महात्मा कबीर
जयंती प्रत्येक वर्ष ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष पूर्णिमा को मनाई जाती है। इस बार 9
जून 2017 को कबीर जयंती रही है। उनका जन्म ऐसे समय में हुआ, जब भारतीय समाज और धर्म
का स्वरुप अधंकारमय हो रहा था। भारत की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक अवस्थाएँ
सोचनीय हो गयी थी। एक तरफ मुसलमान शासकों की धमार्ंधता से जनता त्राहि- त्राहि कर रही
थी और दूसरी तरफ हिंदूओं के कर्मकांडों, विधानों एवं पाखंडों से धर्म- बल का ह्रास
हो रहा था। जनता के भीतर भक्ति- भावनाओं का सम्यक प्रचार नहीं हो रहा था। सिद्धों के
पाखंडपूर्ण वचन, समाज में वासना को प्रश्रय दे रहे थे। नाथपंथियों के अलखनिरंजन
में लोगों का हृदय रम नहीं रहा था। ज्ञान और भक्ति दोनों तत्व केवल ऊपर के कुछ धनी-
मनी, पढ़े- लिखे की बपौती के रुप में दिखाई दे रहा था। ऐसे नाजुक समय में एक बड़े एवं
भारी समन्वयकारी महात्मा की आवश्यकता समाज को थी, जो राम और रहीम के नाम पर आज्ञानतावश
लड़ने वाले लोगों को सच्चा रास्ता दिखा सके। ऐसे ही संघर्ष के समय में, मस्तमौला कबीर
का प्रार्दुभाव हुआ।
कबीर हिंदी
साहित्य के महिमामण्डित व्यक्तित्व हैं। कबीर के जन्म के संबंध में अनेक
किंवदन्तियाँ हैं। कुछ लोगों के अनुसार वे रामानन्द स्वामी के आशीर्वाद से काशी की
एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से पैदा हुए थे, जिसको भूल से रामानंद जी ने
पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया था। ब्राह्मणी उस नवजात शिशु को लहरतारा ताल के
पास फेंक आयी। महात्मा कबीर के जन्म के विषय में भिन्न- भिन्न
मत हैं। "कबीर कसौटी' में इनका जन्म संवत् 1455 दिया गया है। ""भक्ति-
सुधा- बिंदु- स्वाद'' में इनका जन्मकाल संवत् 1451 से संवत् 1522 के बीच माना गया है।
""कबीर- चरित्र- बाँध'' में इसकी चर्चा कुछ इस तरह की गई है, संवत् चौदह
सौ पचपन (1455) विक्रमी ज्येष्ठ सुदी पूर्णिमा सोमवार के दिन, एक प्रकाश रुप में सत्य
पुरुष काशी के "लहर तारा'' (लहर तालाब) में उतरे। उस समय पृथ्वी और आकाश प्रकाशित
हो गया। समस्त तालाब प्रकाश से जगमगा गया। हर तरफ प्रकाश- ही- प्रकाश दिखने लगा, फिर
वह प्रकाश तालाब में ठहर गया। उस समय तालाब पर बैठे अष्टानंद वैष्णव आश्चर्यमय प्रकाश
को देखकर आश्चर्य- चकित हो गये। लहर तालाब में महा- ज्योति फैल चुकी थी। अष्टानंद जी
ने यह सारी बातें स्वामी रामानंद जी को बतलायी, तो स्वामी जी ने कहा की वह प्रकाश एक
ऐसा प्रकाश है, जिसका फल शीघ्र ही तुमको देखने और सुनने को मिलेगा तथा देखना, उसकी
धूम मच जाएगी। एक दिन वह प्रकाश एक बालक के रुप में जल के ऊपर कमल- पुष्पों पर बच्चे
के रुप में पाँव फेंकने लगा। इस प्रकार यह पुस्तक कबीर के जन्म की चर्चा इस प्रकार
करता है :-
"चौदह सौ पचपन गये, चंद्रवार, एक ठाट ठये। जेठ सुदी
बरसायत को पूनरमासी प्रकट भये।।''
कबीर
पन्थियों की मान्यता है कि कबीर की उत्पत्ति काशी में लहरतारा तालाब में उत्पन्न
कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के रूप में हुई। ऐसा भी कहा जाता है कि कबीर जन्म
से मुसलमान थे और युवावस्था में स्वामी रामानन्द के प्रभाव से उन्हें हिंदू
