भारत में धर्म और धार्मिक समुदाय :- भारतीय हिन्दू या सनातन धर्म
विश्व के सभी धर्मों
में प्रमुख है। जिसमें हिन्दू धर्म, बौद्ध धर्म, सिख धर्म, जैन धर्म, आदि जैसे धर्म शामिल हैं। आज हिन्दू धर्म
और बौद्ध धर्म क्रमशः दुनिया में तीसरे और चैथे सबसे
बड़े धर्म बन गये हैं,
हिन्दू धर्म के लगभग 1-4 अरब
अनुयायी साथ हैं। अन्य सर्वेक्षणों के अनुसार बौद्ध
धर्म दुनिया का दूसरा सबसे
बडा धर्म है और बौद्ध
अनुयायियों की संख्या 1-7 अरब
से भी अधिक है।
दुनिया में बौद्ध और हिन्दू अनुयायियों
की संख्या करीब 2-7 अरब है, जो दुनिया की
आबादी का 38 प्रतिशत है। एशिया की आबादी में
45 प्रतिशत तथा दुनिया की आबादी में
25 प्रतिशत बौद्ध है। विश्व भर में भारत
में धर्मों में विभिन्नता सबसे ज्यादा है, जिनमें कुछ सबसे कट्टर धार्मिक संस्थायें और संस्कृतियाँ शामिल
हैं। आज भी धर्म
यहाँ के ज्यादा से
ज्यादा लोगों के बीच मुख्य
और निश्चित भूमिका निभाता है। 80.4 प्रतिशत से ज्यादा लोगों
का धर्म हिन्दू धर्म है। कुल भारतीय जनसँख्या का 13.4 प्रतिशत हिस्सा इस्लाम धर्म को मानता है।
सिख, जैन और खासकर के
बौद्ध धर्म का केवल भारत
में नहीं बल्कि पूरे विश्व भर में प्रभाव
है। ईसाई, पारसी, यहूदी और बहाई धर्म
भी प्रभावशाली हैं, लेकिन उनकी संख्या कम है। भारतीय
जीवन में धर्म की मजबूत भूमिका
के बावजूद नास्तिकता
और अज्ञेयवादियों का भी प्रभाव
दिखाई देता है।
हिन्दू की परिभाषा :- हिन्दू शव्द हमारे प्रचीन साहित्य में नहीं मिलता है। आठवीं तंत्रग्रंथ में इसे हिन्दू धर्मावलम्बी के रुप में
न लिखकर एक जाति या
समूह के रुप में
पहली बार लिखा गया है। डा. राधाकुमुद मुकर्जी के अनुसार भारत
के बाहर इस शव्द का
प्राचीनतम उल्लेख अवेस्ता और डेरियस के
शिलालेखों में प्राप्त होता है। ‘‘हिन्दू शब्द विदेशी है तथा संस्कृत
अथवा पालि में इसका कहीं भी प्रयोग नहीं
मिलता है । यह
धर्म का वाचक न
होकर एक भूभाग के
निवासी के लिए प्रयुक्त
किया जाता रहा है। सातवीं सदी में चीनी यात्री इत्ंिसग ने लिखा है
कि मध्य एशिया के लोग आर्यावर्त
या भारत को हिन्दू कहते
हैं। इसलिए सिन्धु के इस पार
के लोगों को सिन्धु के
बजाय हिन्दू या हिन्दुस्तानी कहने
लगे थे। 19वीं शताब्दी में अंग्रेज भी इस धर्म
के लोगों के लिए हिन्दूज्म
कहना शुरु कर दिया था।’’
हिन्दू धर्म का इतिहास :- भारत का प्रमुख धर्म
हिन्दू या सनातन धर्म
4000 साल से भी पुराना
माना जाता है। मान्यता है कि हिन्दू
धर्म प्राचीन आर्य समाज के वेदों पर
चलता हुआ विकसित हुआ है। इस धर्म को
किसी व्यक्ति विशेष ने नहीं बल्कि
समय ने बनाया और
फैलाया है। हिन्दू धर्म का उदय कब
और कैसे हुआ इसकी सटीक जानकारी किसी को नहीं है।
मान्यता है कि वेदों
का अनुसरण करते हुए आर्यों ने ही हिन्दू
धर्म को उसकी पहचान
दिलाई। हिन्दू धर्म के पुरातन लेखों
और तथ्यों से जाहिर होता
है कि हिन्दू धर्म
बेहद विकसित और समृद्ध था।
सिंधु घाटी सभ्यता और अन्य कई
पुरातन अध्ययनों से यह जाहिर
हुआ है कि हिन्दू
धर्म का उदय बेहद
प्राचीन है। विश्व की प्रथम पुस्तक
वेदों में लिखे नियमों और बातों का
अनुसरण करके ही हिन्दू धर्म
ने अपने नियम और मानदंड स्थापित
किए हैं। व्यवहारिक रुप में इसमें समय समय पर संशोधन और
परिमार्जन होता रहा है।
हिन्दू धर्म
की
प्राचीनता
एवं
विशालता
:- हिन्दू धर्म की प्राचीनता एवं
विशालता के कारण सनातन
