बस्ती जिले से भी सम्बन्ध :-भारत के प्रथम राष्ट्रपति
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का बस्ती जिले
से भी सम्बन्ध देखा
गया है। उनका जन्म 3 दिसम्बर, 1884 को बिहार के
जिला सिवान के एक गाँव
जीरादेई में हुआ
था। वे भारतीय स्वाधीनता
आंदोलन के प्रमुख नेताओं
में से थे उन्होंने
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के
रूप में प्रमुख भूमिका निभाई। उन्होंने भारतीय संविधान के निर्माण में
भी अपना योगदान दिया था जिसकी परिणति
26 जनवरी 1950 को भारत के
एक गणतंत्र के रूप में
हुई थी। बाबू राजेन्द्र प्रसाद के पूर्वज मूलरूप
से कुआँगाँव, अमोढ़ा ( बस्ती-उत्तर प्रदेश) के निवासी थे।
यह गांव हर्रैया तहसील के विक्रमजोत
विकासखण्ड में अभी भी स्थित है।
यह बस्ती जिला मुख्यालय से 40 किमी. की दूरी पर
यह बसा है। यह एक कायस्थ
परिवार वाला गाव था। कुछ कायस्थ परिवार इस स्थान को
छोड़ कर बलिया जा
बसे थे। कुछ परिवारों को बलिया भी
रास नहीं आया इसलिये वे वहाँ से
बिहार के पूर्ववर्ती जिला
सारन तथा वर्तमान जिला सीवान के एक गाँव
जीरादेई में जा बसे। इस
समय यह एक विकास
खण्ड मुख्यालय भी है। इनके
परिवारों में राजेन्द्र प्रसाद के पूर्वजों का
परिवार भी था। जीरादेई
के पास ही एक छोटी
सी रियासत थी - हथुआ। चूँकि राजेन्द्र बाबू के दादा पढ़े-लिखे थे, अतः उन्हें हथुआ रियासत की दीवानी मिल
गई। पच्चीस-तीस सालों तक वे उस
रियासत के दीवान रहे।
उन्होंने स्वयं भी कुछ जमीन
खरीद ली थी। राजेन्द्र
बाबू के पिता महादेव
सहाय इस जमींदारी की
देखभाल करते थे। राजेन्द्र बाबू के चाचा जगदेव
सहाय भी घर पर
ही रहकर जमींदारी का काम देखते
थे। अपने पाँच भाई-बहनों में वे सबसे छोटे
थे इसलिए पूरे परिवार में सबके प्यारे थे। उनके चाचा के चूँकि कोई
संतान नहीं थी इसलिए वे
राजेन्द्र प्रसाद को अपने पुत्र
की भाँति ही समझते थे।
दादा, पिता और चाचा के
लाड़-प्यार में ही राजेन्द्र बाबू
का पालन-पोषण हुआ। दादी और माँ का
भी उन पर पूर्ण
प्रेम बरसता था। बचपन में राजेन्द्र बाबू जल्दी सो जाते थे
और सुबह जल्दी उठ जाते थे।
उठते ही माँ को
भी जगा दिया करते और फिर उन्हें
सोने ही नहीं देते
थे। अतएव माँ भी उन्हें प्रभाती
के साथ-साथ रामायण महाभारत की कहानियाँ और
भजन कीर्तन आदि रोजाना सुनाती थीं।बस्ती जिले के वर्तमान पीढ़ी
के लोगों को बाबू राजेन्द्र
प्रसाद के पूर्वजों का
बस्ती का मूल निवासी
होने की बात नहीं
मालूम होगी। जनपद व मण्डल बस्ती
तथा उत्तर प्रदेश के सभी निवासियों
के इस महान नेता
से जुड़ने का गर्व है।
पंडित नेहरू अपने को असुरक्षित महसूस करते रहे :-डा.राजेन्द्र
प्रसाद से पंडित नेहरु हमेशा अपने को असुरक्षित महसूस करते रहे। उन्होंने राजेन्द्र
बाबू को नीचा दिखाने का कोई अवसर भी हाथ से जाने नहीं दिया। हिन्दू कोड बिल पर भी राजेन्द्र
प्रसाद, नेहरु से अलग राय रखते थे. जब पंडित जवाहर लाल नेहरू हिन्दुओं के पारिवारिक
जीवन को व्यवस्थित करने के लिए हिंदू कोड बिल लाने की कोशिश में थे, तब डा.राजेंद्र
प्रसाद इसका खुलकर विरोध कर रहे थे। डा. राजेंद्र प्रसाद का कहना था कि लोगों के जीवन
और संस्कृति को प्रभावित करने वाले कानून न बनाये जायें। जवाहर लाल नेहरू चाहते ही
नहीं थे कि डा. राजेंद्र प्रसाद देश के राष्ट्रपति बनें। उन्हें राष्ट्रपति बनने से
रोकने के लिए उन्होंने ‘‘झूठ’’ तक का सहारा लिया था। नेहरु ने 10 सितंबर, 1949 को डा.