धर्म का ज्ञान हुआ। एक दिन कबीर पञ्चगंगा घाट की सीढ़ियों पर
गिर पड़े थे, रामानन्द ज उसी समय गंगास्नान करने के लिये सीढ़ियाँ उतर रहे थे
कि उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़ गया। उनके मुख से तत्काल `राम-राम' शब्द
निकल पड़ा। उसी राम को कबीर ने
दीक्षा-मन्त्र मान लिया और रामानन्द जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया। कबीर के ही
शब्दों में- ‘हम कासी में प्रकट भये हैं, रामानन्द चेताये।‘ अन्य जनश्रुतियों से
ज्ञात होता है कि कबीर ने हिंदु-मुसलमान का भेद मिटा कर हिंदू-भक्तों तथा मुसलमान
फक़ीरों का सत्संग किया और दोनों की अच्छी बातों को आत्मसात कर लिया।
जन्म स्थान:- कबीर ने अपने को काशी का जुलाहा कहा है। कबीर
पंथी के अनुसार उनका निवास स्थान काशी था। बाद में, कबीर एक समय काशी छोड़कर मगहर चले
गए थे। ऐसा वह स्वयं कहते हैं :-
"सकल जनम शिवपुरी गंवाया। मरती बार मगहर उठि आया।।''
कहा जाता
है कि कबीर का पूरा जीवन काशी में ही गुजरा, लेकिन वह मरने के समय मगहर चले गए थे।
कबीर वहाँ जाकर दु:खी थे। वह न चाहकर भी, मगहर गए थे।
"अबकहु राम कवन गति मोरी। तजीले बनारस मति भई मोरी।।''
कहा जाता
है कि कबीर के शत्रुओं ने उनको मगहर जाने के लिए मजबूर किया था। वह चाहते थे कि आपकी
मुक्ति न हो पाए, परंतु कबीर तो काशी मरन से नहीं, राम की भक्ति से मुक्ति पाना चाहते
थे :-
"जौ काशी तन तजै कबीरा तो रामै कौन निहोटा।''
कबीर के
माता-पिता:- कबीर
के माता- पिता के विषय में भी एक राय निश्चित नहीं है। "नीमा' और "नीरु'
की कोख से यह अनुपम ज्योति पैदा हुई थी, या लहर तालाब के समीप विधवा ब्राह्मणी की पाप-
संतान के रुप में आकर यह पतितपावन हुए थे, ठीक तरह से कहा नहीं जा सकता है। कई मत यह
है कि नीमा और नीरु ने केवल इनका पालन- पोषण ही किया था। एक किवदंती के अनुसार कबीर
को एक विधवा ब्राह्मणी का पुत्र बताया जाता है, जिसको भूल से रामानंद जी ने पुत्रवती
होने का आशीर्वाद दे दिया था।
एक जगह कबीर ने कहा है :-
"जाति जुलाहा नाम
कबीरा ,बनि बनि फिरो उदासी।'
कबीर के एक पद से प्रतीत होता है कि वे अपनी माता की मृत्यु से बहुत दु:खी हुए थे। उनके पिता ने उनको बहुत सुख दिया था। वह एक जगह कहते हैं कि उसके पिता बहुत "गुसाई' थे। ग्रंथ साहब के एक पद से विदित होता है कि कबीर अपने वयनकार्य की उपेक्षा करके हरिनाम के रस में ही लीन रहते थे। उनकी माता को नित्य कोश घड़ा लेकर लीपना पड़ता था। जबसे कबीर ने माला ली थी, उसकी माता को कभी सुख नहीं मिला। इस कारण वह बहुत खीज गई थी। इससे यह बात सामने आती है कि उनकी भक्ति एवं संत- संस्कार के कारण उनकी माता को कष्ट था।
कबीर के एक पद से प्रतीत होता है कि वे अपनी माता की मृत्यु से बहुत दु:खी हुए थे। उनके पिता ने उनको बहुत सुख दिया था। वह एक जगह कहते हैं कि उसके पिता बहुत "गुसाई' थे। ग्रंथ साहब के एक पद से विदित होता है कि कबीर अपने वयनकार्य की उपेक्षा करके हरिनाम के रस में ही लीन रहते थे। उनकी माता को नित्य कोश घड़ा लेकर लीपना पड़ता था। जबसे कबीर ने माला ली थी, उसकी माता को कभी सुख नहीं मिला। इस कारण वह बहुत खीज गई थी। इससे यह बात सामने आती है कि उनकी भक्ति एवं संत- संस्कार के कारण उनकी माता को कष्ट था।
