1992 में बाबरी
मस्जिद के विध्वंस के
बाद से ही हिन्दू
मुसलमानों के बीच तनाव
बढ़ा हुआ था। जहाँ एक तरफ कट्टरपंथी
मुस्लिम हिन्दुओ के विरुद्ध अन्य
मुस्लिमो को भड़का रहे
थे तो वहीँ कुछ
एक एसे भी गिने चुने
मुस्लिम थे जो सच्चाई
के साथ हिन्दुओं का हर मुश्किल
में साथ दे रहे थे।
ऐसा ही एक बहुत
पुराना सच्चा किस्सा आज मैं आपको
यहाँ बताने जा रहा हूं।
ये कहानी एक एसे मुसलमान
पुरातत्व विज्ञानी की है जिसने
मजहब की मयार्दा की परवाह ना करते हुए पुरातत्व को समर्पित जीवन बिताई है। चाहे अयोध्या
का राम मंदिर में सच्चे प्रमाण का उद्धाटन हो या आगरा में खाने आलम नर्सरी नामक स्मारक
पर शिव मंदिरों के अतिक्रमण हटाने का मामला हो । वह कभी अपने फर्ज से पीछे नहीं हटे
हैं । इसके लिए धार्मिक लोगों ने उनका विरोध भी किया और उनके पुतले भी फूंके पर वह
अपने कर्तव्य से डिगे नहीं । वह वह काम कर दिखाये जो एक भारतीय हिन्दू नही कर सकता
है। एसा ही एक वाकिया आज बताने का प्रयास कर रहा हूं। उन्होंने 8वीं शताब्दी से 11वीं शताब्दी के बीच बने
अनेक प्राचीन हिंदू मंदिरों को बचाने के
लिए अपने जान की परवाह किये
विना स्वयं को समर्पित कर
दिया था। इस कार्य में
अवरोध आने पर मध्य प्रदेश
के वीहड़ों में रह रहे चंबल
के डाकुओं से भी मदद
मांगकर एक अनूठा मिशाल
प्रस्तुत किया है। उन्होंने मध्य प्रदेश के खनन माफिया
से लोहा लिया। पुनः अवरोध आने पर आर. एस.
एस. से सहयोग मांगा।
केन्द्र सरकार तथा मध्यप्रदेश सरकार से भी सहयोग
मांगकर, विश्व की लुप्त हो
रही विरासत को बचा लिया।
ये मंदिर पूरी तरह जमींदोज हो चुके थे।
ये क्षेत्र भी डाकुओं और
खनन माफियाओं से बुरी तरह
से प्रभावित था। यहां संरक्षण का काम करवा
पाना बहुत ही मुश्किल भरा
काम था। अनेक अधिकारी आये और चले गये
पर कुछ काम नहीं करवा सके।
बात
साल 2005 की है।जाने माने
पुरातत्व विज्ञानी के. के. मोहम्मद जो भारतीय पुरातत्व
सर्वेक्षण विभाग के पूर्व निदेशक
रह चुके हैं। जिन्होंने पुरातत्ववेत्ताओं के दल द्वारा
अयोध्या में की गई खुदाई
में भाग लिया था। उस खुदाई के
दौरान विवादित स्थल से हिंदू मंदिर
के अवशेष मिले थे। ग्वालियर से 40 किलोमीटर दूर बटेश्वर ग्राम पंचायत मितावली, थाना रिठौराकलां, जिला मुरौना स्थित 200 मंदिरों के अवशेष मिले
थे। इसके जीर्णोद्धार का जिम्मा उन्होंने
संभाला था। असल में ये मंदिर पड़ावली
गाँव में हैं तो वहां कोई
इन्हें बटेश्वर मंदिर नही बल्कि पड़ावली के मंदिर कहते
हैं। इन मंदिरों तक
आसानी से पहुँच भी
नही सकते हैं। ये वही जगह
है जहाँ 1980 के दशक में
दस्यु मलखान सिंह , निर्भय सिंह का आतंक व्याप्त
था, लेकिन अब सबकुछ सामान्य
हो गया है। मुरैना (मध्य प्रदेश) के ये अति
प्राचीन मंदिर है। इन मंदिरों की
ऊंचाई भूमि तल से 300 फीट
है। इसका निर्माण तत्कालीन प्रतिहार क्षत्रिय राजाओं ने किया था।
मध्य प्रदेश के मुरैना में
स्थित बटेश्वर मंदिर समूह मुरैना से करीब 25 किलोमीटर
दूर पुरातात्विक स्थल है, जहाँ करीब 200 मंदिर रहे । इन मंदिरों
में ज्यादातर मंदिर भगवान शिव को और कुछ
मंदिर भगवान विष्णु जी को समर्पित
हैं। ये मंदिर बलुए
पत्थर के बने हैं
और ऐसा माना जाता है कि इन्हें
8 वीं -11 वीं सदी में प्रतिहार वंश के शासकों ने
बनवाया था। रोचक बात ये है कि
ये मंदिर खजुराहो के मंदिरों से
पहले के बने हुए
हैं। बटेसर के ये 200
से ज्यादा मंदिरों में 80 से ज्यादा एसे
दिखते हैं जैसे बस अभी बने
हों।
बटेसर के मंदिर शायद
भारत के सबसे बड़े
मंदिरों के समूहों में
से एक है, जिनमे
से कुछ मंदिर तो मृतप्राय अवस्था
से पुनर्जीवित अवस्था में लाये गए हैं। बटेसर
के कायाकल्प में तीन लोगों का नाम हमेशा
लिया जाएगा ‘वन मैन आर्मी’ के.
