Tuesday, September 30, 2025

बोधगया और समीपस्थ वेदियां : गया जी के तीर्थ (10)✍️ आचार्य डॉ राधेश्याम द्विवेदी

मुख्य शहर गया से थोड़ी दूर धर्मरायण से एक मील पश्चिम यह स्थान है। गया से बुद्ध गया सात मील दूर है यहां बुद्ध भगवान का विशाल मंदिर है। मंदिर के पीछे पत्थर का चबूतरा है जिसे बौद्ध सिंहासन कहते हैं इसी स्थान पर बैठकर गौतम बुद्ध ने तपस्या की थी और यही बोधि वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ था। वह बोधि वृक्ष अब तो है नहीं किंतु एक नया पीपल का वृक्ष यहां लगाया गया है ।
ज्ञान और मोक्ष का संगम
पुराने शहर के पास बहती फल्गु नदी के किनारे हर साल पितृपक्ष के 15 दिनों में लाखों लोग गया तीर्थ की धरती पर अपने पितरों का पिंडदान, श्राद्ध और तर्पण करके उनके मोक्ष की कामना करते हैं । पितृपक्ष के परे भी यह सिलसिला साल भर चलता ही रहता है । ज्ञान और मोक्ष के इसी संगम ने गया को मुक्तिधाम बना दिया । यह बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए ज्ञान का सागर है और हिन्दू धर्म को मानने वालों के लिए मोक्ष का द्वार है । 
आस पास की अन्य वेदियां 
पितृपक्ष महासंगम के पांचवें दिन तृतीया तिथि को बोधगया स्थित विभिन्न पिंड वेदियो पर कर्मकांड का विधान है। 
बोधगया रोड पर अम्बा गाँव के पूर्वी भाग में शरस्वती वेदी ,मातंगवापी वेदी, धर्मार्णय वेदी और बोधितरु वेदी सहित 5 वेदियों पर तर्पण का काम किया जाता है।
1.बोधि तरु 
बोधि वृक्ष का इतिहास भगवान बुद्ध द्वारा बोधगया में इसी पीपल के वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त करने से शुरू होता है. यह वृक्ष कई पीढ़ियों से जीवित है, क्योंकि मूल वृक्ष को कई बार नष्ट करने की कोशिश की गई, लेकिन यह हर बार फिर से उग आया या इसकी शाखाएं फिर से लगाई गईं. सम्राट अशोक ने इसके एक महत्वपूर्ण शाखा को श्रीलंका भेजा था, और आज भी यह वहा मौजूद है. वर्तमान बोधि वृक्ष, जिसकी गिनती चौथी पीढ़ी में होती है, श्रीलंका से लाई गई शाखा का वंशज है।
2.मातंगवापी
सरस्वती नदी से लगभग एक मील पर मातंग वापी नमक छोटी बावली है यहां पगडंडी से आना पड़ता है बावली के उत्तर कर मंदिर हैं जिनमें मतंगेश्वर शिव का मंदिर मुख्य है। मातंग ऋषि का तपोस्थली मातंगवापी वेदी पर पिंडदान तर्पण और मातंगी सरोवर के दर्शन का विशेष महत्व मना जाता है। जिसका उल्लेख अग्नि पुराण में भी है। मातंगवापी परिसर में स्थित मातंगेश्वर शिव पर पिंड सामग्री को छोड़ पिंडदानी अपने कर्मकांड का इति श्री कर आगे बढ़ते हैं।
3.शारस्वती नदी व वेदी
बोधगया रोड पर 3 मील आगे जाकर पक्की सड़क छोड़कर पैदल एक मील कच्चे मार्ग से जाने पर अम्बा गाँव के पूर्वी भाग में यह स्थित है। यही सरस्वती नदी मिलती है । सरस्वती तट पर छोटा सा सरस्वती देवी का मंदिर है। वहीं एक चबूतरे पर चरण चिन्ह तथा कई शिवलिंग है। कोलाहल से दूर बिल्कुल शांत वातावरण सरस्वती वेदिका है। यहां तर्पण करने का विधान है। यहां पिंडदानियों की संख्या कम देखी जाती है। बोध गया के साथ इसका तर्पण किया जाता है। गया में पितृपक्ष के चौथे दिन सरस्वती पिंडवेदी पर पिंडदान किया जाता है। यह एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल है जहां पिंडदान करने से पूर्वजों को बैकुंठ लोक की प्राप्ति होती है और उन्हें प्रेत बाधा से मुक्ति मिलती है। यह वेदी बोधगया के अंतर्गत आती है और बोध गया के एक साथ पिण्ड दान करवाती है। 


