Monday, May 22, 2017

21 मई विश्व सांस्कृतिक विविधता दिवस डा. राधेश्याम द्विवेदी



                                     

विश्व सांस्कृतिक विविधता दिवस को संवाद और विकास के लिए सांस्कृतिक विविधता का विश्व दिवस भी लिखा जाता है। भारत की अमूर्त सांस्‍कृतिक विरासत  विश्‍व के लिए सभ्‍यता का धरोहर भी है।भारतीय संस्कृति विश्व की अमूल्य धरोहर भी है।

1.भारत की अमूर्त सांस्‍कृतिक विरासत इसकी 5000 वर्ष पुरानी संस्‍कृति एवं सभ्‍यता से आरंभ होती है। डा. ए एल बाशम ने अपने लेख ''भारत का सांस्‍कृतिक इतिहास'' में यह उल्‍लेख किया है कि ''जबकि सभ्‍यता के चार मुख्‍य उद्गम केंद्र पूर्व से पश्‍चिम की ओर बढ़ने पर, चीन, भारत, फर्टाइल क्रीसेंट तथा भूमध्‍य सागरीय प्रदेश, विशेषकर यूनान और रोम हैं, भारत को इसका सर्वाधिक श्रेय जाता है क्‍योंकि इसने एशिया महादेश के अधिकांश प्रदेशों के सांस्‍कृतिक जीवन पर अपना गहरा प्रभाव डाला है। इसने प्रत्‍यक्ष ओर अप्रत्‍यक्ष रूप से विश्‍व के अन्‍य भागों पर भी अपनी संस्‍कृति की गहरी छाप छोड़ी है। 
2. दो महान नदी प्रणालियों, सिंधु तथा गंगा, की घाटियों में विकसित हुई सभ्‍यता, यद्यपि हिमालय की वजह से अति विशिष्‍ट भौगोलीय क्षेत्र में अवस्‍थित, जटिल तथा बहुआयामी थी, लेकिन किसी भी दृष्‍टि से अलग-थलग सभ्‍यता नहीं रही। ऐसी अवधारणा कि यूरोपीय ज्ञान, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के प्रभाव में आने से पहले चीन तथा भारत सहित पूर्व के देश में शताब्‍दियों तक विकास एवं प्रगति की दृष्‍टि से बिल्‍कुल अपरिवर्तित रहे, गलत है और इसे स्‍वीकार नहीं किया जाना चाहिए। भारतीय सभ्‍यता हमेशा से ही स्‍थिर न होकर विकासोन्‍मुख एवं गत्‍यात्‍मक रही है। भारत में स्‍थल और समुंद्र के रास्‍ते व्‍यापारी और उपनिवेशी आए। अधिकांश प्राचीन समय से ही भारत कभी भी विश्‍व से अलग- थलग नहीं रहा। इसके परिणामस्‍वरूप, भारत में विविध संस्‍कृति वाली सभ्‍यता विकसित होगी जो प्राचीन भारत से आधुनिक भारत तक की अमूर्त कला और सांस्‍कृतिक परंपराओं से सहज ही परिलक्षित होता है, चाहे वह गंधर्व कला विद्यालय का बौद्ध नृत्‍य, जो यूनानियों के द्वारा प्रभावित हुआ था, हो या उत्‍तरी एवं दक्षिणी भारत के मंदिरों में विद्यमान अमूर्त सांस्‍कृतिक विरासत हो।
3. इसमें आश्‍चर्य की कोई बात नहीं कि भारतीय संस्‍कृति की विविधताओं से आकर्षित होकर अनेक लेखकों ने इसके विभिन्‍न पक्षों एवं अवधारणों का बखूबी वर्णन किया है। इन लेखों में भारतीय संस्‍कृति की जटिल तथा प्राय: विरोधी वर्णन पढ़ने को मिलते हैं। इसकी सर्वोत्‍तम व्‍याख्‍या अर्थशास्‍त्र में नोबल पुरस्‍कार विजेता डा. अमर्त्‍य सेन के लेखों में मिलता है। उनके अनुसार, आधुनिक भारतीय संस्‍कृति इसकी ऐतिहासिक परंपराओं का जटिल सम्‍मिश्रण है – जिस पर शताब्‍दियों से शासन करने वाले औपनेविशक शासन तथा वर्तमान पश्‍चिमी सभ्‍यता का व्‍यापक प्रभाव पड़ा है। पश्‍चिमी लेखकों ने प्राय: महत्‍वपूर्ण तरीके से भारतीय संस्‍कृति एवं परंपराओं ओर इसकी विविधताओं के महत्‍व को नकारा है। भारतीय परंपराओं की गहरी पैठ वाली विषमता, भारत के विभिन्‍न भागों में, का वर्णन भारत के इन सादृश्‍य वर्णनों में कहीं नहीं मिलता है। भारत कभी भी एक समरूप सभ्‍यता वाला राष्‍ट्र नहीं रहा है और न ही हो सकता है। इसका सर्वोत्‍तम उदाहरण इसकी अमूर्त विरासत है। 

