Friday, September 1, 2017

उत्तरी-पश्चिमी प्रदेश आगरा के उच्च न्यायालय की दास्तान -डा. राधेश्याम द्विवेदी एडवोकेट

                agra high court building के लिए चित्र परिणाम

सन् 1834 से 1861 के बीच की अवधि में अर्थात भारतीय उच्च न्यायालय अधिनियम के लागू होने से पहले भारत में दो प्रकार के न्यायालय कार्यरत थे। यह थे सम्राट के न्यायालय और कंपनी के न्यायालय, जिनके अधिकार क्षेत्र भिन्न थे और जिन्होंने दोहरी न्याय प्रणाली को जन्म दिया था। इन दो प्रकार के न्यायालयों को एकीकृत करने के प्रयास सन् 1861 के बहुत पहले ही प्रारंभ हो गये थे। सन् 1858 में ईस्ट इंडिया कंपनी को भंग कर दिया गया और ब्रिटिश सम्राज्ञी द्वारा भारत के शासन को प्रत्यक्ष रूप से संभालने की नीति ने दो प्रकार के न्यायालयों के एकीकरण की समस्या का निराकरण बहुत आसान कर दिया। सभी लोगों पर लागू होने वाली भारतीय दंड संहिता तथा दीवानी और आपराधिक प्रक्रिया संहिताऍं पारित की गई तथा तत्कालीन उच्चतम न्यायालयों और सदर अदालतों का समामेलन न्यायिक प्रशासन में एकरूपता लागू करने का अगला कदम था। इस लक्ष्य की प्राप्ति ब्रिटिश संसद द्वारा सन् 1861 में पारित भारतीय उच्च न्यायालय अधिनियम (24 और 25 विक्टो 0 C 104) द्वारा हुई, जिससे ब्रिटेन की महारानी को उच्चतम न्यायालयों तथा सदर अदालतों को समाप्त करने और उनकी जगह बम्बई,कलकत्ता एवं मद्रास की तीनों प्रेसीडेंसियों में एक-एक उच्च न्यायालय जिसे प्रेसीडेंसी नगरों तथा मोफस्सिल के भी सभी न्यायालयों में सर्वोच्च होना था, के गठन का अधिकार दिया गया । उक्त विधेयक पेश करने के समय सर चार्ल्स वुड ने ब्रिटिश संसद में कहा था कि संपूर्ण देश में केवल एक सर्वोच्च न्यायालय होगा तथा दो के बजाय केवल एक अपील न्यायालय होगा और चूंकि कनिष्ठ न्यायालयों में न्यायिक प्रशासन उन निर्देशों पर आधारित होता है जो उनके द्वारा ऊपर की अदालतों में भेजी गई अपीलों का निस्ताररण करते समय जारी किये जाते है, अत: मुझे आशा है कि इस प्रकार गठित उच्चतर न्यायालय सामान्य रूप से पूरे भारत में न्यायिक प्रशासन में सुधार लाऍंगे।
इसी अधिनियम की धारा 16 के द्वारा क्राउन को ब्रिटिश भारत में किसी अन्य उच्च न्यायालय का गठन करने का अधिकार भी दिया गया था। उक्त धारा के द्वारा प्रदत्त शक्तियों के आधार पर क्राउन ने लेटर्स पेटेंट के द्वारा फोर्ट विलियम की प्रेसीडेंसी के उत्तरी-पश्चिमी प्रदेशों के लिये एक उच्च न्यायालय का गठन सन् 1966 में आगरा में किया। इसे उत्तरी-पश्चिमी प्रदेशों के लिए उच्च न्यायालय की संज्ञा दी गयी जिसके मुख्य न्यायाधीश सर वाल्टर मोर्गन तथा अन्य पांच न्यायाधीशों के नामों का उल्लेख स्वयं चार्टर में था। उच्च न्यायालय का गठन अभिलेख न्यायालय के रूप में किया गया था (खंड-1) । इसकी स्थापना के साथ ही आगरा