पितरों को श्रद्धा और श्राद्ध देने का महापर्व
पितृ पक्ष' अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने, उनका स्मरण करने और उनके प्रति श्रद्धा अभिव्यक्ति करने का
महापर्व होता है। इस अवधि में पितृगण अपने परिजनों के समीप विविध रूपों में देखे जाते हैं और अपने मोक्ष की कामना करते हैं। परिजनों से संतुष्ट होने पर पूर्वज आशीर्वाद देकर हमें अनिष्ट घटनाओं से बचाते हैं। ज्योतिष मान्यताओं के आधार पर सूर्य देव जब कन्या राशि में गोचर करते हैं, तब हमारे पितर अपने पुत्र-पौत्रों के यहाँ विचरण करते हैं। विशेष रूप से वे तर्पण की कामना करते हैं। श्राद्ध से पितृगण प्रसन्न होते हैं और श्राद्ध करने वालों को सुख-समृद्धि, सफलता, आरोग्य और संतान रूपी फल देते हैं। पितृ पक्ष के दौरान वैदिक परंपरा के अनुसार 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में यह निर्देश है कि इस संसार में आकर जो सद्गृहस्थ अपने पितरों को श्रद्धापूर्वक पिंडदान, तिलांजलि और ब्राह्मणों को भोजन कराते है, उनको इस जीवन में सभी सांसारिक सुख और भोग प्राप्त होते हैं। वे उच्च शुद्ध कर्मों के कारण अपनी आत्मा के भीतर एक तेज और प्रकाश से आलोकित होते है। मृत्यु के उपरांत भी श्राद्ध करने वाले सदगृहस्थ को स्वर्गलोक, विष्णुलोक और ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है।
बारह पिंड निकालने की क्रिया
हर पीढ़ी के भीतर मातृकुल और पितृकुल दोनों की पहले पीढ़ियों के गुणसूत्र उपस्थित होते हैं। चावल के पिंड जो पिता, दादा, परदादा और पितामह के शरीरों का प्रतीक हैं, उन्हें आपस में मिलाकर फिर अलग बांटते हैं। जिन-जिन लोगों के गुणसूत्र (जीन्स) श्राद्ध करने वाले की देह में हैं, उन सबकी तृप्ति के लिए यह अनुष्ठान किया जाता है। पिंडदान दाहिने हाथ में लेकर करना चाहिए और मंत्र के साथ पितृ तीर्थ मुद्रा से दक्षिणाभिमुख होकर पिंड किसी थाली या पत्तल में स्थापित करें। पितृतीर्थ मुद्रा में दक्षिण दिशा में मुख करके बायां घुटना मोड़कर बैठा जाता है। इस तरह सबसे पहला पिंड देवताओं के निमित निकालें। दूसरा पिंड ऋषियों के निमित तीसरा दिव्य मानवों के निमित, चौथा दिव्य पितरों के, पांचवां पिंड यम के, छठा मनुष्य-पितरों के नाम, सातवां मृतात्मा के नाम, आठवां पिंड पुत्रदारा रहितों के नाम, नौवां उच्छिन्न कुलवंश वालों के नाम, दसवां पिंड गर्भपात से मर जाने वालों के नाम, ग्यारहवां और बारहवां पिंड इस जन्म या अन्य जन्म के बन्धुओं के निमित।
इस तरह से बारह पिंड निकाले जाते हैं और उन पर क्रमशः दूध, दही और मधु चढ़ाकर पितरों से तृप्ति की प्रार्थना की जाती है और मंत्र का जप किया जाता है। मंत्र है-
ऊं पयः पृथ्वियां पय ओषधीय,
पयो दिव्यन्तरिक्षे पयोधाः।
पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम।
गरुण पुराण के हवाले से श्री कृष्ण का वचन उद्घृत है -
