स्व.
बाल सोम गौतम का जन्म श्रावण
शुक्ला द्वितीया संवत 1985 विक्रमी/1 दिसम्बर 1929 ई., उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले
के सल्टौआ गोपालपुर व्लाक के खुटहन नामक
गांव के एक कुलीन
परिवार में हुआ था। उनकी ससुराल टिनिच के पास शिवपुर
में है और वे
वहां भी रहते थे।
जीवन के अन्तिम दिनों
में टिनिच में रहते हुए उन्होने साहित्य की साधना की
है। उन्होने गन्ना विभाग में सुपरवाइजर पद की नौकरी
कर बस्ती बहराइच तथा गोण्डा जनपद में काफी भ्रमण तथा कार्य किया है। वह 31मार्च 1884 को सेवा मुक्त
हुए थे। उन्होने ”मौलश्री” नामक मासिक पत्रिका का संपादन भी
किया है। वे उच्चकोटि के
गीतकार थे तथा देश
के अनेक ख्यातित कवियों के सानिध्य में
रह चुके हैं। नवोदितों
को प्रायः मार्ग दर्शन करते रहते थे। 20 नवम्बर 2016 को टिनिच बाजार
स्थित सरस्वती सदन में उन्होने जीवन की अंतिम सांसे
ली।
स्व.
बालसोम जी के साथ
ज्यादा तो नहीं मिला
किन्तु श्रीचन्द की दुकान पर
उठते बैठते तथा बस्ती जिले में विधि की पढ़ाई के
दौरान हो जाया करती
थी। उनके साथ कुछ कवि सम्मेलनों में भी जाने का
अवसर मिला था। सरस्वती सदन टिनिच की गोष्ठी में
भी भाग लेने का अनेक अवसर
मिला। सचमुच उस समय काव्य
दृष्टि उतनी परिपक्व ही नहीं थी
कि उनके मार्ग दर्शन का उपयोग कर
सकूं। हां वे चाय की
दुकान पर या अवकाश
के दिनों में अपनी कुछ पंक्तियां व घटनायें अवश्य
सुनाया करते थे। उनके साथ खुनियाव इटवा सिद्धार्थ नगर, अठदमा राजा साहब तथा नौगढ़ वर्तमान सोनभद्र में जाने का अवसर अवश्य
मिला था। आवास विकास कालोनी बस्ती स्थित उनके आवास पर अनेक बार
उनका सानिध्य मिला। पर पहले रोजगार
की तलाश तथा बादमें शहर से बाहर की
नौकरी लगने से मैं उन्हें
पर्याप्त समय ना दे सकां
सोचा था कि 2017 में
रिटायर होने के बाद उनके
सानिध्य का लाभ उठाऊंगा।
पर यह अवसर मिल
नहीं पाया और वे अचानक
20 नवम्बर 2016 को इस असार
संसार को छोड़ वैकुण्ठगामी
हो गये थे। उनके कुशल क्षेम की जब फोन
से जानकारी चाही तो उनके शरीर
त्यागने की जानकारी मिली।
फिर घर आने का
कार्यक्रम विलम्ब से हुआ और
उनके ना होने पर
उनके आवास पर जाने का
साहस ना जुटा सका।
अपने
“बस्ती का पुरातत्व” विषयक
शोध प्रवंध की तैयारी में
उनका अनुभव ना ले पाया
पर उस शोध को
अद्यतन बनाने के लिए उनसे
कुछ परामर्श जरुर किया था। इसी सिलसिले में बारह क्षेत्र तथा उद्यालक ऋषि के इटियाथोक गोण्डा
स्थित स्थल पर जाने की
उनसे बात हुई थी। उद्यालक ऋषि ही मनोरमा नदी
को अपने तप से प्रकट
किये थे। गोण्डा जिला मुख्यालय से 19 किमी. की दूरी पर
इटिया थोक नामक जगह स्थित है। यहां उद्दालक ऋषि का आश्रम मनोरमा
मंदिर तथा तिर्रे नामक एक विशाल सरोवर
है। इस स्थान की
उत्पत्ति महाभारत के शल्य पर्व
में वर्णित है। उद्दालक द्वारा यज्ञ का अनुष्ठान करके
सरस्वती नदी को मनोरमा के
रूप में यहीं प्रकट किया था। तिर्रे तालाब के पास उन्होंने
अपने नख से एक
रेखा खीचंकर गंगा का आहवान किया
तो गंगा सरस्वती ( मनोरमा ) नदी के रूप में
अवतरित हुई थीं। इटियाथोक के पास स्थित
उद्यालक के आश्रम के
पास एक विशाल मेले
का आयोजन किया जाता है। मनोरमा नदी की एक धारा