राजेंद्र प्रसाद को पत्र लिखकर कहा कि उन्होंने (नेहरू) और सरदार पटेल ने फैसला किया
है कि सी.राजगोपालाचारी को भारत का पहला राष्ट्रपति बनाना सबसे बेहतर होंगा। नेहरू
ने जिस तरह से यह पत्र लिखा था, उससे डा.राजेंद्र प्रसाद को घोर कष्ट हुआ और उन्होंने
पत्र की एक प्रति सरदार पटेल को भिजवाई। पटेल उस वक्त बम्बई में थे। कहते हैं कि सरदार
पटेल उस पत्र को पढ़ कर सन्न थे, क्योंकि, उनकी इस बारे में नेहरू से कोई चर्चा नहीं
हुई थी कि राजाजी (राजगोपालाचारी) या डा. राजेंद्र प्रसाद में से किसे राष्ट्रपति बनाया
जाना चाहिए। न ही उन्होंने नेहरू के साथ मिलकर यह तय किया था कि राजाजी राष्ट्रपति
पद के लिए उनकी पसंद के उम्मीदवार होंगे। यह बात उन्होंने राजेन्द्र बाबू को बताई।
इसके बाद डा. राजेंद्र प्रसाद ने 11 सितंबर,1949 को नेहरू को पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने
स्पष्ट शब्दों में कहा था कि ‘‘पार्टी में उनकी (डा0 राजेन्द प्रसाद की) जो स्थिति
रही है, उसे देखते हुए वे बेहतर व्यवहार के पात्र हैं। नेहरू को जब यह पत्र मिला तो
उन्हें लगा कि उनका झूठ पकड़ा गया। अपनी फजीहत कराने के बदले उन्होंने अपनी गलती स्वीकार
करने का निर्णय लिया।नेहरू यह भी नहीं चाहते थे कि हालात उनके नियंत्रण से बाहर हों
और इसलिए ऐसा बताते हैं कि उन्होंने इस संबंध में रातभर जाग कर डा. राजेन्द्र प्रसाद
को जवाब लिखा। डा. राजेन्द्र बाबू, प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के विरोध के बावजूद
दो कार्यकाल के लिए राष्ट्रपति चुने गए थे। बेशक, नेहरू सी राजगोपालाचारी को देश का
पहला राष्ट्रपति बनाना चाहते थे, लेकिन सरदार पटेल और कांग्रेस के तमाम वरिष्ठ नेताओं
की राय डा. राजेंद्र प्रसाद के हक में थी। आखिर नेहरू को कांग्रेस नेताओं सर्वानुमति
की बात माननी ही पड़ी और राष्ट्रपति के तौर पर डा. राजेन्द्र प्रसाद को ही अपना समर्थन
देना पड़ा। जवाहर लाल नेहरू और डा. राजेंद्र प्रसाद में वैचारिक और व्यावहारिक मतभेद
बराबर बने रहे थे। ये मतभेद शुरू से ही थे, लेकिन 1950 से 1962 तक राजेन्द्र बाबू के
राष्ट्रपति रहने के दौरान ज्यादा मुखर और सार्वजनिक हो गए।
दोनों के सोच व विचार में महान अन्तर:- नेहरु पश्चिमी
सभ्यता के कायल थे जबकि राजेंद्र प्रसाद भारतीय सभ्यता देश के एकता का मूल तत्व मानते
थे। राजेन्द्र बाबू को देश के गांवों में जाना पसंद था, वहीं नेहरु लन्दन और पेरिस
में चले जाते थे। पेरिस के धुले कपड़े तक पहनते थे। सरदार पटेल भी भारतीय सभ्यता के
पूर्णतया पक्षधर थे। इसी कारण सरदार पटेल और डा. राजेंद्र प्रसाद में खासी घनिष्ठता
थी। सोमनाथ मंदिर मुद्दे पर डा. राजेंद्र प्रसाद और सरदार पटेल ने एक जुट होकर कहा
की यह भारतीय अस्मिता का केंद्र है इसका निर्माण होना ही चाहिए। अगर बात बिहार की करें