स्री और संतान:-कबीर का विवाह वनखेड़ी
बैरागी की पालिता कन्या "लोई' के साथ हुआ था। कबीर को कमाल और कमाली नाम की दो
संतान भी थी। ग्रंथ साहब के एक श्लोक से विदित होता है कि कबीर का पुत्र कमाल उनके
मत का विरोधी था।
बूड़ा बंस
कबीर का, उपजा पूत कमाल। हरि का सिमरन छोडि के, घर ले आया माल।
कबीर की पुत्री कमाली का उल्लेख उनकी बानियों में कहीं
नहीं मिलता है। कहा जाता है कि कबीर के घर में रात- दिन मुडियों का जमघट रहने से बच्चों
को रोटी तक मिलना कठिन हो गया था। इस कारण से कबीर की पत्नी झुंझला उठती थी। एक जगह
कबीर उसको समझाते हैं :-
सुनि अंघली लोई बंपीर।इन मुड़ियन भजि सरन कबीर।।
जबकि कबीर को कबीर पंथ में, बाल- ब्रह्मचारी और विराणी
माना जाता है। इस पंथ के अनुसार कामात्य उसका शिष्य था और कमाली तथा लोई उनकी शिष्या।
लोई शब्द का प्रयोग कबीर ने एक जगह कंबल के रुप में भी किया है। वस्तुतः कबीर की पत्नी
और संतान दोनों थे। एक जगह लोई को पुकार कर कबीर कहते हैं :-
"कहत कबीर सुनहु
रे लोई। हरि बिन राखन हार न कोई।।'
यह हो सकता हो कि पहले लोई पत्नी होगी, बाद में कबीर ने
इसे शिष्या बना लिया हो। उन्होंने स्पष्ट कहा है
"नारी
तो हम भी करी, पाया नहीं विचार। जब जानी तब परिहरि, नारी महा विकार।।''
कबीर के ग्रंथ:-कबीर
के नाम से मिले ग्रंथों की संख्या भिन्न-भिन्न लेखों के अनुसार भिन्न-भिन्न है। एच.एच.
विल्सन के अनुसार कबीर के नाम पर आठ ग्रंथ हैं। विशप जी.एच. वेस्टकॉट ने कबीर के 84
ग्रंथों की सूची प्रस्तुत की तो रामदास गौड ने ‘हिंदुत्व' में 71 पुस्तकें गिनायी हैं।कबीर
की वाणी का संग्रह ‘बीजक' के नाम से प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग हैं- रमैनी, सबद और
सारवी यह पंजाबी, राजस्थानी, खड़ी बोली, अवधी, पूरबी, व्रजभाषा आदि कई भाषाओं की खिचड़ी
है। कबीर परमात्मा को मित्र, माता, पिता और पति के रूप में देखते हैं। यही तो मनुष्य
के सर्वाधिक निकट रहते हैं। वे कभी कहते हैं-
‘हरिमोर पिउ, मैं राम की बहुरिया' तो कभी कहते हैं,
`हरि जननी मैं बालक तोरा'
उस समय हिंदु जनता पर मुस्लिम आतंक का कहर
छाया हुआ था। कबीर ने अपने पंथ को इस ढंग से सुनियोजित किया जिससे मुस्लिम मत की ओर
झुकी हुई जनता सहज ही इनकी अनुयायी हो गयी। उन्होंने अपनी भाषा सरल और सुबोध रखी ताकि
वह आम आदमी तक पहुँच सके। इससे दोनों सम्प्रदायों के परस्पर मिलन में सुविधा हुई। इनके
पंथ मुसलमान-संस्कृति और गोभक्षण के विरोधी थे। कबीर को शांतिमय जीवन प्रिय था और वे
अहिंसा, सत्य, सदाचार आदि गुणों के प्रशंसक थे। अपनी सरलता, साधु स्वभाव तथा संत प्रवृत्ति
के कारण आज विदेशों में भी उनका समादर हो रहा है।
कबीर का पूरा जीवन काशी
में ही गुजरा, लेकिन वह मरने के समय मगहर चले गए थे। वह न चाहकर भी, मगहर गए
थे। वृद्धावस्था में यश और कीर्त्ति की मार ने उन्हें बहुत कष्ट दिया। उसी हालत में
उन्होंने बनारस छोड़ा और आत्मनिरीक्षण तथा आत्मपरीक्षण करने के लिये देश के विभिन्न
भागों की यात्राएँ कीं। कबीर मगहर जाकर दु:खी थे:
"अबकहु राम कवन गति मोरी।तजीले
बनारस मति भई मोरी।।''
कहा जाता है कि कबीर के
शत्रुओं ने उनको मगहर जाने के लिए मजबूर किया था। वे चाहते थे कि कबीर की मुक्ति
