामीजी ने ‘ दान ’ की महिमा का गुणगान किया है। ऐसा ही एक प्रसंग है जब श्रीराम - सीता का विवाह सम्पन्न होकर , वे अयोध्या नगरी आते हैं तब वशिष्ठजी उन्हें वेदों और लोक में प्रचलित विधि का ज्ञान कराते हैं और तब रानियाँ ( दशरथ की पत्नियाँ ) ब्राह्ममणों के चरण धोकर , सबको स्नान कराती हैं और राजा दशरथ उनका भलीभांति पूजन करके भोजन कराते हैं। तत्पश्चात् आदर , दान और प्रेम से पुष्ट हुए वे सभी ब्राह्ममण मन से आशीर्वाद देते हैं -
‘ पाय परवारि सकल अन्हवाए। पूजि भली विधि भूप जेवाँए।।
आदर दान प्रेम परिपोषे। देत असीत चले मन तोषे।। ’ दया उपकार और क्षमा का महत्व :- दया उपकार और क्षमा का ही हिन्दू धर्म के साथ ही बौद्ध , जैन धर्म में अत्याधिक महत्त्व है। अनेक लोककथाओं में भी इसके महत्त्व पर चर्चा की गई है। हिन्दू धर्म तो सदैव से ही अहिंसा मूलक रहा है। अतः हमारे समाज में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। माना जाता है कि जीवों पर दया करने वाले से ईश्वर सदैव प्रसन्न रहते हैं। मानस में राम कृपालु होने के साथ - साथ दयालु भी हैं। उनके लिए ही अनेक स्थान पर ‘ दीनदयाल ’ शब्द का प्रयोग किया गया है। श्रीराम ने ‘ रावण ’ पर दया कर उसे अपने धाम में स्थान दिया। श्रीराम की दयालुता का एक प्रसंग तब है जब उनके चरणों से अहिल्या का उद्धार होता है , तब गोस्वामी जी कहते हैं कि -
‘ अस प्रभु दीनबंधु हरि कारन रहित दयाल।
तुलसीदास सठ तेहि भजु छाड़ि कपट जंजाल।। ’
अर्थात् श्रीरामचन्द्रजी ऐसे दीनबन्धु और बिना ही कारण दया करने वाले हैं। तुलसीदास जी कहते हैं कि हे मन ! तू कपट - जंजाल छोड़कर उन्हीं का भजन कर।
क्षमा की महत्ता:- ‘ क्षमा ’ हिन्दू धर्म के साथ ही अनेक धर्मों में परोपकार का माध्यम माना जाता है। क्षमा की प्रक्रिया में हम अपने ‘ अहम् ’ का त्याग कर उससे ऊपर उठते हैं , जिससे हम अधिक सुख पाते हैं। यह एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया भी है। यदि हम किसी गलती के लिए क्षमा नहीं करेंगे तो स्वयं उस पीड़ा से ग्रसित रहेंगे। अतः ‘ क्षमा ’ धार्मिकता के साथ ही व्यक्तित्व को विकास भी करता है। ‘ क्षमा ’ भी एक प्रकार का दान है। श्रीराम ने ‘ रावण ’ के कुकत्यों के बाद उसका वध किया किन्तु इसके बाद ही वे उसे क्षमा करके परमधाम भेज देते हैं और विभिषण से शोक त्यागकर उसकी अन्त्येष्टि क्रिया का आग्रह करते हैं -
‘ कृपादृष्टि प्रभु ताहि बिलोका।
करहु क्रिया परिहरि सब सोका।।
’श्रीराम समुद्र द्वारा क्षमा मांगने पर उसे क्षमा प्रदान करते हैं। यह तो ‘ ईश्वरीय व राजा राम ’ की क्षमा , दया , दान की व्याख्या हुई है। मानवीय रूप व गुण में ‘ राम ’ हनुमान द्वारा सीता का संदेश लाने पर उनका उपकार मानते हुए कहते हैं कि -
‘ सुनु कपि तीहि समान उपकारी।
नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी।।
प्रति उपकार करौं का तोरा।
सनमुख होइ न सकत मन मोरा।। ’
अर्थात् हे हनुमान ! सुनो , तुम्हारे समान मेरा कोई उपकारी देवता , मनुष्य अथवा मुनि कोई भी शरीरधारी नहीं है। मैं तेरा प्रत्युपकार ( बदले में उपकार ) तो क्या करूँ , मेरा मन भी तेरे सामने नहीं हो सकता। सब पर उपकार करने वाले ईश्वर जब मानवीय स्वरूप में पृथ्वी पर अवतरित हैं , तो भी वह हनुमान द्वारा किए गए उपकार का ऋण चुकाने में असम्भव है। जीवन में इन सब नैतिक आचरणों के प्रयोग से ही मानव अपनी तुच्छ वृत्ति छोड़कर शान्ति , सुख , आनन्द अथवा सच्चिदानंद को प्राप्त कर सकता है। ‘ मानस ’ में तुलसी ने भी मानव , पशु - पक्षी , वनस्पतियों , वृक्षों आदि अनेक साधनों से हिन्दू परम्परा में इन आचरणों को ग्रहण करने का अन्यत्र वर्णन किया है जिससे ही परमब्रह्म ‘ श्रीराम ’ की प्राप्ति सम्भव है , स्वयं यह गुण ईश्वर द्वारा भी ग्रहण किए गए हैं।
1. संस्कृतिक संरक्षण: - भारतीय संस्कृति में ‘ वसुदैव कुटुम्बकम् ’ की भावना प्राचीन - काल से स्थापित रही है। “ भारतीय संस्कृति की यह अवधारणा है कि मनुष्य प्रकृति की श्रेष्ठतम् कृति है , अतः यदि प्रकृति का पोषण होता रहा तो उसके माध्यम से विकसित व्यक्तित्व संस्कृति का रक्षण करने में सक्षम हो सकेंगे तथा संस्कृति के प्रमुख उत्पादन जिनमें कला , साहित्य , संगीत एवं नैतिक मूल्य अक्षुण्ण रह सकते हैं। ”सांस्कृतिक संरक्षण की कितनी अधिक आवश्यकता है , इसे हम वर्तमान के संदर्भ से भी समझ सकते हैं। संस्कृति ही हमें हमारे मूल अस्तित्व से जोड़ती है। अतः इसका संरक्षण करना आवश्यक भी है। आज विश्व के लगभग हर संविधान में संस्कृति संरक्षण और संवर्द्धन के अधिकार का उल्लेख मिलता है। भारतीय संविधान में भी सांस्कृतिक चेतना संवर्द्धन व संरक्षण पर प्रमुखता से उल्लेखित है। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा सांस्कृतिक सम्पदा के संरक्षण के लिए ‘ राष्ट्रीय सांस्कृतिक संपदा संरक्षण अनुसंधान प्रयोगशाला ’ नामक वैज्ञानिक संस्था का भी निर्माण किया गया है। यह सांस्कृतिक संरक्षण की आवश्यकता की ओर ही इंगित करती है।
भारतीय चिंतन परम्परा में ‘ संस्कृति ’ सदैव से ही एक आवश्यक घटक रहा है। संस्कृति से कटे हुए राष्ट्र को दिशा देने में असफल भी रहते हैं। अतः राष्ट्र ( राज्य ) की जिम्मेदारी लोगों में सांस्कृतिक चेतना को बनाए रखने के लिए जागरूक करने की होती है। ‘ मानस ’ में तुलसीदासजी ने भारतीय संस्कृति के विविध मान्यताओं , कलाओं , क्रिया - कलापों को वर्णित किया है। इस्लाम के प्रवेश के कारण जब भारतीय ( हिन्दू ) संस्कृति संकट की अवस्था में थी , तब गोस्वामीजी ने ‘ मानस की रचना कर सामान्य जनों में उनके सांस्कृतिक महत्त्व और चेतना को पुनर्जिवित करने का सफल प्रयास किया था।