धर्म भी कहा जाता
है। ईसाई, इस्लाम, बौद्ध, जैन आदि धर्मों के समान हिन्दू
धर्म किसी पैगम्बर या व्यक्ति विशेष
द्वारा स्थापित धर्म नहीं है, बल्कि यह प्राचीन काल
से चले आ रहे विभिन्न
धर्मों, मतमतांतरों, आस्थाओं एवं विश्वासों का समुच्चय है।
एक विकासशील धर्म होने के कारण विभिन्न
कालों में इसमें नये-नये आयाम जुड़ते गये। वास्तव में हिन्दू धर्म इतने विशाल परिदृश्य वाला धर्म है कि उसमें
आदिम ग्राम देवताओं, भूत-पिशाच, स्थानीय देवी-देवताओं, झाड़-फूँक, तंत्र-मत्र से लेकर त्रिदेव
एवं अन्य देवताओं तथा निराकार ब्रह्म और अत्यंत गूढ़
दर्शन तक- सभी बिना किसी अन्तर्विरोध के समाहित हैं
और स्थान एवं व्यक्ति विशेष के अनुसार सभी
की आराधना होती है। वास्तव में हिन्दू धर्म लघु एवं महान परम्पराओं का उत्तम समन्वय
दर्शाता है। एक ओर इसमें
वैदिक तथा पुराणकालीन देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना
होती है, तो दूसरी ओर
कापालिक और अवधूतों द्वारा
भी अत्यंत भयावह कर्मकांडीय आराधना की जाती है।
एक ओर भक्ति रस
से सराबोर भक्त हैं, तो दूसरी ओर
अनीश्वर-अनात्मवादी और यहाँ तक
कि नास्तिक भी दिखाई पड़
जाते हैं। हिन्दू धर्म सर्वथा विरोधी सिद्धान्तों का भी उत्तम
एवं सहज समन्वय है। यह हिन्दू धर्मावलम्बियों
की उदारता, सर्वधर्मसमभाव, समन्वयशीलता तथा धार्मिक सहिष्णुता की श्रेष्ठ भावना
का ही परिणाम और
परिचायक है। हिन्दुत्व की जड़ें किसी
एक पैगम्बर पर टिकी न
होकर सत्य, अहिंसा सहिष्णुता, ब्रह्मचर्य , करूणा पर टिकी हैं
। हिन्दू विधि के अनुसार हिन्दू
की यह परिभाषा नकारात्मक
है कि जो ईसाई
मुसलमान व यहूदी नहीं
है वे सब हिन्दू
है। इसमें आर्यसमाजी, सनातनी, जैन सिख बौद्ध इत्यादि सभी लोग आ जाते हैं।
भारतीय मूल के सभी सम्प्रदाय
पुर्नजन्म में विश्वास करते हैं और मानते हैं
कि व्यक्ति के कर्मों के
आधार पर ही उसे
अगला जन्म मिलता है। तुलसीदास जी ने लिखा
है-
परहित सरिस धरम नहीं भाई । पर पीड़ा सम नहीं अधमाई ।
(अर्थात दूसरों को दुख देना
सबसे बड़ा अधर्म है एवं दूसरों
को सुख देना सबसे बड़ा धर्म है।)
यही
हिन्दू धर्म की भी परिभाषा
है। कोई व्यक्ति किसी भी भगवान को
मानते हुए एवं न मानते हुए
हिन्दू बना रह सकता है।
हिन्दू की परिभाषा को
धर्म से अलग नहीं
किया जा सकता। यही
कारण है कि भारत
में हिन्दू की परिभाषा में
सिख बौद्ध जैन आर्यसमाजी सनातनी इत्यादि आते हैं। हिन्दू की संताने यदि
इनमें से कोई भी
अन्य पंथ अपना भी लेती हैं
तो उसमें कोई बुराई नहीं समझी जाती एवं इनमें रोटी बेटी का व्यवहार सामान्य
माना जाता है। इसमें एक दूसरे के
धार्मिक स्थलों को लेकर कोई
झगड़ा अथवा द्वेष की भावना नहीं
है । सभी पंथ
एक दूसरे के पूजा स्थलों
पर आदर के साथ जाते
हैं । जैसे स्वर्ण
मंदिर में सामान्य हिन्दू भी बड़ी संख्या
में जाते हैं तो जैन मंदिरों
में भी हिन्दुओं को
बड़ी आसानी से देखा जा
सकता है । जब
गुरू तेग बहादुर ने कश्मीरी पंडितो
के बलात धर्म परिवर्तन के विरूद्ध अपना
बलिदान दिया तो गुरू गोविन्द
सिंह ने इसे ‘तिलक
व जनेऊ के लिए उन्होंने
बलिदान दिया’ इस प्रकार कहा
था। इसी प्रकार हिन्दुओं ने भगवान बुद्ध
को अपना नौवां अवतार मानकर अपना भगवान मान लिया है। भगवान बुद्ध की ध्यान विधि
विपश्यना को करने वाले
अधिकतम लोग आज हिन्दू ही
हैं जो बुद्ध की
शरण लेने के बाद भी
अपने अपने घरों में आकर अपने हिन्दू रीति रिवाजों को मानते हैं।