कुर्वीत समये श्राद्धं कुले कश्चिन्न सीदति।
आयुः पुत्रान्यशः स्वर्गं कीर्तिं पुष्टिं बलं श्रियम्।।
पशून् सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृपूजनात्।
देवकार्यादपि सदा पितृकार्यं विशिष्यते।।
देवताभ्यः पितृणां हिपूर्वमाप्यायनं शुभम्।।
पितृ कर्म से तीनो ऋणों से मुक्ति
भारतीय वैदिक वांगमय के अनुसार प्रत्येक मनुष्य पर इस धरती पर शरीर धारण करने के पश्चात् तीन प्रकार के ऋण बन जाते हैं-
देव ऋण
ऋषि ऋण
पितृ ऋण
पितृ पक्ष के श्राद्ध :- इस अवधि के 16 श्राद्ध साल के ऐसे सुनहरे दिन हैं, जिनमें व्यक्ति श्राद्ध प्रक्रिया में शामिल होकर उपरोक्त तीनों ऋणों से मुक्त हो सकता है। महाभारत के प्रसंग के अनुसार, मृत्यु के उपरांत कर्ण को चित्रगुप्त ने मोक्ष देने से इनकार कर दिया था। कर्ण ने कहा, "मैंने तो अपनी सारी सम्पदा सदैव दान-पुण्य में ही समर्पित की है, फिर मेरे ऊपर यह कैसा ऋण बचा हुआ है?” चित्रगुप्त ने जवाब दिया कि "राजन, आपने देव ऋण और ऋषि ऋण तो चुका दिया है, लेकिन आपके उपर अभी पितृऋण बाकी है। जब तक आप इस ऋण से मुक्त नहीं होंगे, तब तक आपको मोक्ष मिलना कठिन होगा।" इसके उपरांत धर्मराज ने कर्ण को यह व्यवस्था दी कि आप 16 दिन के लिए पुनः पृथ्वी पर जाइए और अपने ज्ञात और अज्ञात पितरों का श्राद्ध-तर्पण तथा पिंडदान विधिवत करके आइए। तभी आपको मोक्ष यानी स्वर्ग लोक की प्राप्ति होगी।” इस घटना से पितृ कर्म की प्रमाणिकता और भी बलवती हो जाती है।
पितरों को श्रद्धा - श्राद्ध ना देने का फल
जो लोग दान श्राद्ध, तर्पण आदि नहीं करते, माता-पिता और बडे बुजुर्गो का आदर सत्कार नहीं करते, पितृ गण उनसे हमेशा नाराज रहते हैं। इसके कारण वे या उनके परिवार के अन्य सदस्य रोगी, दु:खी, मानसिक और आर्थिक कष्ट से पीड़ित रहते है। वे निःसंतान भी हो सकते हैं। पितृदोष के कारण उनको संन्तान का सुख भी दुर्लभ रहता है।
भारत की पावन भूमि में ऐसे कई स्थान हैं, जहाँ ऐसे भूले- भटके लोग पितृदोष की निवृत्ति के लिए अनुष्ठान कर सकते हैं। देश के गया आदि जैसे अनेक पौराणिक स्थल पितृ दोष के निवारण के लिए श्राद्धकर्म को आरंभ करने हेतु उपयुक्त स्थल हैं। इन स्थलों में जाकर वे श्रद्धालु पितृ पक्ष के श्राद्ध आरंभ कर सकते हैं, जिन्होंने पहले कभी भी श्राद्घ न किया हो। वैसे तो पितृ पक्ष के श्राद्ध की महिमा अपार है, लेकिन जो भी श्रद्धालु अपने दिवंगत पिता, माता दादा, परदादा, नाना, नानी आदि का इन 16 श्राद्धों में व्रत उपवास रखकर ब्राह्मण को भोजन कराकर दक्षिणा आदि देते हैं, उनके घर लक्ष्मी और विष्णु भगवान सदैव ही बने रहते हैं। अर्थात् वे सदैव ही धन धान्य से परिपूर्ण रहते हैं।श्राद्ध कर्म के पीछे के विज्ञान का एक पक्ष भावना से जुड़ा है और दूसरा पक्ष आध्यात्मिक विज्ञान से। यथा -
।।ॐ अर्यमा न त्रिप्य्ताम इदं तिलोदकं तस्मै स्वधा नमः।...
