1. सर जान स्ट्रेची के समय तक की ब्रिटिशकालीन पृष्ठभूमि (भा.पु.स.उत्तरी मण्डल कड़ी 1)
भा.पु.स.
के
शाखाओं-उपशाखाओं
का
गठन:-आजकल भारतीय पुरातत्व सम्बंधी क्रिया कलापों का मुख्य दायित्व
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण पर होता है
जो संस्कृति मंत्रालय के अधीन भारतीय
पुरातत्व सर्वेक्षण (भा.पु.स.)
द्वारा निभाया जाता है। यह राष्ट्र की
सांस्कृ्तिक विरासतों के पुरातत्वींय अनुसंधान
तथा संरक्षण के लिए एक
प्रमुख संगठन है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का प्रमुख कार्य
राष्ट्रीय महत्व के प्राचीन स्मारकों
तथा पुरातत्वीय स्थलों और अवशेषों का
रखरखाव करना है । इसके
अतिरिक्त, प्राचीन संस्मारक तथा पुरातत्वीय स्थल और अवशेष अधिनियम,
1958, नियमावली 1959 व 2010 के संशोधनों के
प्रावधानों के अनुसार यह
देश में सभी पुरातत्वीय गतिविधियों को विनियमित करता
है। यह पुरावशेष तथा
बहुमूल्य कलाकृति अधिनियम, 1972 को भी विनियमित
करता है। राष्ट्रीय महत्व के प्राचीन स्मारकों
तथा पुरातत्वीय स्थलों तथा अवशेषों के रखरखाव के
लिए सम्पूर्ण देश को 27 तथा 2 लघुमंडलों में विभाजित किया गया है। ये मंडल हैं
आगरा, औरंगाबाद, बंगलौर, भोपाल, भुवनेश्वर, चण्डीगढ़,चेन्नई, देहरादून, दिल्ली, धारवाड़, गोवा, गौहाटी, हैदराबाद, जयपुर, जोघपुर, कोलकाता, लखनऊ, मुम्बई, नागपुर, पटना, रायपुर रांची,सारनाथ, शिमला, श्रीनगर, त्रिशूर और वडोदरा तथा
लेह लद्दाख व हाम्पी लघुमंडल
बनें हैं। मंडलों के अलावा संग्रहालयों,
उत्खनन शाखाओं, प्रागैतिहासिक शाखाओं, पुरालेख शाखाओं, विज्ञान शाखाओं, उद्यान शाखाओं, भवन सर्वेक्षण परियोजनाओं, मंदिर सर्वेक्षण परियोजनाओं तथा अन्तरजलीय पुरातत्व स्कंन्धओ के माध्याम से
पुरातत्वीय अनुसंधान परियोजनाओं के संचालन के
लिए बड़ी संख्या में प्रशिक्षित पुरातत्वविदों, संरक्षकों, पुरालेखविदों, वास्तुकारों तथा वैज्ञानिकों का कार्य दल
भी है।
सबसे पुराना
मण्डल :-देश
को 27 मंडलों में उत्तरी आगरा मण्डल एक सबसे पुराना
संगठन रहा है। दिसंबर 1861 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) की स्थापना की
गई थी। 47 वर्षीय मेजर जनरल ( उस समय कर्नल)
कनिंघम की प्रथम नियुक्ति
भारत के प्रथम पुरातत्व
महासर्वेक्षक के पद पर
हुआ था। उसने अपना कार्य दिसंबर 1861 में शुरु कर दिया था।
1866 में पुरातत्व महासर्वेक्षक का पद समाप्त
कर दिया गया था। पुनः प्रस्ताव संख्या 649 एवं 650 दिनांक 2 फरवरी 1871 को भारत सरकार
ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) नामक स्वतंत्र विभाग के महानिदेशक पद
पर एलेक्जेंडर कनिंघम की नियुक्ति किया।
वह 1885 ई. तक महानिदेशक
पद पर कार्य करता
रहा। 1 अक्तूबर 1885 को मेजर जनरल
कनिंघम महानिदेशक पद से सेवा
मुक्त हुआ था। उसने उत्तर भारत को 3 मण्डलों में बांटने की संस्तुति दी
थी। प्रत्येक मण्डल का प्रमुख अर्कालाजिकल
सर्वेयर बनाया जाता रहा। उसको सहायता हेतु दो मानचित्रकार तथा
दो सहायक ही मिलते रहें
हैं। उस समय ये
मण्डल निम्न थे-