तो वहां गांधी के बाद राजेन्द्र प्रसाद ही सबसे बड़े और लोकप्रिय नेता थे। गांधीजी
के साथ ‘राजेन्द्र प्रसाद जिन्दाबाद’ के भी नारे लगाए जाते थे। लंबे समय तक देश के
राष्ट्रपति रहने के बाद भी राजेन्द्र बाबू ने कभी भी अपने किसी परिवार के सदस्य को
न पोषित किया और न लाभान्वित किया। हालांकि नेहरु इसके ठीक विपरीत थे। उन्होंने अपनी
पुत्री इंदिरा गांधी और बहन विजयालक्ष्मी पंडित को सत्ता की रेवडि़यां खुलकर बांटीं।
सारे दूर-दराज के रिश्तेदारों को राजदूत, गवर्नर, जज बनाया। एक बार जब डा. राजेंद्र
प्रसाद ने बनारस यात्रा के दौरान खुले आम काशी विश्वनाथ मंदिर के पुजारियों के पैर
छू लिए तो नेहरू नाराज हो गए और सार्वजनिक रूप से इसके लिए विरोध जताया, और कहा की
भारत के राष्ट्रपति को ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए। हालांकि डा. राजेन्द्र प्रसाद ने
नेहरु की आपत्ति पर प्रतिक्रिया देना भी उचित नहीं समझा। राजेन्द्र प्रसाद नेहरू की
तिब्बत नीति और हिन्दी-चीनी भाई-भाई की नीति से असहमत थे। नेहरु की चीन नीति के कारण
भारत 1962 की जंग में करारी शिकस्त झेलनी पड़ी। इसी प्रकार राजेन्द्र बाबू और नेहरु
में राज्यभाषा हिन्दी को लेकर भी मतभेद था। मुख्यमंत्रियों की सभा (1961) को राष्ट्रपति
ने लिखित सुझाव भेजा कि अगर भारत की सभी भाषाएं देवनागरी लिपि अपना लें, जैसे यूरोप
की सभी भाषाएं रोमन लिपि में लिखी जाती हैं, तो भारत की राष्ट्रीयता मजबूत होगी। सभी
मुख्यमंत्रियों ने इसे एकमत से स्वीकार कर लिया, किन्तु अंग्रेजी परस्त नेहरू की केंद्र
सरकार ने इसे नहीं माना ।
दोनों के संस्कृतियों में महान अन्तर :- वास्तव में
डा. राजेंद्र प्रसाद एक दूरदर्शी नेता थे वो भारतीय संस्कृति सभ्यता के समर्थक थे,
राष्ट्रीय अस्मिता को बचाकर रखने वालो में से थे।जबकि नेहरु पश्चिमी सभ्यता के समर्थक
और, भारतीयता के विरोधी थे। बहरहाल आप समझ गए होंगे कि नेहरु जी किस कद्र भयभीत रहते
थे राजेन्द्र बाबू से। अभी संविधान पर देश भर में चर्चाएं हो रही हैं। डा0 राजेन्द्र
प्रसाद ही संविधान सभा के अध्यक्ष थे और उन्होंने जिन 24 उप-समितियों का गठन किया था,
उन्हीं में से एक ‘‘मसौदा कमेटी’’ के अध्यक्ष डा0 भीमराव अम्बेडकर थे। उनका काम
300 सदस्यीय संविधान सभा की चर्चाओं और उप-समितियों की अनुशंसाओं को संकलित कर एक मसौदा
(ड्राफ्ट) तैयार करना था जिसे संविधान सभा के अध्यक्ष के नाते डा0 राजेन्द्र प्रसाद
स्वीकृत करते थे। फिर वह ड्राफ्ट संविधान में शामिल होता था। संविधान निर्माण का कुछ
श्रेय तो आखिरकार देशरत्न डा0 राजेन्द्र प्रसाद को भी मिलना ही चाहिए, लेकिन आंबेडकर
पूजा में हम इतने व्यस्त और मस्त हो गए हैं कि राजेन्द्र प्रसाद के योगदान को गायब
ही कर दिया.