4. इस विषय में रेखाचित्र को हम ई. एच. कार्र के अध्‍याय-I ‘इतिहास क्‍या है’ को ध्‍यान में रखे बिना पूर्ण स्‍वरूप नहीं दे सकते हैं। कार्र ने उल्‍लेख किया है कि तथ्‍य स्‍वयं नहीं बोलते हैं। वे तभी हमें विशिष्‍ट जानकारी प्रदान करते हैं जब इतिहासकार उनका उचित संदर्भ में उल्‍लेख करते हैं। यह इतिहासकार पर निर्भर करता है कि वह किस तथ्‍य को प्रस्‍तुत करे और इस तरह, इतिहासकार ही आवश्‍यक रूप से चयनकर्ता होते हैं। अत: कार्र इस निष्‍कर्ष पर पहुंचते हैं कि ‘इतिहास इतिहासकार तथा उसके तथ्‍यों के बीच अंतसंपर्क की एक सतत प्रक्रिया, वर्तमान ओर अतीत के बीच अनंत संवाद, गत्‍यात्‍मक, दोतरफा संवाद की प्रक्रिया है, जो सिर्फ अनुभूतिमूलक अथवा तथ्‍यों के प्रति मोह मात्र तक ही सीमित नहीं हो सकता है। यह इस अमूर्त विरासत को ऐतिहासिक एवं तटस्‍थ रूप से व्‍याख्‍यामित करने की जटिलता को दर्शाता है।