प्रदेश में पिछले 35 वर्षो से कार्य कर रही सदर दीवानी अदालत और सदर निजाम अदालत को समाप्त कर दिया गया और उच्च न्यायालय अपने लेटर्स पेटेंट और उक्त अधिनियम की धारा 16 और 9 के आधार पर सभी अपीलीय और प्रशासनिक शक्तियों से सम्पन्न हो गया तथा अन्य न्यायालयों के प्राधिकार और अधिकारिताऍं समाप्त हो गयीं। अपने लेटर्स पेटेंट द्वारा उच्च न्यायालय कुछ विशेष मामलों में उन शक्तियों और प्राधिकारों से भी सम्पन्न किया गया जो कलकत्ता उच्च न्यायालय के पास थीं। इन विशेष मामलों में शामिल थे वकीलों के विरूद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाहियॉं (खंड-18), अवयस्कों एवं भ्रान्तचित्त व्यक्तियों के अधिकारों का संरक्षण (खंड-12), वसीयतयुक्त और वसीयत विहीन मामलों में उत्तराधिकार (खंड-25) तथा वैवाहिक मामले (खंड-26)। हालांकि विवाह विषयक अधिकारिता का प्रयोग इस उच्च न्यायालय द्वारा ब्रिटिश महारानी की ईसाई प्रजा के लिए ही किया जा सकता था।
इस उच्च न्यायालय को दीवानी मामलों में मौलिक क्षेत्राधिकार नहीं दिया गया था तथा लेटर्स पेटेंट खंड 15 के द्वारा इसे प्रदत्त सामान्य आरंभिक आपराधिक अधिकारिता भी उत्तरी-पश्चिमी प्रदेशों के निवासी यूरोपीय ब्रिटिश प्रजाजन तक ही सीमित थी जो इस उच्च न्यायालय की स्थापना के पहले कलकत्ता उच्च न्यायालय की सामान्य आरंभिक आपराधिक अधिकारिता के अधीन रहे थे। अपनी सामान्य आरंभिक आपराधिक अधिकारिता का प्रयोग करते हुए उच्च न्यायालय विधि के सम्यक अनुक्रम में अपने समक्ष लाए गए उपर्युक्त किसी भी व्यक्ति के संबंध में परीक्षण कर सकता था (खंड-16) और इस शक्ति के अंतर्गत उच्च न्यायालय उत्तरी-पश्चिमी प्रदेशों से बाहर के निवासी यूरोपीय-ब्रिटिश प्रजाजन के विषय में भी विचारण कर सकता था किन्तु उच्च न्यायालय को दीवालिया प्रकृति के वादों तथा नौसेना विधि से संबंधित वादों के श्रवण का अधिकार नहीं था।
अपनी असाधारण आरंभिक सिविल अधिकारिता (खंड-9) के रूप में उच्च न्यायालय को यह अधिकार दिया गया था कि वह किसी भी दीवानी मामले को अपने किसी अधीनस्थ न्यायालय से हटाकर उस पर स्वयं विचारण करके निर्णीत कर सकता था। उसे अपनी अपीलीय अधिकारिता के प्रयोग के अंतर्गत सदर अदालतों की तरह अपने अपीली अधिकारिता क्षेत्र में आने वाले न्यायालयों के निर्णयों के विरूद्ध अपीलें सुनने के लिए प्राधिकृत किया गया था। (खण्ड 11 एवं 50) इसके दो न्यायाधीशों की खंडपीठ के सम्मुख अपने ही न्यायालय के एकल न्यायाधीश द्वारा निर्णीत सिविल मामलों की अपीलों पर सुनवाई हो सकती थी (खंड-10)। उच्च न्यायालय को अपने अधीनस्थ आपराधिक न्यायालयों के निर्णयों के संबंध में निर्देश न्यायालय तथा पुनरीक्षण न्यायालय भी बनाया गया (खंड-21)। इसे किसी भी आपराधिक मामले या अपील को एक न्यायालय से दूसरे न्यायालय में स्थानान्तरित करने की शक्ति भी दी गई (खंड-21)। किन्तु सन् 1950 तक इस उच्च न्यायालय के पास रिट याचिका जारी करने की शक्ति नहीं थी क्योंकि न तो यह सर्वोच्च न्यायालय का उत्तराधिकारी था और न ही यह शक्ति इसे लेटर्स पेटेंट या सन् 1877 के अधिनियम विनिर्दिष्ट अनुतोष की धारा 45 द्वारा प्रदान की गई थी।
