Friday, June 7, 2019

संभव नहीं है समझना माया के मन की बात-- डा. राधेश्याम द्विवेदी



इस विषय का शुभारम्भ मैं कबीरदासजी के एक पद से करता हूं -
माया महा ठगनी हम जानी।।
तिरगुन फांस लिए कर डोले बोले मधुरे बानी।।
केसव के कमला वे बैठी शिव के भवन भवानी।।
पंडा के मूरत वे बैठीं तीरथ में भई पानी।।
योगी के योगन वे बैठी राजा के घर रानी।।
काहू के हीरा वे बैठी काहू के कौड़ी कानी।।
भगतन की भगतिन वे बैठी बृह्मा के बृह्माणी।।
कहे कबीर सुनो भई साधो यह सब अकथ कहानी।।

जिस प्रकार अपने घर की सुंदरता को देखने के लिए घर से बाहर निकलना ही पड़ता है , बाहर निकल के ही घर की सुंदरता दिखायी पड़ती है , वर्ना सुनी सुनायी सी बात लगती है ऐसा जैसे बाहर खड़े कुछ लोग यूँ कह रहे हो कि ये घर सुंदर है या हो सकता है , पर खुद इस कथन का यकीं नहीं हो पता । इसी प्रकार माया के सुंदर और जटिल महल को  समझने के लिए माया से बाहर आके ही देखना  सम्भव है। तभी माया और उसके गहरे प्रभाव को समझा और जाना जा सकता है ।ध्यान रहे, बचने के लिए आपको सतत प्रयास करना पड़ेगा क्यूंकि माया रुपी चादर की बुनावट अति महीन है  और जिसमे सिर्फ मात्र " केंद्रित-ध्यान " ही आपका सहयोगी है। और यदि ध्यान के गहरे क्षणो में ह्रदय के तार में वो ही आंदोलन महसूस हो जाये तो चूकना नहीं छलांग लगाने में देर नहीं करना , क्यूंकि माया महा ठगनी हम जानी , तिरगुन फांस लिए कर डोले बोले बोले माधुरी बनी। सत्य है माया का कोहरा हर वख्त  गिरफ्त में लेने को तैयार है। कभी भी किसी को भी , ज्ञानी अज्ञानी किसी को नहीं बख्शती। ज्ञानी को ज्ञान से घेरती है और अज्ञानी को अज्ञान से। जब तक माया जनित कोहरा गहराया नहीं अर्थात आपमें कुछ भी आत्मिक या चेतना का अर्थ जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हो रही है , यही वख्त है जब पूरी आत्मिक शक्ति से इस कोहरे से दो दो हाथ किये जाएँ , समझा जाये कि मर्म क्या है आखिर इस माया का , वैसे इतना बुरा भी नहीं , यही तो है जो संसार को चला रही है। वर्ना संसार का अस्तित्व ही क्या पर जो समझ सके और कमल के पत्ते के सामान स्वयं के मस्तिष्क को माया के छल में  खुद को  लिप्त होने से बचा सके तो उसका कार्य पूरा हुआ , फिर माया को अपना काम करने दिया जाये और आप अपना आत्मिक उथान करे। और यदि आपका आत्मिक उत्थान कार्य पूरा होता सा लगे तो आस पास के जिज्ञासु की भी यथोचित मदद सिर्फ करुणावश करे , कोई बल प्रयोग न स्वयं के साथ न सामने वाले के साथ।
जिस प्रकार ब्रह्म और जीव का मानवीकरण किया गया है उसी प्रकार भारत के राजनीतिक क्षितिज पर बसपा सुप्रिमों कुमारी बहन मायावती का चरित्र आचरण झलकता है। राजनीति में यह प्रयोग बिल्कुल अनूठा और विलक्षण है। आइये इस पर भी एक नजर डाल लेते हैं।
बसपा सुप्रिमों कुमारी बहन मायावती का उत्तर प्रदेश के इतिहास में 4 बार मुख्यमंत्री के पद पर पहुंचने वाली पहली नेता हैं। उनका रिकार्ड सबसे अलग रहा। वह अपने व अपने पार्टी के स्वार्थ पर कुछ भी करने से पीछे नहीं हटने वाली है। नौतिकता आचरण व मर्यादा उनके डिक्शनरी में है ही नहीं। जो जो उन्हें सम्मान देगा समय व अवसर देखकर वह उन सबको सबक सिखाने में कभी पीछे रहनेवाली नहीं है। उनका सपा से पहला गठवंधन हुआ था जिसे मायावती पहली बार जून 1995 में एसपी के साथ गठबंधन तोड़ कर बीजेपी और अन्य दलों के बाहरी समर्थन से मुख्यमंत्री बनीं थीं। तब उनका कार्यकाल महज 4 महीने का था। वह दूसरी बार 1997 और तीसरी बार 2002 में मुख्यमंत्री बनीं और तब उनकी पार्टी बीएसपी का बीजेपी के साथ गठबंधन था। सितंबर 1997 में बीजेपी-बीएसपी गठबंधन सरकार का नेतृत्व किया, मगर बीएसपी के समर्थन वापस लेने के बाद उन्हें अपनी सरकार बचाने के लिए बीएसपी और कांग्रेस से टूट कर वजूद में आए जन बसपा और लोकतांत्रिक कांग्रेस से गठबंधन करना पड़ा। जिन्होंने मायावती का ट्रैक रिकॉर्ड देखा है वह उसके हर गतिविधियों से वाकिफ हैं। वह ढाई दशक में अपनी राजनीतिक सहयोगी रही बीजेपी को तीन बार और सपा को एक बार छोड़ चुकी हैं. तो ये अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि मायावती एक बार फिर अपनी ‘इस्तेमाल करके छोड़ने की नीति’ पर चलने का फैसला ले चुकी हैं। “यूज एंड थ्रो” की राजनीति का नेतृत्व किया, मगर बीएसपी के समर्थन वापस लेने के बाद उन्हें अपनी सरकार बचाने के लिए बीएसपी और मायावती का कोई मुकाबला नहीं।