1. पंजाब
सिंध एवं राजपूताना।
2. नार्थ
वेस्टर्न प्राविंस एण्ड अवध (वर्तमान उत्तर प्रदेश) विद द सेंट्रल इण्डिया
एजेन्सी एण्ड सेंट्रल प्राविंस।
3. बंगाल
(वर्तमान बिहार व उड़ीसा) तथा
छोटा नागपुर
1885 में
विभाजित हुए उत्तर भारत के 3 प्रमुख मण्डलों को 1899 में 5 मण्डल कार्यालय बनाये गये। इनके ही माध्यम से
संरक्षण, अनुरक्षण, पुरातात्विक सर्वेक्षण तथा उत्खनन सुनियोजित पद्धति से प्रारम्भ किये
गये। प्रत्येक मण्डल को एक सर्वेयर
सर्वेक्षक के अधीन रखा
गया। उस समय ये
मण्डल निम्न थे-
1. मद्रास
और कुर्ग,
2. बाम्बे,
बेरार और सिंध,
3. पंजाब
, बलूचिस्तान एवं अजमेर,
4. नार्थ
वेस्टर्न प्राविंस एण्ड सेंट्रल प्राविंस और
5. बंगाल
तथा आसाम।
उत्तर
भारत में नार्थ वेस्टर्न प्राविंस एण्ड अवध तथा पंजाब प्रसीडेन्सी आदि का क्षेत्र ही
प्रारम्भिक ब्रिटिश काल से उत्तरी मण्डल
के भूक्षेत्र को आच्छादित करता
आ रहा है। विंध्य एवं आरावली पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य अवस्थित
यह क्षेत्र भौगोलिक रुप से आर्यावर्त मध्य
देश एवं पंजाब के नाम से
जाना जाता रहा है। इस पंजाब में
हिमंाचल दिल्ली हरियाणा आदि सभी समाहित था। इन्द्रप्रस्थ, मथुरा, हस्तिनापुर, कान्यकुब्ज, पंाचाल कोशल काशी कौशाम्बी आदि स्थलोंपर सूर्य चन्द्र तथा नाग आदि राजवंश इस भूभाग पर
पुष्पित और
पल्लवित हुए। पुरातात्विक अन्वेषण एवं उत्खनन में इस क्षेत्र की
सांस्कृतिक विकास की कहानी बड़ी
ही रोचक और मनोहारी है।
मिर्जापुर एवं फतेहपुर सीकरी में चित्रित शिलाश्रय, लघुअश्मक उपकरण, मानवों एवं जानवरों की आकृतियां, अस्त्र
शस्त्रों के प्रतीक प्राप्त
हुए है। नवप्रस्तर कालीन बालुकाश्म आदि यहां की प्रागैतिहासिक धरोहरें
हैं। आद्यौतिहासिक प्रमाणों में गैरिक मृदभाण्ड परम्परा, चित्रित सलेटी, उत्तरी काले चमकीले तथा सहयोगी पात्र परम्परायें , उत्तरी काले चमकीले पात्र परम्पराओं के प्रमाण मिले
हैं। यहां मध्यकालीन भवन अवशेष एवं कलाकृतियां मुगलकालीन संरचनायें,उत्तर मुगलकालीन तथा ब्रिटिशकालीन संरचनायें पर्याप्त मात्रा में प्राप्त हुए हैं। इसके अलावा इस भूभाग पर
पूर्व मुगल एवं मुगल काल के विश्व प्रसिद्ध
इमारतें, लौकिक एवं धार्मिक भवन, कलाकृतियां मुद्राये, अभिलेख पर्याप्त मात्रा में इस अंचल की
शोभा बढ़ा रही हैं। यद्यपि अनेक विदेशी आक्रमणों नंे यहां के संस्कृति कला
मंदिरों तथा धरोहरों को अपूर्णनीय क्षति
पहुंचाई है। तथापि समय के थपेड़ों को
झेलते हुए अनेक धरोहरें एवं पुरा सम्पदायें अभी भी इस देश
में गौरव के साथ देखे
जा सकते हैं।
उत्तर
भारत के उत्तरीय मण्डल
में संयुक्त प्रान्त, मध्यवर्ती प्रान्त तथा पंजाब आदि भूक्षेत्र आते थे। इसके अन्तर्गत स्थित विभिन्न स्मारकों का देखभाल मुगलकाल
में राजकीय एवंशाही व्यवस्था के अनुरुप होता था।
यद्यपि समय समय पर छिटपुट आक्रमणों एवं लूटपाट के समय इसका नुकसान भी उठाना पड़ा है।
जाट मराठा तथा ब्रिटिश आक्रमणों के समय प्रारम्भिक समय में जहां लूट पाट और क्षति पहुंचाये
