मैंने अपने 31 अगस्त के ब्लाग
में ‘अधर में’ शीर्षक की कविता लिखी थी। अभी भी मैं उस अनुभव को जी रहा हॅू और शायद
पूरी जिन्दगी इसी ‘अधर मे’ के उधेड़बुन में गुजर जाये। आज का मेरा शीर्षक रहम या ऊपर
वाले का अनुग्रह है। रहम के कई अर्थ होते हैं दया, करूणा,कृपा, अपने व्यक्ति या अपने
से दुर्बल व्यक्ति को दुखी या पीड़ित देखकर उसके कष् या दुख आदि दूर करने का व्यवहार,
रहमत , अनुकंपा और अनुग्रह आदि। रहम ऊपर वाले से है कि वह इतना ताकत दे कि ऊपरवाले
तथा दुनियावाले सभी के द्वारा दिये गये लक्ष्य को पूरी शिद्दत के साथ पूरा कर सकूं।
इन्सान को पिछले जन्म के अनुसार वर्तमान उपलब्धियां मिली है और वर्तमान के अनुसार भविष्य
में मिलेगी। आज जो हालत हमारी है कल वह औरों की हो सकती है। सत्ता व अधिकार स्थाई नहीं
होते । वह अपना रुप अवश्य बदलता है। उसे भी जाने अनजाने कर्मों का फल भोगना पड़ेगा।
दूसरे को नुकसान पहुचाने वाला सदैव सुखी नहीं रह सकता है। इन्ही कर्मफल के कारण हमारे
मनीषियों ने दुनिया में संतुलन स्थापित किया है। इस परिप्रेक्ष्य में दूसरे को कष्ट
देना व उसका समय बरबाद करना ईश्वर के नियमों की अवहेलना होती है। इसकी भरपायी कोई नहीं
कर सकता है।
ऊपर वाले का अनुग्रह या रहम
से कर्म पथ का निर्धारण होता है तथा तदनुरुप कर्मफल को भोगना या काटना पड़ता है। इस
सम्बन्ध में हम कर्म पर भी थोड़ा विचार करना समीचीन समझते हैं। मानव सृष्टि में कर्म
के तीन प्रकार बतलाये गये हैं। 1.संचित, 2.प्रारब्ध और 3.क्रियमाण।
1.संचित कर्म :- जो दबाव में, बेमन से, परिस्थितिवश किया जाए ऐसे कर्मों का फल
1000 वर्ष तक भी संचित रह जाता है। इस कर्म को मन से नहीं किया जाता। इसका फल हल्का
धुंधला और कभी-कभी विपरीत परिस्थितियों से टकराकर समाप्त भी हो जाता है।
2.प्रारब्ध कर्म
:- तीव्र मानसिकता पूर्ण मनोयोग से योजनाबद्ध तरीके से तीव्र विचार एवं भावनापूर्वक
किये जाने वाले कर्म। इसका फल अनिवार्य है, पर समय निश्चित नहीं है। इसी जीवन में भी
मिलता है और अगले जन्म में भी मिल सकता है।
3.क्रियमाण कर्म :- क्रियमाण कर्म शारीरिक होता हैं, जिनका फल प्रायः साथ के साथ
ही मिलता रहता है। शरीर जड़ तत्त्वों का बना हुआ है। भौतिकतत्त्व स्थूलता प्रधान होते
हैं। उसमें तुरंत ही बदला मिलता है। नशा पिया कि उन्माद आया। विष खाया तो मृत्यु हुई।
अग्नि के छूते ही हाथ जल जाता है। नियम के विरुद्ध आहार विहार करने पर रोगों की पीड़ा
का, निर्बलता का अविलम्ब आक्रमण हो जाता है और उसकी शुद्धि भी शीघ्र हो जाती है। क्रियमाण
कर्म का स्वरूप मनुष्य की स्वयं कार्य करने की इच्छा पर निर्भर है। ईश्वर ने प्रत्येक
जीव को कार्य करने की स्वतंत्रता दी है। इसमें जीव तनिक भी परतन्त्र नहीं हैं। क्रियमाण कर्म में व्यक्ति अत्यधिक मदिरा पीकर,
अपनी बुरी स्थिति में रखी हुई गाडी को यदि तीव्र ढलानवाली पहाडी पर बहुत तेज चलाता
है तो गाडी चलाते समय सडक पर फिसल कर दुर्घटनाग्रस्त होगी।यह अनुचित क्रियमाण के कारण
हुई दुर्घटना कही जाएगी।
विभिन्न कर्मों
का प्रतिशत :- अध्यात्मशास्त्र के अनुसार
हमारे जीवन का 65% प्रारब्ध से तथा शेष 35% क्रियमाण कर्म से नियंत्रित होता है। किंतु
हम अपने 35% क्रियमाण कर्म से उचित साधना करके 65% प्रारब्ध पर विजय प्राप्त कर सकते
हैं। जो हमारे हाथ में नहीं होता उसे प्रारब्ध कहते हैं। जीवन का जो भाग हमारे नियंत्रण
में हो उसे क्रियमाण कर्म कहते हैं। इन कर्मों का फल भी अनिवार्य रुप से मिलता है।
जैसे गर्भ के बालक का जन्म होना अनिवार्य है। भगवान राम ने बालि को छुपकर मारा था,
फिर कृष्ण रूप में अवतरित हुए श्रीराम को बहेलिये के रूप में बालि ने मारा था। भीष्म
पितामह का मृत्युशैय्या पर द्रौपदी के साथ संवाद में बताना कि शरीर में तीरों के द्वारा
रक्त रिसना कर्मफल है। राजा दशरथ का पुत्र शोक में प्राण त्यागना भी उनका कर्मफल था।
कर्मफल से भगवान भी नहीं बचते तो सामान्य मनुष्य की बात क्या? कर्मों की प्रकृति के