ॐ मृत्योर्मा अमृतं गमय।।
(भावार्थ : पितरों में अर्यमा श्रेष्ठ है। अर्यमा पितरों के देव हैं। अर्यमा को प्रणाम। हे! पिता, पितामह, और प्रपितामह। हे! माता, मातामह और प्रमातामह आपको भी बारम्बार प्रणाम। आप हमें मृत्यु से अमृत की ओर ले चलें।)
अर्यमा हिंदू धर्म में एक देवता हैं जो पितरों के अधिपति और पितृलोक के राजा हैं। वे ऋषि कश्यप और देवमाता अदिति के पुत्रों में से एक हैं और आदित्य देवताओं में शामिल हैं। श्राद्ध और तर्पण के दौरान अर्यमा का नाम लेना पितरों की आत्मा की शांति के लिए आवश्यक माना जाता है, क्योंकि उनकी प्रसन्नता से ही पितर तृप्त होते हैं।
।।श्रद्धया दीयते यस्मात् तच्छादम्।।
(भावार्थ : श्राद्ध से श्रेष्ठ संतान, आयु, आरोग्य, अतुल ऐश्वर्य और इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति होती है।)
सात कुल प्रभावित
सात कुलों के लिए पिण्ड दान,तर्पण और दक्षिणा का कर्म संचालित होता है -
1.पिता का परिवार - पिताजी कुल
2.माता का परिवार - नाना कुल
3.पत्नी का परिवार - भार्या कुल
4.बहन का परिवार - भगिनी कुल
5.बेटी का परिवार - दोहिता कुल
6.पिता की बहन का परिवार - पितृ भगिनी - बुआ
7.माता की बहन का परिवार - मातृ भगिनी - मौसी
मोटे तौर पर हम इन्हें अपने पिता, दादा, परदादा, माता, दादी, परदादी, नाना, परनाना, विधात्नानी, नानी,परनानी, विधात्नानी, चाचा, ताऊ, चाची, ताई,
पत्नी के पिता और माता, बुआ, फूफा, मामा, मामी, मौसा, मौसी, आदि को
अभिमंत्रित करते हैं। इसके अलावा किसी का नाम हम भूल गए हों, जिस किसी की आकस्मिक दुर्घटना जनित मृत्यु हुई हो, जो आग से जल कर मरा हो, पानी में डूबने से मरा हो, सर्पदंश से मौत हुई हो, आत्म हत्या की हो, गर्भस्थ मृत्यु पाया हो, सांप ने काटा हो यहां तक पशु-पक्षी योनि में से भी कोई हो, वे सब इस पूजा से प्रभावित होते हैं। इन सब के लिए पिण्ड दान,तर्पण और दक्षिणा कर्म सम्पन्न कराया जाता है ।
कुछ खास तैयारी
अपने सात कुलों/परिवारों के रिश्तेदारों की सूची उनके गोत्र की जानकारी रखना चाहिए।
1.कपड़ों का एक सेट जो आपके पिता पहनते थे , क्रय करना चाहिए।
2. साड़ी और ब्लाउज का सेट जो माँ पहनना पसंद करती थीं, क्रय करना चाहिए।
3. पितरों के मोक्ष लिए 84 दान प्रयागराज और अन्य तीर्थ स्थानों में किए
जाते हैं, जो 84 लाख योनियों से मुक्ति दिलाकर मोक्ष प्राप्ति का फल प्रदान करती है। सम्राट हर्षवर्धन ने अपने समय में प्रयाग कुंभ में 84 दान किए थे, जिसमें वस्त्र, बिस्तर और घरेलू सामान जैसी कई वस्तुएं शामिल थीं। इस दान की परंपरा में सेजिया दान (बिस्तर दान) प्रमुख है, और यह व्यक्ति को इस लोक में कल्याण व परलोक दिलाता है। इनमें सज्जा दान, वस्त्र बिछाने ओढ़ने वाले का दान, बरतन दान, छाता, चप्पल ,मच्छरदानी, सोना दान,गौ दान , भू दान, अश्व दान आदि भी किया जाता है।
4. अपने स्थानीय पंडे और पुरोहित से एक लम्बी चौड़ी सामनों की लिस्ट बनवा लेनी चाहिए उसे यात्रा के दौरान क्रय कर लेनी चाहिए।
5.स्थानीय पुरोहित और पिण्ड स्थल का पंडा और पुरोहित इस संस्कार को श्रद्धा से करवाते है और दक्षिणा चढ़वाते हैं।
5.यह क्रिया घर पर ,अयोध्या सरयू घाट पर, अयोध्या के भरत कुंड पर , वाराणसी गंगा घाट पर ,वाराणसी का पिचास मोचन घाट पर पिण्ड दान करवाया जाता है। इसके बाद पुन - पुन गया आदि 54 पवित्र वेदियों पर सम्पन्न कराया जाता है।