नेहरू सोमनाथ मंदिर के पक्ष में नहीं :- जवाहल लाल नेहरू सोमनाथ मंदिर के पक्ष
में नहीं थे. महात्मा गांधी जी की सहमति से सरदार पटेल ने सोमनाथ मंदिर के
पुनर्निर्माण का काम शुरु किया था. पटेल की मौत के बाद मंदिर की जिम्मेदारी के एम
मुंशी पर आ गई. मुंशी नेहरू की कैबिनेट के मंत्री थे. गांधी और पटेल की मौत के बाद
नेहरू का विरोध और तीखा होने लगा था. एक मीटिंग में तो उन्होंने मुंशी की फटकार भी
लगाई थी. उन पर हिंदू-रिवाइवलिज्म और हिंदुत्व को हवा देने का आरोप भी लगा दिया.
लेकिन, मुंशी ने साफ साफ कह दिया था कि सरदार पटेल के काम को अधूरा नहीं
छोड़ेगे. के एम मुंशी भी गुजराती थे इसलिए उन्होंने सोमनाथ मंदिर बनवा के ही
दम लिया. फिर उन्होंने मंदिर के उद्घाटन के लिए देश के पहले राष्ट्रपति डा.
राजेंद्र प्रसाद को न्यौता दे दिया. उन्होंने इस न्यौते को बड़े गर्व से स्वीकार
किया लेकिन जब जवाहर लाल नेहरू की इसका पता चला तो वे नाराज हो गए. नेहरू ने
राजेंद्र प्रसाद से सोमनाथ मंदिर का 1951 में उदघाटन न करने का आग्रह किया था। उनका
तर्क था कि धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के प्रमुख को मंदिर के उदघाटन से बचना चाहिए। नेहरू
के आग्रह को न मानते हुए राजेंद्र बाबू भी तन गए. वो सोमनाथ गए और जबरदस्त भाषण दिया था. डा. राजेंद्र
प्रसाद ने सोमनाथ मंदिर में शिव मूर्ति की स्थापना की. डा. राजेन्द्र प्रसाद मानते
थे कि ‘‘धर्मनिरपेक्षता का अर्थ अपने संस्कारों से दूर होना या धर्मविरोधी होना नहीं
हो सकता।’’ सोमनाथ मंदिर के उदघाटन के वक्त डा. राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि भारत
एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है, लेकिन नास्तिक राष्ट्र नहीं है. डा. राजेंद्र प्रसाद मानते
थे कि उन्हें सभी धर्मों के प्रति बराबर और सार्वजनिक सम्मान प्रदर्शित करना चाहिए।
एक तरफ तो नेहरु डा. राजेन्द्र प्रसाद को सोमनाथ मंदिर में जाने से मना करते रहे लेकिन,
दूसरी तरफ वे स्वयं 1956 के इलाहाबाद में हुए कुंभ मेले में डुबकी लगाने चले गए. नेहरु
के वहां अचानक पहुँच जाने से कुंभ में अव्यवस्था फैली और भारी भगदड़ में करीब 800 लोग
मारे गए। जवाहर लाल नेहरू को
इससे जबरदस्त झटका लगा. उनके इगो को ठेंस पहुंची. उन्होंने इसे अपनी हार मान ली.