5. यह जाहिर है कि भारतीय संस्‍कृति की तरह ही अमूर्त सांस्‍कृतिक विरासत का वर्णन एवं व्‍याख्‍या इसकी जटिलता की वजह से कर पाना कठिन होता है। इसके विपरीत, मूर्त विरासत अपेक्षाकृत अधिक दृश्‍य होने की वजह से अधिक अच्‍छी तरह से ग्राह्य होती है। अमूर्त सांस्‍कृतिक विरासत की सर्वोत्‍तम व्‍याख्‍या आई सी एच संबंधी 2003 के यूनेस्‍को अभिसमय में अंतनिर्हित है, जिसमें व्‍यापक स्‍तर पर संपूर्ण विश्‍व के विविध अनुभवों एवं सोचों जैसे-पद्धतियों, प्रतिरूपणों, अभिव्‍यक्‍तियों, ज्ञान, कौशल, लिखतों, उद्देश्‍यों, वास्‍तुशिल्‍पों तथा उससे संबद्ध सांस्‍कृतिक परंपराओं का उल्‍लेख होता है जो कुछ मामलों में समुदायों, समूहों, व्‍यक्‍तियों द्वारा अपनी सांस्‍कृतिक विरासत के रूप में महत्‍व दिया जाता है।‘' यह भारत की महान आध्‍यात्‍मिक तथा सांस्‍कृतिक अमूर्त विरासत की उत्‍कृष्‍ट व्‍याख्‍या है।
6.अमूर्त सांस्‍कृतिक विरासत (आई सी एच) की परिभाषा में अमूर्त सांस्‍कृतिक विरासत (ICH) क्‍या है- विरासत सिर्फ स्‍मारकों या कला वस्‍तुओं के संग्रहण तक ही सीमित नहीं होता है। इसमें उन परंपराओं एवं प्रभावी सोचों को भी शामिल किया जाता है जो पूर्वजों से प्राप्‍त होते हैं ओर अगली पीढ़ी को प्राप्‍त होते हैं जैसे- मौखिक रूप से चल रही परंपराएं, कला प्रदर्शन, धार्मिक एवं सांस्‍कृतिक उत्‍सव और परंपरागत शिल्‍पकला। यह अमूर्त सांस्‍कृतिक विरासत अपने प्रकृति के अनुरूप क्षणभंगुर है और इसे संरक्षण करने के साथ-साथ समझने की भी आवश्‍यकता है क्‍योंकि वैश्‍वीकरण की इस बढ़ते दौर में सांस्‍कृतिक विविधताओं को अक्षुण्‍ण रखना एक महत्‍वपूर्ण कारक है। भारत के समुदायों जैसे विभिन्‍न समुदायों की आई सी एच की समझ को विकसित करने से अंतरराष्‍ट्रीय, अंतर-संस्‍कृति संवाद बेहतर होता है और आखिरकार इससे अंतरराष्‍ट्रीय शांति एवं सुरक्षा को भी बढ़ावा मिलता है।
7. आई सी एच को निम्‍नानुसार सर्वोत्‍तम तरीके से परिभाषित किया जा सकता है, ‘’एक ही समय में परंपरागत, समकालीन तथा वर्तमान स्‍वरूप का होता है क्‍योंकि यह एक गत्‍यात्‍मक प्रक्रिया है।समावेशी स्‍वरूप का होता है क्‍योंकि यह सामाजिक संबद्धता को बढ़ावा देता है, अपनी पहचान का भाव जगाता है और समुदायों एवं सामुदायिक जीवन को अक्षुण्‍ण रखता है। निरूपक स्‍वरूप का होता है क्‍योंकि यह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को दिए गए मौखिक ज्ञान कौशल को संवर्धित करता है। समुदाय आधारित होता है क्‍योंकि इसे विरासत की संज्ञा तभी दे सकते हैं जब इसे सृजित, अनुरक्षित एवं अग्रेषित करने वाले समुदायों, समूहों, व्‍यक्‍तियों द्वारा इसी स्‍वरूप में महत्‍व दिया जाता है।‘’अत: उपर्युक्‍त परिभाषा के आधार पर, आई सी एच सिर्फ सांस्‍कृतिक प्रस्‍तुति के रूप में ही नहीं बल्‍कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्‍तांतरित किए जाने वाले ज्ञान तथा कौशल की दृष्‍टि से भी काफी महत्‍वपूर्ण है। ज्ञान के इस हस्‍तांतरण का सामाजिक एवं आर्थिक रूप से विकसित राष्‍ट्रों के साथ-साथ विकासशील राष्‍ट्रों के लिए भी है।
