Saturday, June 3, 2017

उत्तर प्रदेश की उच्च मेडिकल शिक्षा डा. राधेश्याम द्विवेदी


उत्तर प्रदेश में उच्च मेडिकल शिक्षा अस्त व्यस्त हो गयी है। चिकित्सा शिक्षा विभाग की गैर जिम्मेदाराना नीति के कारण हजारों छात्रों का भविष्य अधर में लटका हुआ है। बार बार माननीय उच्च तथा माननीय उच्चतम न्यायालयों को हस्तक्षेप करना पड़ता है। एक तो प्रदेश में आवादी के हिसाब से मेडिकल कालेजों तथा सीटों की कमी है। दूसरी ओर गैर जिम्मदाराना नीतियों के कारण इस ब्रांच का चयन करने वाले छात्रों को भटकना वहुत पड़ता है। उनका समय पैसा जीवन का अमूल्य समय बरबाद होता ही है। उन्हें अपनी जीवन शैली ही बहुत कुछ औरों से हटकर चलानी पड़ती है। इसी कारण इंजीनियरिंग ब्रांच लोगों को ज्यादा सुगम प्रतीत होता है। इसके ठीक विपरीत मेडिकल कॉलेजों की एक बहुत बड़ी संख्या दक्षिण के छह राज्यों में ही केंद्रित होकर रह गयी हैं, ये राज्य हैं- महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल और गुजरात। इन राज्यों में 63 प्रतिशत मेडिकल कॉलेज और कुल सीटों में से 67 प्रतिशत सीटें हैं। यहां के छात्र आसानी से कम श्रम में ही अच्छी बा्रंच का चयन कर ले जाते है।
डॉक्टरों की भारी कमीः- भारत में 500,000 डॉक्टरों की कमी है। यह विश्लेषण विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के 1 : 1,000 आबादी के प्रतिमान पर आधारित है। 2014 के अंत तक 740,000 सक्रिय डॉक्टरों के साथ  1 : 1,674  डॉक्टर मरीज जनसंख्या अनुपात का दावा किया गया था, जो  वियतनाम, अल्जीरिया और पाकिस्तान से भी बदतर है। स्वास्थ्य और परिवार कल्याण संबंधी संसदीय समिति की इस रिपोर्ट में स्वास्थ्य प्रबंधन विफलताओं में डॉक्टरों की कमी का उल्लेख किया गया है। समिति ने 8 मार्च, 2016 को संसद के दोनों सदनों में रिपोर्ट के निष्कर्षों को पेश किया है। निजी मेडिकल कॉलेजों में अवैध कैपिटेशन फीस,  शहरी और ग्रामीण भारत के बीच स्वास्थ्य सेवाओं की असमानता और सार्वजनिक स्वास्थ्य और चिकित्सा शिक्षा प्रणाली के बीच असंबंधन कुछ मुद्दे थे, जिसे समिति ने मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया की जांच करते हुए हुए अन्वेषित किया है। मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया 82 वर्ष पुरानी संगठन है जो चिकित्सा-शिक्षा के मानकों के लिए जिम्मेदार है। भारत के 55,000 डॉक्टरों में से 55 फीसदी हर साल निजी कॉलेजों से ग्रैजुएट होते हैं जिनमें से कई पर अवैध दान, या “कैपिटेशन फीस” का आरोप है। तमिलनाडु में, इस तरह के कॉलेज से छात्रों को बैचलर ऑफ सर्जरी (एमबीबीएस) की डिग्री प्राप्त करने के लिए 2 करोड़ रुपए लगते हैं, जैसा कि 26 अगस्त 2016 को टाइम्स ऑफ इंडिया ने अपनी रिपोर्ट में बताया है। यह एक वृहद असंतुलन चिकित्सा शिक्षा के पहुंच के साथ ही शुरू होता है।
