Thursday, November 16, 2017

स्लम में बस गया परिवार - डा. ज्ञानेन्द्र नाथ श्रीवास्तव

बात प्यारी लगती है, 
पर अब लौट कर जाएँ तो जाएँ कहां? 
पहले त्योहारों में, 
मुंडनछेदन में, कथा - भागवत में और छोटे -मोटे जलसों में दिन मजे से कट जाते थे। 
मगर नौकरी की चाह में 
बेटी के ब्याह में 
मुकदमे की तारीख में 
दबंगों के खौफ में 
लोगों को हैरान परेशान बहुत देखा है। 
हरे भरे खेत में बाग और खलिहान में पडोसी की गडी हुई आँख थी। 
बाप की चिंता में खडी बेटी जवान थी। 
पड़ोसियों की हाय हाय और शोहदों की नजर से माँ और बापू परेशान थे। 
वर की खोज और दहेज की तैयारी में टूट गई पनही और बिक गए धान थे। 
बेटा नकारा फिरे मारा मारा लानत बरामत होवे सुबह-शाम थी।
चलो परदेश अब नहीं कुछ ढंग इस देश में, 
बैठ गए ट्रेन में मुसाफिर के वेष में। 
साल भर बाद चिट्ठी आई गांव से 
बहिनी की शादी मा का लगइहो 
आके का करिहो, 
कौन मुहं  देखइहो जो खाली हाथ अइहो 
पठ्यो परदेशी ने साथी के हाथ रुपया पचास और लट्ठे का थान। 
बन गए बंधुआ बेगार खुराक पोशाक में, 
एक साल पूरा करेंगे काम लालाजी की दुकान में। 
कर्ज में डूबे पिताजी की बिक गई भैंस - गाय, 
खेत गिरवी होगए खलिहान हुआ भांय भांय। 
दबंगों ने इज्जत की कर दी ऐसी तैसी 
छोड़ दियो गांव और छूट गईं भैंसी 
बेटे के पास पंहुच कर करने लगे बेगार 
गांव से निकलकर स्लम में बस गया फिर से परिवार।



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