4.धर्मारण्य पिण्ड वेदी
मातंग वापी से दो मील दक्षिण पूर्व में यह स्थान है यहां एक कुआं है यहां पिंडदान के बाद पिंड कुएं में डाल दिया जाता है। 
निरंजना के तट पर स्थित पीपल के वृक्ष के नीचे भगवान बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी । धर्मारण्य पिंडवेदी पर श्राद्ध करने से विभिन्न बाधाओं से मुक्ति मिलती है, पितरों को प्रेतयोनि से मुक्ति मिलती है. चाहे किसी की आत्मा भटक रही हो, या किसी का परिवार विभिन्न रोगों से ग्रसित हो या फिर संतान ना हो, शादी ना हो रही हो, या फिर अन्य कोई भी बाधा हो, अगर लोग यहां पिंडदान करते हैं तो उन्हें उक्त बाधाओं से मुक्ति मिलती है, साथ ही पितरों का उद्धार होता है. इस वेदी पर श्राद्ध कर्मकांड करने से पितरों को ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है. महाभारत काल में स्वयं युधिष्ठिर ने भी अपने पितरों की आत्मा की शांति के लिए यहां पिंडदान किया था. इसलिए इस पिंडवेदी का बहुत ही महत्व है. यह स्थान पर पिंडदान व तर्पण करने से पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है इसलिए इस पवित्र स्थान को मोक्ष स्थली भी कहा जाता है। माना जाता है कि यहां ब्रह्मा, विष्णु और महेश के अलावा सभी देवी-देवता विराजमान हैं। गया का महत्व इसी से पता चलता है कि यहां फल्गु नदी के तट पर राजा दशरथ की आत्मा की शांति और मोक्ष के लिए श्राद्ध कर्म और पिंडदान किया गया था। वायु पुराण, गरुड़ पुराण और विष्णु पुराण में भी गया शहर का वर्णन किया गया है।
       कालांतर से चली आ रही तर्पण व पिंडदान की प्रक्रिया पावन भूमि गया के आसपास स्थित पिंडवेदियों पर आज भी जारी है। स्कंद पुराण के अनुसार, महा भारत के युद्ध के दौरान मारे गए लोगों की आत्मा की शांति और पश्चाताप के लिए धर्मराज युधिष्ठिर ने धर्मारण्य पिंडवेदी पर पिंडदान किया था। हिंदू संस्कारों में पंचतीर्थ वेदी में धर्मारण्य वेदी की गणना की जाती है। माना जाता है कि धर्मारण्य पिंडवेदी पर पिंडदान और त्रिपिंडी श्राद्ध का विशेष महत्व है। यहां किए गए पिंडदान व त्रिपिंडी श्राद्ध से प्रेतबाधा से मुक्ति मिलती है और सभी पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है।
यहां धर्मराज युधिष्ठिर का छोटा मंदिर है। 
पास में रहता रहट कूप है । पुत्र कामना से उसके पास लोग पिंडदान करते हैं। कूप के समीप भीमसेन का छोटा मंदिर है । कहते हैं, युधिष्ठिर जब भीमसेन के साथ अपने पिता का श्राद्ध करने गया आए थे तब यहां पर कुछ दिन उन्होंने तप किया था।
स्कंद पुराण के अनुसार महाभारत के युद्ध के दौरान जाने अनजाने में मारे गए लोगों की आत्मा की शांति और पश्चाताप के लिए धर्मराज युधिष्ठिर ने धर्मारण्य पिंडवेदी पर पिंडदान किया था।धर्मारण्य स्थित यज्ञ कूप में पिंड अर्पित करने के बाद पास स्थित प्रेत कूप में नारियल अर्पित कर पिंडदानी अपने पितरों की मोक्ष की कामना करते हैं।

लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, धर्म, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं। लेखक स्वयं चारों धाम की यात्रा कर गया जी के तथ्यों से अवगत हुआ है।
वॉट्सप नं.+919412300183

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