इस न्यायालय द्वारा असाधारण आरंभिक सिविल अधिकारिता के प्रयोग में लागू की जाने वाली साम्या विधि (equity) वही थी जो इसके अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा लागू की जाती थी (खंड-13) और इसकी सिविल अपीलीय अधिकारिता के प्रयोग में लागू की जाने वाली साम्याविधि और शुद्ध अंत:करण (good conscience) की विधि को ठीक वैसा ही होना था जैसी कि वह अधीनस्थ न्यायालयों के कार्य में प्रयुक्त होती थी (खंड-14)। अंग्रेजी विधि भारत में स्वयमेव लागू नहीं होती थी। अपितु वह यहां साम्या और शुद्ध अंत:करण के नियमों को उपलब्ध कराकर प्रयुक्त होती थी और वह भी तब जब भारतीय समाज और परिस्थितियों के संदर्भ में उसे उपयोगी पाया जाता था।
उच्च न्यायालय को आरंभिक फौजदारी न्यायालय एवं अपीलीय पुनरीक्षण तथा निर्देश न्यायालय के रूप में अपनी अधिकारिता के प्रयोग क्रम में किसी अपराध के लिए व्यक्ति को भारतीय दंड संहिता के प्रावधानों के अंतर्गत दंडित करने के लिए आदेशित किया गया था (खंड-23) इसके अतिरिक्त यह भी आदेशित किया गया था कि अपनी असाधारण आरंभिक फौजदारी अधिकारिता (खंड-15) के प्रयोग क्रम में उच्च न्यायालय द्वारा विचारित सभी फौजदारी मामलों में कार्यवाहियों का नियमन लेटर्स पेटेंट वर्ष 1866 के प्रकाशन के ठीक पहले कलकत्ता उच्च न्यायालय में उपयोग की जाने वाली ‘आपराधिक प्रक्रिया और प्रचलन’ के अनुसार किया जाएगा और अन्य सभी आपराधिक मामलों में कार्यवाहियों का नियमन दंड प्रक्रिया संहिता 1861 या ऐसी अन्य विधियों द्वारा होगा जो सपरिषद गवर्नर जनरल द्वारा इस उद~देश्य से निर्मित की गई हैं अथवा भविष्य में निर्मित होंगी (खंड-29)।
भारतीय उच्च न्यायालय अधिनियम 1861 की धारा 15 द्वारा (24 और 25 विक्टो0C 104) और भारत शासन अधिनियम 1915 के द्वारा उच्च न्यायालयों को अपनी अपीलीय अधिकारिता से संबंधित सभी न्यायालयों पर अधीक्षण की शक्ति से सम्पन्न बनाया गया और उस सीमा तक विवरिणियां मँगाने, किसी वाद या अपील को एक अधीनस्थ न्यायालय से दूसरे में स्थानान्तरित करने तथा ऐसे न्यायालयों की कार्यवाहियों और परिपाटी को नियमित करने के लिए सामान्य नियम बनाने और जारी करने तथा प्रारूप विहित करने की शक्ति उन्हें दी गई। दीवानी मामलों के स्थानान्तरण की उस शक्ति को छोड़कर, जो सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 24 में समाविष्ट हैं, उच्च न्यायालयों की यह शक्तियॉं भारत शासन अधिनियम 1935 (धारा 224) तथा भारत के संविधान (अनुच्छेद 227) द्वारा आगे भी जारी रहीं।