के. मुहम्मद, संघ के भूतपूर्व सरसंचालक
के. सुदर्शन, और डकैत निर्भय
सिंह। गुर्जर भिंड मोरेना आज भी डकैतों
के साये से बाहर नहीं
आ पाया है, राह चलते किसी के कन्धे और
किसी की जेब से
झांकती बन्दुक देखकर तो इतना ही
सोचा जा सकता है
कि चम्बल
के दौर में- डकैतों के जमाने में
मन्दिरों के कायाकल्प की
बात करने को सोचना बहादुरी
है या मूर्खता, पर
एसा उन्होंने करके दिखा दिया।
चम्बल की
घाटी में लगभग 10 एकड़ जगह में बने इन मंदिरों के बारे में जब पता चला कि एक मुस्लिम
अधिकारी डॉ के. के. मुहम्मद ने इनके जीर्णोद्धार करने का बीड़ा उठाया है तो सबको बहुत
ही आश्चर्य हुआ। उस समय मुश्किल यह थी कि वहां आसपास चम्बल के डकैतों का डर व्याप्त
था। इसलिए न तो कोई अधिकारी आगे बढ़ रहा था और न काम करने वाले मजदूर। ऐसे में डॉ मुहम्मद
ने वहां के दस्यु सरगना निर्भय सिंह गुर्जर से संपर्क किया और उन्हें मनाने में सफल
हो गए। उन्हीं के प्रयासों का परिणाम है कि हम आज इस विरासत को फिर से जीवंत देख पा
रहे हैं। आज कुल 200 मंदिरों में से करीब 80 मंदिर पुनः अपने रूप में आ गये हैं , जबसे डॉ मुहम्मद अपनी सरकारी नौकरी
से रिटायर हुए हैं और दस्यु निर्भय सिंह मारा गया है तब से , इन मंदिरों के जीर्णोद्धार
का काम लगभग रुक सा गया है। उन्होंने जिस जीवट और लगन से इन मंदिरों को दोबारा से खड़ा
किया है वो प्रयास सच में सराहनीय रहे है ।
डाकुओं ने की मोहम्मद की मदद
:- बटेश्वर के जमींदोज हो चुके 200 प्राचीन मंदिरों को फिर से जिंदा करना अपने आप में
एक भागीरथ प्रयास था। के. के. मोहम्मद बताते हैं, ग्वालियर पहुंचने पर लोगों ने बटेश्वर
के प्राचीन मंदिर के बारे में बताया था। इसके साथ बताया कि ये डाकुओं का इलाका है,
काम करना बहुत मुश्किल है। कुछ भी करने से पहले डाकुओं से इजाजत लेनी होती है। डाकुओं
को पता चला कि कोई मुसलमान होकर वह भी जो नाम से मोहम्मद कहलाने वाला है। एक मुसलमान
होकर मंदिर को क्या ठीक कर सकेगा ? ये वह दौर था जब चंबल के बीहडों में राम बाबू, निर्भय
गुर्जर और पप्पू गुर्जर के आतंक का बोलबाला था। डकैत निर्भय गुर्जर से मुहम्मद छह मंदिरो
को सुधारने की अनुमति मांगते हैं । अनुमति के बाद काम शुरु करा दिये थे। निर्भय गुर्जर
2005 में मारा जाता है तो तब रेत माफिया सर उठा लेता है। रेत माफिया से मन्दिरों को
संघ के स्वयंसेवक बचाते हैं। और आज जो हम बटेसर में देखते हैं वो इन्हीं अनगिनत निस्वार्थ
सैनिकों की तपस्या का फल है। के. के. मोहम्मद ने डाकुओं से बात करते हुए उन्हें यह
बताया जिसे सुनकर डाकू सहर्ष मदद करने को तैयार हो गए। के. के. मोहम्मद बताते हैं कि