आधार पर ही उसका फल सुनिश्चित होता है।
मनुष्य को कर्म
चुनने की आजादी :- भगवान ने मनुष्य को भले
या बुरे कर्म करने की स्वतंत्रता इसलिए प्रदान की है कि वह अपने विवेक को विकसित करके
भले-बुरे का अंतर करना सीखे और दुष्परिणामों के शोक-संतापों से बचने एवं सत्परिणामों
का आनंद लेने के लिए स्वत अपना पथ निर्माण कर सकने में समर्थ हो। इस आत्मविकास पर ही
जीवनोद्देश्य की पूर्ति और मनुष्य जन्म की सफलता अवलम्बित है। इसके बावजूद उसने कर्मफल
दंड विधान की व्यवस्था कदम कदम पर बना भी रखी है। यों समाज में भी कर्मफल मिलने की
व्यवस्था है और सरकार द्वारा भी उसके लिए साधन जुटाए गए हैं।
पाप छिप नहीं सकता :- सरकार और समाज से पाप को छिपा लेने पर भी आत्मा और परमात्मा
से उसे छुपाया नहीं जा सकता। इस जन्म या अगले जन्म में हर बुरे-भले कर्म का प्रतिफल
निश्चित रूप से भोगना पड़ता है। ईश्वरीय कठोर व्यवस्था उचित न्याय और उचित कर्मफल के
आधार पर ही बनी हुई है। कर्मफल एक ऐसा अमिट तथ्य है जो आज नहीं तो कल भोगना ही पड़ेगा।
कभी-कभी इन परिणामों में देर इसलिए होती है कि ईश्वर मानवीय बुद्धि की परीक्षा करना
चाहता है कि व्यक्ति अपने कर्त्तव्य व धर्म समझ सकने और निष्ठापूर्वक उनका पालन करने
लायक विवेक बुद्धि संचित कर सका या नहीं। जो दंड भय से डरे बिना दुष्कर्मों से बचना
मनुष्यता का गौरव समझता है और सदा सत्कर्मों तक ही सीमित रहता है। इसे यह समझना चाहिए
कि उसने सज्जनता की परीक्षा पास कर ली और पशुता से देवत्व की ओर बढ़ने का शुभारंभ कर
दिया।
अच्छे कर्म का
फल :- अच्छे कर्म करने वाले व्यक्ति को ईश्वर
की तरफ से सदा सुख, शान्ति, प्रेम, सहयोग, उत्साह, प्रेरणा आदि मिलते हैं। किन्तु परिवार,
समाज की ओर से कभी-कभी सुख, सहयोग, प्रेम, सान्त्वना के विपरीत भय, तिरस्कार, घृणा,
उपेक्षा, विरोध, निन्दा, अन्याय आदि भी प्राप्त होते हैं। एसे बुरे कर्म करने वाले
व्यक्ति को ईश्वर की ओर से सदा दुखादि ही मिलते हैं, किन्तु परिवार, समाज के व्यक्ति
के द्वारा कभी-कभी ऐसे व्यक्ति को सुख, सहयोग, प्रेम आदि भी मिलते हैं। अच्छे कार्यों
को करना, सत्य व आदर्श पर चलना स्वभावत परिश्रम साध्य, कष्टकर होता है। इसके विपरीत
बुरे कार्यों को करने व असत्य, अनादर्श मार्ग पर चलने में कोई विशेष पुरुषार्थ आदि
की अपेक्षा नहीं होती है। अच्छे कामों को करने वाले आदर्श व्यक्तियों को जो कष्ट, बाधा
आदि का सामना करना पड़ता है, उसे अच्छे कर्मों का फल तो नहीं मानना चाहिये किन्तु इन
कष्टों, बाधाओं को अच्छे कर्मों का परिणाम, प्रभाव कहा जा सकता है। किया हुआ अधर्म
धीरे-धीरे कर्ता के सुखों को रोकता हुआ सुख के मूलों को काट देता है। इसके पश्चात अधर्मी
दुख ही दुख भोगता है। इसलिए यह कभी नहीं समझना चाहिए कि कर्ता का किया हुआ कर्म निष्फल
होता है। बुरा कर्म करने का फल तो कर्ता को समय पर ईश्वर से मिलेगा। किन्तु उस बुरे
कर्म का परिणाम व प्रभाव दुख रूप में अन्य व्यक्तियों पर भी पड़ सकता है।
अज्ञानता को कोई
छूट नही :- अज्ञान से किए गए कर्मों
का भी फल ईश्वर द्वारा मिलता है, चाहे वे अच्छे हों या बुरे। ईश्वर को न जानने वाला
अज्ञानी व्यक्ति गलत कार्य करे तो वह दोषी माना जाएगा और दण्ड का भागी होगा। जिस समाज
में हम रह रहे हैं उसके नियमों को जानना हमारा कर्तव्य है। वैसे ही जिस संसार-साम्राज्य
में हम रह रहे हैं उसके नियम संविधान (वेद) को जानना हमारा कर्तव्य है।
कर्मों को निष्काम
बनाना :- कर्मों को निष्काम बनाने की विधि
बहुत ही सरल है। बस कर्मों के लौकिक फल की इच्छा समाप्त करते ही कर्म निष्काम बन जाते
हैं। फिर कोई भी काम का नफा नुकसान व्यक्त विशेष काना होकर समाज का हो जाता है और उसमें
त्रुटियों की सभावना कम हो जाती है। किसी भी परिस्थिति में झूठ, हिंसा, चोरी आदि यम-नियम
विरुद्ध आचरण करना शुभ कर्म नहीं होता।
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