छावनी होकर रामरेखा बनकर सरयू या घाघरा में
मिलकर तिरोहित हो जाती है।
और एक अलग धारा
अमोढा परगना के बीचोबीच परशुरामपुर,
हर्रैया, कप्तानगंज , बहादुर पुर एवं कुदरहा आदि विकासखण्डों तथा नगर पूर्व एवं पश्चिम नामक दो परगनाओं से
होकर बहती हुई गुजरती है। यह
हर्रैया तहसील के बाद बस्ती
सदर तहसील के महुली के
पश्चिम में लालगंज में पहुचकर कुवानो नदी में मिलकर तिरोहित हो जाती है।
भगवान
वाराह के अवतार से
सम्बन्धित स्थल को बाराह क्षेत्र
कहा गया है। यहां बाराह भगवान प्रकट होकर पृथ्वी का उद्धार किये
थे। यह स्थान हिमालय
पर्वत के
नीचे विराट जंगल में स्थित था। इसका आधुनिक नाम बिगड़कर बाराछत्तर हो गया है।
यह उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले
के हर्रैया तहसील के बस्ती पश्चिम
परगना मंे कुवानो नदी के त्रिकोणात्मक तट
पर आज भी वर्तमान
है। यह एक सांस्कृतिक
स्थल है तथा यहां
राष्ट्रीय महत्व के अनेक प्रमाण
यहां उपलब्ध हैं। यहां पुराना नगर,सुन्दर बगीचा, पृथ्वी का उद्धार किया
जाने वाला विशाल वाराह कुंड , पौराणिक वाराह मंदिर ,प्राचीन समय के भवन एवं
मन्दिर संरचनाएं, पौराणिक शिव मंदिर , राजा बस्ती द्वारा बनवाये मिट्टी के किले का
अवशेष ,ईट व मिट्टी
के प्राचीन बरतनों के टुकड़े तथा
कुषाण कालीन लाल मृदभाण्ड परम्परा के प्रमाण प्राप्त
हुए हैं। वाराह अवतार का कुंड एवं
मन्दिर नदी के तट तथा
बांध क दक्षिणी पूर्वीे
मोड़ पर स्थित है।
कुंड के उत्तरी तट
के छोर पर कुछ प्रचीन
भवन की नींव देखी
गयी है। यहां एक छोटा वर्गाकार
हवन कुंड भी देखा गया
है। तालाब के दक्षिण में
एक समतल आधुनिक ईंटो का मंदिर है।
आगे दक्षिण बढ़ने पर एक ऊंचा
वर्गाकार गिरा हुआ मिट्टी का किला था
जिसे बस्ती के राजा ने
बनवाया था। आगे पश्चिमी छोेर पर अनेक सुन्दर
तालाब तथा सती स्मारक भी रहा है।
यह स्थल प्राचीन समय का मनमोहक बगीचा
हो सकता है जो प्राचीन
व्याघ्रपुरा का भाग रहा
होगा।
सोचा
था तीस साल का बनवास काटकर
जब घर आने का
अवसर मिलेगा तो अपनी गाड़ी
से बालसोम जी को साथ
में लेकर उनके अनुभवों का कुछ लाभ
उठाकर समाज को उनकी परम्परा
को आगे बढ़ाऊंगा पर यह तमन्ना
ईश्वर ने पूरी नहीं
होने दिया। रिटायरमेंट के बाद कुछ
विभागीय असहग परिस्थितियों के कारण ना
तो समय मिल पाया और ना ही
वैसी मानसिकता बन पायी। उनके
द्वारा सुझाये स्थल पर जाना शेष
है। ना जाने वह
पूरा हो भी पाएगा
या अपने किसी और समस्याओं में
पड़कर वह आस अधूरी
ही रह जाएगी। यदि
उनके शुभचिन्तक कुछ गीत साहित्य उपलबघ करा देंगे तो मेरा काम
आसान हो जाएगा। उन्होंने
वैसे तो गीतों की
बहुत बड़ी सीरीज उन्होंने लिख छोड़ी है। समय मिलने पर उसे देखने
तथा पाने का प्रयास करुंगा।
हम उनके पावन स्मृति को सादर नमन
करते हैं। फिलहाल
उनकी कुछ पक्तियां यहां प्रस्तुत करने का प्रयास कर
रहा हॅू।
1-
ओ
मन्दिर के नभचुम्बी शिखरासीन
कलश
तुम
बन्धु नींव के ईटों का
सम्मान करो।।
जब मिट्टी के मृदु तारों को हल मेरा मुखरित करता है,
तब माया मोेहन ज्योतिर्मय जीवन संगीत उभरता है,
जीवन वह जिसके सम्मुख नतशिर शतशत मणिमय राजमुकुट-
जीवन वह जिसके चरण चूमती रहती नित्य अमरता है
उस जीवन ही के एक विन्दु के लिए तुम्हारी सत्ता भी,
