भारतीय
परिवेश में आस्था, विश्वास, किसी के आदेश, निर्देश,
संहिता या व्यवस्था के
अनुसार नहीं चलती है। यह तो अपने
पूर्वजों की देखा देखी
व संकट में अजमाये गये प्रयोगों के आधार पर
स्वमेव जन मानस में
पनपती है। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के
गाँव के बाहर किसी
पुराने पीपल पेड़ के नीचे कुछ
अनगढ़ सा पत्थर, या
मिटटी की ढूही बनी
देखी जा सकती है।
गाँव में जब विवाह की
रस्म, किसी बच्चे का जन्म, या
मुंडन या अन्य कोई
उत्सव होता है तो उस
स्थान पर कथा कही
सुनी जाती है। साथ ही कुछ भोग
प्रसाद का चढ़ावा भी
किया जाता है। इसे हमारे ग्राम लोक मेंँ डीह बाबा या डीवहारे बाबा
के नाम से जानते हैं।
इन्हें ग्राम देवता भी कहा जाता
है। यह पूजा किसी
शास्त्रीय विधान या कर्मकांड के
अंतर्गत नहीं होती है। पर जैसा पंडित
या बुजुर्ग करा देते हैं यह हो जाती
है। मान्यता यह है कि
इस पूजा से अनिष्ट नहीं
होता है. और अनिष्ट का
भय, सुखद भविष्य की लालसा, और
अज्ञात के प्रति जिज्ञासा
जरुर देखी जाती है। ईश्वर और धर्म का
एक मोटी समाज का एक असरकारक
फैक्टर होता है। हर संकल्प के
पहले जो मन्त्र पढ़े
जाते हैं, उनमे ग्राम देवताभ्यो नमः भी कहा जाता
है। इस प्रकार यह
प्रथम प्रचलित देवता प्रमाणित हो जाते हैं।
आम जनता की पहुंच आसान
प्राचीन
काल में संसार की सुख समृद्धि
के लिए त्रिदेवों के अलावा व्यन्तर
अथवा लघुदेवों का प्रचलन हुआ
था। जब समाज में
कोई भारी असमानता होती या पापाचार बढ़
जाता तो ज्यादातर भगवान
विष्णु का कोई न
कोई अवतार की कल्पना की
गयी है। कभी कभी मातृ शक्तियां भी प्रकृति व
धर्म के संतुलन के
लिए अवतरित हुई हैं। लक्ष्मी जी भगवान विष्णु
का तथा पार्वती जी भगवान शंकर
के कार्यों में सहयोग करती थीं। यह भी देखा
गया है कि मातृ
शक्तियां मूल देवों की अपेक्षा जल्दी
प्रभावित होकर भक्तों के संकट का
निवारण करती हैं। इस कारण यह
जन मानस में बहुत ही लोकप्रिय भी
होती जा रही है।
जब कोई छोटी या समान्य घटना
आ जाता या मूल उच्चस्थ
देव किसी अन्य कार्य में व्यस्त हो जाता था। तब उनके गण
व गणिकाएं अपने अपने स्वामी द्वारा प्रदत्त शक्तियों के बल पर
संसार के सदानुकूल संचालन
में सहयोग करते थे। शक्ति हमेशा पूज्य रहे हैं, चाहे जैसी भी हो-तपस्या
द्वारा देवताओं की कृपा प्राप्त
की है। संसार में कई लोक हैं
जिनके देवी-देवता अलग-अलग लोक में रहते हैं तथा जिनकी दूरी अलग-अलग है। नजदीकी लोक में रहने वाले देवी-देवता शीघ्र प्रसन्न होते हैं, क्योंकि लगातार ठीक दिशा, समय, साधन का प्रयोग करने
से मंत्रों की साइकल्स उस
लोक में तथा ईष्टदेव तक पहुंचती है
जिससे वे शीघ्र प्रसन्न
होते हैं तथा साधक की मनोकामना पूर्ण
करते हैं।
जादुई शक्तिवाला यक्ष
यक्ष
गन्धर्व किन्नर विद्याधरी ये सब उपदेवताओं
की श्रेणी में आते है। यक्षों एक प्रकार के
पौराणिक चरित्र होता हैं। यक्ष का उल्लेख ऋग्वेद
में हुआ है। यच सम्भवत यक्ष
का ही एक प्राकृत
रूप है। अतएव यक्ष का अर्थ जादू