राजेन्द्र बाबू के प्रति दुराग्रह :-सोमनाथ मंदिर की वजह से डा. राजेंद्र
प्रसाद और जवाहर लाल नेहरू के रिश्ते में इतनी कड़वाहट आ गई .हद तो तब
हो गई जब 12 वर्षों तक रा्ष्ट्रपति रहने के बाद राजेन्द्र बाबू देश के राष्ट्रपति पद
से मुक्त हुए तो नेहरू ने उन्हें दिल्ली में घर तक नहीं दिया.
राजेंद्र बाबू दिल्ली में रह कर किताबें लिखना चाहते थे. लेकिन, नेहरू ने उनके साथ
अन्याय किया. एक पूर्व राष्ट्रपति को सम्मान मिलना चाहिए, उनका जो अधिकार था उससे
उन्हें वंचित कर दिया गया. आखिरकार, डा. राजेंद्र प्रसाद को पटना लौटना पड़ा. पटना
में भी उनके पास अपना मकान नहीं था. पैसे नहीं थे. नेहरू ने पटना में भी उन्हें कोई
घर नहीं दिया जबकि वहां सरकारी बंगलो और घरों की भरमार है. डा. राजेंद्र
प्रसाद आखिरकार पटना के सदाकत आश्रम के एक सीलन भरे कमरे में रहने लगे. न कोई
देखभाल करने वाला और न ही डाक्टर. उनकी तबीयत खराब होने लगी. उन्हें दमा की बीमारी
ने जकड़ लिया. दिन भर वो खांसते रहते थे. अब एक पूर्व राष्ट्रपति की ये भी तो
दुविधा होती है कि वो मदद के लिए गिरगिरा भी नहीं सकता. लेकिन, राजेंद्र बाबू के
पटना आने के बाद नेहरू ने कभी ये सुध लेने की कोशिश भी नहीं कि देश का पहला
राष्ट्रपति किस हाल में जी रहा है? इतना ही नहीं, जब डा. राजेंद्र प्रसाद की तबीयत खराब रहने लगी, तब भी किसी
ने ये जहमत नहीं उठाई कि उनका अच्छा इलाज करा सके. बिहार में उस दौरान कांग्रेस
पार्टी की सरकार थी. आखिर तक डा. राजेन्द्र बाबू को अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं
मिलीं. उनके साथ बेहद बेरुखी वाला व्यवहार होता रहा. मानो ये किसी के निर्देश पर
हो रहा हो. उन्हें कफ की खासी शिकायत रहती थी. उनकी कफ की शिकायत को दूर करने के
लिए पटना मेडिकल कालेज में एक मशीन थी. उसे भी दिल्ली भेज दिया गया. यानी
राजेन्द्र बाबू को मारने का पूरा और पुख्ता इंतजाम किया गया. एक बार जय प्रकाश नारायण उनसे मिलने
सदाकत आश्रम पहुंचे. वो देखना चाहते थे कि देश पहले राष्ट्रपति और संविधान सभा के
अध्यक्ष आखिर रहते कैसे हैं. जेपी ने जब उनकी हालत देखी तो उनका दिमाग सन्न रह
गया. आंखें नम हो गईं. उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर वो क्या कहें. जेपी
ने फौरन अपने सहयोगियों से कहकर रहने लायक बनवाया. लेकिन, उसी कमरे में रहते हुए
राजेन्द्र बाबू की 28 फरवरी,1963 को मौत हो गई.