एक विशेषज्ञ के मुताबिक, “छह राज्यों, जो भारत की आबादी का 31 फीसदी का प्रतिनिधित्व करते हैं, वहां 58 फीसदी एमबीबीएस सीटें हैं। दूसरी ओर आठ राज्य जहां भारत की आबादी के 46 फीसदी लोग रहते हैं, वहां केवल 21 फीसदी एमबीबीएस सीटें हैं।यह चिकित्सा-शिक्षा असंतुलन व्यापक सार्वजनिक स्वास्थ्य के मुद्दों को प्रतिबिंबित करते हैं। भारत के गरीब राज्यों के स्वास्थ्य संकेतक, कई गरीब देशों की तुलना में बद्तर हैं और भारत का स्वास्थ्य खर्च, ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत , चीन, दक्षिण अफ्रीका) देशों के बीच सबसे कम है, जैसा कि इसके स्वास्थ्य संकेतक हैं।
एक अन्य विशेषज्ञ के मुताबिक, हर साल देश भर में 55,000 डॉक्टर अपना एमबीबीएस और 25,000 पोस्ट ग्रेजुएशन पूरा करते है। विकास की इस दर के साथ, वर्ष 2020 तक 1.3 बिलियन आबादी के लिए भारत में प्रति 1250 लोगों पर एक डॉक्टर (एलोपैथिक) होना चाहिए और और 2022 तक प्रति 1075 लोगों पर एक डॉक्टर होना चाहिए (जनसंख्यारू 1.36 बिलियन)। दूसरे विशेषज्ञ का कहना है कि, “हालांकि, समिति को सूचित किया गया है। एक रात में डॉक्टर नहीं बनाया जा सकता है और यदि हम अगले पांच सालों तक हर साल 100 मेडिकल कॉलेज जोड़ते हैं तभी वर्ष 2029 तक देश में डॉक्टरों की संख्या पर्याप्त होगी।“ रिपोर्ट कहती है कि, मेडिकल कॉलेजों में वृद्धि के बावजूद डॉक्टरों की कमी है। मेडिकल कॉलेजों की संख्या 1947 में 23 से बढ़ कर 2014 के अंत तक 398 हुआ है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि किसी भी अन्य देश की तुलना में भारत में अधिक मेडिकल कॉलेज हैं और 2014 में 49,930 दाखिले उपलब्ध थे। रिपोर्ट के मुताबिक, “एक विशेषज्ञ जो समिति के समक्ष पेश हुआ उसने बताया कि भारत में डॉक्टरों की बहुत कमी है और इस कमी को पूरा करने के लिए भारत में एक हजार मेडिकल कॉलेजों की जरुरत है।
स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा प्रकाशित एक ई-किताब के अनुसार,केंद्र सरकार ने पिछले दो साल में 1,765 सीटों के साथ 22 मेडिकल कॉलेजों को मंजूरी दी है। नीति आयोग, एक सरकारी थिंक टैंक, ने भारत के स्वास्थ्य और चिकित्सा शिक्षा के बुनियादी ढांचे के पुनर्मूल्यांकन करने के लिए राष्ट्रीय शिक्षा आयोग विधेयक, 2016 मसौदा तैयार किया है। जबकि 1,100 सीटों के साथ 11 नए अखिल भारतीय मेडिकल साइंसेज संस्थान (एम्स) खोले गए हैं और साथ ही सरकार ने अतिरिक्त 4,700 एमबीबीएस की सीटों का प्रस्ताव दिया है। पिछले दो शैक्षिक सत्रों में कम से कम 5540 एमबीबीएस सीटों और 1,004 पीजी सीट जोड़े गए हैं।
चिकित्सा शिक्षा की कमी से राष्ट्रीय स्तर पर सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं में कर्मचारियों की कमी है। सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में, विशेषज्ञ चिकित्सा पेशेवरों की 83 फीसदी की कमी है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने सितंबर 2015 में विस्तार से बताया है। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में सार्वजनिक- स्वास्थ्य केन्द्रों में - 29 राज्यों और सात केंद्र शासित प्रदेशों में 25308 - 3,000 से अधिक डॉक्टरों की कमी है। पिछले दस वर्षों में यह कमी 200 फीसदी बढ़ी है, जैसा कि फरवरी 2016 में इंडियास्पेंड ने विस्तार से बताया है। इस तरह, समिति सरकार के डॉक्टर - जनसंख्या अनुपात के संबंध में संशयी है। संसदीय रिपोर्ट कहती है, “इस तथ्य को देखते हुए कि इंडियन मेडिकल रजिस्टर एक जीवित डेटाबेस नहीं है। समिति मंत्रालय के प्रति 1,674 की आबादी पर एक डॉक्टर के दावे पर उलझन में है। इस दृष्टि में, समिति का मानना है कि भारत में कुल डॉक्टरों की संख्या आधिकारिक आंकड़े की तुलना में काफी छोटी है और हमारे यहां प्रति 2000 जनसंख्या पर एक डॉक्टर है।

भारत में 57 फीसदी डॉक्टरों के पास मेडिकल डिग्री नहीं :- देश में कार्यरत 57 फीसदी डॉक्टरों के पास मेडिकल डिग्री ही नहीं है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने अपनी हालिया रिपोर्ट में यह भी कहा है कि खुद को एलोपैथिक डॉक्टर कहने वाले 31 फीसदी लोगों ने सिर्फ 12वीं तक पढ़ाई की है। डब्ल्यूएचओ ने 2001 की जनगणना पर आधारित रिपोर्ट जून में जारी की गई थी। रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्रामीण भारत में लोगों का इलाज कर रहे पांच में एक डॉक्टर ही इलाज के लिए उपयुक्त डिग्री या योग्यता रखता है। भारतीय चिकित्सा परिषद (एमसीआई) के एक वरिष्ठ अधिकारी ने इस रिपोर्ट पर कहा कि झोलाछाप डॉक्टरों पर कार्रवाई का जिम्मा राज्य की चिकित्सा परिषदों पर है और उन्हें ही उस पर कार्रवाई करनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के हालिया निर्णय के अनुसार, अन्य पद्धतियों से इलाज करने वाले एलोपैथिक दवाओं से उपचार नहीं कर सकते। एम सीआई का कहना है कि इस समयांतराल में स्थितियां काफी बदली हैं। देश में नौ लाख पंजीकृत डॉक्टर हैं। राष्ट्रीय स्तर पर एलोपैथिक, आयुर्वेदिक, यूनानी और होम्योपैथिक डॉक्टरों का आंकड़ा एक लाख की आबादी पर 80 और नर्सों का 61 था। स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में वैश्विक लक्ष्यों को पाने की राह में स्वास्थ्य विशेषज्ञों की कमी बड़ी चुनौती बनकर उभरी है। रिपोर्ट के अनुसार, देश को सात लाख और डॉक्टरों की जरूरत है, लेकिन हर साल देश में सिर्फ 30 हजार डॉक्टर विश्वविद्यालयों से पढ़ाई पूरी कर बाहर आते हैं।
उत्तर प्रदेश में काउंसिलिंग प्रक्रिया अन्तिम चरण में :-  भारत सरकार तथा कई राज्य सरकारों ने नीट के आधार पर अपनी चयन प्रक्रिया पूरी कर ली थी। कई पूरा करने वाले थे। उत्तर प्रदेश में भी यह प्रक्रिया अपने अन्तिम चरण में थी। 25 मई 2017 से कई दिनों तक माप अप राउण्ड भी लगभग पूरा कर लिया गया था। ए एम यू और बी एच यू की माप अप प्रकिया कुछ बाकी रह गयी थी। प्रदेश के प्रथम द्वितीय काउंसिलिंग प्रक्रिया में राज्य सरकार ने वाहरी राज्यों से पास करने वाले छात्रों को प्रवेश देकर कुछ अनियमिततायें कर दिया था, जिसके विरुद्ध इलाहाबाद उच्च न्यायालय में डा. राम दिवाकर वर्मा ने रिट प्रार्थनापत्र दाखिल किया था।