8. होली जैसे पर्व : आई सी एच की समीक्षा - होली का ऐतिहासिक अस्‍तित्‍व ईसा पूर्व की अवधि से ही है। मूर्ति-पूजा तथा मूर्ति पूजा वाले पर्वों, जो ईसा पूर्व के धार्मिक अनुष्‍ठानों पर आधारित थे और पूर्ववर्ती ईसाइयों द्वारा ''बक्‍कूस'' परंपराओं के प्रति काफी अश्रद्धा थी जो बाद में विलीन हो गयी। सिर्फ इसाई मिसलटो परंपरा ही जीवित रही। इसी तरह, होली के धार्मिक अनुष्‍ठान सामाजिक परंपराओं पर आधारित थे ओर प्राचीनतम समय से प्रचलित थे। हिन्‍दू अनुष्‍ठान, मिथक एवं किंवदन्‍तियां बाद में अस्‍तित्‍व में आएं। धार्मिक तथा सांस्‍कृतिक पर्वोत्‍सव जैसे होली लोगों के उमंग एवं उत्‍साह को अभिव्‍यक्‍त करता है जिसमें उनकी संस्‍कृति एवं पहचान परिलक्षित होती है। विश्‍व के सर्वाधिक ज्ञात अनेक पर्व भारत में मनाए जाते हैं। इनमें से अधिकांश का जन्‍म भारतीय संस्‍कृति एवं सभ्‍यता में ही हुआ है। इसलिए, होली मूलत: ‘होलिका’ के नाम से ज्ञात, की ऐतिहासिक पृष्‍ठभूमि में भारत की प्राचीनतम धार्मिक कृतियों एवं महाकाव्‍यों जैसे जामिनी की ‘पूर्वमीमांशा- सूत्र’ तथा ‘कथक – गृह - सूत्र’ में विस्‍तृत विवरण मिलता है। प्रख्‍यात भारतीय इतिहासकार यह मानते हैं कि होली र्व आर्य जाति के लोगों द्वारा मनाया जाता है। 5000 ईसा पूर्व में मध्‍य एशिया से भारत आए। इस तरह, होली पर्व का अस्‍तित्‍व ईसा से कई शताब्‍दी पूर्व से ही है। भारत के प्राचीन पुरातत्‍व अवशेषों में भी होली के अनेक संदर्भ पाए जाते हैं।
9. चूंकि आई सी एच एक गत्‍यात्‍मक प्रक्रिया है, इस पर्व का मनाना वर्षों के दौरान कुछ बदला है। भारत के विभिन्‍न भागों में इसके भिन्‍न- विभिन्‍न स्‍वरूप प्राप्‍त होते हैं। भले ही इन मिथकों एवं किंवदंतियों का स्‍वरूप विविध है ओर ये भारत की महान अमूर्त विरासत के परिचायक हैं। पूरे भारत में, इस पर्व के माध्‍यम से बुराई के विरूद्ध अच्‍छाई एवं भगवान के प्रति समर्पण की जीत का समारोह मनाया जाता है।
10. इसलिए, होली की परंपरा लोकसाहित्‍य तथा लोक संस्‍कृति से जुड़ी हुई है और समुदायों को एक साथ बांधती है। इसका एक उदाहरण ‘छाऊ’ नृत्‍य है। इस नृत्‍य का स्‍वरूप भारत के पूर्वी भाग, विशेषकर बिहार, की परंपरा है जिसमें महाभारत एवं रामायण जैसे महाकाव्‍यों, स्‍थानीय लोक साहित्‍य तथा गूढ़ विषयों पर आधारित कथा वृतांतों का अभिनय किया जाता हे। इसकी तीन विशिष्‍ट शैलियां पूर्वी भारत के सरायकेला, पुरूलिया तथा मयूरगंज क्षेत्रों की हैं। ‘छाऊ’ नृत्‍य क्षेत्रीय पर्वों, मुख्‍यत: बंसत पर्व चैत पर्व से संबंधित है। इसकी मूल अवधारण नृत्‍य एवं मार्शल पद्धतियों के स्‍वदेशी स्‍वरूपों में मिलती है। इस नृत्‍य की भाव- भंगिमाओं में आभासी युद्ध की तकनीकें, पशुओं एवं पक्षियों की चलने की विशिष्‍ट शैली ओर ग्रामीण घरेलू औरतों की सामूहिक रूप से चलने की शैली शामिल है। यह लोक नृत्‍य का अपने स्‍वाभाविक स्‍वरूप से विकसित होकर उच्‍च शैली के नृत्‍य का स्‍वरूप धारित करने को प्रतिरूपित करता है। ‘छाऊ’ नृत्‍य भारत की प्राचीनतम स्‍वदेशी नृत्‍यों में से एक है। ये पद्धतियां इस बात को दर्शाती हैं कि विरासत के लिए अतीत के साथ अपना अस्‍तित्‍व बनाए रखना महत्‍वपूर्ण है। इसलिए ये लोक संस्‍कृतियां भारत की चिरकालीन अमूर्त सांस्‍कृतिक विरासत के भाग हैं।