2. सामाजिक समानता -वैदिक काल में हमें वर्ण - व्यवस्था देखने को मिलती है। जिसमें समाज चार वर्णों ब्राह्ममण , क्षत्रिय , वैश्य , शूद्र में विभाजित था। इन सबके कत्र्तव्य विभाजित थे। समाज में सबसे निम्न स्थान शूद्रों को प्राप्त था। ज्ञातव्य है कि यह व्यवस्था प्रारम्भ में मनुष्यों के कर्म पर आधारित थी किन्तु पूर्व वैदिक काल तक आते - आते वर्ण - व्यवस्था जनन पर आधारित हो गई। जिसके विरोध में अनेक धर्मों का उदय हुआ यथा बौद्ध एवं जैन धर्म। किन्तु राजनीतिक , सामाजिक एवं धार्मिक परिवर्तनों के मध्य सामाजिक जीवन जटिल बनता गया और ‘ जाति - व्यवस्था ’ का निर्माण हो गया। भारत में आने वाली अनेक संस्कृतियों के कारण जातीय बहुरूपता विकसित होती है। और सामाजिक - राजनीतिक वर्चस्व की जटिल प्रक्रिया में शूद्रों को निचले स्तर पर रखकर उन्हें ‘ अस्पृश्य ’ माना गया। जो जन्म आधारित थी। गोस्वामी तुलसीदास के जीवन - काल में यह समस्या बनी हुई थी जिस कारण राष्ट्र की एकता भी बिखर गई थी। स्वयं को उच्च जाति कहने वाले ‘ ब्राह्मणों ’ की नैतिकता पर तुलसी ने ही प्रश्न खड़े किए। वे कहते हैं कि - ‘ विप्र निरक्षर लोलुप कामी। निराचार सठ वृषली स्वामी।। ’ किन्तु तुलसी पर लगातार वर्ण - व्यवस्था और जाति - व्यवस्था को मानने के आरोप लगाए जा रहे हैं। यद्यपि यह सत्य है कि तुलसी वर्ण - व्यवस्था के समर्थक थे किन्तु उनकी वर्ण - व्यवस्था में अस्पृश्यता नहीं थी वरन् चारों वर्णों का एक ही घाट पर स्नान करना था।सुन्दरकाण्ड के एक प्रसंग में जब हनुमान सीता को खोजते हुए लंका पहुँचते हैं तो अशोक वन में सीता उनसे प्रश्न करती हैं कि नर ( राम ) और वानर ( हनुमान ) का संगम कैसे हुआ ?
‘ नर वानरहि ’ संग कहु कैसें।
कही कथा भइ संगति जैसे।। ’
यह उस समय आश्चर्य की ही बात थी मनुष्यों में मनुष्य के लिए जब विभाजक रेखा बनी हुई थी , ऐसे में रीछ - बन्दर से मनुष्य कैसे संयोग किया। विश्वनाथ त्रिपाठी इस सम्बन्ध में लिखते हैं कि ये बन्दर - भालू - रीछ उपेक्षित जाति के प्रतीक हैं। उनके अनुसार ” बन्दर - भालू सर्वहारा के भी प्रतीक बन सकते हैं , जिनके पास लड़ने के लिए केवल नाखून और दाँत हैं , जो समाज में प्रतिष्ठित नहीं है , जंगल में रहते हैं। राम के सबसे निकट और आत्मीय कौन लोग हैं - पति - परित्यक्ता अहिल्या , जनकपुर के सामान्य बालक - राजकुमार नहीं , अयोध्या के सामान्य नागरिक , वन - मार्ग में मिलने वाले ग्रामीण , केवट , शबरी , बन्दर - भालू , राजा सुग्रीव और युवराज अंगद से कहीं अधिक प्रिय और आत्मीय हनुमान , पक्षिराज गुरूड़ नहीं , पक्षियों में भी निम्न गीध और काकभुशुंडि। ”