गया में पिंडदान
अगली कड़ी में मुख्य रूप से गया में श्राद्ध, पितृ यज्ञ, शुद्ध कार्य के लिए पिंडदान किया जाता है। इसे पितरों के लिए श्राद्ध पार्वण श्राद्ध कहा जाता है।
गया जी में पिंडदान करने के लिए 3 मुख्य और पचासों गौड़ पिण्ड वेदियां भी हैं। इनमें कुछ ही पर पिण्ड दान करवाया जाता है। मुख्य वेदियां निम्न है -
1- फाल्गुनी नदी - पिंड दान
2- श्री विष्णुपद मंदिर - पिंड दान
3- श्री अक्षय वट जी - पिंड दान
4- वैतरणी - अंतिम मुक्ति का तर्पण
मुख्यतःपुत्र ही श्राद्ध कर्म का अधिकारी
पिंडदान का सबसे पहला अधिकार ज्येष्ठ पुत्र को होता है। पिंड दान और तर्पण के लिए मुख्यतःपुत्र आदरणीय अज्ञेय होने के साथ-साथ श्राद्ध कर्म करता है, वह ब्राह्मणों को भोजन कराता है। यदि पुत्र न हो तो उसका अधिकार पोता, पुत्र का पुत्र और परपोता (प्रपौत्र), पुत्री के पुत्र (नाती), पत्नी, भाई, भतीजा, भांजा, पुत्री की बहू या बेटी भी यह दायित्व संभाल सकते हैं, यदि वे अनुपस्थित या असमर्थ हों और परिवार में कोई पुरुष सदस्य न हो, तो दामाद भी पिंडदान कर सकता है। गोद लिया हुआ पुत्र भी अधिकारी होता है यदि कोई भी उत्तराधिकारी न हो, तो राजा या पुरोहित (पंडित) या ब्राह्मण भी इसे कर सकते हैं। ब्राह्मण को दतक मानकर पिंडदान करने का विधान है। ये सभी गया जी में पिंडदान करते हैं । पिंडदान के बाद ब्राह्मण भोजन कराया जाता है । इसके बाद दक्षिणा दी जाती है। कुछ लोग शैय्या दान, श्रृंगार सामग्री का दान, वस्त्र दान, शैय्या दान, स्वर्ण दान, गौदान ,वर्तन दान, आदि करते हैं। अष्ट महादान में पितरों को संतुष्ट करने वाले आठ प्रकार के दान में तिल, लोहा, सोना, कपास, नमक, सप्तधान्य (सात तरह के अनाज), भूमि और गाय शामिल हैं। भगवद गीता के अनुसार सात्विक, राजसिक और तामसिक दान के तीन प्रकार हैं। कुछ स्रोत 16 अलग-अलग प्रकारों में भौतिक वस्तुएं और अनुष्ठानिक दान दोनों को शामिल करते हैं, जैसे हिरण्यगर्भ दान, ब्रह्मांड दान, कल्पवृक्ष दान, और रत्नधेनु दान महा दान के उदाहरण हैं। गाय, स्वर्ण, चांदी, रत्न, विद्या, तिल, कन्या, हाथी, घोड़ा, शय्या, वस्त्र, भूमि, अन्न, दूध, छत्र तथा आवश्यक सामग्री सहित घर इन 16 वस्तुओं के दान को महादान कहते हैं।
गया का डांड अपकर्म है शास्त्रीय नहीं
गया के पण्डो द्वारा धर्मिक अनुष्ठान और आवश्यक खर्च के नाम पर कुछ वाजिब और कुछ गैरवाजिब शुल्क जबरन या स्वेच्छया संकल्प कराए जाते हैं जिसमें पूजन सामग्री, ब्राह्मणों को भोजन और दक्षिणा, दान-दक्षिणा, तथा कभी-कभी यात्रा और ठहरने का खर्च शामिल होता है, जो पिंडदान की अवधि और विधि पर निर्भर करता है. इसके अलावा, पण्डित अक्सर विधि की एक निश्चित फीस दक्षिणा भी लेते हैं और दान-पुण्य जैसे अन्य खर्चे भी इसमें शामिल करते हैं. पितृकर्म के संदर्भ में डांड नहीं होता है । यह सामान्यतः शारीरिक या सामाजिक सजा के संदर्भ में प्रयुक्त होता है, पर गया में खुले मंच पर डांड कह कर पंडा और पुरोहित अपने को गौरवान्वित होकर अपकर्म कर जाते हैं। उनके द्वारा उत्तम मध्यम और अधम श्रेणी का दान और दक्षिणा कह कर यजमान से भारी रकम देने के लिए बाध्य किया जाना डांड भी अपकर्म हो जाता है। इसे बढ़ावा न देकर शास्त्रोचित कर्म को प्रेरित करना चाहिए।