11. भारत में, हमारे पास विरासत के जीवंत पैटर्न एवं पद्धतियों के अनमोल एवं अपार भंडार हैं। 1400 बोलियों तथा औपचारिक रूप से मान्‍यता प्राप्‍त 18 भाषाएं, विभिन्‍न धर्मों, कला, वास्‍तुकला, साहित्‍य, संगीत और नृत्‍य की विभिन्‍न शैलियां, विभिन्‍न जीवनशैली, प्रतिमानों के साथ, भारत विविधता में एकता के अखंडित स्‍वरूप वाला सबसे बड़े प्रजातंत्र का प्रतिनिधित्‍व करता है, शायद विश्‍व में यह सर्वत्र अनुपम है।
12. परिवर्तनशील अधिवासों तथा राजनीतिक सत्‍ता के इतिहास के बावजूद भारत की वर्तमान सांस्‍कृतिक विरासत के स्‍वरूप का निर्धारण सैकड़ों अनुकूलनों, मनोरंजनों तथा सह-अस्‍तित्‍व के आधार पर निर्धारित हुआ। भारत की अमूर्त सांस्‍कृतिक विरासत लम्‍बी समयावधि से समुदायों द्वारा अपनाए जा रहे विचारों, पद्धतियों, विश्‍वासों तथा मूल्‍यों में अपनी अभिव्‍यक्‍ति पाती है और राष्‍ट्र की सामूहिक स्‍मृति का हिस्‍सा बनता है। भारत का भौतिक, नृजातीय तथा भाषायी विविधता इसकी सांस्‍कृतिक विविधता की तरह ही अद्भुत है, जो आपसी संबद्धता के सांचे में विद्यमान है। कुछ मामलों में, इसकी सांस्‍कृतिक विरासत को अखिल भारतीय परंपरा के रूप में परिभाषित किया जाता हे जो किसी विशिष्‍ट क्षेत्र, शैली या श्रेणी तक ही सीमित न होकर विविध रूपों, स्‍तरों तथा स्‍वरूपों का है जो आपस में सम्‍बद्ध होते हुए भी एक दूसरे पर आश्रित नहीं है। भारत की विरासत की विविधता को रेखांकित करने से हमें यह पता चलता है कि यह सभ्‍यता प्राचीनतम समय से अब तक विद्यमान है और बाद में विभिन्‍न प्रभावों से इसमें संवर्धन होता रहा है।
13. अंत में, स्‍वामी विवेकानंद की निम्‍नलिखित पंक्‍तियों का स्‍मरण करना उपयुक्‍त होगा,-‘'यदि कोई अपने ही धर्म तथा संस्‍कृति का विशेष रूप से विद्यमानता का स्‍वप्‍न देखता है, तो मुझे उस व्‍यक्‍ति के प्रति दिल से सहानुभूति है और यह कहना चाहता हूँ कि बहुत जल्‍द प्रत्‍येक धर्म एवं संस्‍कृति के बैनर पर बिना संकोच’’ सहायता करो, संघर्ष नहीं, समावेशन करो विध्‍वंस नहीं; मेल - मिलाप तथा शांति रखो मतभेद नहीं’’ – ही लिखा जाएगा।''
               यह उसका परिचायक है जो भारत संपूर्ण विश्‍व को देना चाहता है, अपनी जीवंत अमूर्त विरासत जो इसकी वैश्‍विक सभ्‍यता की विरासत है। इस विरासत से विभिन्‍न राष्‍ट्रों, समाजों तथा संस्‍कृतियों के बीच संस्‍कृति एवं सभ्‍यता का एक संवाद बनाने में सुविधा होगी। यह परिणामत: विकास एवं शांति की दिशा में अंतरराष्‍ट्रीय समुदाय की रणनीति को पुनर्जीवित करने का एक प्रभावी कदम होगा
डा.राधेश्याम द्विवेदी
rsdwivediasi@gmail.com

Mob.09412300183

No comments:

Post a Comment