Sunday, June 30, 2019

क्या किसी शासक ने सबका विश्वास जीत सका है ? डा.राधेश्याम द्विवेदी





विश्वास का अर्थ होता है यकीन करना, निश्चित धारणा बनाना, सच मानना तथा भरोसा करना। वह धारणा जो मन में किसी व्यक्ति के प्रति उसका सद्भाव, हितैषिता ,सत्यता व  दृढता आदि अथवा किसी सिद्धान्त आदि की सत्यता अथवा उन्मत्ता होने के साथ होती है उसे विश्वास कहते हैं। किसी के गुणों आदि के निश्चय होने पर  उसके प्रति उत्पन्न होने वाले मन के भाव को भी विश्वास कहा जाता है। यह एक एंसी मन की धारणा होती है कि जो विषय या सिद्धान्त आदि की सत्यता के संबंध में होती है। विश्वास वह दृष्टि है जो सभी के प्रति समानता का नजरिया पैदा करती है। वह माने किसी को भी पर किसी को अपमानित ना करे। हनुमान चालीसा के 35वें चैपाई में कहा गया है –
और देवता चित्त न धरई,  हनुमत सेई सर्व सुख करई।
इस प्रकार हनुमान को ही विश्वास का सबसे बड़ा मान दण्ड बनाया गया है। अन्य किसी भी देव दनुज या मानव में दिखाई पड़ता नहीं दीख रहा है। त्रेता युग में भगवान राम ने मर्यादा पुरुषोत्तम का रोल बखूबी निभाया है। राज्य का त्याग करके बन को अंगीकार किया था। रावण से बैर करना पड़ा । साथ ही उनके सारे समूल को नष्ट भी करना पड़ा। राम ने खुद की मां से ज्यादा अपनी अन्य माओं को सम्मान दिया था। बन में अपने भाई से ज्यादा अपने मित्र सुग्रीव व विभीषण को महत्व दिया था। जनता के कहने पर पवित्र सीता की अग्नि परीक्षा ली थी। इतना ही नहीं एक सामान्य धोबी के अविश्वास के कारण अपनी गर्भिणी पत्नी सीता का त्याग भी किया था। उनके आचरण व व्यवहार को रामराज की परिकल्पना से नवाजा गया । यद्यपि पूरी जिन्दगी उन्होंने अपने निज के लिए कुछ भी लाभ नहीं स्वीकार किया और प्रजा के जनरंजन के लिए अपना स्नेह दया सखी भाव सब का परित्याग कर दिया था। फिर भी वह प्रजा को पूर्ण संतुष्ट नहीं कर सके ना ही पूर्ण विश्वास कायम कर पाये।
ठीक द्वापर युग में इसी प्रकार भगवान कृष्ण का चरित्र भी रहा। पूरी जिन्दगी प्रकृति व धर्म के संतुलन के लिए वह प्रयास करते रहे। कृष्ण भी कौरवों को मनाने में सफल ना हो सकें महाभारत को ना रोक सके। सर्वशक्तिमान होते हुए भी उनकी बातों पर सबने यकीन कहां की ? पाण्डवों ने यकीन किया और उसका फल पाया भी। पर कौरवों ने यकीन ना करके अपने कुल का विनाश कराया। भारतीय इतिहास और पौराणिक आख्यान इस विश्वास और अविश्वास के कारनामों से भरे पड़े हैं। राजसूय यज्ञ तथा अश्वमेध यज्ञ का विधान भी इन्हीं विश्वास और मान्यता पर टिका हुआ है। भारत के इतिहास को पलटकर देखें तो सारी लड़ाइयों की जड़ भी यही विश्वास अविश्वास के इर्द गिर्द ही घूमती नजर आयेगी। भारत पर अनेक विदेशी आक्रान्ताओं ने बार बार हमला तथा लूटपाट इन्ही मानव मुल्यों के अवमुल्यन के फलस्वरूप किया है। आजादी से लेकर आज तक सत्ता व विपक्ष भी इन्हीं मूल्यों में अपना सब कुछ बरबाद करता रहा है। 2019 के आम चुनाव के अवसर पर भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री माननीय मोदीजी ने अपने नारे सबका साथ, सबका विकास में सबका विश्वास को जोड़कर अपने लिए एक और बाध्यता पैदा कर ली है। यह बात तो दिन की तरह साफ है कि न ही मोदी अब तक लगभग 20 करोड़ भारतीय मुसलमानों का विश्वास जीत पाए हैं, न उनकी पार्टी ऐसा कर पाई है। समावेशी भारत के लिए समावेशी विकास का उनका नया नारा कतई खोखला रह जाएगा, अगर देश का दूसरा सबसे बड़ा धार्मिक समुदाय खुद को सत्तापक्ष की ओर से कटा-कटा महसूस करता रहा। भले ही चुनाव बहुमत के सिद्धांत पर वह जीत जाते हों, लेकिन सरकार तभी चलाई जा सकती है, देश तभी आगे बढ़ सकता है, जब सर्वमत के सिद्धांत का पालन किया जाए।