यह सत्य है कि तुलसी के यहाँ सामाजिक - समानता की स्थिति इतनी वैधानिक नहीं है , जितनी की वर्तमान समय में। फिर भी तुलसीदास ने नैतिक कत्र्तव्यों पर सामाजिक समानता का ढांचा खड़ा किया था। वे अपने समकालीन कवियों का भांति केवल इस विकृत - व्यवस्था का विरोध नहीं करते हैं अपितु इस विकृत - व्यवस्था में सुधार करने के लए विकल्प व समाधान भी तलाशते हैं।
3. विविध कलाओं का संरक्षण -मानस ’ में वर्णित विविध कलाओं पर हमने पिछले अध्यायों में भी चर्चा की है। ‘ मानस ’ में विविध कलाओं व कलाकारों को राजा व राज्य द्वारा प्रश्रय प्रदान किया गया है। जिसका सबसे महत्त्वपूर्ण उदाहरण ‘ जनकपुर ’ में देखने को मिलता है। जिसमें सीताजी के लिए मण्डप बनवाने के लिए अनेक कारीगरों को बुलाया जाता है। इस मण्डप की व्याख्या तुलसी ने अति सुन्दर की है। जिसके एक चैपाई में वे कहते हैं कि -
" तेहिं के रचि पचि बंध बनाए।
विच बिच मुकुता दाम सुहाए।।
मानिक मरकत कुलिस पिरोजा।
चीरि कोरि पचि रचे सरोज।। ”
अर्थात् मण्डप में नाग बेलि रचकर और पच्चीकारी करके बन्धन ( बाँधने के लिए रस्सी ) बनाए गए। बीच - बीच में मोतियों की सुन्दर झालरें हैं। माणिक , पन्ने , हीरे और फिरोजे , इन रत्नों को चीरकर , कोरकर और पच्चीकारी करके , इनके कमल बनाए गए हैं। इसके अतिरिक्त शिल्पकारों द्वारा मूर्तियों को गढ़कर निकालने की प्रक्रिया का भी वे वर्णन करते हैं -
‘ सुर प्रतिमा खंभन गढ़ि काढ़ीं।
मंगल द्रब्य लिएँ सब ठाढ़ीं।। ’
अनेक स्थान पर परोक्ष रूप में वस्त्रों को सिलने - काढ़ने वाले कारीगरों का उल्लेख है। जानकी विवाह में ऐसे सुन्दर और उत्तम बंदनवार बनाये गए हैं मानो कामदेव ने कंदे सजाए हों। अनेकों मंगल कलश और सुन्दर ध्वजा , पताका , परदे और चेंवर बनाए गए हैं -
‘ रचे रूचिर बर बंदनिवारे।
मनहुँ मनोभवँ पांद सँवारे।।
मंगल कलस अनेक बनाए।
ध्वज पताक पट चमर सुहाए।।
अयोध्या से बारात जाते समय उसमें मगध , सूत , भाट विविध लोग है , जो राजा की प्रशंसा में गीत गाते थे। ये राजा के आश्रित होते थे। राम - सीता विवाह में बारात जनकपुर पहुँचने पर यह दशरथ का सुयश गाते हैं -
‘ सुर सुमन बरिसहिं सूत मागध बंदि सुजसु सुनावहीं।। ’
राम की बारात में पट्टेबाज , विदूषक , नट आदि कलाओं को दिखाने वाले भी सम्मिलित हैं -
‘ घंट घंटि धुनि व रनि न जाहीं।
सख करहिं पाइक फहराहीं।।
करहिं बिदूषक कौतुक नाना।
हास कुसल कल गान सुजाना।। ’
घोड़ों के करतब दिखाने वाले नगाड़े और मृदंग के शब्द सुनकर उन्हीं के अनुसार इस प्रकार नचा रहे हैं कि वे ताल के बंधन से जरा भी डिगते नहीं हैं -
‘ तुरग नचावहिं कुअँर बर अकनि मृदंग निसान।
नागर नट चितवहिं चकित डगहिं न ताल बँधान। ’
इसके अतिरिक्त वस्त्र - आभूषण कला , संगीत व वाद्य मंत्रों को बजाने वाले , पाक - कला के जानकारों को भी राज्य व राजा द्वारा प्रश्रय दिया जाता था। जिसका उल्लेख तुलसीदास ने भी ‘ रामचरितमानस ’ ने किया है।
No comments:
Post a Comment