न हो पाए, परंतु कबीर तो काशी मरन से नहीं, राम की भक्ति से मुक्ति पाना चाहते थे:
"जौ काशी तन तजै कबीरा तो रामै कौन निहोरा।''
"जौ काशी तन तजै कबीरा तो रामै कौन निहोरा।''
अपने यात्रा क्रम में ही वे कालिंजर जिले
के पिथौराबाद शहर में पहुँचे। वहाँ रामकृष्ण का छोटा सा मन्दिर था। वहाँ के संत भगवान
गोस्वामी जिज्ञासु साधक थे किंतु उनके तर्कों का अभी तक पूरी तरह समाधान नहीं हुआ था।
संत कबीर से उनका विचार-विनिमय हुआ। कबीर की एक साखी ने उन के मन पर गहरा असर किया-
` बन ते भागा बिहरे पड़ा, करहा अपनी बान। करहा बेदन कासों कहे, को करहा को जान।।'
वन से भाग कर बहेलिये के द्वारा खोये हुए गड्ढे
में गिरा हुआ हाथी अपनी व्यथा किस से कहे ? सारांश यह कि धर्म की जिज्ञासा सें प्रेरित
हो कर भगवान गोसाई अपना घर छोड़ कर बाहर तो निकल आये और हरिव्यासी सम्प्रदाय के गड्ढे
में गिर कर अकेले निर्वासित हो कर ऐसी स्थिति में पड़ चुके हैं। कबीर आडम्बरों
के विरोधी थे। मूर्त्ति पूजा को लक्ष्य करती उनकी एक साखी है -
‘पाहन पूजे हरि मिलैं, तो मैं पूजौंपहार। थाते
तो चाकी भली, जासे पीसी खाय संसार।।‘
119 वर्ष की अवस्था में मगहर में कबीर का देहांत
हो गया। कबीरदास जी का व्यक्तित्व संत कवियों में अद्वितीय है। हिन्दी साहित्य
के 1200 वर्षों के इतिहास में गोस्वामी तुलसीदास जी के अतिरिक्त इतना प्रतिभाशाली व्यक्तित्व
किसी कवि का नहीं है।
आज भी प्रासांगिक हैं कबीर:- कबीर आज भी प्रासांगिक लगते हैं कबीर ने
मध्यकाल में जो बाते कही हैं आज 21वीं सदी में भी वे ऐसी लगती हैं जैसे उन्होंनें आज
के बारे में ही लिखी हों। कबीर एक मानवता के पक्षधर हैं वे जीव हत्या का विरोध करते
हैं। कबीर धर्म के विरोध में नहीं बल्कि धर्म के नाम पर होने वाले पाखंड के विरोध में
खड़े हैं। वे जात-पात का विरोध करते हैं क्योंकि उनके सामने जात-पात के कारण होने वाले
अन्याय के अनेक उदाहरण थे।
कबीर ने मानवता का संदेश देते हुए भक्ति
की अलख को देश के विभिन्न हिस्सों में घूमकर जगाया है इसलिये आज भी लोग उनके पद गुनगुनाते
हुए मिलेंगें। हिंदी साहित्य के विद्वान आचार्य हजारी प्रसाद द्वीवेदी तो कबीर को वाणी
का डिक्टेटर कहते हैं। हालांकि कबीर भाषा की कोई जादूगरी नहीं जानते थे वे बस आम बोलचाल
की भाषा का प्रयोग करते जो सीधे लोगों के दिलों पर अपनी छाप छोड़ती थी। जिस काशी को
मोक्षदायिनी कहा जाता है और जहां लोग अंतिम समय में अपने प्राण त्यागना पसंद करते हैं
कबीर ने वहां प्राण त्यागना भी पसंद नहीं किया और वहां से कुछ दूर मगहर नामक स्थान
पर चले गये वहीं सन् 1518 में उनका देहावसान हुआ।
कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसे हम रोये।
ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोये॥
कबीर ता उम्र जिन चीजों का विरोध करते रहे
कालांतर में उनके अनुयायियों ने उनकी मूल शिक्षा को भूलाकर खुद कबीर को एक मूर्ति और
मंदिर के रूप में स्थापित और जाति विशेष में बांधने की कोशिशें हुई हैं लेकिन कबीर
तो खुलकर कहते हैं-
‘मोको कहां ढूंढे बंदे.... मैं तो तेरे पास में’
आप सभी को कबीर जयंती की हार्दिक शुभकामनाएं।
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