श्रद्धा से मेरे मेड़ों का प्रातः दर्शन कर जाती है।
बैलों की जोड़ी चली कि सजसज कर किन्नरियां उतर पड़ी,
टुन टुन टुन घंटी बजी कि छम छम करके परियां उतर पड़ी
हल संभला मेरे कंधे पर सुरपति सिंहासन छांेड़ चला-
सजवाकर डोले लाल क्षितिज पर सुर-सुन्दरियां उतर पड़ी
चल पड़ा मलय गल चली निशा नक्षत्र ओस में बदल चले।
हर एक इशारे पर मेरे कुदरत सौ सौ बल खाती है।
जब गिरती बूंद पसीने की सौ सौ मीनारें खड़ी होती ,
हर रोज नये प्रसादों की ऊंची दीवार खड़ी होती ,
मिट्टी में आती नमी कल्पना आकृति पीने लगती है।
हर गली मोड़ चैराहे पर करके श्रृंगार खड़ी होती,
मरे श्रम शंकर की विभूति फैली है विविध विधानों में,
वह मैं हूं जिसकी बाहों में सम्पदा झूलती गाती है।
2-
जब मिट्टी के मृदु तारों को हल मेरा मुखरित करता है,
तब माया मोेहन ज्योतिर्मय जीवन संगीत उभरता है,
जीवन वह जिसके सम्मुख नतशिर शतशत मणिमय राजमुकुट-
जीवन वह जिसके चरण चूमती रहती नित्य अमरता है
उस जीवन ही के एक विन्दु के लिए तुम्हारी सत्ता भी,
श्रद्धा से मेरे मेड़ों का प्रातः दर्शन कर जाती है।
बैलों की जोड़ी चली कि सजसज कर किन्नरियां उतर पड़ी,
टुन टुन टुन घंटी बजी कि छम छम करके परियां उतर पड़ी
हल संभला मेरे कंधे पर सुरपति सिंहासन छांेड़ चला-
सजवाकर डोले लाल क्षितिज पर सुर-सुन्दरियां उतर पड़ी
चल पड़ा मलय गल चली निशा नक्षत्र ओस में बदल चले।
हर एक इशारे पर मेरे कुदरत सौ सौ बल खाती है।
जब गिरती बूंद पसीने की सौ सौ मीनारें खड़ी होती ,
हर रोज नये प्रसादों की ऊंची दीवार खड़ी होती ,
मिट्टी में आती नमी कल्पना आकृति पीने लगती है।
हर गली मोड़ चैराहे पर करके श्रृंगार खड़ी होती,
मरे श्रम शंकर की विभूति फैली है विविध विधानों में,
वह मैं हूं जिसकी बाहों में सम्पदा झूलती गाती है।
2-
तेरे
महलों की चहल पहल,
तेरे बैभव की चमक दमक,
मेरे
खेतों में रोज सुबह भिखमंगिन बनकर आती है।।
जब मिट्टी
के मृदु तारों को हल मेरा मुखरित करता है,
तब माया मोेहन
ज्योतिर्मय जीवन संगीत उभरता है,
जीवन वह जिसके
सम्मुख नतशिर शतशत मणिमय राजमुकुट-
जीवन वह जिसके
चरण चूमती रहती नित्य अमरता है
उस जीवन ही
के एक विन्दु के लिए तुम्हारी सत्ता भी,
श्रद्धा से
मेरे मेड़ों का प्रातः दर्शन कर जाती है।
बैलों की
जोड़ी चली कि सजसज कर किन्नरियां उतर पड़ी,
टुन टुन टुन
घंटी बजी कि छम छम करके परियां उतर पड़ी,
हल संभला
मेरे कंधे पर सुरपति सिंहासन छांेड़ चला-
सजवाकर डोले
लाल क्षितिज पर सुर-सुन्दरियां उतर पड़ी,
चल पड़ा मलय
गल चली निशा नक्षत्र ओस में बदल चले।
हर एक इशारे
पर मेरे कुदरत सौ सौ बल खाती है।
जब गिरती
बूंद पसीने की सौ सौ मीनारें खड़ी होती,
हर रोज नये
प्रसादों की ऊंची दीवार खड़ी होती ,
मिट्टी में
आती नमी कल्पना आकृति पीने लगती है।
हर गली मोड़
चैराहे पर करके श्रृंगार खड़ी होती,
मरे श्रम
शंकर की विभूति फैली है विविध विधानों में,
वह मैं हूं
जिसकी बाहों में सम्पदा झूलती गाती है।
3-
अब ना पपीहे का स्वर अच्छा लगता है।
अब न भीड़ भौरे की अच्छी लगती है।
पकड़ लिया बाजार की जबसे गीतों ने।
गाने से सौ कोस तबीयत भगती है।।
बस्ती के साहित्यकार No 12
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