राजेन्द्र बाबू के अंत्येष्टि में नेहरू शामिल
नहीं हुए, डा. संपूर्णानंद
को भी रोका :-डा. राजेंद्र प्रसाद की मौत के बाद भी नेहरू का कलेजा नहीं पसीजा. उनकी
बेरुखी खत्म नहीं हुई. नेहरू ने उनकी अंत्येष्टि में शामिल तक नहीं हुए. जिस दिन
उनकी आखरी यात्रा थी उस दिन नेहरू जयपुर चले गए. इतना ही नहीं, राजस्थान के
राज्यपाल डां. संपूर्णानंद पटना जाना चाह रहे थे लेकिन नेहरू ने उन्हें वहां जाने
से मना कर दिया. जब नेहरु को मालूम चला कि संपूर्णानंद जी पटना जाना चाहते हैं तो
उन्होंने संपूर्णानंद से कहा कि ये कैसे मुमकिन है कि देश का प्रधानमंत्री किसी
राज्य में आए और उसका राज्यपाल वहां से गायब हो. इसके बाद डा. संपूर्णानंद ने अपना
पटना जाने का कार्यक्रम रद्द किया. इस मार्मिक और सनसनीखेज तथ्य का खुलासा खुद डा.संपूर्णानंद
ने किया है। संपूर्णानंद जी ने जब नेहरू को कहा कि वे पटना जाना चाहते हैं, राजेन्द्र
बाबू की अंत्येष्टि में भाग लेने के लिए तो उन्होंने (नेहरु) संपूर्णानंद से कहा कि
ये कैसे मुमकिन है कि देश का प्रधानमंत्री किसी राज्य में आए और उसका राज्यपाल वहां
से गायब हो। इसके बाद डा. संपूर्णानंद ने अपना पटना जाने का कार्यक्रम रद्द किया। हालांकि,
उनके मन में हमेशा यह मलाल रहा कि वे राजेन्द्र बाबू के अंतिम दर्शन नहीं कर सके। वे
राजेन्द्र बाबू का बहुत सम्मान करते थे। डॉक्टर सम्पूर्णानंद ने राजेन्द बाबू के सहयोगी
प्रमोद पारिजात शास्त्री को लिखे गए पत्र में अपनी व्यथा व्यक्त करते हुए लिखा था कि
‘‘घोर आश्चर्य हुआ कि बिहार के जो प्रमुख लोग दिल्ली में थे उनमें से भी कोई पटना नहीं
गया, (किसके डर से?) सब लोगों को इतना कौन सा आवश्यक काम अचानक पड़ गया, यह समझ में
नहीं आया, यह अच्छी बात नहीं हुई। यह बिलकुल ठीक है कि उनके जाने न जाने से उस महापुरुष
का कुछ भी बनता बिगड़ता नहीं। परन्तु, ये लोग तो निश्चय ही अपने कर्तव्य से विमुख रहे.
राधाकृष्णन नेहरू की बात न मान अंतिम संस्कार में भाग लिया :- यही नहीं, नेहरु ने राजेन्द्र बाबू के उतराधिकारी
डा. एस. राधाकृष्णन को भी पटना न जाने की सलाह दी. लेकिन, राधाकृष्णन ने नेहरू की बात
नहीं मानी और वो राजेन्द्र बाबू के अंतिम संस्कार में भाग लेने पटना पहुंचे. अजीब देश है, महात्मा गांधी के बगल में संजय
गांधी जैसे को जगह मिल सकती है लेकिन देश के पहले राष्ट्रपति के लिए इस देश में
कोई इज्जत ही नहीं है. ऐसा लगता है कि इस देश में महानता और बलिदान की कॉपी राइट
सिर्फ नेहरू-गांधी परिवार के पास है. संक्षेप में कहने का तात्पर्य यह है कि राष्ट्रपति होने के अतिरिक्त उन्होंने
स्वाधीन भारत में केन्द्रीय मन्त्री के रूप में
भी कुछ समय के लिए काम
किया था। पूरे देश में अत्यन्त लोकप्रिय होने के कारण उन्हें
राजेन्द्र बाबू या देशरत्न कहकर
पुकारा जाता था। पंडित जवाहरलाल
नेहरू, उनकी पीढियाँ और पुरखे भी ऐसे ही षडयंत्रकारी, तानाशाही किस्म की मानसिकता के
और हिन्दूद्वेषी रहे हैं.
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