की शक्तिवाला और निस्सन्देह यक्षिणी
है। यक्षों को राक्षसों के
निकट माना जाता है, यद्यपि वे मनुष्यों के
विरोधी नहीं होते, जैसे राक्षस होते है। माना जाता है कि प्रारम्भ
में दो प्रकार के
राक्षस होते थे एक जो
रक्षा करते थे वे यक्ष
कहलाये तथा दूसरे यज्ञों में बाधा उपस्थित करने वाले राक्षस कहलाये। यक्ष का शाब्दिक अर्थ
होता है जादू की
शक्ति। हिन्दू धर्मग्रन्थो में एक अच्छे यक्ष
का उदाहरण मिलता है जिसे कुबेर
कहते हैं तथा जो धन-सम्पदा
में अतुलनीय थे। यक्षों के राजा कुबेर
उत्तर के दिक्पाल तथा
स्वर्ग के कोषाध्यक्ष कहलाते
हैं। एक यक्ष का
प्रसंग महाभारत में भी मिलता है।
जब पाण्डव दूसरे वनवास के समय वन-वन भटक रहे
थे तब स्वयं धर्मराज
की एक यक्ष के
रुप में उनकी भेंट हुई जिसने युधिष्ठिर से अनेक गूढ़ यक्ष
प्रश्न किए थे। यक्ष तथा भैरव भी हमारे नजदीकी
वातावरण में रहते हैं।
कुवेर का सहयोगी यक्ष
लक्ष्मी
जी जहां ध्यान नहीं दे पाती तो
वहां कुबेर देव अपना कार्य संचालित करते थे। कुवेर के सहयोगियों को
यक्ष कहा जाता था। इसकी श्रेणी में यक्षिणी, योगिनी, अप्सरा, किन्नरी आते हैं। एक साधना कर्ण-पिशाचिनी भी होती है जिससे
हम भूत व भविष्य का
ज्ञान कर सकते हैं
तथा दूसरों को बताकर अचंभित
किया जा सकता है।
यक्षिणियां कई वनस्पतियों के
नाम से भी जानी जाती
हैं। अप्सराएं 8 होती हैं तथा 8 ही किन्नरियां होती
हैं। इनका मुख्य कार्य धनप्राप्ति कराना होता है, जो इन्हें प्रसन्न
कर प्राप्त कर सकता है।
योगिनियां भी 8 होती हैं। कई बार प्रयास
करने पर भी ये
आती नहीं हैं तो इन्हें कुट्टन
मंत्रों द्वारा जबरदस्ती भी बुलाया जा
सकता है। यदि यह नहीं भी
सामने आएं, तो भी जीवन
के कार्यों में सफलता दिलवाती देती हैं।
कार्तिक पूर्णिमा को विशेष आयोजन
कार्तिक
पूर्णिमा की रात्रि को
यक्ष जाति के लोग अपने
सम्राट कुबेर के साथ विलास
करते हैं और अपनी यक्षिणियों
के साथ आमोद-प्रमोद भी करते हैं।
सर्वत्र हर्षोल्लास व प्रेमोन्माद की
वर्षा करती रहती हैं। इसलिए इस रात्रि को
यक्ष रात्रि कहा जाता है। वराह पुराण व वात्स्यायन के
कामसूत्र में भी इसका उल्लेख
यक्ष रात्रि के रूप में
किया गया है। कालांतर में इस अवसर पर
यक्षाधिपति कुबेर के पूजन की
परंपरा शुरू हुई। उत्तरी भारत के अनेक गांवों
में यक्ष वृक्ष, यक्ष चैरा के प्रमाण आज
भी मिलते हैं। काशी का लहुराबीर इसी
तरह के नाम का
बोधक है। इसका वर्तमान एर्व व्यापक रूप डीह या डिवहारे बाबा
और जाख-जाखिनी की पूजा के
रूप में आज भी गांवों
में प्रचलित है। पर्वतीय जातियों में अब भी यक्ष
पूजा की परंपरा है।
खुदाई में मिली अनेक प्रतिमाएं
विभिन्न
स्थानों पर की गई
पुरातात्विक खुदाई में कुषाण काल की अनेक प्रतिमाएं
मिली हैं जिसमें यक्षपति कुबेर और लक्ष्मी को
एक साथ दिखाया गया है। कुछ प्रतिमाओं में कुबेर को अपनी पत्नी
इरिति के साथ दिखाया
गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन
काल में कुबेर और उनकी पत्नी
इरिति का ही पूजन