नई लोकसभा में बीजेपी के 303 सांसदों में एक भी मुस्लिम नहीं है...? यही हाल रहा, तो भाजपा को वास्तविक राष्ट्रीय पार्टी कैसे कहा जा सकता है...? हां, भौगौलिक दृष्टि से समूचे भारत में पार्टी की पहुंच बन गई है, लेकिन क्या इसकी सामाजिक पहुंच राष्ट्रीय है ? इस परिप्रेक्ष्य में मोदी जी ने कुछ अहम मुस्लिम मुल्कों - खासतौर से सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात यू ए ई से भारत के रिश्ते हालिया सालों में मजबूत किए हैं। पुलवामा में बीएसएफ जवानों पर हुए आतंकवादी हमले के बाद इन दोनों देशों ने भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव को कम करने में अहम भूमिका अदा की थी.। युएई ने तो भारत में चुनावी प्रक्रिया शुरू हो जाने के बाद मोदी को सर्वोच्च नागरिक सम्मान दिए जाने की घोषणा की । मोदी की मुस्लिमों तक बनाई जा रही इस पहुंच का स्वागत सभी को करना चाहिए, क्योंकि इससे भारत का लोकतंत्र, विकास और राष्ट्रीय अखंडता मजबूत होगी। सच तो यह भी है कि भाजपा विरोधी पार्टियां कुछ हद तक इसके लिए दोषी हैं, और उन्होंने चुनावी फायदों के लिए मुस्लिम वोटबैंक का इस्तेमाल किया है।
इसीलिए, अगर मोदी अपनी नई पारी की शुरुआत सचमुच सबको साथ जोड़कर करने के प्रति गंभीर हैं, तो उन्होंने बहुत-से मुद्दों पर आत्ममंथन करना होगा. उन्हें भाजपा और संघ परिवार को भी उन्हीं की लाइन पर चलने के लिए बाध्य करना होगा। उन्हें खुद आगे बढ़कर मुस्लिम समुदाय के प्रभावी और सम्मानित प्रतिनिधियों को नियमित वार्ताओं के लिए आमंत्रित करना होगा, जिनमें उनके कड़े आलोचक भी शामिल हों, और भारत के लोकतांत्रिक ढांचे में ताकत के विभिन्न स्तरों पर उन्हें भी हिस्सेदारी देनी होगी। शिक्षा, रोजगार और सिविल सेवाओं व सैन्य सेवाओं में समान अवसरों के मामले में मुस्लिमों की भागीदारी कम (सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में सामने आई कड़वी सच्चाई) होने के लिए सिर्फ कांग्रेस और अन्य पार्टियों को दोषी करार देने की जगह मोदी को ठोस नीति और ऐसे कदम उठाकर दिखाने होंगे, जिनसे साबित हो सके कि वह मुस्लिमों की तरक्की के लिए कटिबद्ध हैं।
भाजपा को अभी बहुत करना है
लगता है नरेंद्र मोदी खुश तो हैं, पर संतुष्ट नहीं हैं। ऐसा कुछ तो है जिसे वे समझ गए हैं और शायद उनकी पार्टी में दूसरे लोग उसे पकड़ पाने में नाकाम रहे हैं, और वह यह कि दलितों, मुसलमानों, ईसाइयों और बेहद गरीबों के वोट हासिल कर लेना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि उनका भरोसा जीतना भी जरूरी है। वे जानते हैं कि अपने पहले कार्यकाल में वे उनका भरोसा नहीं जीत पाए थे, इसलिए सबका साथ सबका विकास में सबका विश्वास भी जोड़ा। बीजेपी तथा संघ के अनेक बड़बोले नेताओं को मोदी जी की भावनाओं को समझते हुए संयम रखना होगा। तीन सौ तीन सदस्यों में मुसलिम समुदाय के सदस्यों मे इजाफा करना होगा। रोजगार के अवसर बढ़ाने होंगे। खास वर्गों के मन से खौफ खत्म करने के लिए कड़े कदम उठाने की जरूरत है। जब कभी किसी अपराध के लिए सजा न दी जाए तो अपराधी और सजा न देने वालों के खिलाफ कार्रवाई सुनिश्चित की जानी चाहिए। दलित, मुसलिम, ईसाई और गरीबी रेखा से नीचे के तबके के लोगों ने भाजपा के उम्मीदवारों को वोट इसलिए दिया कि कोई और दूसरा उम्मीदवार चुनाव जीतता नहीं लगा और निश्चित रूप से कोई दूसरा उम्मीदवार जीतता हुआ नहीं लग रहा था। यह समझदारी का वोट था, यह विश्वास का वोट नहीं था। इनका भरोसा जीतने के लिए भाजपा को अभी काफी कुछ करना है।



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