इस क्षेत्र में राम बाबू गुर्जर और निर्भर गुर्जर का बोलबाला था। एसे में जब डाकुओं
को बताया गया कि मंदिरों को गुर्जर प्रतिहार राजाओं द्वारा बनवाया गया था और गुर्जर
समुदाय के डाकू उस वंश के राजकुमार की तरह हैं। तो यह काम उनके यश के विरुद्ध नहीं
है। इसके बाद डाकुओं ने मंदिर के जीर्णोद्धार को अपना कर्तव्य मानते हुए मदद करना शुरू
कर दिया था।
वैदिक मंत्रों की मदद से खड़ा हुआ टुकड़ों में बिखरा मंदिर :- मंदिर परिसर के पुनर्निर्माण में
कई समस्याएं थीं। सबसे बड़ी समस्या ये थी कि मंदिर के अवशेष एक बड़े क्षेत्र में फैले
हुए थे। मंदिर के हिस्सों को ढूंढना और उनको एक दूसरे के साथ जोड़ना अपने आप में एक
चुनौती थी। के. के. मोहम्मद ने इसके बाद वैदिक मंत्रों का उच्चारण करते हुए मंदिर परिसर
के नक्शे को समझना शुरू किया। के. के. मोहम्मद बताते हैं, मंदिरों के अंदर कोई मूर्ति
नहीं थी। लेकिन ये किसका मंदिर है, इसके बारे में सोचा तो एक आयताकार जगह दिखी। इसे
देखते ही मुझे लगा कि ये नंदिस्तान होना चाहिए क्योंकि विष्णु मंदिर की स्थिति में
ये जगह चैकोर होनी चाहिए थी। क्योंकि, विष्णु मंदिर के बाहर गरुड़ स्तंभ होना चाहिए।
वाहनं वृषभो यस्य वासुकिः कंठभूषणम् । वामे शक्तिधरं देवं वकाराय नमो नमः ।।
मोहम्मद
ने इस मंत्र का
जाप करते हुए नंदी के अवशेष को
इस आयताकार जगह पर रखा। दरअसल,
इसी मंत्र में शिव के मंदिर और
उनके साथ रहने वाले नंदी का वर्णन था
जिसकी वजह से उन्हें पता
चला कि ये शिव
मंदिर था।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से मदद मांगी :-के. के.
मोहम्मद बताते हैं कि चंबल में
डाकुओं के गिरोह के
खात्मे के साथ ही
खनन माफिया ने मंदिर के
नजदीक खनन का कार्य शुरू
कर दिया था। वे कहते हैं कि खनन की
वजह से मंदिर के
जीर्णोद्धार की प्रक्रिया वापस
वहीं पहुंचने लगी जहां से शुरू हुई
थी। कई प्रशासकों को
फोन किया लेकिन बात नहीं बनी। इसके बाद संघ चीफ सुदर्शन जी को पत्र
लिखकर उनसे मदद मांगी, तब जाकर मंदिर
के नजदीक खनन होना रुका। पूर्व संघ प्रमुख सुदर्शन ने के. के.
मोहम्मद का पत्र मिलने
के बाद तत्कालीन कांग्रेस सरकार से इस मामले
में हस्तक्षेप करने को कहा था।
इसके बाद कांग्रेस मंत्री अंबिका सोनी ने मध्य प्रदेश
के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान को पत्र लिखा
था। इसके बाद प्रदेश सरकार भी हरकत में
आ गई थी और
के. के. मोहम्मद जमीन से दोबारा खड़े
हुए मंदिर को बचाने में
सफल हो सके। आज
यह क्षेत्र डा.के के
मोहम्मद के एक- एक
कृत्य का आजीवन ऋणी
रहेगा।
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