किया जाता रहा होगा। कालांतर में इरिति का स्थान लक्ष्मी
ने ले लिया और
आगे चलकर कुबेर के स्थान पर
गणेशजी को प्रतिष्ठित कर
दिया गया। कुछ स्थानों पर आज भी
गणेश-लक्ष्मी के साथ कुबेर
व इंद्र की पूजा की
जाती है। यक्ष रात्रि के साथ लक्ष्मी
के जुडने का कारण धन
की देवी तथा इसी दिन विष्णु से उनके विवाह
का होना कहा जाता है। देखा जाय तो कुबेर व
लक्ष्मी की प्रकृति में
समानता अधिक है। कुबेर धन के देवता
हैं और लक्ष्मी धन
की देवी हैं। अंतर केवल यह है कि
कुबेर की मान्यता यक्ष
जाति में है और लक्ष्मी
की देव व मानव जाति
में। कालांतर में जब हमारे यहां
विभिन्न जातियों व संस्कृतियों का
समन्वय हुआ तो आपस में
एक-दूसरे की मान्यताओं को
स्वीकार करना स्वाभाविक था। इसलिए कुबेर और लक्ष्मी को
एक ही रूप मानकार
उनकी पूजा की जाने लगी।
कुबेर को छोड़ लक्ष्मी के साथ गणेश की निकटता बड़ी
सांस्कृतिक
प्रवाह में जब शैव संप्रदाय
का महत्व समाज में बढने लगा तो गणेशजी की
प्रतिष्ठा बढ़ी। गणेशजी ऋद्धि-सिद्धि के देवता माने
जाते हैं। ये दोनों उनकी
पत्निया के रुप में
पूजी जाती हैं। कुबेर देव केवल धन के ही
अधिपति हैं। लक्ष्मी जी केवल धन
की नहीं, यश, सुख व कृषि आदि
की देवी हैं, इसलिए लक्ष्मी के साथ गणेश
की निकटता मानी जाने लगी। मत्स्यपुराण के अनुसार स्वयं
कुबेर ही वाराणसी में
आकर अपने यक्ष स्वभाव को छोड़कर भगवान
शिव के गणनायक और
मंगल मूर्ति गणेश बन गए। गणेश
जी के गनानन स्वरूप
को छोड़ दिया जाय तो उनकी शेष
आकृति कुबेर से काफी मिलती
है। वही लम्बोदर और स्थूल शरीर
गणेश जी का भी
है और कुबेर का
भी।
दिव्य ताकतों वाली ये शक्तियां
जो
लोग बचपन से लेकर शहरों
में पले-बढ़े हैं, उन्हें डीह बाबा, देवी माई का चैरा या
बरम (ब्रह्म) देवता की बात नहीं
समझ में आएगी। लेकिन गांवों के लोग इन
दिव्य ताकतों से अच्छी तरह
परिचित होंगे। डीह बाबा अक्सर गांव की चैहद्दी पर
बिराजते हैं। अगर आप गांव से
बाहर कहीं जा रहे हों
और गलती से उन्हें नमन
करना भूल गए तो वो
आपको रास्ता भटका सकते हैं। आपका कार्य वाधित भी कर सकते
हैं। यदि उनको सम्मान के साथ स्मरण
कर लिया तो कार्य पूर्ण
होने की संभावना बढ़
जाती है। साथ ही आपमें एक
आत्मविश्वास भी बन जाता
है। जो आपको सकारात्मक
उर्जा का संचरण कर
सकता है। बरम बाबा भी बेहद लाभदायक
या खतरनाक दोनों रुप में होते हैं। इसी तरह पानी में डूबकर मरे अविवाहित नौजवान भी आते हैं
जो बुडुवा कहलाते हैं। ये भी लोक
में तरह तरह के होनी अनहोनी
के प्रेरक बन जाते हैं।
इन सभी छोटी मोटी शक्तियों को कुछ छोटे
मोटे कार्य व पूजा से
शान्त या अनुकूल किया
जा सकता है। इनकी अवहेलना नुकसानदायी हो सकता है।
इनकी कृपा से व्यक्ति व
समाज में नई स्फूर्ति का
संचरण होता है। अतः इन्हें नजरन्दाज नही करना चाहिए। यदि गल्ती हो भी जाय
तो उसे सुधारा भी जा सकता
है। ये कट्टर स्वभाव
के कत्तई नहीं होते अपितु अपने भक्तों पर इनकी कृपा
समयानुकूल होती रहती है।
No comments:
Post a Comment