इलाहाबाद हाईकोर्ट का हस्तक्षेप :- माननीय उच्च न्यायालय के आदेश के बाद यूपी सरकार ने मेडिकल पीजी में दाखिले के लिए हुई काउंसलिंग निरस्त कर दी है। हाईकोर्ट ने मेडिकल पीजी कक्षाओं में नए सिरे से काउंसलिंग कराकर प्रवेश सूची जारी करने के आदेश दिए थे। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक बहुत बड़ा पर बहुत विलम्ब से दिया गया आदेश जारी किया है कि पीजी मेडिकल कोर्स में नीट के आधार पर हो दाखिला हो। यद्यपि 90 प्रतिशत दाखिले होने के बाद यह आदेश आया है जो लाभ कम हानि ज्यादा करने लायक है। इसके कारण प्रदेश के कालेजों में अफरा तफरी का माहौल बन गया है। हाईकोर्ट ने प्रदेश के मेडिकल कॉलेजों में परास्नातक कोर्स में नीट की मेरिट के आधार पर नियमानुसार काउंसिलिंग कराकर सूची जारी करने का निर्देश दिया है। कोर्ट ने प्रवेश से संबधित अब तक जारी चिकित्सा शिक्षा महानिदेशक के सभी परिपत्र रद्द कर दिए हैं। यह आदेश इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति अरुण टंडन तथा न्यायमूर्ति पीसी त्रिपाठी की खंडपीठ ने राम दिवाकर तथा नमिता निरंजन सहित दर्जनों अन्य की याचिका पर दिया है। याचिका पर अधिवक्ता सुधीर चन्द्रौल, वरिष्ठ अधिवक्ता आरके ओझा, पीएन त्रिपाठी तथा राज्य सरकार के अपर महाधिवक्ता नीरज त्रिपाठी, स्थायी अधिवक्ता सोमनारायण मिश्र ने बहस की। कोर्ट ने मुख्य सचिव से हलफनामा मांगा था। हलफनामा दाखिल कर मुख्य सचिव ने प्रवेश में विभेद न करने का आश्वासन दिया।


उच्चतम न्यायालय में 6 जून को सुनवाई :-यू.पी मेडिकल पीजी विवाद की सुनवाई 6 जून को उच्चतम न्यायालय में होने वाली है। उत्तर प्रदेश सरकार अपनी कमियों को छिपाते हुए समय सीमा बढ़ाने की पुनः काउंसिलंग के लिए अनुमति मांगी थी माप राउण्ड के छात्रों के विद्वान अधिवक्ता  श्री अरुण भारद्वाज ने सही स्थिति अवगत कराते हुए अपनी बात कही कि चयन प्रक्रिया प्रवेश तथा फीस जमा हो चुकी है। चिकित्सकों के क्लास भी चलने लगें हैं एसे में री-काउंसिलिंग का औचित्य नहीं बनता है। इस आदेश के बिलम्ब से आने से कालेजों में शिक्षा पा रहे तथा काम कर रहे रेजिडेन्टों का भविष्य अधर में लटक गया है। वह उस मानसिकता से जन सेवा नहीं कर पा रहे हैं जैसा उन्हें करना चाहिए। उनका भविष्य समाप्त हो गया है। वे अनिश्चितता के दौर से गुजर रहे हैं । उच्च शिक्षा के हजारों छात्ऱों का भविष्य अधर में लटक गया है। काउंसिलिंग का 90 प्रतिशत कार्य पूरा हो चुका है। छात्र अपना प्रवेश भी ले चुके है। वे अपने क्लासेज भी कर रहे थे। उनकी अनिश्चितता में मरीजों पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। सीनियर डाक्टरों पर एकाएक बोझ बढ़ गया है। प्रदेश सरकार के आवेदन पर पारित आदेश में विद्वान अधिवक्ता ने संशोधन करवाया माननीय न्यायालय ने इसे मानते हुए अनेक रिट पेटिशनों के आने के कारण सुनवाई 6 जून 2017 को एक बंच में सुनने का वादा किया है। माननीय उच्चतम न्यायालय को जल्द तथा लोगों के व्यापक हित को ध्यान में रखकर अपना आदेश जारी करना है।


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