इस प्रकार भारत में फैले हुए पंथों को किसी भी
प्रकार से विभक्त नहीं
किया जा सकता एवं
सभी मिलकर अहिंसा करूणा मैत्री सद्भावना ब्रह्मचर्य की ही पुष्ट
करते हैं।
हिन्दू देशों की श्रेणी में 13 देश :- कोई व्यक्ति चाहे वह राम को
माने या कृष्ण को
बुद्ध को या महावीर
को अथवा गोविन्द सिंह को परंतु यदि
अहिंसा, करूणा मैत्री सद्भावना ब्रह्मचर्य, पुर्नजन्म, आस्तेय, सत्य को मानता है
तो वह हिन्दू ही
है। इसी कारण जब पूरे विश्व
में 13 देश हिन्दू देशों की श्रेणी में
आते हैं। इनमें वे सब देश
है जहाँ बौद्ध पंथ है। भगवान बुद्ध द्वारा अन्य किसी पंथ को नहीं चलाया
गया। उनके द्वारा कहे गए समस्त साहित्य
में कहीं भी बौद्ध शब्द
का प्रयोग नहीं हुआ है। उन्होंने सदैव इसे धर्म ही कहा है।
भगवान बुद्ध ने किसी भी
नए सम्प्रदाय को नहीं चलाया।
उन्होनें केवल मनुष्य के अंदर श्रेष्ठ
गुणों को लाने के
लिए व उन्हें पुष्ट
करने के लिए ध्यान
की पुरातन व सनातन विधि
विपश्यना दी है। यह
भारत की ध्यान विधियों
में से एक है
जो उनसे पहले सम्यक सम्बुद्ध भगवान दीपंकर ने भी हजारों
वर्ष पूर्व विश्व को दी थी।
भगवान दीपंकर से भी पूर्व
न जाने कितने सम्यक सम्बुद्धों द्वारा यही ध्यान की विधि विपश्यना
सारे संसार को समय-समय
पर दी गयी है।
एसा स्वयं भगवान बुद्ध द्वारा कहा गया है। परंतु इस विधि के
लुप्त होने के बाद विपश्यना
करने वाले लोगों के वंशजो ने
अपना नया पंथ बना लिया। इस ध्यान की
विधि के कारण ही
भारतीय संस्कृति का फैलाव विश्व
के 21 से भी अधिक
देशों में हो गया एवं
11 देशों में बौद्धों की जनसंख्या अधिकता
में हैं। विश्व की कुल जनसंख्या
में भारतीय मूल के धर्मों की
संख्या 20 प्रतिशत है जो मुस्लिम
से केवल एक प्रतिशत कम
हैं। हिन्दुओं की कुल जनसंख्या
बौद्धों को जोड़कर 130 करोड़
है जो मुसलमानों से
कुछ ही कम है।
हिन्दुओं के 13 देश यथा- थाईलैण्ड, कम्बोडिया, म्यांमार, भूटान, श्रीलंका, तिब्बत, लाओस, वियतनाम, जापान, मकाऊ, ताईवान, नेपाल व भारत हैं।
भारत की धार्मिक प्रणालिया :
- भारत की कई धार्मिक
प्रणालिया हैं , जैसे कि हिन्दू धर्म,
जैन धर्म, बौद्ध धर्म और सिख धर्म
जैसे धर्मों का जनक है।
इस मिश्रण से भारत में
उत्पन्न हुए विभिन्न धर्म और परम्पराओं ने
विश्व के अलग - अलग
हिस्सों को भी काफी
प्रभावित किया है। सनातनी एवं समन्वय की संस्कृति को
महिमामण्डित करने की छूट नहीं
देनी चाहिए और ना ही
किसी को इससे किसी
प्रकार से अपने को
असुरक्षित समझने की मानसिकता ही
रखनी चाहिए। भारतीय आर्य संस्कृति महासमुद्र के समान है
जिसमें अनेक संस्कृतियां नदियों जैसी विलीन हो गयी हैं
। आज हमे अपने
उसी प्राचीन परम्परा को अपनाकर सभी
छोटी छोटी संस्कृतियों को अपने दिल
तक में जगह एवं पनाह देनी चाहिए। भारत जैसी विश्व प्रकृति की संस्कृति का
निर्माण ’’ बसुधैव कुटुम्बकम् ’’ एवं ’’सर्वेभवन्तु सुखिनः ’’ की भावना से
करना चाहिए । शरीर के
अंगों की भांति इन
संस्कृतियों के पालको को
भी इस यथार्थ को
आत्मसात कर एक अखण्ड
विश्व की परिकल्पना को
साकार करने का प्रयत्न करना
चाहिए। इतना सब होने के
बावजूद सभी पृथक पृथक धर्म एवं सम्प्रदाय अपनी पृथक पृथक एवं स्वतंत्र पूजा एवं उपासना पद्धति व परम्परा को
सदाशयता के साथ अपनाते
हुए सभी को सम्मान एवं
आदर करना चाहिए।
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