गये। कलाकृतियों को अपने नियंत्रणमें रखने के लिए मूल स्थानों से हटाये भी गये। दूसरी
तरफ अपनी रुचि एवं पसन्द के स्मारकों के निर्माण एवं पुनरुद्धार में भी सहयोग किया
गया।अंग्रेजो ने भी प्रारम्भ मं यहां खूब लूट पट मचाई थी। अनेक महत्वपूर्ण कलाकृतियों
को अपने देश में ले जाने में सफल हो गये थे। बाद में ब्रिटिश सामा्रज्य के अनेक कलापेमी सज्जनों व अधिकारियों
से भारत की होने वाली अपूर्णनीय क्षति देखी नहीं गयी। 1774 में रायल एशियाटिक सोसायटी
ने नव जागरण का शंखनाद कर ही दिया था। तमाम रक्षा के उपाय अपनाये जाने लगे थे।
लोक निर्माण
विभाग के सरकुलर सं. 9 दिनांक 13 फरवरी 1873 के अनुसार संरक्षित स्मारकों का देखभाल
एवं मरम्मत का काम राज्य के लोक निर्माण विभाग की पुरातत्व इकाई द्वारा 1872 तक होता
रहा। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण समय समय पर मार्ग निर्देशन तथा आवश्यक सुझाव देता रहा।
1872 में नार्थ वेस्टर्न प्राविंस एण्ड अवध की सरकार ने आगरा किला एवं ताज महल के भवनों
का संरक्षण कार्य शुरु किया। लोक निर्माण विभाग आगरा के अधिशासी अभियन्ता मि. ई. जे.
एलेक्जेण्डर ने मि. हैपेट की देखरेख में 1872-75 के बीच सफलता पूर्वक स्मारकों का परीक्षण
किया। 31 मार्च 1875 तक लगभग 45,000 रुपये ताज महल पर और 53,000 रुपये आगरा किले के
संरक्षण पर व्यय किया गया। इन स्मारकों के रख रखाव हेतु 1872 से 1873 तक लगभग 5000
रुपया वार्षिक अनुदान भी शुरु किया गया था।1873-74 में यह राशि 50,000 रुपये तक हो
गयी थी। ये खर्चे प्रान्तीय राजस्व से उपलब्ध कराये जाते रहे।
इसी बीच एच.
जी. कीन्स की अध्यक्षता में स्मारकों के शोध एवं संरक्षण हेतु आगरा आर्कलाजिकल सोसायटी की स्थापना हुई जो 1878 तक ही चल पायी।
इसका कार्यालय आगरा किले के दीवाने आम में रहा।यहां एक स्थानीय संग्रहालय भी स्थापित
किया गया था। जिसे बाद में इलाहाबाद स्थानान्तरित कर दिया गया।
25 अगसत 1875 को नार्थ वेस्टर्न प्राविंस के लेफ्टिनेंट
गवर्नर आर्कलाजिकल पव्लिक वर्क डिवीजन का निर्माण करते हुए इसका मुख्यालय आगरा बनाया।
इसका वार्षिक व्यय रु. 70,000 प्रस्तावित हुआ। जनवरी 1876 में भारत सरकार ने स्पेशल
आर्कलाजिकल डिवीजन के निर्माण की पुष्टि भी कर दी तथा 5000 से 35000 रि स्वीकृति बढ़ाई।इस
डिवीजन का प्रथम अधिशासी अभियन्ता मि. डबलू. एफ. हीथ हुए। उनकी सहायता के लिए एच. जी. कीन्स तथा एफ. एस. ग्राउस
को भी लगाया गया। 1876 में यह राशि रु. 8,59,859 तथा 1878 में संशोधित होकर रु.
10,00,000 हो गयी।1878 में भारत सरकार ने रु. 3,75,000 का अपना योगदान भी दिया था।
1885 तक यह सब काम पूरा होते होते रु. 9,04,115 खर्च हुआ था। 1885 में सर जान स्ट्रेची
द्वारा दिया गया काम पूरा हो जाने के बाद स्पेशल आर्कलाजिकल डिवीजन को समाप्त करके
अनुदान कम कर दिया गया। केवल मुख्य स्मारकों के देखरेख का निर्देश दिया गया। (संदर्भ : Curator
Ancient Monuments1861-62, page 9/ APR1899-1900p-3)
(क्रमश
….)
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