उत्तरी-पश्चिमी प्रदेशों के लिए उच्च न्यायालय का स्थान सन् 1869 में आगरा से इलाहाबाद स्थानान्तरित कर दिया गया और सन् 1919 में 11 मार्च को जारी एक पूरक लेटर्स पेटेंट द्वारा इसका पदनाम बदलकर इलाहाबाद उच्च न्यायालय (द हाईकोर्ट आफ जूडीकेचर ऐट इलाहाबाद) कर दिया गया। यही पदनाम आज तक प्रयुक्त हो रहा है। यही पदनाम आज तक प्रयुक्त हो रहा है.सन् 1911 के उच्च न्यायालय अधिनियम के अंतर्गत प्रत्येक उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की अधिकतम संख्या को 16 से बढ़ाकर 20 कर दिया गया जिसमें मुख्य न्यायाधीश भी शामिल था तथा न्यायाधीशों को भारत के राजस्व से वेतन देने का प्रावधान किया गया. आगरा जिला जज का न्यायालय का  वर्तमान भवन ही पहले हाई कोर्ट का भवन हुआ करता था।  इसी भवन में 01.001.1832 से सदर दिवानी अदालत तथा सदर निजाम अदालत भी चल चुका है। इस भवन का सुधार तथा पुनरुद्धार 2013 में हुआ है।अब यह जिला जज का न्यायालय है।
सन् 1911 के उच्च न्यायालय अधिनियम के अंतर्गत प्रत्येक उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की अधिकतम संख्या को 16 से बढ़ाकर 20 कर दिया गया जिसमें मुख्य न्यायाधीश भी शामिल था तथा न्यायाधीशों को भारत के राजस्व से वेतन देने का प्रावधान किया गया।11 मार्च 1919 से इलाहाबाद में महकमा के उच्च न्यायालय में बदल गया था। 2 नवंबर 1925 पर अवध न्यायिक आयुक्त के न्यायालय में अवध के मुख्य न्यायालय द्वारा बदल दिया गया था लखनऊ 1925 के अवध सिविल न्यायालय अधिनियम की पूर्व मंजूरी के साथ संयुक्त प्रांत विधानमंडल द्वारा पारित द्वारा गवर्नर जनरल इस अधिनियम के पारित। 25 फरवरी 1948 अवध के मुख्य न्यायालय इलाहाबाद उच्च न्यायालय के साथ समामेलित किया गया था।
             दीवानी आगरा के वरिष्ठ अधिवक्ता दुर्गविजय सिंह भैया का कहना है कि मार्च 1866 में यूपी के हाईकोर्ट की स्थापना आगरा में की गई थी। आजादी के समय आगरा की देश में अग्रणी भूमिका रही थी। यहां सारे दस्तावेज भी मौजूद थे जिसके चलते कलकत्ता के एक न्यायाधीश की टिप्पणी, कि हाईकोर्ट को एक शांत स्थान पर कुछ समय के लिए स्थानांतरित किया जाए। इसके बाद 1869 में हाईकोर्ट को इलाहाबाद में अस्थायी रूप से स्थानांतरित किया गया था। सन 1966 में यूपी के हाईकोर्ट की 100 वीं वर्षगांठ मनाई गई थी। इस वर्षगांठ का प्रथम आयोजन आगरा में मनाया गया था। इसमें हाईकोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश नसीर उल्ला बेग ने भी शिरकत की थी। यह आयोजन तीन दिनों तक चला था। हाईकोर्ट की 100 वीं साल पूरी करने पर दीवानी परिसर जश्न में डूबा हुआ था। इस जश्न में आगरा के अधिवक्ताओं के साथ आगरा के प्रबुद्धजन भी शामिल रहे थे।






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