इस अपकर्म को प्रोत्साहित करने के लिए गया का पंडा सामंतवाद जैसा एक पंचायत सभा आहुत कर लोगों को सनातन कर्म कांड के बारे में एक विशेष व्याख्यान भी देता है। अपना चरण पूजा करवाता है और दक्षिणा एवं भोजन का खर्चा भी लेता है। उनके द्वारा उत्तम मध्यम और अधम श्रेणी का दान और दक्षिणा कह कर यजमान को डांड (अपकर्म) के लिए बाध्य किया जाता है । खुले मंच से यजमान से संकल्प करा कर धन वसूला जाता है। उनके साथ उनके कुछ हृष्ट पुष्ट सहायक भी उनके काम में मदद करते हैं।
जगन्नाथपुरी का अटका भी अपकर्म
जगन्नाथ पुरी में पिंडदान के लिए पंडा कोई न कोई निर्धारित शुल्क लेता है, वह अपनी सेवा और भगवान जगन्नाथ को भोग चढ़ाने के बदले में दक्षिणा स्वरूप अटका मांगते हैं, जो भक्त की इच्छा पर निर्भर करता है और हजार रुपये से कम नहीं होता है। इस शुल्क से जगन्नाथ मंदिर में तरह-तरह के भोग लगाने की बात कही जाती है। कुछ शुल्क मंदिर में जमा करने की बात कही जाती है। पितृकर्म से वैदिक रूप में अटका कोई शास्त्र सम्मत संबंध नहीं होता है। पर व्यवहारिक रूप में तीर्थ पुरोहित खुले मंच से 'अटका' को अपना अधिकार कहते हैं। वैसे अटका का अर्थ किसी कार्य में बाधा या रुकावट आना होता है। इसे पंडा और पुरोहित द्वारा यजमान से कहना और मांगना उचित नहीं है। फिर भी व्यवहारिक रूप में यह प्रचलित है। सरकार के किसी सक्षम संगठन द्वारा स्वतः संज्ञान लेकर इस समस्या का निदान करना चाहिए।
तीर्थ में शुल्क इस बात पर निर्भर कर सकता है कि आप पंडा को किस काम के लिए भुगतान कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, यदि आप मंदिर के भीतर किसी विशेष पूजा या अनुष्ठान के लिए पंडा को संलग्न करते हैं, तो शुल्क वाजिब है। पंडा द्वारा यह अपेक्षा की जाती है कि यजमान अपनी इच्छा से कुछ दक्षिणा दे। आप अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार जो चाहें नहीं दे पाते हैं, अपितु पंडा या पुरोहित के आदेश पर डांड देने के लिए बाध्य कर दिए जाते हैं। यह भी एक प्रकार से अपकर्म ही है।
धार्मिक स्थानों पर दान ईश्वर प्रेरित सद कार्य :-
हमारे देश में अन्य जगहों की अपेक्षा धार्मिक स्थानों में ही ज्यादा पैसा दान किया जाता है या चढ़ाया जाता है । हिन्दू मंदिर इसका हिसाब रखते है और सरकार के खाते में भी की कुछ अंश डालते हैं पर कई अन्य धर्मों में यह नियंत्रण और हिसाब देखने या मांगने की हिम्मत किसी को नहीं होती है। सरकार को जमा इस पैसे का सदुपयोग अच्छी तरह से नहीं हो पाता। उस जगह के रखरखाव तथा अन्य खर्चों के अलावा जो पैसे बचते हैं। अगर उन पैसों को जरूरतमंद व्यक्तियों की मदद के लिए उपयोग किया जाए तो यह उस पैसे का सर्वोत्तम उपयोग होगा। जैसे गरीब बच्चों की पढ़ाई में ,गरीब लोगों के इलाज के लिए अस्पतालों की सुविधा, तथा उनके लिए घर बनाना, कपड़ों की व्यवस्था करना, भूखे व्यक्तियों के लिए भोजन आदि की व्यवस्था की जा सकती है। इसके अलावा लाइब्रेरी खोली जा सकती है जो बच्चे किताब नहीं खरीद सकते हैं उनके लिए तो यह सबसे उपयुक्त होगा। शहर के विकास कार्यों में पैसा खर्च किया जा सकता है ताकि लोगों को और सुविधाएं उपलब्ध हो सके।अगर कोई पैसे का सच में सदुपयोग करना चाहे तो रास्ते हजार हैं । और इन कामों को करने से भगवान भी खुश और इंसान भी खुश हो सकते हैं। इससे बढ़िया सदुपयोग और क्या हो सकता है उस दान के पैसे का जिसका पाई-पाई लोगों की भलाई के लिए काम आ जाए।