 2019 में जिस दिन बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती और समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव ने हाथ मिलाया था, उसी दिन स्पष्ट हो गया था कि ये गठबंधन लंबा चलने वाला नहीं है। दो राजनीतिक शत्रुओं के बीच ये समझौता अविश्वास, संदेह के आधार पर और सबसे अहम, दोनों सहयोगियों के अस्तित्व पर मंडरा रहे खतरे को देखते हुए हुआ था। ये गठबंधन कमजोर इसलिए भी रह गया क्योंकि इसे चुनाव से एकदम पहले बनाया गया जबकि इस तरह के गठबंधनों को परिपक्व होने में वक्त लगता है। इतना वक्त ही नहीं था कि ये संदेश जमीनी स्तर तक पहुंच पाता, जिससे दोनों पार्टियों के वोट एक-दूसरे को मिल पाते और ना ही दोनों पार्टियों ने उतनी कोशिश की जितनी की जानी चाहिए थी।
इस दौरान मायावती ने प्रधानमंत्री का सपना संजोना फिर से शुरू कर दिया क्योंकि उन्हें लग रहा था कि चुनाव नतीजे आने पर त्रिशंकु संसद की स्थिति बन सकती है। उन्होंने ऐसे बयान लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के 15 दिनों से भी कम वक्त में दिए हैं। अखिलेश के साथ गठबंधन करने से उन्हें 10 सीटें मिल गईं जबकि 2014 के लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी अपना खाता तक नहीं खोल पाई थी। शायद उन्हें ऐसा भी लगा कि अखिलेश अब भी एक राजनीतिक नौसिखिया हैं, जो आगे चलकर उनकी पार्टी के किसी काम नहीं आएंगे। इसलिए उन्होंने गठबंधन खत्म करने का फैसला किया। उन्होंने भविष्य के लिए दरवाजें सिर्फ इसलिए खुले रखे हैं क्योंकि वह आने वाले उपचुनाव में देखना चाहती हैं कि कितने पानी में हैं और ये भी देखना चाहती हैं कि इसी चुनाव में समाजवादी पार्टी कैसा प्रदर्शन करती है। बसपा प्रमुख ने जोर देकर कहा कि वो अखिलेश के साथ अच्छे निजी रिश्ते बनाए रखेंगी। उन्होंने कहा, “हालांकि, मैं लोकसभा चुनाव के नतीजों को नजरअंदाज नहीं कर सकती, जिससे साफ तौर पर पता चलता है कि अखिलेश अपनी पार्टी के कोर वोटों पर नियंत्रण नहीं कर सके और हमें ये फैसला लेने पर मजबूर होना पड़ा।”
बसपा सुप्रिमों का यह आकलन वास्तविकता से दूर है। वह पार्टी के अनुयाइयों को बंधुवा मजदूर मात्र समझती है। उन्हे खौराती देदेकर किसी काबिल ना बनने को पे्ररित करती रहती है। उन्हें यह नहीं मालूम कि प्रधानमंत्री सड़क योजना, मनरेगा, प्रधानमंत्री आवास योजना  तथा रसोई गैस योजना आदि की आपूर्ति करके एनडीए उनके वोट बैंक में कब का सेंध लगा रखा है और आये दिनों यह सेंध खुला प्रवेशद्वार बनता चला जा रहा है। 2014, 2017 और 2019 के चुनावों के परिणामों से वह कोई सीख लेना नहीं चाहती है। उनके सहायक जो पर्चा लिख देते हैं वह सोनिया गांधी की तरह उन्हें बांच देती हैं। ना मायावती में मूल समझ है और ना ही उनके सहायक को जो क्षण-क्षण बदलते परिवेश का सही आकलन ना करके उन्हें रोज-के-रोज प्रेस कांन्फेंस करवाने को मजबूर कर देता है।
राजनीतिक प्रेक्षक यह भी अनुमान लगा रहे हैं कि भाजपा के दबाव में मायावती ने गठबंधन तोड़ा है।  मायावती आय से अधिक संपत्ति वाले केस में मोदी सरकार के दबाव में आ गई हो सकती हैं। जो बसपा उप चुनाव नहीं लड़ती थी वह इस बार बड़े उत्साह से ये उपचुनाव लड़ने जा रही है, वह भी गठबंधन तोड़कर। तो यह माना जाए कि यह सब उप चुनाव में भाजपा को फायदा दिलाने के लिए हो रहा है। भले ही सपा और बसपा का गठबंधन लोकसभा चुनाव में कुछ करामात न कर पाया हो पर 2022 के विधानसभा चुनाव में पासा पलटने से आशंकित भाजपा ने मायावती पर शिकंजा कस दिया हो। इसमें दो राय नहीं कि न केवल मायावती बल्कि उनके भाई आनंद ने उनके मुख्यमंत्रित्व काल में अकूत संपत्ति अर्जित की है। लोकसभा चुनाव में भी मायावती का भाजपा पर कम और कांग्रेस पर ज्यादा मुखर होना भी भाजपा का दबाव दिखाई दे रहा था। कुछ विश्लेषकों द्वारा सपा से गठबंधन तोड़ना 1995 के गेस्ट हाउस कांड का बदला लेना बताया जा रहा था।


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