वैदिक शास्त्रों में लिखा है कि हर गृहस्थ का ये कर्तव्य होता है अपनी कमाई का दसवां भाग दान करे। दान ज़रूरी नहीं किसी मंदिर में ही किया जाए, वह ब्राह्मणों को अलग से भोज कराकर भी दिया जा सकता है। हर कोई किसी गरीब को स्वतः ही दान दे सकता है।
सन्यासी और ब्रह्मचारी जो मंदिर में भगवान की सेवा करते हैं। उनका कार्य होता है कि वो समाज को भगवद-ज्ञान दें। अतः उनकी सेवा करना हमारी ज़िम्मेदारी बन जाती है। इसलिए मंदिरों में दान देने की प्रथा शुरू हुई, जो मुझे लगता है एक सही चीज़ है अगर सही जगह की जाए तो और उत्तम है।
धार्मिक स्थलों पर लोगों द्वारा पैसे या चढ़ावा चढ़ाने को मैं गलत नहीं मानता हूं यदि यह स्वेच्छया ईश्वर के प्रति यह जाता है और यह किसी के काम आ रहा है तो ठीक है। हम और आप सिर्फ माध्यम है , यह ईश्वर का दिया हुआ है इस भावना से दिया हुआ दान ईश्वर को मंजूर है। दान देने के बाद उस दान से मोह या ममता नही रहना चाहिये जैसे कि कन्या दान के बाद पुत्री से। अगर उससे संबंध रहा तो सिवाय दुख के कुछ नहीं होने वाला है वैसे भी दान सात्विक पात्र को हो पाए तो वह आध्यात्मिक सुख शांति और मोक्ष का कारक होता है।
जोर जबरदस्ती से लिया दान है झटका(अपकर्म)
झटका शब्द किसी अचानक हुए आघात, शारीरिक या मानसिक सदमे के लिए प्रयोग होता है। पितृ पक्ष के दान या शुल्क के लिए इस शब्द का उपयोग बिल्कुल नहीं किया जाता है। ये तो एक भक्त की भावना आहत होने की अनुभूति है,जिसे कोई भुक्त भोगी ही अनुभव कर सकता है। यदि यजमान अपने तीर्थ के अनुभव इसे इस रूप में पाए तो दोष उसका नहीं अपितु उसे उस परिस्थिति में लाने वाले पंडे या तीर्थ पुरोहित का है। स्वेच्छया दान ना होने,जोर जबरदस्ती से डांड को झटका या अपकर्म कहा जा सकता है। इस परम्परा को पारदर्शी बनाकर अंकुश लगाया जाना चाहिए। अक्षम व्यक्ति से या अत्यंत गलत पात्र को किया दान मुफ्त कमाई का साधन और पुजारियों, ट्रस्टियों, मालिकों द्वारा मनमानी मौज का साधन तो हो सकता है शुद्ध वैदिक दान की श्रेणी में नहीं आ सकता है। यह उनके आध्यात्मिक उन्नति में बाधक और नरक गामी बनाता है। यदि प्राप्त दान अच्छे उद्देश्य में लगा तभी फली भूत होगा। अन्यथा जोर जबरदस्ती से लिया दान शुभ फल दायक कभी नहीं हो सकता है और पाने वाला नरक गामी होता है। “माङव्य ऋषि” को गलत दण्ड देने वाले “धर्मराज” को “विदुर” बनकर दण्ड भोगना पड़ा था। “एकलव्य” से जबरन गुरु दक्षिणा लेने वाले “गुरु द्रोणाचार्य” को अपने प्राणों की आहुति महाभारत में देनी पड़ी। राम द्वारा बालि को छुपकर मारने के लिए कृष्णावतार में एक साधारण बहेलिए के हाथ प्राणोत्सर्ग करना पड़ा। राजा दशरथ के हाथ से श्रवण कुमार को बाण लगने की कीमत उन्हें जान देकर देनी पड़ी।
राष्ट्र कवि राम धारी सिंह दिनकर ने रश्मिरथी का अंतिम सातवां खण्ड में अपकर्म के बारे में इंगित करते हुए कहते हैं -
पुरुष की बुद्धि गौरव खो चुकी है,
सहेली सर्पिणी की हो चुकी है,
न छोड़ेगी किसी अपकर्म को वह,
निगल ही जायगी सद्धर्म को वह ।
लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।
(वॉट्सप नं.+919412300183)
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